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________________ मांसाहार निषेधक विश्व-मनीषा 卐 जिस प्रकार तुम्हें दुख प्रिय नहीं है, वैसा ही दूसरे प्राणियों के सम्बन्ध में जानो । किसी भी प्राणी का घात करना स्वयं अपना घात करना है। दूसरों पर दया करना, स्वयं अपने ऊपर दया करना है। भोजन जिह्वा के स्वाद के लिए नहीं खाया जाता-शरीर की रक्षा के लिए खाया जाता है। मांस-भक्षण, मद्यपान, पशु-पक्षियों का शिकार, चोरी, द्यूतक्रीड़ा (जुआ खेलना) और व्यभिचार भारी पाप हैं, जो मनुष्य की दुर्गति कराते हैं । -जिनागम हे मित्र ! जो पशु का मांस खाते हैं, उनके सिर फोड़ डालो। हे अग्नि ! मांस भक्षण करने वालों को अपने मुंह में रख लो। -ऋग्वेद जो लोग अण्डे और मांस खाते हैं, मैं उन दृष्टों का नाश करता हूं। -अथर्ववेद पशु-पक्षी आदि का बध करने वाला, उनके शरीर को काटने वाला, मांस का बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला, खरीदने वाला, दूसरों को देने वाला, खाने वाला और ऐसे कार्यों का अनुमोदन करने वाला ये सब घातक, दुष्ट और पापी हैं। --मनुस्मृति जो लोग नाना प्रकार के अमृतोपम शाकाहारी पदार्थों को छोड़कर मांस आदि घृणित पदार्थों को खाते हैं, वे सचमुच राक्षसों जैसे लगते हैं। जो व्यक्ति दूसरों के मांस से अपना शरीर बढ़ाना चाहता है, उस निर्दयी से बढ़कर शूद्र अन्य कोई नहीं है। -महामारत अनु० पर्व मांस दुर्गन्धित पदार्थ है, म्लेच्छों द्वारा सेवित है, आर्यजनों द्वारा त्याज्य है । आर्य (श्रेष्ठ) जन मांस एवं रक्त का आहार नहीं करते, क्योंकि वह अभक्ष्य और घृणित पदार्थ हैं। मांस-भक्षण से साधुत्व अथवा ब्राह्मणत्व नष्ट हो जाता है। मांसाहारी दूसरों के प्राणों को बलपूर्वक लेने के कारण डाकू के समान है। जो व्यक्ति लोभवश दूसरों के प्राण हरते हैं अथवा मांस के उत्पादन में धनादिक से योग देते हैं, वे पापी हैं, दुष्ट हैं, घोर नरक में जाकर महादुःख उठाते हैं । मैं मानता है कि जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों का मांस खाता है, वह वास्तव में अपने पुत्र का मांस खाता है। -भगवान बुद्ध, लंकावतारसूत्र जो कोई किसी जानवर को मारेगा, उसे परमात्मा क्षमा नहीं करेगा। हे पवित्र मानव ! परमात्मा की यह आज्ञा है कि धरती का मुख रुधिर, मैल और मांस से अपवित्र न किया जाय । -जरथुश्त ईसा पूर्व छठी शती के लगभग यूनान में पाइथेगोरस नामक मनीषी ने अहिंसा और शाकाहार का प्रचार किया था । पाइथेगोरस और उसके अनुयायी पूर्णतया शाकाहारी थे। . -पाइथेगोरस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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