SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११] य एव षड्जीव - निकाय - विस्तरः परैरनालीढ अनेक सर्वज्ञ - परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादोदय सोत्सवाः पथस्त्वयोदितः । स्थिताः ॥ - सिद्धसेनाचार्यः श्री मुखालोकनादेव श्रीमुखालोकनं भवेत । आलोकनविहीनस्य तत्सुखावाप्तयत् कुतः ॥ अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य, देव त्वदीय चरणाम्बुज वीक्षणेन । अद्य त्रिलोक तिलक प्रतिभासते मे, संसारवारिधिरियं चुलक प्रमाणम् ॥ अद्य मे क्षालितं गात्रं नेत्रे च विमली कृते । स्नातोऽहं धर्मतीर्थेषु जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ नमो नमः सत्त्वहितंकराय, वीराय भव्याम्बुजभास्कराय । अनन्तलोकाय सुरार्चिताय देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥ देवाधि देव परमेश्वर वीतराग । सर्वज्ञ तीर्थकर सिद्धमहानुभाव ॥ त्रैलोक्यनाथ जिनपुंगव वर्द्धमान | स्वामिन् गतोऽस्मि शरणं चरणद्वयं ॥ जयतुजिन वर्द्धमानस्त्रिभुवनहित धर्मचक्र नीरज बन्धुः । त्रिदशपति मुकुटभासुर चूडामणि रश्मिरंजितारुण चरणः ॥ हे वीर जिन ! छ :काय के जीवों का जो विस्तार आपने प्रतिपादित किया है, वैसा कोई अन्य नहीं कर सका। अतएव जो लोग सर्वज्ञत्व की परीक्षा करने में समर्थ हैं, वे बड़े प्रसन्न चित्त से आपके भक्त बने हैं। Jain Education International आज भगवान जिनेन्द्रदेव के श्रीमुख का दर्शन करने मात्र से मुक्ति रूपी लक्ष्मी के दर्शन हो गये । जो भगवमुख का दर्शन नहीं करते, उन्हें यह सुख कैसे प्राप्त हो सकता है । हे देव ! आपके चरण कमलों का दर्शन करने से मेरे नेत्र सफल हो गये । हे त्रिलोक-तिलक आज यह संसार-सागर मुझे चुल्लू भर पानी के समान जान पड़ता है । हे जिनेन्द्र ! आज आपका दर्शन करने से मेरा शरीर प्रवित्र हो गया, मेरे दोनों नेत्र निर्मल हो गये, आज मैने धर्मरूपी तीर्थ में स्नान कर लिया । जो भगवान वर्द्धमान समस्त प्राणियों का हित करने वाले हैं, प्रफुल्लित करने वाले हैं, अनन्त लोकालोक को देखने वाले हैं, महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार हो ! हे देवाधिदेव ! हे परमेश्वर ! हे वीतराग ! हे सर्वज्ञ ! हे तीर्थंकर ! हे सिद्ध ! हे महानुभाव ! हे त्रिलोकीनाथ ! हे जिनवरश्रेष्ठ वर्द्धमान स्वामी! मैं आपके युगल चरण कमलों की शरण को प्राप्त होता हूँ । वे वर्द्धमान जिनेन्द्र जो तीनों लोकों का हित करने वाले धर्मचक्र रूपी कमल के लिये सूर्य हैं और जिनके भव्य रूपी कमलों को सूर्य के समान देवों द्वारा पूजित हैं, उन देवाधिदेव For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy