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उत्तर प्रदेश के जैन पत्र और पत्रकार
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गत लगभग डेढ़ शताब्दी के पुनरुत्थान युग में सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने का एक बहुत बड़ा साधन पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं प्रचार रहा है । जैन समाज एक अति अल्पसंख्यक समाज होते हुए भी एक अधिकांशतः मध्य वित्त, शिक्षित एवं प्रबुद्ध समाज रही है, अतः इस आधुनिक प्रचार साधन का जैनों ने भी पर्याप्त प्रयोग एवं उपयोग किया है और स्वयं अपनी अनेक उत्तम पत्र-पत्रिकाएँ निकालने तथा सफलता पूर्वक उनके संचालन के अतिरिक्त सार्वजनिक क्षेत्र की पत्रकारिता को भी कई श्रेष्ठ पत्रकार प्रदान किये हैं ।
पत्रकारिता और छापेखाने ( मुद्रणकला) का प्रायः अविनाभावी सम्बन्ध है । सर्वप्रथम ज्ञात मुद्रित पुस्तक ८६८ ई० में चीन में छपी थी, १५वीं शती के मध्य के लगभग युरोप (जर्मनी) में मुद्रण का प्रारम्भ हुआ और भारतवर्ष का सर्वप्रथम छापाखाना गोआ में १५५६ ई० में स्थापित हुआ था, जिसमें उसी वर्ष लातीनी भाषा में ईसाई धर्म की एक पुस्तक छपी थी । भारतीय भाषाओं में १६१६ ई० में रायतूर के छापेखाने में छपी मराठी भाषा की क्राइस्टपुराण नामक पुस्तक थी, और हिन्दी की सर्वप्रथम छपी पुस्तक बम्बई के कुरियर प्रेस में १८२३ ई० में मुद्रित विदुरनीति थी । हिन्दी भाषा और नागरी लिपि में मुद्रित सर्वप्रथम जैन पुस्तक पं. बनारसीदास कृत साधुवन्दना १८५० ई० में आगरा में छपी थी।
सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में भारतवर्ष का सर्वप्रथम समाचारपत्र १७०० ई० में प्रकाशित अंग्रेजी भाषा का बंगाल गजट था, उर्दू का सर्वप्रथम अखबार जाम- इ - जहांनुमा १८२२ में, और हिन्दी का उदन्त मार्त्तण्ड १८२६ में कानपुर से प्रकाशित हुआ था । जैनों का सर्वप्रथम ज्ञात समाचारपत्र गुजराती मासिक जैन- दिवाकर १८७५ ई० में अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ, और हिन्दी का सर्वप्रथम जैन पत्र साप्ताहिक 'जैन' १८८४ ई० में फर्रुखनगर से प्रकाशित हुआ था । उत्तर प्रदेश का सर्वप्रथम जैन पत्र सम्भवतया दिगम्बर जैन महासभा द्वारा मथुरा से १८९४ ई० में प्रकाशित साप्ताहिक हिन्दी 'जैनगजट' था, जो अब तक बराबर चालू यद्यपि अब अनेक वर्षों से वह अजमेर से प्रकाशित होता है । उत्तर प्रदेश से ही अंग्रेजी की सर्वप्रथम पत्रिका 'जैन गजट' १९०४ ई० में निकलना प्रारम्भ हुई और लगभग ५० वर्षों तक चलती रही ।
इस प्रकार लगभग एक सौ वर्ष पूर्व जैन पत्र-पत्रिकाओं का निकलना जो प्रारम्भ हुआ तो उनकी संख्या एवं विविधता में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई । श्री अगरचन्द नाहटा ने १९३८ ई० ( जैन सिद्धान्त भास्कर, भा. ५ कि. १ पृ. ४२-४५ ) में जो सर्वेक्षण दिया था उसके अनुसार तब तक लगभग ११० जैन - पत्र-पत्रिकाएँ निकलकर भूतकालीन बन चुकी थीं और ६६ उस समय वर्तमान थीं। सन् १९५८ में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'प्रकाशित जैन साहित्य' की प्रस्तावना (पृ.६३, ६५-६७ ) में हमने सूचित किया था कि तब तक लगभग २५० जैन सामायिक पत्रपत्रिकाएँ निकल चुकी थीं जिनमें से लगभग १५० तो अस्तगत हो चुकी थीं और लगभग १०० चालू थीं । वर्तमान में ऐसा अनुमान है कि गत सौ वर्षों के बीच हिन्दी, गुजराती, मराठी, कन्नड, तामिल, बंगला, उर्दू और अंग्रेजी
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