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*:-AVMYAVAN
भावेण सदहंतस्स सम्मत्तंतु वियाहियं ज्ञान (भाव) पूर्वक तत्त्वों का श्रद्धान करने पर सम्यक्त्व प्रकट होता है।
णाणस्स सव्वस्स पगासणाए ... ज्ञान समस्त पदार्थों को प्रकाशित (प्रत्यक्ष) करता है।
णाणं णरस्स सारं, सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं ज्ञान मनुष्य का सार है, और सम्यक्त्व भी मनुष्य का सार है। चारित्तं खलु धम्मो, जो सो समोत्ति णिद्दिट्ठो।
मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥ परमार्थ से चारित्र ही धर्म है, और वह समत्व रूप बताया गया है । आत्मा का मोह-क्षोभ विहीन परिणाम ही समत्व या समता भाव है।
चरणं हवइ सधम्मो, धम्मो सो हवइ समभावो चारित्र स्वधर्म (आत्मधर्म) है । आत्मा का समभाव ही चारित्र कहलाता है।
नत्थिचरितं सम्मतविरुणं सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं होता।
समवण्णा होइ चारित्तं ज्ञान और दर्शन (सम्यक्त्व) के समायोग से चारित्र होता है ।
जो पुण चरित्तहीणो किं तस्स सुदेण बहुएण जो चारित्र से हीन है, उसके बहुत शास्त्रों के जानने से भी क्या लाभ है।
पाणिवह-मुसावाद-अदत्त-मेहुण-परिग्गहा विरदो ।
एस चरित्ताचारो पंचविहो होदि णादवो॥ प्राणीवध (हिंसा), मृषावाद (झूठ), अदत्तग्रहण (चोरी), मैथुन और परिग्रह, इन पांचों से विरक्त होना पाँच प्रकार का चारित्र है।
पाणे य नाइवाएज्जा, अदिन्नं पि य नायए।
साइयं न मुसंव्या, एस धम्मे वसीमओ॥ किसी भी प्राणी की हिंसा न करे, किसी की भी बिना दी हुई वस्तु न ले, विश्वासघातक असत्य न बोले- यह आत्मनिग्रही जनों का धर्म है।
खमादि भावो य दहविहो धम्मो क्षमादि भावरूप दश प्रकार का धर्म है।
MAMATTATE
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