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भौतिकता और मानवीयता की दृष्टि से भी जीबदवा एवं मूक पशुपक्षियों के प्रति करुणा भाव को सभी चिन्तक एवं विचारक स्तुत्य घोषित करते हैं। जैनों का तो यह धर्म ही है, जो उनके विचार एवं आचार में प्रत्यक्ष होता है-यदि कहीं ऐसा नहीं होता तो वह जैन कहलाने का अधिकारी नहीं है। जैनों के अतिरिक्त, भारतवर्ष में तथा यूरोप, अमरीका आदि अनेक पश्चिमी देशों में भी कई सशक्त संगठन जीवदया, पशुवर्ग व रुग्णों के प्रति करुणा पूर्ण बर्ताव और शाकाहार का विधिवत-व्यवस्थित प्रचार करते हैं। १९५७ में भारत में एक विश्व-शाकाहार सम्मे-- लन हुआ था जिसके अधिवेशन बम्बई, दिल्ली, वाराणसी, पटना आदि कई नगरों में हुए थे। जनवरी १९६४ में शाकाहार एवं जीवदया सम्बन्धी भारतीय संगठनों ने मिलकर बम्बई में प्रथम राष्ट्रीय शाकाहार सम्मेलन संयोजित किया था। गत १६ अगस्त १९७५ को उत्तरी अमरीका के ओरोनो प्रदेश के मुन विश्वविद्यालय में २३ वां विश्वशाकाहार सम्मेलन हआ था, जिसमें विभिन्न देशों के शाकाहारी संगठनों के लगभग १५०० प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। उत्तरी अमरीका में इस प्रकार का यह प्रथम सम्मेलन था, जो पर्याप्त सफल रहा । वैज्ञानिक प्रयोगों के निमित्त पशु-पक्षी आदि की चीर-फाड़ करने के विरुद्ध भी पश्चिमी देशों में जोरदार आन्दोलन चल रहा है। ली और गुडमेन नाम के उस आन्दोलन के दो नेताओं को तो पशुओं की उक्त स्थूल एवं इरादतन की जाने वाली निर्दयतापूर्ण हिंसा से रक्षा करने के अपराध के लिए इंग्लैंड में अभी हाल में तीन-तीन वर्ष की सख्त कैद की सजा दी गई है, किन्तु जनमत उनके पक्ष में तेजी से बढ़ रहा है। इसमें सन्देह नहीं है कि दिन-प्रतिदिन शाकाहार के पक्ष में विश्व-मानव की रुचि और मत वृद्धिगत होता जा रहा है। एक आधुनिक जर्मन महिला ने १९३३ में स्व० चम्पतराय जी बैरिष्टर की प्रेरणा से मांसाहार का त्याग कर दिया था। उसके लगभग बीस वर्ष पश्चात् उसने अपने अनुभव के आधार पर लिखा था कि यदि कोई व्यति केवल एक वर्ष के लिए ही सब प्रकार के मांस, मछली, अण्डे आदि के भक्षण का त्याग कर दे और उसके फलस्वरूप अपने स्वभाव, भावनाओं, स्वास्थ्य, बौद्धिक तीक्ष्णता तथा शुद्धि-स्वच्छता के सामान्य भाव में कितना अन्तर पड़ गया है, यह देखे तो फिर वह कभी मांसाहार का नाम भी न लेगा।
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