SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २१ बनने की योग्यता रखता है और श्रावक कहलाने का अधिकारी है। कम से कम एक श्रावक से यह अपेक्षा तो की ही जाती है कि वह श्रावक के सभी उपरोक्त प्राथमिक गुणों को अपने व्यक्तित्व में विकसित करने, अपने जीवन में उतारने और अपने व्यवहार में चरितार्थ करने के लिए बुद्धिपूर्वक प्रयत्नशील रहे। तदुपरान्त एक जैन गृहस्थ पांच अणुव्रतों को ग्रहण करता है, जिनमें से प्रथम अहिंसाणुव्रत (स्थूल हिंसा विरमण व्रत) है जिसमें आरंभी (खान-पान गृह कार्य सम्बन्धी), उद्योगी (कृषि, व्यापार, व्यवसाय आदि से (सम्बन्धित) और विरोधी (देश, धर्म, परिवार, मन, धन आदि की रक्षार्थ की जाने वाली) हिंसा का वह त्यागी नहीं होता, किन्तु जानबूझकर, द्वेष, क्रोध, वैर-विरोध में या शौक, व्यसन, मनोरंजन आदि के लिए, अथवा प्रमाद, असावधानी या लापरवाही के कारण दूसरे मनुष्यों अथवा पशुपक्षि आदि का प्राणघात करने रुप संकल्पी हिंसा का वह यागी होता है । सत्याणुव्रत (स्थूलमृषावाद विरमण) का पालन वह हित-मित-प्रिय वचन व्यवहार द्वारा करता है । झूठे, असत्य, अनृत, अतिशयोक्तिपूर्ण, छलकपट, नामक, भंड, अश्लील, कडुए, कर्कश, कठोर, क्रूर निर्दयतापूर्ण बचनों के बीलने से वह परहेज करता है, जानबूझकर किसी के मन को दुखने वाले या अनिष्ट कर वचन नहीं बोलता, वाक्संयमी और शिष्टभाषी होने का प्रयत्न करता है । अचौर्याणुव्रत के द्वारा वह प्रतिज्ञा करता है कि अन्य किसी भी व्यक्ति की किसी प्रकार की चल या अचल सम्पत्ति की चोरी, अपहरण, अमानत में खयानत, लूट-खसोट वह नहीं करेगा, धोखा, बेईमानी, ठगी, छलकपट, फरेब, आदि से दूर रहेगा। शीलाणुव्रत द्वारा वह प्रतिज्ञा करता है कि अपनी न्याय्य विवाहित पत्नी (स्त्रीपक्ष में स्वपति) को छोड़कर अन्य किसी व्यक्ति से-काम प्रसंग, मैथुनादि नहीं करेगा और परिग्रहपरिमाण अणुव्रत में वह अपनी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को सीमित रखने का प्रयत्न करता है और प्रतिज्ञा करता है कि अमुक सीमा से यदि उसकी सम्पत्ति बढ़ जायगी तो वह उक्त शेष द्रव्य को न अपने उपयोग में लेगा, न उसका संचय करेगा, वरन् उसे धर्मार्थ अर्थात् परोपकार या जनता के हित में व्यय करेगा। ___ इन पांच अणुव्रतों के पोषण के लिए वह चार शिक्षाव्रतों (सामयिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण एवं अतिथिसंविभाग), तथा तीन गुणवतों (दिग्वत, देशव्रत और अर्नथदंडवत) का पालन करता है। प्रत्येक व्रत के कतिपय अतिचार होते हैं, जिनकी विद्यमानता में व्रत भंग तो नहीं होता किन्तु उसमें दूषण लगता है । अतएव आदर्श जैन का प्रयत्न होता है कि वह जिन व्रतों को ग्रहणकरता है उनका यथाशक्य निरतिचार पालन करे। यह साधना आंशिक है, प्राथमिक है, तथापि साधक के जीवन एवं व्यवहार पर उसका सुप्रभाव होता ही है। अब से लगभग सत्तर वर्ष पूर्व स्व० दीवान बहादुर ए०बी० लठे महोदय ने भारतीय दण्ड विधान के साथ जैन गृहस्थ को अचार संहिता का विश्लेष्णात्मक समीकरण करके यह प्रतिपादन किया था कि उक्त दण्डविधान की अथ से अन्त तक एक भी धारा ऐसी नहीं है जिसका श्रावकाचार में वणित स्थूल व्रतों का स्थूल रूप से पालन करने वाला भी कोई जैन गृहस्थ उल्लंघन कर सके, इतना ही नहीं, सन् १८९१ की जेल एडमिनिस्ट्रेशन रिपोर्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy