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________________ ३० ] खण्ड-३ नहीं ठहरते थे। कोई डण्डे का प्रहार करे अथवा चन्दन का लेप करे, दोनों ही परिस्थितियों में वे सम रहते थे। वे तृण, मणिमाणिक्य, पत्थर अथवा सोने आदि समस्त पदार्थों में समान परीक्षावृत्ति थे और जीवन-मरण दोनों में ही समानुभाव रखते थे. सर्वथा समदर्शी थे। साधना के परिणामस्वरूप जमई (प्राचीन काल के जभिक-जंभिय) गांव के पास, ऋजुवालिका नदी के तट पर, वैयवित्त नामक चैत्य के पास, सामाग (श्यामाक) नामक गृहस्थ (गृहपति) के खेत में शालवृक्ष के नीचे गोदोहन-आसन से ध्यानावस्थित वर्धमान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। यह वैशाख शुक्ल १० का दिन था, ग्रीष्म ऋतु थी: और छाया पश्चिम की ओर ढल रही थी, विजय मुहूर्त और हस्तोत्तरा (यानी उत्तराफाल्गुनी) नक्षत्र का योग था। प्रव्रज्या स्वीकार करने के तेरहवें वर्ष में आत्मज्ञान-केवलज्ञान प्रकट हुआ। तब उनकी मनोदशा इस प्रकार थी "उस समय भगवान का संयम, तप, आत्मबल-आत्मवीर्य सब कुछ अनुपम था। उनकी सरलता पराकाष्ठा को पहुँच गयी थी। नम्रता, क्षमा, अपरिग्रहवत्ति, अलोभभाव, प्रसादभाव, आत्मप्रसन्नता, सत्य का आग्रह, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक-चारित्र इन समस्त गुणों की उनमें पराकाष्ठा हो गई थी।" अब वे वीतराग, वीत द्वेष, जितेन्द्रिय और सब प्रकार से समदर्शी की भूमिका पर पहुंच गये थे। उन्होंने देह और आत्मा के पृथक भाव का स्वयं ही अनुभव किया था और आत्मलीनता प्राप्त कर ली थी। उनका ज्ञान निरावरण हो गया था। स्थितप्रज्ञ केवलज्ञानी अथवा वीतराग होने के बाद अपना स्वतन्त्र धर्मचक्र प्रवर्तन करने के लिए महावीर मगध और आसपास के प्रदेशों में विहार करने लगे । धर्मचक्र-प्रवर्तन द्वारा उन्होंने अहिंसा और अहिंसा में से उदभूत अन्य मानव-अधिकारों का उपदेश दिया। धर्म के नाम से एकदम तिरस्कृत और सर्वसाधारण मानवीय अधिकारों से वंचित सभी वर्गों को उन्होंने अत्यन्त सहानुभूतिपूर्वक अपनाया। धार्मिक कर्मकाण्ड में प्रचलित हर प्रकार की हिंसा के विरुद्ध उन्होंने घोषणा की। सच्चे यज्ञ, सच्चे श्राद्ध, सच्चे स्नान और सच्चे ब्राह्मण का स्वरूप समझाया, लोकभाषा को अपने प्रवचनों का माध्यम बनाया और स्त्रियों एवं शूद्रों के लिये आत्मसाधना का मार्ग खोला। उन्होंने अपने अहिंसा-प्रधान, समतामूलक, सर्वोदयी धर्मचक्र को जीवन के अन्तिम श्वास तक फैलाया। इसी का प्रभाव आज पचीस सौ वर्ष बाद भी समसत भारत में स्पष्ट दिखायी दे रहा है। इस तथ्य को आधुनिक के इतिहास पंडित भी मुक्तकंठ से और स्पष्ट रूप में स्वीकार करते हैं। महावीर मगध देश में एक ऐसे पुरुष थे जो साधना व वस्तुस्वरूप दोनों ही विषयों में लेशमात्र उदासीन नहीं थे। भगवतीसूत्र में अथवा अन्य सूत्रों में जो भी संवाद, चर्चा और दृष्टान्त अथवा कथाएँ आयीं हैं उन सबका अध्येता इस तथ्य को ठीक-ठीक समझ सकता है। महावीर साधना में इतने अधिक कठोर थे कि वे जीवन पर्यन्त केवल भेक्ष्य याने सच्चे अर्थ में मधुकरी पर ही अपना निर्वाह करते रहे थे। बड़े-बड़े निमन्त्रणों में भोजन के लिये वे कभी गये ही नहीं और न कभी सदोष भिक्षा ग्रहण की-अर्थात ऐसी भिक्षा जो कि उनके लिये ही तैयार की गई हो अथवा जिससे किसी व्यक्ति को असन्तोष अथवा पीड़ा होती हो। निर्दोष भिक्षा न मिलने पर वे उपवास पर उपवास करते जाते थे। यदि भक्तिभाव से प्रेरित होकर किसी अनुयायी उपासक या उपासिका ने उनके लिये भिक्षा तैयार की है, ऐसा उन्हें मालम हो जाता तो वे वैसी भिक्षा कभी नहीं लेते थे। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने अन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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