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________________ उत्तर प्रदेश के जैन साहित्यकार युग की आदि में जब आदिदेव ऋषभनाथ ने मानवी सभ्यता का ॐ नमः किया तो उन्होंने इसी उत्तर प्रदेश की अयोध्या नगरी में अपने प्रजाजन तत्कालीन मानवों को असि-मसि-कृषि-शिल्प-वाणिज्य-विद्या रूपी षट्कर्मों की शिक्षा दी, और स्त्रियों एवं पुरुषों को उनके लिए उपयुक्त क्रमशः ६४ एवं ७२ कलाएँ सिखाई थीं। मसिकर्म से लेखन का अभिप्राय है और लेखनकला की विविध विधाओं एवं प्रकारों का समावेश स्त्री-पुरुषों की उपरोक्त कलाओं में भी है। अनुश्रुति है कि उन प्रजापति स्वयंभू ने अपनी दो पुत्रियों में से कुमारी ब्राह्मी को अक्षरज्ञान सिखाया था, जिस कारण भारत की प्रचीन लिपि 'ब्राह्मीलिपि' के नाम से लोकप्रसिद्ध हुई। दूसरी पुत्री, कुमारी सुन्दरी को उन्होंने अंकज्ञान सिखाया था (देखिए-आदिपुराण, पर्व १६ श्लो-९८-११७)। चिरकाल पर्यन्त प्रजा का सम्यकप से प्रतिपालन करने के उपरान्त भगवान ने संसार का परित्याग करके तपश्चरण द्वारा आत्मशोधन किया और प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त करके वह आदि तीर्थकर हुए तथा सभी प्राणियों के हित-सुख के लिए उन्होंने अपना दिव्य उपदेश दिया, जिसे उनके वृषभसेन आदि गणधरों ने जनभाषा में गूंथा । उनके उपरान्त, समय-समय पर होने वाले अन्य २३ तीर्थंकरों ने भी उसी सद्धर्म का उपदेश इस प्रदेश की जनता को दिया-उनके अपने-अपने गणधरों ने उसे अपने-अपने समय की जनभाषा में निबद्ध किया। इस प्रकार इस प्रदेश में मौलिक जैन श्रुत का प्रवाह सतत् प्रवाहित होता रहा। अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर (छठी शती ईसापूर्ग) का उपदेश भी उनके इन्द्रभूति गौतम प्रभृति गणधरों ने द्वादशांग श्रुत के रूप में निबद्ध किया, और जनभाषा अर्धमागधी में निबद्ध वह श्रुतज्ञान कई शताब्दियों तक समर्थ आचार्यों की परम्परा में मौखिक द्वार से प्रवाहित होता रहा। जैन संघ में वाचकाचार्य, उच्चारणाचार्य, पृच्छकाचार्य, उपाध्याय आदि की योजना उक्त श्रुतज्ञान के संरक्षण एवं उसकी मौलिकता को सुरक्षित रखने के लिए ही की गई थी। किन्तु जब कालदोषसे, अनेक परिस्थितियों के कारण, सब सावधानियों के बरतने पर.भी, उक्त श्रुतज्ञान में शनैःशनैः ह्रास होने लग, और मतभेद तथा पाठभेद भी उत्पन्न होने लगे, तो श्रुतविच्छेद की चिन्ता से अनेक आचार्य एवं प्रबुद्ध श्रावक चिन्तित होने लगे। कठिनाई यह थी कि जैन मुनि निर्ग्रन्थ, निष्परिग्रही होते थे, किसी प्रकार का परिग्रह वह रख नहीं सकते थे, वर्षावास के चार महिनों के अतिरिक्त किसी एक स्थान में, वह भी बस्ती के बाहर, चार-छह दिन से अधिक रह नहीं सकते थे, और अपने संघ की व्यवस्था तथा श्रुत-संरक्षण के तंत्र में उन्हें आस्था थी। तथापि, काल ने उन्हें विवश कर दिया कि यदि वे तीर्थंकरों की वाणी को, जितना कुछ भी और जिस रूप में भी वह बची है, सुरक्षित रखना चाहते हैं तो उसे लिपिबद्ध करके पुस्तकारूढ़ कर दें। ___ और, यह कार्य भी इसी प्रदेश के मथुरा नगर में प्रतिष्ठित जैन संघ के दूरदर्शी प्रबुद्ध आचार्यों ने अपने प्रसिद्ध 'सरस्वती आंदोलन' द्वारा सुकर कर दिया। पुस्तकधारिणी सरस्वती की पाषाण प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करके, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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