________________
धार्मिक कृत्यों की स्मृति सुरक्षित रखने के लिए अनेकों शिलालेख लिख या लिखाकर तथा जोरदार प्रचार द्वारा उन्होंने पुस्तक-साहित्य-प्रणयन के विषय में जो संकोच या विरोध था, उसे दूर किया।
मथुरा में चले इस 'सरस्वती आंदोलन' का सुफल यह हआ कि कलिंग चक्रवर्ती खारवेल द्वारा आयोजित महामुनि सम्मेलन में श्रुतवांचना हुई और वहीं से दक्षिणापथ के जो आचार्य वहाँ पधारे थे, साहित्यप्रणयन की प्रेरणा लेकर गये । इस प्रकार सन् ईस्वी के प्रारंभ के लगभग ही उत्तर भारत में लोहाचार्य, गुणधर, आर्यमंखु, नागहस्ति, शिवार्य और स्वामि कुमार ने तथा दक्षिण देश में कुन्दकुन्दाचार्य, वटकेरि, धरसेन, पुष्पदंत, भूतबलि आदि अनेक आचार्यों ने आगमश्रुत के विभिन्न अंशों को लिपिबद्ध करने, पुस्तकारूढ़ करने अथवा मूलागम पर आधारित स्वतन्त्र पाहुड़ग्रन्थों में आगमिक ज्ञान का सार प्रस्तुत करने का कार्य प्रारंभ कर दिया। इससे महावीरवाणी के महत्त्वपूर्ण अंश सुरक्षित हुए और उनके ज्ञान का प्रवाह बना रहा। किन्तु इस कारण अनेक मतभेदों ने भी जन्म लिया, और पश्चिमी भारत के आचार्यों ने आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में उनके द्वारा सम्मत आगमों की एक वांचना भी मथुरा में की।
हमारा अनुमान है कि आगमों को पुस्तकारूढ़ करने तथा अगमानुसारी पुस्तक साहित्यप्रणयन करने में उत्तर भारत के जिन आचार्यों का ऊपर उल्लेख किया गया है, प्रायः वे सब उत्तर प्रदेश तथा उसके मथुरा आदि प्रमुख केन्द्रों से सम्बद्ध रहे थे। इम प्रकार यद्यपि वर्तमान प्राचीनकालीन जैन साहित्य का बहभाग दक्षिणी एवं पश्चिमी भारत में रचा गया, उसके प्रणयन की प्रेरणा तथा प्रारम्भ उत्तर प्रदेश में ही हुआ था। इसके साथ ही यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि अखिल भारतीय साहित्य एवं कला का प्रारम्भ और विकास, शद्ध ऐतिहासिक से, ब्राह्मण, जैन और बौद्ध, तीनों ही धर्मों के अनुयायियों ने ईसापूर्व प्रथम सहस्राब्द के उत्तरार्ध में प्रायः साथ ही साथ, समान उत्साह एवं मनोयोग के साथ किया था।
अत्यन्त विपुल, विभिन्न भाषयिक एवं विविध विषयक जैन साहित्य के निर्माण में, प्राचीन काल में कई कारणों से उत्तर प्रदेश का योग अत्यल्प रहा, तथापि प्रारम्भ से वर्तमान पर्यन्त इस प्रदेश का जो योगदान रहा है, उसका संक्षिप्त विवरण आगे दिया जा रहा है। इस सूची में उन साहित्यकारों का समावेश किया गया है जो उत्तर प्रदेश में जन्में, अल्पाधिक समय रहे या विचरे अथवा अन्य किसी रूप में उससे सम्बद्ध रहे। सूची में अज्ञानवश कतिपय भूलें भी हो सकती हैं, और यह दावा भी नहीं है कि वह पूर्ण है। प्रत्येक साहित्यकार के नाम के साथ कोष्ठक में, यदि ज्ञात हुआ, तो स्थान का निर्देश, तदनन्तर ईस्वी सन् में निश्चित या अनुमानित समय, ज्ञात रचनाओं का नाम, जिनके साथ कोष्ठक में भाषा का संकेत (प्रा०=प्राकृत, अप =अपभ्रंश, सं०- संस्कृत, हि. =हिन्दी) कर दिया गया है। जहाँ भाषा संकेत नहीं उसे हिन्दी-समझा जाय ।
ग्रन्थकार और उनके ग्रन्थ
ई० पूर्व १ली शती --आराहणा (प्रा.)
लोहाचार्य अप्पभूति गुणधराचार्य स्वामिकुमार विमलार्य शिवार्य
१ली शती ई०
-पेज्जदोसपाहुड (प्रा.) [पुस्तकारूढ़ आगरम] -बारस-आणुपेक्खा (प्रा.) -पउमचरिउ (प्रा.) -भगवती आराधना (प्रा.)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org