SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैज्ञानिक दृष्टि से हमारा आहार जैन-शास्त्रों ने भक्ष्य आहार और अभक्ष्य आहार पर एवं आगे बढ़कर उसकी शुद्धि - अशुद्धि पर जितना विचार-विमर्श किया है, उतना अन्य किसी धर्मशास्त्र अथवा धर्मनायकों ने नहीं किया है, यह निर्विवाद हकीकत है क्योंकि जैन धर्म में आहार शुद्धि पर अनेक ग्रन्थों में विचार किया गया । यहां तक कि इसके लिए 'पिण्डनिर्युक्ति' 'पिण्डविशुद्धि' जैसे शास्त्र प्रन्थ रचे गये हैं । पिण्ड का अर्थ यहां आहार समझना है । - श्री जवाहर लाल लोढा यद्यपि आहार-शुद्धि के सम्बन्ध में विचार मुख्यतः जैनश्रमण-साधुओं को उद्देश्य में रखकर किया है, फिर भी उपलक्ष से जो बात श्रमणों-साधुओं को स्पर्श करती है, वही बात कम अंशों में ही सही, गृहस्थवर्ग को भी स्पर्श करती है । शुद्ध अन्न का भोजन शरीर को निरोग रखता है । निरोगी शरीर मन को निरोग रखने में प्रबल सहायक होता है । अंग्रेजी में कहावत भी है 'स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन रहता है ।' इन सारी बातों का निष्कर्ष है कि आहार का मन और आत्मा के साथ सम्बन्ध होने से मानव शरीर में आहार का बहुत महत्व है । आहार में मांसाहार तो मनुष्य के लिए निर्विवाद रूप से अभक्ष्य है । खेद है कि आर्य-भूमि भारत में भी मांसाहार का प्रचार बढ़ रहा है। मांसाहार को बन्द करने तथा मांसाहार को रोकने के लिए उपदेश एवं प्रचार, इन दोनों साधनों का पूरा प्रयोग करना चाहिए । Jain Education International प्रत्येक प्राणी का आहार शरीर की रचना से घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है । यह सभी जानते हैं कि पशु और पक्षियों से मनुष्य का भोजन सर्वथा भिन्न है । केवल बाह्य रचना या वेश-भूषा ही नहीं, शारीरिक रचना, सोचने विचारने की पद्धति और वाणी के द्वारा व्यक्त करने का ढंग भी अन्य प्राणियों से मनुष्य का सर्वथा भिन्न और विशिष्ट है । मन, वचन और काया से मनुष्य अन्य प्राणियों से भिन्न है । मनुष्य की शरीर रचना को ध्यान से देखें तो पता लगेगा कि मुखकी बनावट, दांतों की संरचना, आहार नलिका और लघु व वृहद अंतयंत्र, सभी कुछ पशुओं से भिन्न है । आधुनिक चिकित्सकों के अनुसार प्राणी शरीर के अंग उसके उचित प्राकृतिक रहन-सहन एवं भोजन के अनुरूप ही संचालित होते हैं । मनुष्य की आहार नलिका शाकाहारी प्राणियों की भांति पर्याप्त लम्बी है । सम्पूर्ण पाचक रस तथा आंतरिक संरचना शाकाहार के लिए ही उचित है । मनुष्य की प्राकृतिक बनावट के अनुसार ही हमें दांत और आंत मिली है । मनुष्य की अंगों की परिचालित प्रक्रिया में दांत से लेकर आंत तक आहार प्रेषण क्रिया और अवयवों में रक्त-मांसादि निर्माण की क्रियाएं जुड़ी हुई हैं। इनसे ही शरीर को ऊर्जा प्राप्त होती है । ऊर्जा की खोज एक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy