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अच्छा हिन्दू बनने के लिए अच्छा जैनी बनना आवश्यक है
-श्री परिपूर्णानन्द वर्मा
मैं हिन्दू हूँ। ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता हूँ-कम से कम मेरी परम्परा ने मुझे यही विश्वास दिया है। पर मैं हृदय से जैनधर्म का भक्त भी हूँ। मुझसे प्रायः मेरे साहित्यिक तथा राजनैतिक मिन पूंछते हैं कि मैं जैनमत पर इतना आसक्त क्यों हूँ, और जब उसे इतना मानता हूँ तो जैनी क्यों नहीं हो जाता।
प्रश्न अच्छा है। और मेरा उत्तर भी बुरा नहीं है। मेरा विश्वास है कि बिना हिन्दू बने जनी श्रेष्ठ जैनी बन सकता है, पर बिना जैन आचार संहिता को अपनाये मैं अच्छा हिन्दू नहीं बन सकता। हमने जैन धर्म से उसका अध्यात्मवाद लेकर अपने विशाल धर्म को विशालतम बना लिया है। जैनियों ने हमसे कर्मकाण्ड लेकर अपने को कुछ बहुत आगे बढ़ाया, ऐसा मैं नहीं मानता। अच्छे हाथों में पड़कर कर्मकाण्ड हमें कल्याण की ओर ले जाता है, पर जरा सी त्रुटि से तथा नादानी से उसमें उलझकर मनुष्य ऊपर उठने के बजाय नीचे दुबका रहता है। ठीक वैसे ही जैसे वास्तविक तंत्र-शास्त्र की गरिमा को पशु-तांत्रिकों ने पतन का साधन बना दिया-चाहे हिन्दू तान्त्रिक हों, बौद्ध या जैनी तान्त्रिक हों।
जैन परम्परा के विशाल विज्ञान की बात अलग रख दीजिए। केवल भगवान् महावीर की तीन बातें अगर हम पकड़ लें तो आज का अनर्थमय संसार कितना बदल सकता है। भगवान महावीर ने कहा है कि कर्म में पूर्ण अनासक्ति हो, चित्त में राग-द्वेष लेशमान भी न हो, और वह परम शान्त हो। परिग्रह की भावना पूर्णतः समाप्त हो जाय । आज संसार का एकमात्र रोग है परिग्रह-जो जितना नोच सके, लूट सके, प्राप्त कर सके उतना भी उसे कम प्रतीत होता है। आज की परिग्राह की भावना से ही सब राग-द्वेष-कुकर्म-अशान्ति पैदा हैं बढ़ रही हैं। पर हम रातों-दिन घड़ी-घन्टा बजाकर देवता को प्रसन्न करने की चेष्टा करते हैं और जिन बातों से देवता, हमारे मन के भीतर बैठा देवता, प्रसन्न हो सकता है, उसके प्रति नितान्त उदासीन हैं। तब फिर हिन्दू होते हए भी हमें क्या मिला? क्या हम आवागमन, पुनर्जन्म, संसार के रोग-व्याधि से लेशमान भी ऊपर उठ सके हैं ?
___ कूर्म पुराण में कथा है कि दैत्य की सेना को जीतने वाली सौ देवियां ईश का दर्शन करने की इच्छा से जब शंकर भगवान के सामने आई तो उनका अद्भुत रूप देखकर उन्होंने उनसे पूछा कि आप कौन हैं ? शंकर ने उत्तर दिया
अहं हि निष्क्रियः शान्तः केवलो निष्परिग्रहः। (कूर्म १/१५/१५४) "मैं निष्क्रिय, शान्त, अद्वितीय तथा परिग्रह शून्य है।"
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