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________________ * जैन न्याय : संक्षिप्त विवेचन * -डा० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य 'नीयते परिच्छिते ज्ञायते वस्तुतत्त्वं येन सोन्यायाः' इस न्यायशब्द की व्युत्यत्ति के आधारपर न्याय उसे कहा गया है जिसके द्वारा वस्तुस्वरूप जाना जाता है। तात्पर्य यह कि वस्तुस्वरूप के परिच्छेद के साधन (उपाय) को न्याय कहते हैं। कुछ दार्शनिक न्याय के इस स्वरूप के अनुसार 'लक्षण प्रमाणाम्यामर्थ सिद्धि:'-1 लक्षण और प्रमाण से वस्तु की सिद्धि (ज्ञान) मानते हैं। अन्य दार्शनिक 'प्रमाणरर्थपरीक्षणं न्यायः2-प्रमाणों से वस्तु-परीक्षा बतलाते हैं । कतिपय ताकिक पञ्चावयव वाक्य के प्रयोग–अनुमान को न्याय कहकर उससे वस्तु-परिच्छित्ति प्रतिपादन करते है। जैन ताकिक आचार्य गद्धपिच्छने 'प्रमाणनयरधिगमः' (त. सू. १-६) सूत्र द्वारा प्रमाणों और नयों से वस्तु का ज्ञान निरूपित किया है । फलतः अभिनव धर्मभूषणने प्रमाण नयात्मको न्यायः'-प्रमाण और नय को न्याय कहा हैं । अतः जैन मान्यतानुसार प्रमाण और नय दोनों न्याय (वस्त्वधिगम-उपाय) हैं। प्रमाण-षट्खण्डागम में ज्ञानमार्गणानुसार आठ ज्ञानों का प्रतिपादन करते हुए तीन ज्ञानों (कुमति, कुश्रत और अवधि) को मिथ्याज्ञान और पांच ज्ञानों (मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल) को सम्यरज्ञान निरूपित किया है। कुन्दकुन्द ने उसका अनुसरण किया है। गद्धपिच्छने7. उसमें कुछ नया मोड़ दिया है। उन्होंने मति आदि पांच ज्ञानों को सम्यग्ज्ञान तो कहा ही है, उन्हें प्रमाण भी प्रतिपादित किया है। अर्थात उन्होंने मत्यादिरूप पञ्चविध सम्यग्ज्ञान को प्रमाणका लक्षण बतलाया है। समन्तभद्रने तत्वज्ञान को प्रमाण कहा है। उनका यह तत्वज्ञान उपर्युक्त सम्यग्ज्ञान रूप ही है। सम्यक और तत्व दोनों का एक ही अर्थ है और वह है-सत्ययथार्थ। अतः सम्यग्ज्ञान को या तत्वज्ञान को प्रमाण कहना एक ही बात है। उत्तरवर्ती जैन ताकिकों ने प्रायः सम्यग्ज्ञाम को ही प्रमाण कहा है। अकलंक, विद्यानन्द10 और माणिक्यनन्दिने11 उस सम्यग्ज्ञान को 'स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मक' सिद्ध किया और प्रमाण लक्षण में उपयुक्त विकास किया है । वादिराज,12 देवसूरि13, हेमचंद्र,14 धर्मभूषण15 आदि परवर्ती ताकिकों ने प्रायः यही प्रमाण-लक्षण स्वीकार किया है। यद्यपि हेमचंद्र ने सम्यक अर्थनिर्णय को प्रमाण कहा है, पर सम्यक अर्थनिर्णय और सम्यग्ज्ञान में शाब्दिक भेद के अतिरिक्त कोई अर्थभेद नहीं है। प्रमाण-भेद--प्रमाण के कितने भेद सम्भव और आवश्यक हैं, इस दिशा में सर्व प्रथम आचार्य गद्धपिच्छने16 निर्देश किया है । उन्होंने प्रमाण के दो भेद बतलाये हैं-१. परोक्ष और २. प्रत्यक्ष । पूर्वोक्ति पाँच सम्यग्ज्ञानों में आदि के दो ज्ञान-मति और श्रत परसापेक्ष होने से परोक्ष तथा अन्य तीन ज्ञान-अवधि, मन:पर्यय और केवल इन्द्रियादि पर सापेक्ष न होने एवं आत्ममात्र की अपेक्षा से होने के कारण प्रत्थक्ष-प्रमाण हैं। यह प्रमाण-द्वयका प्रतिपादन इतना विचारपूर्ण और कुशलता से किया गया है कि इन्हीं दो में सब प्रमाणों का समावेश हो जाता है। मति (इन्द्रिय-अनिन्द्रियजन्य अनुभव), स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (अनुमान) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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