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________________ १२] ये पांचों ज्ञान इन्द्रिय और अनिन्दिय सापेक्ष होने से मतिज्ञान के ही अवान्तर भेद हैं और इसलिए उनका परोक्ष में ही अन्तर्भाव किया गया है17 । जैन न्याय के प्रतिष्ठाता अकलंक ने18 भी प्रमाण के इन्हीं दो भेदों को मान्य किया है । विशेष यह कि उन्होंने प्रत्येक के लक्षण और भेदों को बतलाते हुए कहा है कि विशद ज्ञान प्रत्यक्ष है और वह मुख्य तथा संव्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। इसी तरह अविशद ज्ञान परोक्ष है और उसके प्रत्यभिज्ञा आदि पांच भेद हैं। उल्लेख्य है कि अकलंक ने उपयुक्त परोक्ष में प्रथम भेद मति (इन्द्रिय-अनिन्द्रियजन्य अनुभव )को संव्यवहारप्रत्यक्ष भी वणित किया है। इससे इन्द्रिय-अनिन्द्रियजन्य अनुभव को प्रत्यक्ष मानने की लोकमान्यता का संग्रह हो जाता है और आगम परम्परा का भी संरक्षण रहता है। विद्यानन्द19 और माणिक्यनन्दि ने20 भी प्रमाण के यही दो भेद स्वीकार किये और अकलंककी तरह ही उनके लक्षण एवं प्रभेद निरूपित किये हैं। उत्तरवर्ती जैन ताकिकों ने प्रायः इसी प्रकार का प्रतिपादन किया है। परोक्ष-परोक्ष का स्पष्ट लक्षण आचार्य पूज्यपादने21 प्रस्तुत किया है। उन्होंने बतलाया है कि पर अर्थात इन्द्रिय, मन, प्रकाश और उपदेश आदि वाह्य निमित्तों तथा स्वावरणकर्म क्षयोपशमरूप आभ्यन्तर निमित्त की अपेक्षा से आत्मा में जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह परोक्ष है । यत: मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों उक्त उभय निमित्तों से उत्पन्न होते हैं, अत: ये परोक्ष कहे जाते हैं। अकलंक ने22 इस लक्षण के साथ परोक्ष का एक लक्षण और दिया है, जो उनके न्यायग्रन्थों में उपलब्ध है । वह है अविशद ज्ञान । अर्थात अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष है। यद्यपि दोनों (परापेक्ष और अविशद ज्ञान) लक्षणों में तत्वत: कोई अन्तर नहीं है-जो परापेक्ष होगा वह अविशद होगा, फिर भी वह दार्शनिक दृष्टि से नया एवं संक्षिप्त होने से अधिक लोकप्रिय और ग्राह्य हुआ है। विद्यानन्द ने23 दोनों लक्षणों को अपनाया है और उन्हें साध्य-साधन के रूप में प्रस्तुत किया है। उनका मन्तव्य है किरापेक्ष होने के कारण परोक्ष अविशद है । माणिक्यनन्दिने24 परोक्ष के इसी अविशदता-लक्षण को स्वीकार किया है और उसे प्रत्यक्षादि पूर्वक होने के कारण परोक्ष कहा है । परवर्ती न्याय लेखकों ने25 अकलंकीय परोक्ष लक्षण को ही प्रायः प्रश्रय दिया है। परोक्ष के भेद-तत्वार्थसूत्रकारने 26 परोक्ष के दो भेद कहे हैं-१ मतिज्ञान और २ श्रुतज्ञान । इन्द्रिय और मनकी सहायता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है तथा मतिज्ञान पूर्वक होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। मतिज्ञान और श्रतज्ञान ये परोक्ष के आगमिक भेद हैं। अकलंकदेव ने27 आगम के इन परोक्ष भेदों को अपनाते हए भी उनका दार्शनिक दृष्टि से विवेचन किया है। उनके28 विवेचनानुसार परोक्ष प्रमाण की संख्या तो पांच ही है, किन्त उनमें मति को छोड़ दिया गया है, क्योंकि उसे संव्यवहार प्रत्यक्ष माना है। तथा श्रुत (आगम) को ले लिया है। इसमें सैद्धान्तिक और दार्शनिक किसी दृष्टि से भी बाधा नहीं है। इस तरह परोक्ष के मुख्यतया पाँच भेद हैं-29 १ स्मृति, २ संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), ३ चिन्ता (तर्क), ४ अभिनिबोध (अनुमान) और ५ श्रुत (आगम)। पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति' कहते हैं । जैसे 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान । अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़रूप ज्ञान 'संज्ञा' ज्ञान है। इसे प्रत्यभिज्ञा या प्रत्यभिज्ञान भी कहते हैं यथा-'यह वही है', अथवा 'यह उमी के समान है' या 'यह उससे विलक्षण हैं' आदि । इसके एकत्व, सादृश्य, वसादृश्य, प्रातियोगिक आदि अनेक भेद माने गये हैं। अन्वय (विधि) और व्यतिरेक (निषेध) पूर्वक होने वाला च्याप्तिका ज्ञान 'चिन्ता' अथवा 'तर्क' है । ऊह अथवा ऊहा भी इसे कहते हैं। इसका उदाहरण है-इसके होने पर ही यह होता है और नहीं होने पर नहीं ही होता । जैसे-अग्नि के होने पर ही धुआं होता है और अग्नि के अभाव में घओं नहीं ही होता । निश्चित साध्याविनाभावी साधन से जो साध्य का ज्ञान होता है वह अनुमान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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