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________________ ३६ ] ख -४ है, वस्तुतः भाषा उनके विचारों की वाटिका रही हैं । जैन साहित्य अन्य भारतीय भाषाओं जैसे कन्नड, मराठी, तमिल, तेलगू, राजस्थानी, हिन्दी, गुजराती आदि में भी सुलभ है । जैन धर्मावलम्बी प्रान्तीय भावना से ऊपर - प्रान्तीयता का प्रश्न भी साम्प्रदायिक विद्वेष का कारण नहीं हो सकता, यत: जैन धर्मावलम्बी गुजरात, महाराष्ट्र, मालवा, मैसूर, राजस्थान, आन्ध्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब आदि भारत के उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम सभी प्रदेशों में निवास करते हैं । जैनधर्म जातीय भावना से परे – जैन-धर्म ने जातीयता को भी कोई प्रोत्साहन नहीं दिया है। जैन दर्शन कर्मफल सिद्धान्त को बहुत महत्व प्रदान करता । इसके अनुसार प्रत्येक जीवात्मा अपने कार्यों के फल को भोगता है । कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण या शूद्र होता है । जन्म व्यक्ति की महत्ता या लघुता का कारण नहीं है । जैन धर्म तो मानव मात्र का ही नहीं, अपितु प्राणीमात्र का धर्म है । वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है -- ' वस्तु सहावो धम्मो', अतः आत्मा का स्वभाव ही आत्मधर्म है। इस आत्मतत्व की अनुभूति करने के लिए प्रदर्शित करने वाला धर्म जैन धर्म है । इस धर्म ने ऐसे किसी सिद्धान्त का पोषण नहीं किया, जो साम्प्रदायिकता को प्रश्रय दे । जैन धर्म : धार्मिक कट्टरता का विरोधी - धर्म के नाम पर भारत में हुए हैं । इतिहास के पृष्ठ साक्षी हैं कि धार्मिक कट्टरता, वैमनस्य का कारण रही है। सरीखे साम्यवादियों ने धर्म को मानव के लिए घातक माना । वे संसार से धर्म देना चाहते थे । वास्तव में तो धर्म परस्पर भ्रातृत्व की भावना को विकसित लिखा है— नहीं, विदेशों में भी अनेक रक्तपात यही कारण है कि कार्लमार्क्स नाम की वस्तु को ही समाप्त कर करता है, जैसा कि इकबाल ने 'मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर करना ।' जैनधर्म तो विपरीत विचारधारा वालों के प्रति भी माध्यस्थ भाव रखने का संदेश देता है— सत्त्वेत्येषु मंत्रों गुणिषु प्रमोदं । क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् ॥ माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ । सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ समस्त जीवों के प्रति मैत्री और क्षमाभाव रखने का आदेश है— खम्मामि सब्वजीवाणं, सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती में सव्वभूदेसुर्व रं मज्झं ण केणवि ॥ समन्वयवादी दृष्टिकोण – जैनधर्म की समन्वयवादिता का परिचय इससे भी मिलता है कि वैदिक धर्म में प्रतिष्ठित राम, कृष्ण, हनुमान आदि महापुरुषों की गणना जैनों ने भी शलाका-पुरुषों में की है, यद्यपि जैन आचार्यों ने इनके चरित्रों का वर्णन अपने आदर्शों के अनुरूप वर्णित किया है । आचार्य विमलसूरि महर्षि वाल्मीकिकृत 'रामायण' के अनेक अंशों को कपोलकल्पित और असंगत मानते थे, अतः उन्होंने अपने 'पउम चरिय' की रचना की, जिसमें इन अंशों का संशोधन किया गया है । Jain Education International अनेकान्तवादः आपसी सहिष्णुता का प्रतीक - अनेकान्तवाद या स्याद्वाद तो जैनधर्म का अनुपम उज्ज्वल । यह विपरीत विचारधारा वालों के सिद्धान्त में भी सत्यांश के अन्वेषण का प्रयत्न करता है । इसके अनुसार ज्ञान अनन्त और सापेक्ष है । सम्भव है कि कोई सिद्धान्त किसी अपेक्षा से सत्य है और दूसरी अपेक्षा से मिथ्या । रत्न For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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