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________________ राष्ट्रीय एकता के विकास में जैनधर्म का योग डा० (श्रीमती) कुसुमलता जैन भारतवर्ष धर्म, प्रान्त तथा भाषागत विविधताओं से परिपूर्ण एक विशाल राष्ट्र है। इस विशाल राष्ट्र की अखंडता के लिए राष्ट्रीय एकता आवश्यक है। इतिहास साक्षी है कि राष्ट्रीय एकता का अभाव ही हमारी दीर्घकालीन परतन्त्रता के लिए उत्तरदायी है। स्वतन्त्र भारत में राष्ट्रीय एकता कितनी महत्वपूर्ण है, यह सर्वविदित ही है। हमारा देश अभी एक संघर्षपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है। इस संघर्षपूर्ण स्थिति में साम्प्रदायिकता हमारे राष्ट्र की शक्ति को क्षीण कर रही है । उक्ति है कि 'संघे शक्तिः कलीयुगे' किन्तु हमारे यहां प्रायः साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं। ये साम्प्रदायिक दंगे प्रायः चार आधारों पर होते हैं-भाषा, प्रान्त, जाति या धर्म के आधार पर । स्वतन्त्रता के २५ वर्षों के उपरान्त भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त करने में अनेकों कठिनाइयां हैं। भाषा के प्रति उदारतावादी दृष्टिकोण-इस दृष्टिकोण से यदि हम जैनधर्म और समाज की ओर देखें तो विदित होगा कि जैनधर्म और संस्कृति उदारतावादी दृष्टिकोण से परिचालित हैं, क्योंकि जैन-मतानुयायिओं ने कभी किसी एक भाषा का मोह नहीं रखा। एक समय संस्कृत को देववाणी घोषित कर उसी भाषा में पठन-पाठन को श्रेष्ठ तथा अन्य भाषाओं के अध्ययन को निषिद्ध ठहराया । गरुड़ पुराण का कथन है लोकायतं कतकंच प्राकृतं म्लेच्छभाषितम् । श्रोतव्यं न द्विजेनैतद तद् गच्छति अधोगति ।। यहां प्राकृत को म्लेच्छ भाषा तक कह दिया गया है, पर जैन आचार्यों ने समय की मांग और औचित्य के अनुसार प्राकृत्त का आश्रय लिया, क्योंकि भाषा उनके लिए विचारों की अभिव्यक्ति का साधन थी, साध्य नहीं। प्राकृत जन-साधारण की भाषा थी और संस्कृत शिक्षितों तथा पंडितों की भाषा थी, जिसे कम लोग समझ सकते थे, अतः जन कल्याण की भावना से जैनाचार्यों ने अपने उपदेशों का माध्यम जनभाषा को चुना। धार्मिक उपदेश वसे ही नीरस होते हैं, जनरुचि धर्म-विमुख होती है, इस पर यदि जनता को क्लिष्ट भाषा में उपदेश दिये जावें, तो वह उनसे लाभान्वित नहीं हो सकती। प्राकत के साहित्यिक परिनिष्ठित भाषा पद पर आरूढ हो जाने पर जब जनभाषा का स्थान अपभ्रंश ने ले लिया तो जैनाचार्यों और साहित्यकारों ने अपभ्रंश में साहित्य सर्जना की। प्राकृत तथा विशेषतः अपभ्रंश का तो अधिकांश साहित्य जैन कवियों तथा आचार्यों द्वारा रचित है। इनके अतिरिक्त जैन कवियों ने संस्कृत साहित्य को भी यथेच्छ अभिवृद्ध किया है। उनका प्राकृत के प्रति कोई दुराग्रह या संस्कृत के प्रति द्वेष रहा हो, यह बात नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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