SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ३७ एक ही व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र तथा पुत्र की अपेक्षा से पिता होता है। अतः ज्ञान को विविध नयों द्वारा जाना जाता है जैसा कि तत्वार्थसून में कहा गया है "प्रमाणनवैरधिगमः" अर्थात् ज्ञान के दो साधन है-प्रमाण और नय । नय अनन्त है । अनेकान्तवाद को स्पष्ट करने के लिए षडान्धगजन्याय (छह अंधे और एक हाथी की कहानी) का आश्रय लिया जाता है । ख -४ छह अंधे हाथी के एक-एक अंग को पकड़कर हाथी के स्वरूप को उसी जैसा समझते हैं । उसके सम्पूर्ण स्वरूप को नेनवान व्यक्ति ही जान सकता है, किन्तु अन्धों का कथन भी उनके दृष्टिकोण से युक्त है । इसी प्रकार पूर्ण सत्य तो केवल ज्ञानी ही जान सकता है । अल्पज्ञों के लिए तो एक समय में किसी पदार्थ की समस्त पर्यायों का जानना सम्भव नहीं। अतः विरोधी विचारधारावालों की बात भी किसी अपेक्षा से सत्य हो सकती है। इस प्रकार यह अनेकान्तवाद सहिष्णुतापूर्ण सिद्धांत हैं तथा जैनियों की वैचारिक अहिंसा का प्रतीक है। अहिंसा और अपरिग्रहः राष्ट्रीय एकता के आधार - अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त भी राष्ट्रीय एकता के सम्वर्धन में सहायक हैं। साम्प्रदायिकता हिंसा और घृणा के वातावरण में पनपती है, जब कि धर्म प्रेम, अहिंसा तथा विश्वबन्धुत्व की भावना सिखाता है । यद्यपि सभी धर्मों ने अहिंसा का महत्व उद्घोषित किया है, तथापि जैनधर्म में अहिंसा का विशेष स्थान है। अहिंसा अथवा प्राणिमात्र के प्रति ममस्व तथा विश्वबन्धुत्व की भावना सिखाने वाला जैनधर्म राष्ट्रीय एकता में बाधक कैसे हो सकता है ? अपरिग्रह का सिद्धान्त समाजवाद लाने तथा आर्थिक विषमता दूर करने में सहायक है । आर्थिक विषमता द्वेष तथा वैमनस्य का कारण होती है । अपरिग्रह के सिद्धान्त को मानने से यह आर्थिक विषमता स्वयमेव दूर हो जायेगी। अररिग्रहवाद हमें सिखाता है कि हम अपनी आवश्यकताओं को कम करें तथा आवश्यकता से अधिक संग्रह न करें। अधिक धन एकत्रित हो जाने पर उसे उन लोगों में वितरित कर दें, जिन्हें इसकी अधिक आवश्यकता । ऐसा करने पर किसी साम्यवादी प्रक्रिया या हिंसक क्रान्ति द्वारा पूंजीवाद को नष्ट नहीं करना पड़ेगा, अपितु पूंजीवादी व्यवस्था स्वयं ही समाप्त हो जायेगी । अस्तु स्पष्ट है कि जैनधर्म के उदात्त आदर्श तथा उच्च-सिद्धान्त राष्ट्रीय एकता के संयोजक एवं समर्थक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy