SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ ] लिया है । यदि हम इन पशुओं और मनुष्य जाति में परिवर्तनशील चयापचयशील भेद उपस्थित करें, हमें मानवीय परिवर्तनशीलता में सामंजस्य की सामर्थ्य स्वीकारनी पड़ती है। कई आजीवन मांसाहारी दुर्बलता और उददार-पीड़ा के लक्षणों को अनुभव करते हैं मगर एक निश्चित संघर्ष के पश्चात् चयापचय की प्रक्रिया अन्ततोगत्वा नई पथ्य-विधि से सामंजस्य स्थापित कर लेती है। दूध और दूध-पदार्थों से युक्त उचित रूप से सन्तुलित पथ्य प्रफुल्लित शारीरिक स्वास्थ्य, लचीलेपन, सजगता और दीर्घायु का ही नहीं, व्यक्ति के मस्तिष्क की परिपक्वता का भी निर्वाह करता है। शाकाहारी सिद्धान्त का आर्थिक पक्ष सहजता से समझ लिया जाएगा, जब यह स्वीकार किया जाए कि कि मांसाहारियों को मांस देते रहने के उद्देश्य से पोषित पशुओं के लिए धान उपजाने की आवश्यक जमीन उतनी ही संख्या के मनुष्यों के लिए धान उपजाने के आवश्यक क्षेत्रफल की तुलना में कई गुना बड़ी होती है। 'रिकवरी आफ कल्चर' के लेखक और एक्सटेंसन सर्विस एमेरिटस विश्वविद्यालय, हेम्पशायर, के निर्देशक हेनरी बेले स्टीवेन्सन के अनुसार मांस भक्षण की दुराचारी आदत निःसन्देह रूप से जड़-युग की अवशेष है जो सारे आचार और सौंदर्यपरक प्रामाणिकों का ही उल्लंघन नहीं करती, वरन् जितनी कि मनुष्य के लिए सीधे रूप में फसल पैदा करें उससे छह गुना अधिक जमीन इसके लिए आवश्यक होगी। शाकाहारी सिद्धान्त को शरीर विस्तार और आर्थिक आधार पर लेना शाकाहारी सिद्धान्त का सही दर्शन नहीं है। हालांकि फिर भी जो शाकाहारी सिद्धान्त का समर्थन ही करता है, जो कि प्रायः अमैत्रीपूर्ण विवाद और अनिर्णीत विमर्श का विषय बन जाता है । नैतिक, आचारिक और आध्यात्मिक व्यवहार के आधार पर ही शाकाहारी जीवन के अभ्यास की आवश्यकता को बल दिया जाना चाहिए । निर्ममता के विपरीत दयालुता, गंदगी के विपरीत स्वच्छता, कुरूपता के विरोध में सौन्दर्य, कठोरता के विपरीत संवेदनशीलता, दण्ड देने के विपरीत क्षमा जीने का तर्क और शाकाहारी सिद्धान्त का आधार निर्मित करती है। यहीं मानसिक और शारीरिक कौशल और मानसिक शांति को प्रोत्साहित करता है । शाकाहारी सिद्धान्त का सही आधार है अपने 'स्व' की अपेक्षा दूसरे 'पर' विचार-असहायों में दुख और भय का कारण बनने में अरुचि-दूसरे को मारने की अस्वीकृति ताकि कोई अपने आप जी सकें, संक्षेप में गहराई और वास्तविकता तक दया और अहिंसा । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy