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होगा। असत् मानने से तो द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा और सत्ता से भिन्न मानने पर सत्ता के बिना भी वह स्वयं वर्तमान रहकर सत्ता का ही अभाव कर देगा। क्योंकि सत्ता जो काम करती थी वह उसने स्वयं कर लिया । अत: द्रव्य स्वरूप से सत् है । क्यों कि भाव (सत्ता) और भाववान् (द्रव्य) पृथक-पृथक न होने से अभिन्न होते हैं । जैन दर्शन में पृथक्त्व का लक्षण है - प्रदेश भेद का होना । जिनके प्रदेश भिन्न हैं वे भिन्न हैं । किन्तु गुण और गुणी के प्रदेश भिन्न नहीं होते। जैसे शुक्ल गुण के जो प्रदेश हैं वे ही प्रदेश गुणी वस्त्र के हैं। उसी तरह सत्ता गुण के जो प्रदेश हैं वे ही प्रदेश गुणी द्रव्य के हैं । उनके प्रदेश भिन्न नहीं हैं । किन्तु फिर भी गुण और गुणी में अन्यत्व है । अन्यत्व का लक्षण है अतद्भाव, गुण और गुणी में तद्भाव का अभाव होने से अन्यत्व है । जैसे शुक्ल गुण केवल एक चक्षु इन्द्रिय का विषय है और वस्त्र सभी इन्द्रियों का विषय है अतः जो शुक्लगुण है वही वस्त्र है और जो वस्त्र है वही शुक्लगुण है ऐसा तद्भाव उनमें नहीं है । उसी प्रकार सत्ता आश्रय से रहने वाली है, निर्गुण है, विशेषणरूप है । किन्तु द्रव्य किसी के आश्रय नहीं रहता, गुणवान होते हुए अनेक गुणों के समुदाय रूप है तथा विशेष्य है । अतः जो सत्ता है वही द्रव्य है और जो द्रव्य है वही सत्ता और द्रव्य या गुण और गुणी में कथंचित अभेद होते हुए भी सर्वथा एकत्व नहीं है । एकत्व का लक्षण है तद्भाव । जहां तद्भाव नहीं वहाँ एकत्व कैसे हो सकता है किन्तु गुण और गुणी रूप से उनमें अनेकता ही है।
जैसे एक मोतियों की माला का विस्तार हार, धागा और मोती तीन रूप होता है उसी तरह एक द्रव्य का विस्तार द्रव्य, गुण, पर्याय तीन रूप होता है । जैसे एक मोती की माला का शुक्ल गुण, शुक्ल हार, शुक्ल घागा, शुक्ल मोती तीन रूप से विस्तृत किया जाता है। उसी प्रकार एक द्रव्य का सत्ता गुण सत् द्रव्य, सत गुण और सत्पर्याय इस तरह तीन रूप से विस्तृत किया जाता है। जैसे एक मोती की माला में जो शुक्ल गुण है, वह न हार है न धागा और न मोती है, तो हार है या धागा है या मोती है वह शुक्ल गुण नहीं है, इस प्रकार एक का दूसरे में अभाव अतद्भाव है और वही अन्यत्व का कारण है । उसी प्रकार एक द्रव्य में जो सत्ता गुण है वह न द्रव्य हैन अन्य गुण हैन पर्याय है । और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है वह सत्ता गुण नहीं है। इस प्रकार एक का दूसरे में अभाव अतद्भाव है और वही उनके अन्यत्व का कारण है ।
सारांश यह है कि द्रव्य से भिन्न न गुण है और न पर्याय है। दोनों ही द्रव्य की अवस्था विशेष हैं। जैन दर्शन में द्रव्य नामक एक ही पदार्थ इस रूप में माना गया है कि अन्य पदार्थ को मानने की आवश्यकता नहीं होती गुण, क्रम, समान्य विशेष अभाव ये सब द्रव्य की ही विभिन्न अवस्थायें है।
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द्रव्य के मेव द्रव्य भी छह माने है-जीव, पुद्ग, पम, अधम, आकाश, काल पुल में पृथ्वी, अप, तेज और वायु गर्भित हैं। जिसमें रूप रस गन्ध स्पर्श ये चार गुण होते हैं वह पुद्गल है। जैन दर्शन प्रत्येक परमाणु में चारों गुण मानता है और उन्हीं परमाणुओं से भूत चतुष्टय की उत्पत्ति मानता है। किसी में किसी गुण का व्यक्त और अव्यक्त होना यह वस्तु के परिणमन पर निर्भर है ।
पुद्गल के दो भेद हैं परमाणु और स्कन्ध जो आदि मध्य और अन्त से रहित है, इन्द्रियों का विषय नहीं है ऐसे अखण्ड एक प्रदेशी द्रव्य को परमाणु कहते हैं और उन परमाणुओं के बन्ध से निष्पन्न स्कन्ध होता है । हम जो कुछ इन्द्रियों से जानते देखते हैं वह सब कुद्गल स्कन्ध है। पूरणालन क्रिया से पुद्गल शब्द बना है । जो टूटे फूट जुड़े वह पुद्गल है । यद्यपि परमाणु टूटता - फूटता नहीं है, वह अखण्ड होता है तथापि परमाणुओं के मेल से बने स्कन्ध टूटते- फूटते हैं इस दृष्टि से परमाणु को भी पुद्गल कहा है। एक परमाणु एक समय में लोक के एक ओर दूसरे छोर तक चौदह राजु गमन करता है । किन्तु परमाणुओं के मेल से निष्पन्न स्कन्ध ऐसा नहीं कर सकता ।
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