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________________ २६ ] लेकिन अब मांसाहार करने में एक नया आर्थिक और सामाजिक सवाल पैदा हो रहा है। आजकल, लगभग सभी देशों में, लोग मानने लगे हैं कि जिन्दा रहने के लिये न्यूनतम खुराक सबको मिलनी चाहिये । यह भी मानी हुई बात है कि अब दुनिया की आबादी तेजी से बढ़ रही है, उसी अनुपात में अन्न का उत्पादन नहीं बढ़ रहा है और निकट भविष्य में वह उचित अनुपात में बढ़े, ऐसी उम्मीद नहीं है। अतः हर एक को सोचना चाहिए क्या हमारी खुराक में ऐसा कोई पदार्थ तो नहीं है, जिसकी वजह से अन्य लोगों के लिए अनाज कम मिलने की संभावना है ? यह देखने की दृष्टि दकियानूसी नहीं, आधुनिकतम है। वह उस नारे के सिद्धांत से मिलता है-हर एक को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार । इसलिए गोश्त के उत्पादन से अनाज के उत्पादन पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस बात को सोचने की अति आवश्यकता है। इसके लिए एक वैज्ञानिक नजर इस दिशा के अर्थशास्त्र पर डालने की आवश्यकता है। यह मानी हुई बात है, यदि एक आदमी को पेट भर अनाज खिलाने के लिए एक एकड़ भूमि की आवश्यकता है तो दुग्ध पदार्थों को खिलाने के लिये दो एकड़ भूमि की जरूरत होगी और गोश्त खिलाने के लिए चार एकड़ की आवश्यकता होगी। लेकिन इन आंकड़ों को जरा ज्यादा गहराई से समझने का प्रयत्न करने पर उसका असली अर्थ ज्यादा स्पष्टता से समझ में आएगा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से, गोश्त का उत्पादन बढ़ाने के लिए पश्चिम में लोग पशुओं को ज्यादा ठोस खुराक खिलाने लगे। विभिन्न प्रकार के अनाज के दाने उस ठोस खुराक का एक मुख्य अंग हैं। १९६१-६२ से १९७०-७१ तक, पशुओं को खिलाये जाने वाले अनाज में हर साल औसत में ६.३ प्रगिशत की वृद्धि हुई थी। अब विश्व के अन्नोत्पादन के ३१ प्रतिशत (यानी ३७ करोड़ टन) अनाज हर साल पशुओं को खिलाया जा रहा है। यदि हम मान लें कि औसत आदमी को सिर्फ आधा किलो अनाज रोज चाहिये, तो वह लगभग ढाई अरब लोगों की खुराक होगी। जापान में १९६० से लेकर १९७३ तक गोश्त की खपत चौगुनी हो गई थी, क्योंकि गोश्त का आयात नहीं होता था, इसलिये ऊपर से ऐसा दीखता था कि गोश्त के मामले में जापान स्वावलम्बी है। लेकिन गहराई से देखने से एक दूसरा तथ्य समझ में आयेगा कि १९६० से लेकर १९७० तक के दरमियान जापान में सोयाबीन की आयात तिगुनी हो गई थी और मक्का की आयात चौगुनी हो गयी थी। १९७२ में, गोश्त का उत्पादन बढ़ाने के लिए, रूस ने अन्न का उत्पादन कम किया था। आजकल रूस जैसे महान कृषि प्रधान देश में हर साल दो करोड़ टन गेहूं और एक करोड़ पशुओं के दाने की आयात होती है। ब्रिटेन में १९७२ में औसत आदमी ने ७७.४ किलोग्राम गोश्त खाया था। उस गोश्त का तिहाई हिस्सा विदेशों से आयात से मिला, जिसकी कीमत ७१.५ अरब पौंड थी। अपने पशुओं को खिलाने के लिए ३६ लाख टन अनाज की आयात भी हुई और वहाँ की एक तिहाई कृषि भूमि में पशुओं को खिलाने के लिए दाने बोये गये थे। १९७२ में विलायत में प्रोटीनों की खपत में ५७ प्रतिशत प्राणिज प्रोटीन थी। इन आंकड़ों को देखने से स्पष्ट होता है कि आजकल जो गोश्त खाने वाला होता है, वह गोश्त खाकर अन्य गरीब लोगों के अनाज को कम करता है जो आजकल भी बहुधा आधा पेट खाकर या भूखा रहता है। इसलिए अब मांसाहार त्याग के लिए सिर्फ अहिंसा तथा भूतदया नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय भी प्रेरणा देता है। आजकल मांसाहार त्याग का बहुत आवश्यक सामाजिक मूल्य भी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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