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________________ [ १९ था - " भारतीय कला के विकास में जैनों का योगदान" । इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए डा० बैजनाथ पुरी ने कहा कि जैन कला कृतियां केवल जैनधर्म से सम्बन्धित नहीं हैं, वरन् वे हमारी सांस्कृतिक थाती का अविभाज्य अंग हैं और राष्ट्रीय एकात्मक भावना की प्रतीक हैं। इस सब में डा० रामकुमार दीक्षित ने जिनेन्द्र प्रतिमा के विकास का, डा० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी ने जैन कला के विविध आयामों का डा० पुरु दाधीच ने जैन साहित्य में भारतीय संगीत का और डा० शशिकांत ने जैन स्थापत्य का मार्मिक विवेचन प्रस्तुत किया । तृतीय सत्र का विवेच्य विषय या "भारतीय दर्शन पर जैन चिन्तन का प्रभाव" इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए डा० ( कु० ) कंचनलता सब्बरवाल ने बताया कि जैन दर्शन ने भारतीय दर्शन को गम्भीर चिन्तन मनन एवं सत्य सम्बन्धी साधना के आधार पर की गई कठिन खोज के फलस्वरूप स्याद्वाद का सिद्धांत दिया और इस स्याद्वाद के आधार ने सत्य ज्ञान की प्रेरणा लेकर मानव को सत्कर्म आत्म विश्वास के साथ करने की क्षमता प्रदान की। साथ ही इस दर्शन ने जीव और अजीव के बीच निःस्वार्थ पावन सम्बन्ध रख कर ही जीवन की सार्थकता हो सकती है, इस ओर भी संकेत किया । डा० प्रद्युम्न कुमार जैन ने साधना विधि की, डा० ( कु० ) राधा शर्मा ने कर्म और मोक्ष सम्बन्धी स्थापनाओं की, डा० वशिष्ट नारायण सिन्हा ने आधुनिक पृष्ठभूमि में जैन दर्शन की और सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री ने जैन दर्शन की पृष्ठभूमि के मूलाधार अनेकान्त और स्याद्वाद की सहज सुबोध व्याख्या की चतुर्थ सन का विवेच्य विषय था- "भारतीय लोक संस्कृति का जैन पक्ष" । सत्र की अध्यक्षता करते हुए डा० जनार्दन दत्त शुक्ल, आई० सी० एस० (रिटायर्ड), ने बताया कि समन्वयवादी दृष्टिकोण को समाज में लाने का श्रेय मुख्यतया जैन चिन्तन पद्धति के भारतीय जन-जीवन पर व्यापक प्रभाव को है । भारतीय जीवन में निरामिष भोजन पर आग्रह एवं दानशीलता जैनों की अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्तों का परिणाम है। प्रो० उदयचन्द जैन ने पूजा एवं संस्कार विधि पर, श्री ज्ञानचन्द जैन ने पर्व और त्योहारों पर, श्रीमती मन्जरी जैन ने नारी की मर्यादा पर, डा० पूर्णचन्द जैन ने आहार में शाकाहार की उपयोगिता पर और डा० शिवनन्दन मिश्र ने जैन आचारविचार पर ज्ञानवर्द्धक प्रकाश डाला । ख- -७ संगोष्ठी का समापन करते हुए डा० ज्योति प्रसाद जैन ने अध्ययन के लिए वह अभीष्ट है कि जैन साहित्य और कला की, उसे जैन संस्कृति जहां अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व रखती है, वहीं पर वह होने से भी गौरवान्वित हूँ । आग्रह किया कि भारतीय संस्कृति के सम्यक् साम्प्रदायिक संज्ञा देकर उपेक्षा न की जाय । अखिल भारतीय संस्कृति का अविभाज्य अंग इस संगोष्ठी के सफल आयोजन के लिए संगोष्ठी के संयोजक डा० शशिकांत जैन एवं उनके सहयोगियों का अथक परिश्रम स्तुत्य है । नजीबाबाद राज्य समिति के आर्थिक सहयोग से नजीबाबाद में तीर्थंकर नैतिक शिक्षा पत्राचार इन्स्टीट्यूट के तत्वावधान में हिन्दी संत साहित्य में जैन साहित्यकारों का योगदान विषय पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता में दि० २१ २३ अक्टूबर १९७५ को एक विदिवसीय सेमीनार आयोजित किया गया। इसका संयोजन डा० प्रेमचन्द्र जैन ने किया। इस परिसंवाद गोष्ठी में डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने "राजस्थान के जैन संत कवि", श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी ने "संत साहित्य में जैन कवियों का योगदान", डा० कुन्दन लाल जैन ने "हिन्दी साहित्य के इतिहास में जैन संत कवियों का स्थान", डा० भागचन्द जैन ने 'हिन्दी संतसाहित्य में योगीन्दु का योगदान', डा० पुष्पार्जन ने 'हिम्दी संत साहित्य और द्यानतराय कु० पूर्णिमा ने 'हिन्दी साहित्य और जैन साहित्यकारों का तुलनात्मक विवेचन' और डा० रामस्वरूप आर्य ने "जैन संत कवियों का काव्य पक्ष" विषय पर अपने शोध निबन्ध पढ़ें तथा उन पर चर्चाएं कीं। डा० विजयेन्द्र स्नातक ने गोष्ठी का समापन किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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