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यदि महावीर तीर्थंकर
नहीं होते
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-आचार्य श्री तुलसी
मैं कई बार सोचता है कि यदि महावीर तीर्थंकर नहीं होते तो उनके अनुयायी उन्हें अतीत से कसकर रखते, आगे नहीं बढ़ने देते।
तीर्थकर शास्त्र-निरपेक्ष होते हैं, इसलिए वे देशकाल के औचित्य के अनुसार कार्य करने को स्वतन्त्र होते हैं।
महावीर जिस युग में हुए वह घोर जातिवाद का युग था। ब्राह्मण उच्च माने जाते थे और शूद्र नीच । चाण्डाल सर्वथा अछूत माने जाते थे । महावीर ने उन चाण्डालों को भी अपने संघ में प्रवजित होने की छूट दी थी।
भगवान महावीर जातिवाद के घोर विरोधी थे। आत्मौपम्य के सिद्धान्त की स्थापना करने वाला अहिंसावादी जातिवाद का समर्थक हो नहीं सकता । महावीर के शासन में न जाने कितने शूद्र और चाण्डाल दीक्षित हुए होंगे। महावीर यदि तीर्थकर नहीं होते तो उनके अनुयायी उन्हें ऐसा करने से अवश्य रोकते ।
अर्जुन मालाकार सुदर्शन सेठ के साथ महावीर की शरण में आ गया। महावीर ने उसे अपने धर्मसंघ की शरण में ले लिया। ऐसे क्रूरकर्मा व्यक्ति को सहसा अपने साधुसंघ में सम्मिलित कर लेना अकित घटना थी। यदि महावीर आचार्य होते तो ऐसा करने से अवश्य झिझकते किन्तु वे तीर्थंकर थे, इसलिए उन्हें वैसा करने में कोई संकोच नहीं हुआ।
महावीर सचमुच महावीर थे। तीर्थकर होने के पश्चात वे पूर्ण अभय थे । उनकी भयविमुखता ने ही उन्हें महावीर बनाया था। यदि वे भयसंकुल होते तो महावीर नहीं बन पाते। अभय का बीज अनासक्ति या अपरिग्रह है। यदि महावीर के मन में शिष्यों और अनुयायियों का लोभ होता तो वे अभय नहीं हो पाते। यदि महावीर के मन में सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रशंसा की आसक्ति होती तो वे अभय नहीं हो पाते । अनगिन बार देवताओं ने उनके सामने नाटक किया, पर उनका अन्त:करण कभी उन नाटकों से आकृष्ट नहीं हुआ। उनके सामने नाटक होते हैं, उसे लोग क्या समझेंगे, इस आशंका से वे कभी विचलित नहीं हुए।
उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व की अनगिन घटनाएं हैं। मैंने केवल इस ओर अंगुलि-निर्देश किया है ।
महावीर तीर्थकर थे, इसलिए वे विधि और निषेध में स्वतन्त्र थे। यह स्वतन्त्रता सहज ही प्राप्त नहीं होती। इसके लिए बहुत खपना पड़ता है । जैन दर्शन के अनुसार तीर्थंकर मनुष्य ही होता है। वह कोई देव रूप में अवतार नहीं होता। जिसकी साधना उच्च कक्षा में पहुंच जाती है, तीर्थकर हो जाता है।
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