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________________ ख-५ [ १९ भोजन का एक तत्व उसका स्वाद भी है। जीभ रस ग्रहण करती है और वह स्वाद को चखती है । जीभ यह भी निर्णय करती है कि कौन वस्तु खाने के योग्य है और कौन नहीं, किन्तु जिस प्रकार मनुष्य अपनी सभी इन्द्रियों का दुरुपयोग करने लगा, उसने जीभ की स्वाद लेने की प्रवृत्ति को बहुत महत्व दे दिया, फल यह हुआ कि आज शरीर के लिये उपयोगी न होने वाला भोजन भी मात्र स्वाद के कारण खाया जाता है। अहिंसा पर विशेष श्रद्धा रखने वाले भी जीभ के स्वाद के लिये मांसाहार के लिये मार्ग निकाल लेते हैं । ___ 'मांसाहार अधिक बलवर्द्धक है' इससे भ्रांतिपूर्ण और कोई धारणा नहीं। कर्नल कर्कब्राइड ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'हमारा भोजन और विश्वशांति' में ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि यह धारणा नितान्त निराधार है कि मांस खाने से प्राणी बलवान बनता है । कर्नल ने अनेक पशुओं को पालकर उन्हें शाकाहारी और मांसाहारी बनाकर तरह-तरह के प्रयोग किये हैं। अन्त में वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि शाकाहारी मांसाहारी से कमजोर नहीं होता है । इसी सम्बन्ध में किसी प्रसिद्ध मासिक पत्रिका में एक संस्मरण पढ़ने को मिला था जो इस प्रकार था पेशवा के शासन काल में महाराष्ट्र में बहुत से पहलवान तैयार किये जाते थे। ये पहलवान दूसरे प्रान्त के पहलवानों को पछाड़ देते थे, किन्तु जब कोई पंजाबी पहलवान आता था तो वे उससे हार जाते थे। यह बात महाराष्ट्र के पहलवानों के बहुत खटकती थी। अतः उनमें से एक पहलवान पंजाब गया और उनके अधिक ताकतवर होने का पता लगाया । उसने देखा, यहां के पहलवान अधिकतर मांसाहारी होते हैं। इसीलिये वे अधिक ताकतवर होते हैं। साथ ही उसने यह भी समझ लिया कि वे जल्दी थक जाते हैं। पता लगाकर वह महाराष्ट्र लौट आया । बाद में जब कोई पहलवान आता, उसके साथ वे पहले जोर नहीं लगाते । पंजाबी पहलवानों की पहली धसान तेज होती थी, फिर थक जाते थे, अतः अपनी तरकीब से महाराष्ट्र के पहलवान पहले उन्हें थका लेते थे, बाद में उनको पछाड़ देते थे । अतः पंजाबी पहलवान हारने लगे। फिर तो पांच साल बाद पंजाबी पहलवानों ने महाराष्ट्र में आने का नाम छोड़ दिया, और कोई पंजाबी पहलवान महाराष्ट्र में नहीं आया। उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह धारणा गलत ही है कि मांसाहार से बल में वृद्धि होती है । प्रयोग से यह भी सिद्ध हो चुका है कि मांसाहार से मनुष्य की तामसी वृत्ति बढ़ती है। यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात है कि जो मांस-भोजन नहीं करते उनमें सात्विकता अधिक दिखाई देती है। कर्नल कर्कब्राइड ने अपनी प्रयोगशाला में अनेक प्रयोग किये हैं । उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है 'अनेक प्रयोगों के पश्चात् मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि भोजन का प्राणी जीवन में निर्णायक महत्व है। भोजन हमारे मन एवं प्रवृतियों का निर्माता है। मैंने देखा है कि जिन जानवरों का भोजन मांस रहता हैं, वे प्रायः हिंसक और तामसी प्रकृति के होते हैं। जीवन के कोमल उदारभाव उनमें नहीं पनपते । बिना भूख, बिना जरूरत के भी वे हिंसा करते हैं। दूसरों को हानि पहुँचाते हैं । इसके विपरीत शाकाहारी पशु-पक्षी स्वभाव से ही जीवन के कल्याणकर पक्ष की तरफ प्रवृत्त पाये जाते हैं । क्षमा, सहिष्णुता, करुणा, परदुखकातरता आदि गुण उनमें अनायास ही विकसित होते रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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