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रत हैं । परोपकार एवं लोकसेवा के कार्यों में जैन जनों का सक्रिय योगदान अपनी जनसंख्या के अनुपात में शायद ही किसी अन्य धार्मिक समाज से कम हो ।
आत्मशोधन के उद्देश्य से एक सच्चा जैन गृहस्थ नित्यप्रति प्रातः, मध्यान्ह एवं सायं प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचनापाठ, द्वादशानुप्रेक्षा, सामयिकपाठ आदि विविध भावनाए भाता है। इनमें से एक अत्यधिक लोकप्रिय पाठ का प्रारंभ निम्नलिखित पद से होता है
जो व्यक्ति ऐसी उदात्त भावना के साथ अपने दिन का प्रारंभ तथा अंत भी करने का अभ्यस्त होता है, कोई कारण नहीं कि वह प्राणीमात्र को अपना मित्र वस्तुतः न मानने लगे ( मिस्ति मे सब्बभूएसू), उसका वैर विरोध फिर किसके साथ रहेगा ( वैर मज्झं ण केणवि), वह कैसे किसी का अपकार कर सकता है, कैसे किसी को कष्ट पहुँचा सकता ।
सत्व ेषु मैत्रीं गुणीषु प्रमोदं । क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं ॥ माध्यस्थभावं विपरीतवृत्ती । सदा मामात्मा विदधातु देव ॥
अपनी नित्य प्रातः सम्पादित की जाने वाली देव- पूजा का उपसंहार भी एक जैन गृहस्थ इस शांतिपाठ
के साथ करता है। ---
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देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञाः
क्षेमं
करोतु शान्ति भगवज्जिनेन्द्रः ।
सर्व प्रजानां प्रभवतु, बलवान्धामिको
काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा,
व्याध्यायान्तु
भूमिपाल: ।
दुभिक्षं-चोर-मारी
नाश्म ।
क्षणमपि,
जगतां मास्ममुज्जीव लोके ॥
अस्तु, भगवान महावीर और उनकी शिष्य परम्परा में उत्पन्न आचार्य पुंगवों ने एक जैन गृहस्थ के आदर्श का जो मान स्थापित किया, उसके आचार विचार के लिए जो विधि निषेध प्रतिपादित किये और उसका जो स्वरूप निर्धारित किया वह सर्वथा व्ववहार्य, सुकर एवं लभ्य है । एक आदर्श जैन गृहस्थ की दृष्टि सम्यक् या समाचीन होती है, स्वकृत कर्मों के शुभाशुभ फल में वह विश्वास करता है । वह श्रद्धावान ( अन्धविश्वासी नहीं),
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