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________________ २४ ] ख-४ विवेकावान, शीलवान, दयालु, परदुःखकातर, निर्भय, विनम्र, कर्तव्यपरायण, उदार, सहिष्णु, उद्यमी, साहसी, न्याय एवं धर्मभीरु, आशावादी और स्वपुरुषार्थ पर निर्भर होता है। वह एक संस्कृत, सभ्य एवं उत्कृष्ट नागरिक होता है, किसी छोटे से राज्य या राष्ट्र का ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व का। वह मानवता का पुजारी और अपने अन्तर के मानव को यथासंभव पूर्णतया विकसित करने का इच्छुक-प्रयासी होता है। ऐसे ही जैन गृहस्थों के विषय में आचार्यों ने कहा है: गृहस्थऽपि क्रियायुक्तो न गृहेण गृहाश्रमी । न चैव पुत्रदारेण, स्वकर्म परिवजितः ॥ तथा गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नव मोहवान । अनगारो गृही श्रेयाम् निर्मोहो मोहिने मुने ॥ अर्थात, जो क्रियावान-आचारवान है वह घर में रहते हुए भी गृहस्थी नहीं है, स्त्री सन्तान आदि भी उसके सन्मार्ग में बाधक नहीं हो पाते। एक मोह-मिथ्यात्व से रहित गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित रहता है, जबकि मोहग्रस्त साधु उससे भ्रष्ट हो जाता है-मोही मुनि की अपेक्षा मोह-मुक्त गृहस्थ श्रेष्ठ है । - श्रावक के इक्कीस गुण 28 लज्जावंत दयावंत प्रसंत प्रतीतवंत । परदोषको ढकया पर उपगारी है ।। सौमदृष्टि गुनग्राही गरिष्ट सबको इष्ट । शिष्टपक्षी मिष्टवादी दीरघ विचारी है। विशेषग्य रसग्य कृतग्य तग्य धरमग्य । न दीन न अभिमानी मध्य विवहारी है। सहज विनीत पापक्रियासो अतीत ऐसौ । श्रावक पुनीत इकबीस गुनधारी है। -कविवर पं० बनारसीदास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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