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________________ शाकाहार बनाम मांसाहार मांसाहार त्याग के विभिन्न आधार मांसाहार के लिये मनुष्य के पास कोई आधार नहीं है। मांसाहार एक अलाभकारी उपक्रम है । ऐसे निराधार उपक्रम के प्रति आखिर किसी का आग्रह क्यों ? -डा० ज्योति प्रसाद जैन संसार में जितने भी देहधारी प्राणी हैं, मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी, छोटे-मोटे जीव-जन्तु कीड़े-मकोड़े तक, सुख-शांति चाहते हैं, दुःख से घबराते हैं, सभी जीना चाहते हैं और प्राण रक्षा या जीवन संरक्षण के लिए प्रयत्नशील रहते हैं । इस प्रयत्न में वे आहार, भय, मेंथुन और परिग्रह नामक चार सहज-संज्ञाओं से सतत प्रेरित रहते हैं । इनमें सर्वप्रथम एवं प्रधान संज्ञा आहार है जो भूख और प्यास की बाधाओं को दूर करने के लिए किया जाता है । प्राणी सब कुछ सहन कर सकता है, बड़े से बड़ा कष्ट, अभाव, संकट और आपत्ति - विपत्ति का सामना कर सकता है, किन्तु भूखा और प्यासा रहकर जीवित नहीं रह सकता । भूखा और प्यासा रहने की सीमाएँ और कालावधियाँ व्यक्ति-व्यक्ति और प्राणी प्राणी के साथ अल्पाधिक हो सकती हैं और इन बाधाओं को शान्त करने के लिए ग्रहण की गई सामग्री की मात्रा, रूप और प्रकार भी भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, परन्तु ऐसा कोई प्राणी नहीं जो भूखा-प्यासा रहकर जीवित रह सके । अतएव उपयुक्त भोजन और जल जीवन एवं प्राणों के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं । जन सामान्य की तो बात ही क्या, ऐसे गृह एवं आरम्भ-परिग्रह त्यागी तपस्वी साधुसंन्यासी भी, जिनका एकमात्र उद्देश्य धर्मसाधन है, शरीर का संरक्षण करते ही हैं, क्योंकि धर्मसाधन का मूलाधार भी तो शरीर ही है, और शरीरको सक्षम बनाए रखने के लिए उपयुक्त आहार का ग्रहण करना अत्यन्त आवश्यक 1 प्रश्न यह होता है कि मनुष्य की उस प्राकृतिक क्षुधा तृषा की तुष्टि और उसके शरीर का आवश्यक संरक्षण-पोषण किस रूप में हो - उसका, खान-पान क्या और कैसा हो ? इस सम्बन्ध में प्राकृतिक चिकित्साशास्त्रीय, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और नैतिक, विविध दृष्टियों से विचार किया जा सकता है । Jain Education International मनुष्य शरीर की संरचना, उसके मुँह, दातों, हाथ की अंगुलियों एवं नखों और पाचन तन्त्र की बनावट के आधार पर प्रसिद्ध शरीर रचना शास्त्री एवं वैज्ञानिक मनुष्य को तृण-कुशाचारी पशुओं की भाँति वनस्पत्याहारी अथवा शाकाहारी (फगीवोरस) प्राणियों में परिगणित करते हैं, मांसाहारी ( कार्नीवोरस) प्राणियों में नहीं । किंग्सफोर्ड, पौशेट, वैश्न, कुवियर, लिन्नयस, लारेन्स, लंकास्टर प्रभृति अनेक पाश्चात्य विशेषज्ञों का मत है कि मात्र शाकाहार ही मनुष्य की प्रकृति और उसके शरीर तंत्र की भीतरी एवं बाहरी संरचना के सर्वथा अनुकूल है । इसके विपरीत, मांसाहार मनुष्य प्रकृति के प्रतिकूल है, उसके द्वारा कुछ अंशों में वह अपनी शारीरिक एवं मानसिक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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