________________
ख -४
[ ६५
-उसमें कलिंग के जैन शासक खारवेल का एक शिलालेख खुदा हुआ है। लेख से ज्ञात हुआ है कि ईसवीपूर्व चौथी शती में मगध के राजा महापद्मनन्द तीर्थंकर की एक मूर्ति कलिंग से अपनी राजधानी पाटलिपुत्र उठा ले गये थे। खारवेल ने ईसवी पूर्व दूसरी शती के मध्य में उस प्रतिमा को मगध से अपने राज्य में लौटाकर पुनः प्रतिष्ठापित किया। इस शिलालेख से पता चलता है कि तीर्थंकर मूर्तियों का निर्माण नंदराज महापद्मनन्द के पहले प्रारम्भ हो चुका था। जैन साहित्यिक अनुभूति से भी पता चलता है कि चन्दन की तीर्थकर मूर्तियां भगवान महावीर के समय से या उनके निर्वाण के पश्चात् ही बनने लगी थीं ।
उत्तर भारत में जैन कला के जितने प्राचीन केन्द्र थे उनमें मथुरा का स्थान महत्वपूर्ण है । मौर्यकाल से लेकर आगामी लगभग सोलह शताब्दियों से ऊपर के दीर्घकाल में मथुरा में जैनधर्म का विकास होता रहा। वहां के चित्तीदार लाल बलुए पत्थर की बनी हुई कई हजार जैन कलाकृतियां अब मथुरा और उसके आसपास के जिलों से प्राप्त हो चुकी हैं। इनमें तीर्थकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त चौकोर 'आयागपट', वेदिका स्तम्भ सूची, तोरण तथा द्वार स्तम्भ आदि हैं । मथुरा के जैन आयागपट ( पूजा के शिलाखण्ड) विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं । उन पर प्रायः बीच में तीर्थंकर मूर्ति तथा उसके चारों ओर विविध प्रकार के मनोहर अलंकरण मिलते हैं। स्वस्तिक, नन्दयावर्त, धर्ममानक्य, श्रीवत्स, भद्रासन, दर्पण, कलश और मीन युगल इन अष्टमंगल द्रव्यों का आयागपट्टों पर सुन्दरता के साथ चित्रण किया गया है। एक आयागपट्ट पर आठ दिक्कुमारियां एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए आकर्षक ढंग से मण्डल नृत्य में संलग्न दिखाई गई हैं। मण्डल या 'चक्रवाल' अभिनय का उल्लेख 'रायपसेनियसूत' नामक जैन ग्रंथ में भी मिलता है। एक दूसरे आयागपट्ट पर तोरणद्वार तथा वेदिका का अत्यन्त सुन्दर अंकन है। वास्तव में वे आयागपट्ट प्राचीन जैन कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इनमें से अधिकांश अभिलिखित हैं, उन पर ब्राह्मी लिपि में लगभग ई० पू० एक सौ से लेकर ईसवी प्रथम शती के मध्य तक के लेख हैं ।
पश्चिमी भारत, मध्य भारत तथा दक्षिण में पर्वतों को काटकर जैन देवालय बनाने की परम्परा दीर्घ काल तक मिलती है। विदिशा के समीप उदयगिरि की पहाड़ी में दो जैन गुफाएं हैं। संख्या एक की गुफा में गुप्तकालीन जैन मन्दिर के अवशेष उपलब्ध हैं। उदयगिरि की संख्या २० बाली गुफा भी जैन मन्दिर है उसमें गुप्तसम्राट कुमारगुप्त प्रथम के समय में निर्मित कलापूर्ण तीर्थंकर प्रतिमा मिली है ।
गुजरात, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में पर्वतों को काटकर बनाये गये अनेक मन्दिर विद्यमान हैं। बादामी के चालुक्य राजवंश तथा मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजवंश के शासनकाल में शिलाओं को काटकर मन्दिर स्थापत्य बनाने की परम्परा बहुत विकसित हुई ईसवी ५५० और ८०० के मध्य में कर्नाटक में बादामी, पट्टदकल तथा ऐहोले में अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ। इनमें से कई मन्दिर शिलाओं को काटकर बनाये गये। शेष समतल भूमि पर पत्थरों द्वारा बनाये गये भारतीय स्थापत्य कला के विकास के अध्ययन हेतु कर्नाटक के इन मन्दिरों का विशेष महत्व है । उत्तर भारत में 'नागर शैली' के मन्दिर बनाये जाते थे, जिनका मुख्य लक्षण ऊंचा शिखर था । चालुक्यों के समय में कर्नाटक के अनेक मन्दिर 'बेसर शैली' के बनाये गये इस शैली की विशेषता यह है कि उसमें उत्तर भारत की शिखर प्रणाली तथा दक्षिण की विमान शैली का सम्मिश्रण है ।
दक्षिण भारत का मन्दिर वास्तु 'द्रविड़ शैली' के नाम से प्रसिद्ध हैं। चालुक्यों के समय में कर्नाटक में निर्मित अनेक मन्दिरों में द्रविड़ स्थापत्य का रूप मिलता है। बादामी पर्वत को काटकर बनाया गया एक विशाल जौन मन्दिर उल्लेखनीय है । इस मन्दिर में विभिन्न अलंकरणों को तथा जैन देवी देवताओं की प्रतिमाओं को प्रभाव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org