SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ३१ समता सभी के साथ सबदिन, आप की रहती रही। इस हेतु सेवा आप की, निश्छल मही करती रही ॥५॥ -रामचरित उपाध्याय हे पूर्ण पुरातन हे पूर्ण पुरातन, अनघ, अभय, हे दिव्य, अनामय चिर-अशेष। तुम अभिनव, अभिनव गति महान, अभिनव अभिनन्दन, नयनिवेश ॥ युग-परिवर्तक, युग गति वाहक, युग युग अजेय दुर्द्धर्ष "वीर"। भारत-भूतल कर गये स्वर्ग, नारकी विश्व का वक्ष चीर ॥ हिंसक समष्टि की दृष्टि हुई नयस्नात, मिला आलोकसघन । अभिनवोत्थान-पथ पर पहुंचा, इस जीर्ण जाति का जर्जर मन ॥ हिंसा की वेदी पर पोषित, युग राष्ट्र-धर्म अनुदार प्रबल । अभिसिञ्चित हुआ अहिंसा के, सुचि मधुरस से पावन अविरल ॥ वैशाली के अवशेष वहन, करते अबभी वे सदुपदेश । करता अब भी आख्यान सरल, निज भाल उठा हिमिगिर नगेश ॥ बहता है पुण्य-प्रसू भू पर, नैसर्गिक जीवन का प्रवाह । गुञ्जित अम्बर में, श्रुतियों में नय-मिश्रित वे स्वर अनवगाह ॥ तुम बढ़े, बढ़ चला विश्व, पुण्य-शिक्षा-दीक्षा का ले प्रश्रय । अमृत वाणी से फूट पड़ा, मृतकों के प्रति जीवन अक्षय ॥ तुमने उस हिंसा के युग में थे, दिये देश के नयन खोल । हिंसा प्रतिहिंसा के उर में भर भ्रातृभाव का स्वर अमोल ॥ तुमने परार्थ बलिदान किया, हे वीर ! स्व का, तुम हो महान । तुमने विनाश के खण्डहर पर, नव सृजन किया दे अभयदान ॥ तुमने बन्धन के जराजीर्ण बन्धन को ध्वस्त किया उदार । दासत्व मिटाया कर निनाद, सम भ्रातृभाव का महोच्चार ॥ मानवता का जय घोष, अमर-शंखध्वनि प्रचुर प्रगति अमन्द । निर्दयता का दृढ़ भाल तोड़ निर्मम पशुबलि हो गई बन्द ॥ नर्तित था जाति-अहंता के, वक्षसू पर समतासुधा राग । अनुराग बढ़ा भिन्नता भूल, बह चला पुण्य पावन पराग ॥ जुड चली भिन्न भंगुर कड़ियाँ, बनने को फिर श्रंखला एक । हो चले एकमय-महा एक, वे छिन्न-भिन्न अगठित अनेक ॥ हम जगे, जगी जगती अशेष, कर उच्च भव्य भारत ललाट । जगधन्य हुआ सीखा हमसे, प्रिय-विश्व बन्धु'-मिद्धान्तराट् ॥ V Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy