Book Title: Avashyak Niryukti Part 01
Author(s): Sumanmuni, Damodar Shastri
Publisher: Sohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अर्ह आचार्य भद्रबाहु विरचित आवश्यक-निर्युक्ति (आचार्य हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति सहित ) सम्प्रेरक, संयोजक एवं प्रमुख सम्पादक पू.श्री सुमन कुमार जी म. सा. 'प्रज्ञामहर्षि' (उ.भा. प्रवर्तक) अंगुलमावलियाणं, भानामसंरिवज्ज दोसुसंविज्जा। अंगुलमावलि अंती,आवलिआ अंगुलपुहुत्तं।। हत्टमि मुहुत्तन्ती, दिवसंतो गाउयंमि बोद्धच्चो। जोयण दिवसपुहुतं,पक्वन्तो पण्णवीसाओ।। भरहमि अद्धमासो, जंबूढीवंमि साहिओ मासी। वासं च मणुअलोए, वासपुहुत्तं च रुयामि।। संविज्जमि उ काले, दीवसमुद्दा वि हुँति संविज्जा। कालंमि असंरिवज्जे, दीवसमुद्दा उ भइयत्वा।। ध्यापक पूर्व हिन्दी अनुवादक एवं विवेचक प्रो. डॉ. दामोदर शास्त्री पीठिका Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्ह आचार्य भद्रबाहु विरचित आवश्यक-नियुक्ति [आचार्य हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति सहित] (पूर्वपीठिका) (प्रथम खण्ड) सम्प्रेरक, संयोजक एवं प्रमुख सम्पादकः 3. भा. प्रवर्तक पू. श्री सुमन कुमार जी म. सा. 'प्रजामहर्षि - हिन्दी अनुवाद व विवेचना : प्रो. डॉ. दामोदर शास्त्री आचार्य, जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म व दर्शन विभाग जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनूं-341306 (नागौर, राज.) प्रकाशक आचार्य श्री सोहनलाल जैन ग्रन्थ प्रकाशन अम्बाला शहर-134003 (हरियाणा) ई. 2010 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ International Standard Book Number (ISBN): 81-7195-135X ग्रन्थ नाम : आवश्यक नियुक्ति (हिन्दी अनुवाद सहित) अनुवादक व विवेचक : प्रो. डॉ. दामोदर शास्त्री मूल प्रेरक : श्री चमनलाल मूथा, रायचूर (कर्नाटक) प्रेरक/प्र. सम्पादक : मुनि सुमन कुमार जी श्रमण' (प्र. उ. भा.) सहयोग : प्रबल पुरुषार्थी भंडारी मुनि सुमन्तभद्र जी म. (बाबा जी) अर्थ सौजन्य : श्री दीवानचन्द जी जैन (साढौरा वाले), लुधियाना (पंजाब) SORRE प्रथम संस्करण : सन् 2010 मुद्रण : 500 प्रतियां मूल्य : पठन-पाठन (केवल डाक व्यय) प्राप्ति-स्थान : 1. आचार्य श्री सोहनलाल जैन ग्रन्थ प्रकाशन, श्री महावीर जैन भवन, बाजार बस्तीराम, अम्बाला शहर-134003(हरियाणा) 2. श्री महावीर जैन स्वाध्याय पीठ, जैन स्थानक, प्रकाशन व्यवस्था ____ एस. एस. जैन संघ, 17, बर्किटरोड़, टी नगर, चेन्नई-600017 (तमि.) अशोक जैन, आ. सो. जैन सामग्री भण्डार, अम्बाला शहर : श्री आनन्द शास्त्री, श्रुतगङ्गा प्रकाशन, (मोबा.-09571773477) 614, झंकार गली, चिराग दिल्ली, नई दिल्ली-17 कम्प्यूटर टाईप सेटिंग KHARA मुद्रण स्थान _ तिलोक प्रिन्टिग प्रेस, बीकानेर, मोबा.-09314962475 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (With Acharya Haribhadra Suri's Sanskrit Commentary) Avashyaka Niryukti (Vol. 1) Project-Chief, Chief Patron & Chief Editor Rev. Muni Sri Suman Kumarji, Prajnamaharshi (Uttar Bharatiya Pravartak) Hindi Translator & Annotator Prof. Dr. DAMODAR SHASTRI Professor Deptt. of Jainology and Comparative Religion & Philosophy. Jain Vishva Bharti University, Ladnun-341306 (Raj.) Publishers : Acharya Shri Sohanlal Jain Granth Prakashan Ambala City-134003 (Haryana) 2010 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ABOUT THE BOOK The Avashyaka Sutra occupies a very prominent place among the Jain canonical texts. This work is divided into six sections dealing six essential activities that must be undertaken by all the ascetics everyday without fail. These activities are- 1. Samayika, 2. Caturvimsati-stava, 3. Vandana, 4. Pratikramana, 5. Kayotsarga and 6. Pratyakhyana. The oldest commentary in Prakrit verses (gathas) on this Avashyaka Sutra is Niryukti which is regarded as having been composed by Acharya Bhadrabahu. There are two Acharyas having name of Bhadrabahu, one is Bhadrabahu-I, designated as Shrutakevali & Chaturdash Purvadhara (probably in 3-4 century B.C.), the other is Bhadrabahu-II (5-6 century A.D.) The orthodox tradition believes that (Shrutakevali) Acharya Bhadrabahu-I is the author of this Niryukti. But most of the Jain scholars are of the opinion that the author of Niryukti must not be (Shrutakevali) Bhadrabahu-I. According to some scholars, the Niryukti gathas were composed even before Bhadrabahu-II; many of them have been included in present Niryukti. Thus, the original Niryukti has undergone with several additions. It is also observed that some of the gathas of Niryukti & Bhasya are intermixed. There is reason to believe that the completion of this present Niryukti must have taken place upto the time of Acharya Bhadrabahu-II, and a good number of the gathas have been included by him in this Niryukti which had came to him through tradition. Avashyaka Niryukti is a vast treatise. Its available edition consists of more than thousand gathas. It becomes more voluminous when it is presented with its Sanskrit commentary. The oldest Sanskrit commentary on Avashyaka Niryukti has been composed by distinguished & eminent Jain Acharya Haribhadra Suri of 8th century A.D. In this present volume, only 79 gathas of said Niryukti with the skt. Commentary of Acharya Haribhadra are included. This portion is regarded as an introductory part (Purva-Pithika) of the Niryukti, wherein the detailed discussion regarding the five categories of five knowledge has been made. The admirable feature of this edition is that Niryukti gathas & its sanskrit commentary, both have been translated in hindi and detailed explanation, wherever necessary, has also been made thereon. Hence, this volume will fulfill the much-felt need and will be cordially welcomed. The remaining parts of this work will be published in due course of time. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ के प्रकाशन में अर्थसौजन्य के प्रदाता साढौरा (हरियाणा) निवासी श्रीमती उषा जैन श्री दीवानचन्द जी जैन जन्म : 2 जुलाई 1929 पिता माता पौत्र-पौत्री श्री मुकन्दीलाल जैन श्रीमती सरदारीदेवी जैन श्री अविनाश जैन, श्री मुकेश जैन श्री अंशुल जैन, श्री संभव जैन, आश्मा जैन, तन्वी जैन, आश्मा निटवेयर, महावीर जैन कॉलोनी, गली नं. 4, लुधियाना (पंजाब) डिप्लोमा मैकेनिकल इंजीनियर (अवकाश प्राप्त) फर्म शिक्षा व सेवाकार्य : Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 705900SOC ODIOCCODISACCOGLIEGT 4. प्रज्ञामहर्षि प्रवर्तक मुनि सुमन कुमार "श्रमण' Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रकाशन के प्रमुख प्रेरणास्रोत गुरुदेव उ.भा. प्रवर्तक मंत्री मुनि श्री सुमनकुमार जी म. (शब्द चित्र) ARRDER जन्म : जन्मस्थान पिता माता दीक्षा दीक्षा नगर : गुरुदेव गुरुमहदेव शिक्षा : : सन् 1936ई., संवत् 1992, माघ सुदि, वसंत पंचमी बीकानेर 'पांचु गांव' (राजस्थान) श्री भीवराज जी चौधरी श्रीमती वीरांदे जी सन् 1950, संवत् 2007, आसोज सुदि 13 साढौरा (तत्कालीन पंजाब), हरियाणा मुनि श्री महेन्द्रकुमार जी महाराज प्रवर्तक पं. श्री शुक्लचन्द्र जी महाराज संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाएं तथा आगम व आगमेतर साहित्य उत्तरभारतीय प्रवर्तक, श्रमणसंघीय सलाहकार, मंत्री, इतिहासकेसरी, प्रवचनदिवाकर, निर्भीक वक्ता, दक्षिणकेसरी, प्रज्ञामहर्षि आदि मिलनसारिता, सरलता, निर्भीकता तथा सिद्धान्तवादिता, स्पष्टवादिता, समन्वयवादी विचारों के धनी। लेखन, सम्पादन, अनुवादन तथा प्रवचन में प्रवीण। अलकरण विशेष गुण : Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु-परम्परा णमो अरिहंताणं | णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं / णमो लोए सव्वसाहूणं आचार्य श्री अमर सिंह जी म. प्रधानाचार्य श्री सोहन लाल जी म. पंजाब केसरी आचार्य श्री पुज्य कांशी राम जी म. ఓడింది. ఆది చేసిండికేడి కేడ్మిదే प्रवर्तक पं. र. श्री शुक्लचन्द्र जी महाराज तपस्वी श्री सुदर्शन मुनि जी महाराज सा. मुनि सुमंत भद्र भंडारी बाबा गुरुदेव पं. श्री महेन्द्र मुनि जी महाराज उत्तर भारत प्रवर्तक प्रज्ञा महार्षि श्री सुमन मुनि जी महाराज Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम श्रद्धेय, प्रज्ञामहर्षि, श्रमणसंघीय सलाहकार, उत्तरभारतीय प्रवर्तक, मंत्री निश्रा सुमनकुमार जी म. सा. का संक्षिप्त जीवन परिचय श्रमणसंघीय सलाहकार उत्तरभारतीय प्रवर्तक, मंत्री, स्पष्टवक्ता, विद्वद्वर्य, प्रज्ञामहर्षि, परम श्रद्धेय श्री सुमनकुमार जी म. सा. श्रमणसंघ के एक महान् संत हैं / जन-जन को आलोक प्रदान करते हुए 'तिन्नाणंतारयाणं' के पद को सार्थक कर रहे हैं। आपकी वाणी में ओज है, व्यवहार में माधुर्य है और हृदय में सरलता, करुणा एवं सद्भावना की त्रिवेणी प्रवहमान है। वस्तुत: संतों के जीवन को शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता, क्योंकि उनके उपकार अनंत होते हैं, और अनंत को सीमाओं में बद्ध नहीं किया जा सकता है। तथापि बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी श्रद्धेय प्रवर्तकश्री जी के जीवन को लघु शीर्षकों के माध्यम से आप तक पहुंचाने का यह एक विनम्र प्रयास है। जन्म: राजस्थान प्रान्त के अंतर्गत बीकानेर राज्य। बीकानेर जिले में नोखामण्डी, सन्निकट ग्राम पांचु। इसी ग्राम के निवासी दम्पति श्री भीवराज जी चौधरी एवं श्रीमती वीरांदे। जाति जाट, वंश गोदारा। विक्रम | संवत् 1992, माघ शुक्ल पंचमी (वसंत पचंमी), ई. सन् 1936को एक पुण्यात्मा ने वीरांदे की पावन कुक्षी से जन्म लिया।नामकरण किया गया-गिरधारी। गिरधारी लाल के एक बडे भ्राता थे।शैशव-अवस्था में ही माता-पिता का वियोग हो गया। मातृ-पितृ वियोग के पश्चात् गिरधारीलाल को पुन: ममता मिली- वयोवृद्धा गुरुणीवर्या श्री रुक्मां जी से। आपश्री बृहद् नागौरी लौकागच्छीय उपाश्रय की उपासिका थीं। आपको बालक में शुभ लक्षण - दृष्टिगोचर हुए। संघ की आज्ञा प्राप्त करके बालक को सुशिक्षित करना प्रारंभ किया तथा व्यवहारिक शिक्षा 'सेठिया जैन हाई स्कूल' में सम्पन्न होने लगी। तेरह वर्ष की अवधि तक सांगोपांग अध्ययन करके युवा गिरधारी पंजाब प्रान्त में आ गए। सत् संगति से युवावस्था में प्रवेश करते ही आपश्री के हृदय में वैराग्य उत्पन्न हुआ जो क्रमश: सुदृढ़ होता गया। अंतत: आप पंजाब प्रान्त के तत्कालीन युवाचार्य पण्डित-रत्न श्री शुक्लचन्द्र जी म. सा., तथा मुनिश्री महेन्द्रकुमार जी म. सा. की सेवा में शाहकोट (जि. जालंधर) पहुंच गये। वहां आपका ज्ञानार्जन सुचारु रूप से सम्पन्न होने लगा। दीक्षा: उपर्युक्त महापुरुषों के त्याग-वैराग्य, शास्त्र-ज्ञान आदि सद्गुणों ने आपके मानस को आकर्षित किया। महापुरुषों के चरण-सरोजों में रहकर आप अपने को धन्य समझने लगे। आपकी धर्मश्रद्धा, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राहकालय गुरुभक्ति, एकाग्रता, सेवा-विनय आदि के कारण सद्गुरुओं की कृपादृष्टि का वर्षण सदैव आप पर होता रहा। साढोरा (पंजाब) में आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई- विक्रम संवत् 2007, दिनांक 23 अक्तूबर 1950 सोमवार की पावन वेला में। दीक्षा प्रदाता श्रद्धेय श्री हर्षचन्द्रजी म. सा. थे और शिष्य घोषित किए गएपंडितरत्न श्री महेन्द्रकुमार जी म. सा. के। गिरधारीलाल' अब मुनिश्री सुमनकुमार जी म. सा. के नाम से अभिहित हुए। मुनि श्री सुमनकुमार जी ने पण्डितवर्य प्रवर्तक श्री शुक्लचंद्रजी म. सा. और गुरुदेव श्री की उपस्थिति में रहते हुए आगम-साहित्य, आगमेतर साहित्य का तथा संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं का अध्ययन किया। इतिहास आपका प्रिय विषय रहा। जैन धर्म के इतिहास का भी आपने विहंगावलोकन एवं उनके हार्द तक पहुंचने का प्रयास किया। सर्वतोमुखी व्यक्तित्व बाह्य व्यक्तित्व : गौरवर्ण, प्रदीप्त भाल, विशालनेत्र, उन्नत देहयष्टि / आभ्यन्तरिक व्यक्तित्व H सहृदयी, प्रशान्तचेता, करुणाशील, स्पष्टवक्ता आदि गुणों से युक्त! श्रमण-संघ-सेवा: संघ समाज के ऐक्य एवं समन्वय के आप प्रमुख विचारक, व्याख्याता तथा मार्गदर्शक रहे हैं। संघ-विषयक आपकी विचारधारा बेजोड़ एवं नीति सुस्पष्ट रही है। एक कुशल नीतिज्ञवत् आप संघ और समाज के तनावग्रस्त सदस्यों के विचार जानकर अपनी तर्कणा शक्ति से उनका हृदय परिवर्तित कर देते हैं। आपने आज तक पांच श्रमण-सम्मेलन पूज्य गुरुमह एवं गुरुदेवश्री की निश्रा में देखे हैं। ई. 1964 में अजमेर के प्रतिनिधि श्रमण शिखर सम्मेलन' में पंजाब प्रान्त की ओर से पूज्य-प्रवर्तक श्री जी के प्रतिनिधि के रूप में तथा मनि श्री सशील कमार जी. प्रवर्तक पूज्य श्री पथ्वीचंद्र जी म. आदि का 'प्रोक्सी' प्रतिनिधित्व आपने किया। पूना में सन् 1987 के अप्रैल मास में सम्पन्न हुए श्रमण महासम्मेलन में आचार्यश्री जी ने आपको विशेष रूपेण आमंत्रित किया। लगभग 2200 कि.मी. की यात्रा सम्पन्न कर केवल साढ़े तीन माह में आप पूना (महाराष्ट्र) पधारे। विविध पदः ____ 1. उत्तर भारतीय प्रवर्तक : दिनांक 15-8-2001 को आचार्यसम्राट् श्री शिव मुनि जी महाराज ने आपको इस पद पर नियुक्त किया। ____2. श्रमणसंघीय सलाहकार : आचार्यश्री आनंदऋषिजी म. सा. के आदेशानुसार आदिनाथ सोसायटी, पूना के शिष्ट मंडल ने ई. 1987 में आपश्री को इस पद पर अभिषिक्त किया। स्थल-पूना के सन्निकट। ___3. मंत्री : आचार्यश्री के आदेशानुसार उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी म. सा. की तथा उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी म. सा. की सन्निधि में ई. सन् 1988 में विधिवत् घोषणा की गई। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. शांतिरक्षक : पूना श्रमण-संघ सम्मेलन का सुचारु रूप से संचालन करने हेतु ई. 1987 में यह पद प्रदान किया गया। 5. इतिहास केसरी : सन् 1983 में श्री मनोहरमुनि जी म. सा. के उपाध्याय-पद समारोह में इन्हें इतिहास-केसरी उपाधि दी गई। प्रदाता थे- आचार्य अमरसिंह जैन श्रमण संघ के संत प्रमुख श्री रतनमुनि जी म. सा.। 6.निर्भीक वक्ताः सन् 1963 में श्री एस. एस. जैन सभा, रायकोट द्वारा प्रदत्त। 7. प्रवचन दिवाकर : श्री एस. एस. जैन सभा, फरीदकोट द्वारा ई. 1985 में यह पद प्रदान किया गया। 8. प्रज्ञामहर्षि : सन् 1999 मद्रास के टी. नगर श्री संघ ने आपको इस पद से सम्मानित किया। 9. दक्षिणकेसरी : सन् 2000 के रायचूर वर्षावास में तत्रस्थ श्री संघ ने आपको उक्त पद से सम्मानित किया। विहार-यात्रा: जैन श्रमणों का जीवन 'चरैवेति चरैवेति' उक्ति का ही पर्याय है। बस चलते रहो। वह भी पैदल विचरण, कितना कष्टदायक। फिर भी धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु ये यावज्जीवन एक प्रांत से दूसरे प्रान्त में परिभ्रमण करते रहते हैं। आपश्री का विचरण क्षेत्र अति विस्तृत है। यथा- पंजाब, राजस्थान, हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंधप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि / इन प्रान्तों के छोटे-बड़े नगरों में घूम-घूम कर आपश्री ने धर्मध्वजा फहराई। वर्तमान में आप उत्तरभारत में पंजाब के क्षेत्र में विचरण कर रहे हैं। साहित्य सेवा: परम श्रद्धेय गुरुदेव प्रवचनकार होने के साथ-साथ साहित्यकार भी हैं। आप आगम शास्त्र के महान् मर्मज्ञ हैं एवं आगमों की व्याख्या अत्यन्त सुन्दर ढंग से करते हैं। जैन सिद्धान्तों को भी आप सहज एवं सरल ढंग से व्याख्यायित करने में सिद्धहस्त हैं। आप द्वारा लिखित, संपादित, अनूदित, व्याख्यायित कृतियों की सूची इस प्रकार है (1) पंजाब श्रमण संघ गौरव आचार्य श्री अमरसिंह जी म. (2) अनोखा तपस्वी श्री गैंडेरायजी म. (जीवनी द्वय) (3) बृहद् आलोचना (लाला रणजीतसिंह जी कृत) (संपादन-अनुवाद) (4) देवाधिदेव रचना (संपादित-अनुवादित) (5) तत्त्व चिंतामणि भाग-1, 2, 3, (परिभाषित एवं संपादित) (6) श्रावक कर्त्तव्य (श्रावक. आचार की मार्गदर्शिका) (7) शुक्ल ज्योति (जीवनी) (8) शुक्ल स्मृति (जीवनी) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (9) शुक्ल प्रवचन भाग-1,2,3,4,5,6,7,8 (10) सुमनवाणी (11) आवश्यक सूत्र (अंग्रेजी) (आत्मसिद्धि शास्त्र का लगभग 1000 पृष्ठों में विस्तृत विवेचन) (12) शुक्ल प्रवचन (13) मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थाधिगमसूत्र) (पं. पन्नालाल बाकलीवाल की भाषा टीका सहित, समीक्षात्मक विवेचन व अध्यायसार सहित) ____(14) शुक्ल वाणी (अम्बाला शहर में 2003 ई. में दिये गये प्रवचनों का संकलन) विशेषताः श्रमण संघ में ऐक्य-संगठन, न्याययुक्त रीति-नीतियों के संदर्भ में आप समय-समय पर श्री अ. भा. श्वे. स्था. श्रमण संघ के सर्वोच्च अधिशास्ता, अनुशास्ता आदि पदवीधारी महाश्रमणों के साथ एवं पदाधिकारी श्रावक आदि वर्ग के साथ स्पष्ट विचार-विनिमय करते रहे हैं। श्रमण संघीय विधान संशोधन, प्रवर्तक एवं उपाध्याय-युवाचार्य पद के विवाद पर आपका न्याय पक्ष पर अडिग रहना सर्वविदित है। आपके हृदय में धर्मशासन के प्रति श्रद्धा, समर्पण-भाव, संघनिष्ठा, समन्वय-पद्धति के विशेष गुण विद्यमान हैं / आप प्रकृति से नम्र, मिलनसार हैं तथा साथ ही साथ निर्भीक एवं सिद्धांतवादी हैं। अतिशय प्रशंसा के आप विरोधी रहे हैं / यथार्थ के अधिक विश्वासी होने के कारण समाज के व्यक्तियों के प्रशंसा के गीत गाना और सुनना पसंद नहीं करते हैं / उपेक्षित एवं प्रताड़ित सदस्यों के आप सदा पक्षधर रहे हैं। कुल मिलाकर आपका जीवन तेजस्विता एवं ओजस्विता से परिपूर्ण रहा है। शिष्य परिवारः विद्याभिलाषी, सेवाभावी श्री सुमंतभद्रजी म., 'साधक', मुनि श्री गुणभद्र (मेजरमुनि) जी म., श्री नवीन मुनि जी म., श्री लाभमुनि जी म. आपके शिष्य प्रशिष्य-परिवार के मुनिराज़ हैं। संस्थापित धर्म संस्थाएं: आपश्री द्वारा संस्थापित संस्थाओं की सूची विस्तृत है। संक्षिप्ततः आपकी सद्प्रेरणा से निर्मित कतिपय संस्थाओं का विवरण यहां प्रस्तुत है। ये संस्थाएं शिक्षा, स्वास्थ्य, साहित्य-सेवा, धर्म-साधना आदि विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति-पथ पर गतिमान हैं। आपका धर्म-साधना के साथ-साथ मानव मात्र के कल्याण का उद्देश्य भी रहा है। इन संस्थाओं के निर्माण में आपकी भागीदारी न समझें, अपितु प्रवचन द्वारा प्रबल-प्रेरणा से प्रेरित विनिर्मित संस्थाएं समझें। (1) श्री महावीर जैन पुस्तकालय' (जैन स्थानक), रायकोट, सन् 1954 (2) पूज्य श्री काशीराम जैन स्मृति ग्रन्थमाला-अम्बाला, सन् 1957 (3) श्री महावीर जैन लाइब्रेरी-चरखीदादरी, सन् 1958 (4) श्री महावीर जैन कन्या पाठशाला, भिवानी (हरियाणा), सन् 1958 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) जीरा जैन स्थानक वृद्धि हेतु तीन दुकानों का आपश्री जी की प्रेरणा से विलीनीकरण सन् 1961 *(6) श्री जैन स्थानक, भीखी का शिलान्यास, सन् 1962 (7) जैन स्थानक हेतु आपकी सद्प्रेरणा से दो भूखण्ड दान-दाताओं द्वारा प्रदत्त, समाना मण्डी (पंजाब), सन् 1966 (8) जैन स्थानक का जीर्णोद्धार/नवीनीकरण, रतिया (हरियाणा), सन् 1970 (9) श्री मुनि ताराचन्द जैन समाधि मन्दिर, रतिया (हरियाणा), सन् 1973 (10) स्वामी शुक्ल चन्द्र जैन हॉस्पिटल, जालंधर (पंजाब), सन् 1973 (11) प्रवर्तक स्वामी श्री शुक्ल चन्द्र जैन मेडीकल रिलीफ सोसायटी की स्थापना एवं बिल्डिंग रायकोट, (12) आचार्य श्री अमरसिंह जैन शास्त्र भण्डार, मालेरकोटला (पंजाब), सन् 1982 (13) श्री भोजराज जैन सभा पब्लिक हाई स्कूल, भटिण्डा (पंजाब), सन् 1986 (14) जैन स्थानक का शिलान्यास, राजाजी नगर, बैंगलोर (कर्नाटक), सन् 26जनवरी 1991 (15) राजकीय अस्पताल के. जी. एफ. (कर्नाटक) में भगवान् महावीर ब्लॉक का उद्घाटन, सन् 1991 (16). जैन स्थानक, टी नगर माम्बलम मद्रास का आपकी पावन निश्राय में उद्घाटन एवं उस भवन में सर्वप्रथम आपश्री का चातुर्मास सन् 1993 (17) भगवान् महावीर स्वाध्याय पीठ की स्थापना, माम्बलम (चेन्नई) में सन् 1993 (18) श्री गुरु गणेश जैन स्थानक भवन का आपश्री की सन्निधि में उद्घाटन एवं सर्वप्रथम चातुर्मास बैंगलोर (कर्नाटक), सन् 1995 (19) "श्री पन्नालाल चौरड़िया जैन भवन" एवं स्थानक का ऊपरी व्याख्यान हॉल, श्री कुंदनमल जी भण्डारी द्वारा, सन् 1996 - (20) जय नगर स्थानक की पुनर्निर्माण योजना, सन् 1996 (21) भगवान् महावीर जैन पुस्तकालय, मेटुपालियम, सन् 1997 (22) श्री मरुधर केसरी विश्राम गृह, वर्लियार, (तमिलनाडु), सन् 1997 उद्घाटन (23) श्री वर्द्ध. स्था. जैन श्रावक संघ ट्रस्ट (रजि.) की स्थापना, मद्रास साहूकार पेठ, चेन्नई, सन् 1998 (24) एस. एस. जैन, संघ कुंडीतोप, चेन्नई में जैन स्थानक निर्माण, सन् 1998 (25) श्री महावीर जैन पुस्तकालय, अम्बाला शहर, सन् 2009-2010 -0 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OCOCOCCACADOOOD COT OTOT OT OTOT OTOT गुरुदेव स्व. पं. श्री महेन्द्रमुनि जी म. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गुरुदेव स्व. पं. श्री महेन्द्रमुनि जी म. (शब्द चित्र) जन्म पिता भलान्द ग्राम (कश्मीर) सं. 1981 पं. श्री श्यामसुन्दर श्रीमती चमेली देवी माता जाति ब्राह्मण गोत्र सारस्वत दीक्षा शिक्षा विद्या : हांसी, वि. सं. 1994 भादों शुक्ल पंचमी, संवत्सरी के दिन। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत आदि। पं. प्रवर्तक, मंत्री पं. रत्न श्री शुक्लचन्द जी म. गुरु पंजाबकेसरी आचार्य श्री काशीरामजी म. गुरुमह गुरुदेव : गुरुभ्राता भाई : पं. श्री राजेन्द्र मुनि जी म. उत्तर भारतीय प्रवर्तक श्री सुमनमुनि जी म. शिष्य विशेषता सेवा-सरलता, अध्यापन महाप्रयाण 9 सितम्बर 1982 (संवत्सरी के आठ दिन बाद) मालेरकोटला (पंजाब) MANDIDAI Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणसंधीय प्रवर्तक पं. रल श्री शुक्लचन्द्रजी म. CoupouDUDDDDDDDDuppood Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरक-000000RRORSRe98ROScence ___ श्रमणसंघीय प्रवर्तक पं. रत्न श्री शुक्लचन्द्रजी म. (शब्द चित्र) नाम जन्म जन्मभूमि पिता माता वंश वैराग्य / वाग्बन्धन दीक्षा दीक्षागुरु , : पंडितरत्न प्रसिद्ध वक्ता : युवाचार्य प्रान्तमंत्री : शंकर वि. सं. 1951, भाद्रपद सुदि 12 (वामन द्वादशी) दडौली-फतहपुरी (गुड़गांवा) पंजाब पं. श्री बलदेव शर्मा जी श्रीमती महताब कौर। गौड़-ब्राह्मण मित्र-माता का दुःख-रोदन। सगाई-निकटवर्ती गांव 'नाहड़' वि. सं. 1973 आषाढ़ पूर्णिमा, अमृतसर (पंजाब) आचार्य श्री सोहनलाल जी महाराज पंजाबकेसरी आचार्य श्री काशीराम जी महाराज। उपाधि, मुनि सम्मेलन होशियारपुर, पंजाब। प्रदेशमुनि सम्मेलन एवं अम्बाला शहर। वि. सं. 2003 लुधियाना-पद समारोह। अ. भा. वर्ध, स्था. जैन श्रमण संघ, सादड़ी (मारवाड़), वि. सं. 2009 वैशाख शुक्ल तीज। वि. सं. 2021 (1964) अजमेर, शिखरमुनि सम्मेलन शान्त, मधुर, विनम्र, ओजस्वी, गंभीर, आजानुबाहु, धैर्य गुण वाले, दीर्घ ललाट, सौम्य तेजस्वी मुखमंडल। 52 वर्ष। वि. सं. 2025 फाल्गुन सुदि दूज, 28 फरवरी 1968 / प्रवर्तक शुक्लचन्द्र जैन अस्पताल, जालन्धर, प्र. स्वा. शु. जैन मेडिकल ) रिलीफ सोसायटी, रायकोट, प्र. शुक्लचंद्रजैन मॉडल स्कूल, बराड़ा , (अम्बाला)। प्र. शुक्लचन्द्र जैन मैमोरियल चैरीटेबल ट्रस्ट, लुधियाना। प्रवर्तक स्वभाव दीक्षा पर्याय : स्वर्गवास : स्मारक 20208) '1) (2) RP RR RAR.20 (RE Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स®®®®®®®®®®®®®®®®ce E प्रकाशकीय प्रस्तुत अनुवादित ग्रन्थ आवश्यक नियुक्ति आचार्य श्री भद्रबाहु विरचित कृति है तथा 8 इस नियुक्ति के साथ आचार्य हरिभद्र की संस्कृत टीका भी दी गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ के मूल तथा इसकी संस्कृत टीका का हिन्दी में अनुवाद अब तक उपलब्ध है : नहीं था। पू. प्रवर्तक श्री जी म. के परिश्रम एवं प्रेरणा से यह साहित्य जगत् को उपलब्ध हुआ है। " फलतः हम उनके चिर आभारी हैं। साथ ही इसके प्रकाशन/वितरण का भी हमें अधिकार दिया, & गया है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में सर्वप्रथम प्रो. डॉ. दामोदर जी शास्त्री का साधुवाद किए बिना नहीं , * रह सकते, क्योंकि आगप, सिद्धान्त तथा तत्त्वों से पूर्ण ग्रन्थों का अनुवाद बड़ा श्रमसाध्य होता है। " & श्री शास्त्री जी ने यह महत् कार्य किया है। इसके (प्रथम भाग के) प्रकाशन का सम्पूर्ण अर्थ-सौजन्य श्री दीवानचन्द जैन (साढौरा , ce वालों) ने प्रदान किया है, एतदर्थ उनके हम आभारी हैं। अन्त में, इस ग्रन्थ की सम्पूर्ण कम्प्यूटर टाईप सेटिंग करने में श्री आनन्द शास्त्री (श्रुतगङ्गा / प्रकाशन) ने तथा इसके मुद्रण में श्री विष्णु व्यास (तिलोक प्रिटिंग प्रैस, बीकानेर) ने जो तत्परता ca दिखाई, उसके लिए वे भी साधुवाद के पात्र हैं। __ अशोक जैन व्यवस्थापक, आ. श्री सोहनलाल जैन सामग्री भंडार/प्रकाशन श्री महावीर जैन भवन, अम्बाला शहर (हरियाणा) 233333333333333333333333333333333333333333333 380868808880888088@BR@necR90@Reges प Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (r)(r)ce@DBR890888908ck@DBR@@CR80@cRe0@ स्वकथ्य 33333333333333 ईस्वी सन् 2003 में अम्बाला शहर में वर्षावास के लिए " | दिल्ली से विहार यात्रा करते हुए मेरा एक दिन आत्मवल्लभ जैन, स्मारक (दिल्ली करनाल रोड़ पर स्थित) में ठहरना हुआ था। वहां 'भोगीलाल लेहरचन्द भारत भारती संस्थान' के माध्यम से जैन दर्शन व प्राकृत भाषा साहित्य के अध्ययन-अध्यापन एवं प्रचार-प्रसार का कार्य अनेक वर्षों से किया जा रहा है। वहां एक & सुन्दर व समृद्ध पुस्तकालय भी है जहां जैन दर्शन एवं साहित्य-अध्ययन की सुन्दर व्यवस्था है। " समय-समय पर अध्ययन शिविर एवं सेमिनार आदि के आयोजन भी वहां होते रहते हैं जिसमें दूर-दूर 2 के विद्यार्थी लाभान्वित होते हैं। पूर्व वर्षों की भांति, उस वर्ष भी वहां प्राकृत भाषा का 21 दिवसीय & ग्रीष्मकालीन शिक्षण शिविर चल रहा था। अध्यापन हेतु देश के उद्भट विद्वान् वहां आये हुए थे। मुझे , वहां उन गणमान्यों में प्रो. डॉ. दामोदर जी शास्त्री का साक्षात्कार हुआ। वे उपाश्रय के पीछे कमरे में ही , ठहरे थे। श्री शास्त्री जी से हुए प्रथम साक्षात्कार वार्तालाप में मैंने निश्चय किया कि ये मेरे लक्ष्य , & संकल्पपूर्ति में सहयोगी बन पायेंगे। मेरा लक्ष्य था- उन अमर साहित्यिक कृतियों को जो पूर्वाचार्यों, . a मुनियों व विद्वानों द्वारा प्रणीत हैं और जो प्राकृत गाथाओं, पाठों, चूर्णि, अवचूरि आदि के रूप में या , संस्कृत भाषा में टीका, भाष्य, टिप्पणी आदि के रूप में हस्तलिखित या मुद्रित रूप में हैं, उन्हें ca सुसम्पादित कर हिन्दी भाषा में प्रकाशित करना। मेरा मन्तव्य रहा है कि जैन-दर्शन-धर्म की विस्तृत " जानकारी के लिए इस युग में प्रचलित सर्वभोग्य प्रायोगिक भाषा एवं लिपि में उनका अनुवाद , प्रकाशित होकर जनता, मुमुक्षुओं, जिज्ञासुओं के हाथों में जाना अतीव अपेक्षित है। क्योंकि आज व संस्कृत और प्राकृत भाषा का पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन स्वल्प मात्र रह गया है और लोक " a भाषाओं का महत्त्व बढ़ गया है। तथापि उन सबकी अपेक्षा हिन्दी भाषा संस्कृत-प्राकृत भाषा-भाव को , प्रकट करने में अधिक सक्षम है। किन्तु हिन्दी अनुवाद के लिए मात्र प्राकृत-संस्कृत व्याकरण की / व विद्वत्ता ही नहीं, पूर्वापर प्रसंग, अन्य शास्त्रों, ग्रन्थों तथा उनके परम्परागत अर्थ, रूढार्थ, लौकिक " a समन्वय-सामञ्जस्य और धर्म-सिद्धान्त के अनुगम्य अर्थ को ही विशूषित कर उसे प्रस्तुत करने की , योग्यता, क्षमता का होना अनिवार्य है। ऐसी क्षमता वाले ही विद्वान् उन सैद्धान्तिक, आगमिक साहित्य a का अनुवाद कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, यह भी अपेक्षित है कि अनुवाद कार्य केवल शाब्दिक न " हो, वह भाषानुवाद ही नहीं, अपितु पारम्परिक सन्दर्भो से पुष्ट भी होना चाहिए। 888888888888888888888888888888888888888888888 मक Gaa (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce A. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3333333 &&&&&&&&&&&& 33333333333333 -(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce कमी प्रो. शास्त्री जी में उक्त क्षमता के दर्शन हुए और मैंने उन्हें आवश्यकनियुक्ति के हिन्दी अनुवाद के लिए भाव प्रकट ही नहीं किए, साग्रह निवेदन भी किया। इसी प्रसंग में यह भी / & उल्लेखनीय है कि मेरे लक्ष्य और संकल्प का मार्गदर्शन और प्रेरणा देने का कार्य श्री चमनलाल जी " & मूथा, रायचूर द्वारा किया गया है। श्रीमूथा जी आगमस्वाध्यायी एवं अध्यवसाय के धनी हैं। दर्शन-2 धर्मशास्त्रों ग्रन्थों का समन्वय करने में तत्पर रहते हैं और प्राचीन साहित्य व धर्म परम्परा के विशेष ce पोषक मनस्वी हैं। मेरा सन् दो हजार का चतुर्मास रायचूर में हुआ था। वहां उनके पुनः निवेदन/आग्रह " & ने मेरे संकल्प में ऊर्जा का संचार किया और साथ में आवश्यक नियुक्ति (आ. भद्रबाहु) के मुद्रित दो . भाग भी उन्होंने मुझे प्रदान किए। किन्तु इसमें भी प्रमादवश विलम्ब होता गया और सन् 2005 के चातुर्मास में अम्बाला शहर में प्रो. शास्त्री जी को बुलाकर मैंने उन्हें यह कार्य सौंपा। इन्होंने कुछ पृष्ठ 2 & अनुवाद कर मुझे शीघ्र ही प्रेषित कर दिए थे, किन्तु मैंने अपने संकल्प और लक्ष्य को गौण कर दिया है & था, क्योंकि उन दिनों संघीय विग्रह स्थिति में उलझ गया था, फलतः ध्यान न दे सका अतः प्रो. शास्त्री ce जी भी मौन रहे। गत वर्ष पंचकूला चातुर्मास में पुनः सजगता/सक्रियता बढ़ी और शास्त्री जी द्वारा अनुवाद " & कार्य भी वृद्धिगत हुआ। सन 2009 के चातुर्मास में ग्रन्थ का प्रथम खण्ड (लगभग 350) पृष्ठ तैयार हो गया और अब . & (2010 ई. में) मुद्रित होकर पाठकों के समक्ष आ गया है। इस कार्य में भंडारी मुनि श्री सुमन्तभद्र (बाबाजी) का पूर्ण व प्रशसनीय सहयोग रहा है, a जिसके लिए उन्हें विशेष हार्दिक साधुवाद है। इसके अनुवाद के लिए प्रो. डॉ. दामोदर जी शास्त्री, है प्रकाशन के सहयोगी श्री दीवान चन्द जी जैन (साढौर वाले) लुधियाना, कम्प्यूटर टाईप सैटिंग . के लिए श्री आनन्द शास्त्री, मुद्रण के लिए श्री विष्णु शर्मा, बीकानेर तथा प्रकाशक/वितरक : ca अशोक जैन, व्यवस्थापक/प्रबन्धक, आचार्य श्री सोहनलाल जैन सामग्री भंडार- आ. श्री सो. " & जैन ग्रन्थमाला प्रकाशन को हार्दिक साधुवाद करना मैं अपना कर्त्तव्य मानता हूं क्योंकि इनके , सहयोग से ही यह कार्य सम्पन्न हुआ है। श्री दीवानचन्द जी जैन साढौरावालों ने -जो कि मेरी / दीक्षाभूमि के सुश्रावक हैं और जो समय-समय पर धार्मिक गतिविधियों में सहयोगी रहते हैंव इस प्रथम खण्ड के पूर्ण प्रकाशन के लिए सहयोग देकर श्रुतसाहित्य की सेवा की है। अन्त में मैं अपने गुरुमह गुरुदेव प्रवर्तक पं. रत्न श्री शुक्लचन्द्र जी म. सा. तथा गुरुदेव पं. श्री महेन्द्रकुमार जी म. के प्रति सश्रद्ध-सभक्ति कृतज्ञता एवं कृपा-वर्षण के लिए आभारी हूं। अम्बाला शहर (मुनि सुमनकुमार श्रमण') / जैन महावीर भवन (प्रव. उत्तरभारत) दिनाङ्क- 1 जनवरी 2010 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce 838 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 880000RORoneRi8003003890090R सम्म (आचार्य भद्रबाहु विरचित) & आवश्यक नियुक्ति प्रथम-खण्ड [ज्ञानपञ्चकरूप नन्दी (पूर्वपीठिका) पर्यन्त] . || विषय-अनुक्रमणिका // पृष्ठ सं. तावना. &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& I-XII 888888888888888888888888888888888888888888888 (आवश्यक-नियुक्ति, एवं वृत्ति सानुवाद) 1. वृत्तिकार का मङ्गलाचरण 2. शास्त्र के अनुबन्ध-चतुष्टय 3. मङ्गल-सम्बन्धी विवेचन 4. निक्षेपविधि से मङ्गल-निरूपण 5. पञ्चविध ज्ञान (गाथा-1) मितिज्ञान] 6. श्रुतनिश्रित मतिज्ञान-स्वरूप 7. अवग्रह आदि के स्वरूप 8. अवग्रह आदि के काल प्रमाण 9. श्रोत्रेन्द्रिय आदि के प्राप्त-अप्राप्त विषय 10. श्रोत्र द्वारा गृहीत शब्द-द्रव्यों का स्वरूप 11.भाषा-द्रव्यों का ग्रहण व उत्सर्ग (गाथा-2) (गाथा-3) (गाथा-4) (गाथा-5) (गाथा-6) (गाथा-1) &&&&&&&& Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0ROORB0BROWROOROSRAMRODRA विषय-शीर्षक गाथा सं. पृष्ठ सं. 0 222222222332223333332323232232322322233222223 12. भाषा-द्रव्यों का कायिक योग से ग्रहण (गाथा-8). 13. औदारिकशरीरी आदि द्वारा गृहीत व उत्सृष्ट भाषा के सत्या, मृषा आदि भेद (गाथा-9) 14.भाषा-द्रव्यों की लोक व्याप्ति (गाथा-10) 15. मतिज्ञान के पर्याय (गाथा-12) 16.नौ अनुयोग-द्वारों से मतिभेद-निरूपण (गाथा-13) 17. मतिज्ञान की प्रकृतियां (भेद) (गाथा-16) श्रुतज्ञान] 18. श्रुतज्ञान की प्रकृतियां (भेद) (गाथा-17) 19. (अक्षर) श्रुत ज्ञान के चौदह निक्षेप (गाथा-19) 20. अनक्षर श्रुत का स्वरूप (गाथा-20) 21. श्रुत ज्ञान की उपलब्धि (गाथा-21) 22. बुद्धि के आठ गुण (गाथा-2) 23. श्रवण विधि के सात अंग (गाथा-23) 24. अनुयोग (व्याख्यान) की विधि (गाथा-24) [अवधिज्ञान] 25. अवधिज्ञान के भेद (गाथा-25) 26. अवधिज्ञान की चौदह प्रतिपत्तियां (गाथा-1) 7. अवधि शब्द के सात निक्षेप (गाथा-29) 28. अवधिज्ञान का जघन्यक्षेत्र परिमाण (गाथा-30) 29. अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र-परिमाण (गाथा-31) 30. (मध्यम) अवधि का क्षेत्र-काल विषयक प्रतिबन्ध (गाथा-32) 31. द्रव्यादि-वृद्धि सम्बन्धी प्रतिबन्ध, उनमें सूक्ष्मता.. (गाथा-36) 32. अवधि ज्ञान के ग्रहणयोग्य (प्रारम्भ-समाप्ति में) द्रव्य / (गाथा-38) 33. औदारिक आदि ग्रहण-योग्य-अयोग्य द्रव्य-वर्गणाएं (गाथा-39) 34.गुरुलघुव अगुरुलघुवर्गणाएं (गाथा-41) 35. अवधि का क्षेत्र-काल सम्बन्धी प्रतिबन्ध (गाथा-42) 36. परमावधि के द्रव्य, क्षेत्र काल व भाव... (गाथा-44) 1180BRO90BROOROSAROOROROSCR90R Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000R विषय-शीर्षक गाथा सं. पृष्ठ सं. (गाथा-46) (गाथा-48) (गाथा-53) (गाथा-54) (गाथा-55) (गाथा-56) (गाथा-57) (गाथा-59) (गाथा-60) (गाथा-62) (गाथा-65) (गाथा-66) (गाथा-67) (गाथा-68) 37. नारक व तिर्यञ्चों में जघन्य व उत्कृष्ट अवधि 38. देवों में जघन्य-उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्र 39. जघन्य-उत्कृष्ट, प्रतिपाती-अप्रतिपाती अवधि 40. जघन्य अवधिज्ञान के संस्थान (आकार) 41. मध्यम अवधिज्ञान का संस्थान 42. आनुगामिक-अनानुगामिक आदि अवधि 43. अवधिज्ञान की अवस्थिति 44. अवधि के ज्ञेय द्रव्य आदि की वृद्धि-हानि 45. अवधिज्ञान के स्पर्द्धक और उनके प्रकार 46. अवधिज्ञान का उत्पाद व प्रतिपात 47. देवों में साकार-अनाकार, सम्यक् व विभङ्ग ज्ञान 48. आभ्यन्तर व बाह्य अवधिज्ञान 49. क्षेत्र की अपेक्षा से सम्बद्ध-असम्बद्ध अवधि 50. अवधिज्ञानियों में पूर्वप्रतिपन्न, प्रतिपद्यमान (ऋद्धि-कथन प्रतिज्ञा) 51. आमौषधि आदि लब्धियां 52. वासुदेव की सामर्थ्य 53. चक्रवर्ती की सामर्थ्य 54. तीर्थंकरकी सामर्थ्य 12RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR222222222222222. (गाथा-69) (गाथा-71) (गाथा-73) (गाथा-75) [मनापर्ययज्ञान] 55. (संज्ञी) जीवों के चिन्त्यमान वस्तुओं का ज्ञान 56. मनःपर्ययज्ञान के भेद, विषय-क्षेत्र, स्वामी (गाथा-76) (गाथा-16) [केवलज्ञान] 57. केवलज्ञान का स्वरूप (गाथा-n) 58. केवली (तीर्थंकर) का वचनयोग (प्रज्ञापनीय देशना) (गाथा-78) 297 59. पांच ज्ञानों में श्रुतज्ञान ही अधिकृत (गाथा-79) [ज्ञानपंचक रूप नन्दी (पूर्वपीठिका) समाप्त] 30002020 20 CROSORRORREE Page #25 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& 838@cRBRB0BCRO900CR890803808RB0Bce प्रस्तावना (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)R 222233333333333333333333333333333333333333333 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00BROR@RB0BROBCR8888880880@ce प्रस्तावना आवश्यक-नियुक्ति ग्रन्थ और उसके टीकाकार a222222222222222222222222222222233222222222222 प्रो. डॉ. दामोदर शास्त्री विशिष्ट जैन आगम 'आवश्यक सूत्र' पर अ. भद्रबाहु द्वारा रचित (प्राकृतपद्यात्मक) 1 / व्याख्यात्मक ग्रन्थ के रूप में 'आवश्यक नियुक्ति' का जैन परम्परा में महनीय स्थान है। इस पर म आचार्य हरिभद्र ने संस्कृत में 'वृत्ति' लिखी है। प्रस्तुत प्रकाशन में आवश्यक नियुक्ति व हरिभद्रीय वृत्ति- दोनों (के मूल के साथ, उन) का हिन्दी अनुवाद भी दिया जा रहा है। सामान्य पाठकों के हितार्थ ल आवश्यक सूत्र, नियुक्ति व वृत्ति -इन तीनों का संक्षिप्त परिचय यहां प्रस्तुत किया जा रहा है जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा में बत्तीस आगम प्रमाण रूप से मान्यता प्राप्त हैं- 11 अंग, 24 12 उपांग, 4 मूल सूत्र, 4 छेदसूत्र, और आवश्यक सूत्र / आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, ca भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति), ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक दशा, & प्रश्नव्याकरण, विपाक –ये ग्यारह अंग सूत्र हैं (बारहवें अंग दृष्टिवाद के लुप्त हो जाने से, उपलब्ध अंगों की संख्या ग्यारह मानी गई है)। औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावलिका-कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा : ca -ये बारह उपांग हैं। चार मूल सूत्र हैं- दशवैकालिक, अनुयोगद्वार, उत्तराध्ययन, और नन्दी सूत्र। चार न छेदसूत्र हैं- दशाश्रुत स्कन्ध, व्यवहार सूत्र, बृहत्कल्प सूत्र, और निशीथ सूत्र। उपर्युक्त आगमों की कुल ca संख्या इकतीस है, उसमें आवश्यक सूत्र को जोड़ने से बत्तीस संख्या पूरी हो जाती है। 888888888888888888888888888888888888888888888 आवश्यक सूत्र : स्वरूप-परिचय आवश्यक सूत्र को अंगबाह्य आगमों में अतिविशिष्ट स्थान दिया गया है (द्र. नन्दीसूत्र)। " विशेषावश्यक भाष्य (गा. 550 तथा वृत्ति) के अनुसार गणधरों द्वारा द्वारा न पूछने पर; तीर्थंकर द्वारा 'मुक्तव्याकरण' (उन्मुक्त कथन) रूप से जो निष्पन्न- अभिव्यक्त होता है, अथवा जो स्थविर आचार्यों द्वारा रचित होता है, वह 'अंगबाह्य' आगम होता है। अतः अंगबाह्य रचना के अन्तर्गत वे सभी रचनाएं , * समाविष्ट की गई हैं जो अत्यन्त प्रकृष्ट मति आदि वाले श्रुतकेवली या अन्य विशिष्ट ज्ञानी आचार्यों द्वारा " काल, संहनन, आयु की दृष्टि से अल्प योग्यता वाले शिष्यों पर अनुग्रह करते हुए लिखी गई हैं। / -00800ROSCR98R(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce / Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प 333333333388888888888888888888888888888888 ORORS) * CR) (R) RO RO ROR सार 'आवश्यक' का अर्थ है- अवश्य करणीय। संयम-साधना के अंगभूत जो अनुष्ठान . र आवश्यकरूप से, वस्तुतः आनेवार्यतया करणीय होते हैं, वे 'आवश्यक' ( अनुष्ठान ) में परिगणित हैं। ) * श्रपणचर्या में जो क्रियाएं मूलतः सहायक होती हैं, जिनका ज्ञान होना प्रत्येक श्रमण के लिए मूलतः * (प्रारम्भिक रूप में) अपेक्षित है, उन 'आवश्यक' क्रियाओं का निरूपण इस सूत्र में है। संभवतः इस ल दृष्टि से भावप्रभसूरी ने (जैनधर्मवरस्तोत्र, श्लोक-30 की स्वोपज्ञ वृत्ति) आवश्यक को चार मूलसूत्रों में से र परिगणित किया है। भाष्यकार के मत में 'आवश्यक' ज्ञानक्रियामय आचरण है. अतः मोक्षप्राप्ति का कारण है। * जैसे कुशल वैद्य उचित आहार (या पथ्य) की अनुमति देता है, वैसे ही भगवान् ने साधकों के लिए R आवश्यक क्रियाओं का विधान किया है (द्र. भाष्य गा. 3-4 एवं बृहद्वृत्ति)। 'आवश्यक' को ) अंगभूत छः क्रियाएं हैं- (1) सामायिक (2) चतुर्विंशति स्तव (3) वन्दन (4) प्रतिक्रमण, (5) * कायोत्सर्ग, और (6) प्रत्याख्यान। इन्हीं छः क्रियाओं से सम्बन्धित छः अध्ययन इस सूत्र में हैं। & मूलपाठ का परिमाण 100 श्लोक प्रमाण है तथा इसमें 9? गद्य सूत्र हैं और 9 पद्यसूत्र हैं। आन्तरिक दोषों / की शुद्धि एवं गुणों की वृद्धि करने में उक्त छ: 'आवश्यक' क्रियाएं कार्यकारी हैं। इनसे आध्यात्मिक C विशुद्धि तो होती ही है, साथ ही व्यावहारिक जीवन में भी समत्व, विनय, क्षमाभाव आदि प्रशस्त गुण . संवर्द्धित होते हैं, फलस्वरूप साधक के मानसिक धरातल पर आनन्द की निर्मल गङ्गा प्रवाहित होती ) में रहती है। आवश्यक की रचना व रचना-काल स्वनामधन्य पं. दलसुख मालवणिया इस सूत्र को गणधर-रचित मानते हैं। अनेक विद्वानों की ल यह मान्यता है कि यह किसी स्थविर या बहुतश्रुत की ही कृति है। कुछ जैन विद्वानों के मत में यह ल एकाधिक आचार्यों की कृति है। आचारांग टीका के एक वाक्य से यह भी संकेतित होता है कि इसके कुछ अध्ययन ch (श्रुतकेवली) आचार्य भद्रबाहु आदि एवं परवर्ती अनेक स्थविर आचार्यों की ज्ञान-निधि के प्रतिफलित " म रूप हैं। अत: निश्चय ही इसका वर्तमान रूप भगवान् महावीर के समय से ही प्रारम्भ होकर वि. सं. 5R 6 शती तक पूर्णत को प्राप्त हो चुका था। पं. सुखलाल जी ने इसे ई. पू. चौथी शताब्दी तक रचित माना " म है। अतः सूत्र की अतिप्राचीनता स्वतः सिद्ध हो जाती है। - IIOBCROOBCRORRORROROSCRROHORROR Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRORRORDERRORRE80ORE 3333333222233333333333333333333333223 आवश्यक नियुक्ति और उसके रचयिता जैन आगमों पर जो पद्यात्मक टीकाएं प्राकृत में लिखी गईं, उनमें चूर्णि, नियुक्ति व भाष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन परम्परा में 'नियुक्ति' एक विशेष व्याख्यान पद्धति है जिसका अनुसरण र नियुक्तिकार ने विशेष रूप से किया है। नियुक्तिकार ने सूत्र में आए प्रत्येक पद के, विशेषकर 1 ca पारिभाषिक पद के व्युत्पत्तिपरक विविध अर्थों का प्रकाशन करते हुए नय व निक्षेपों के माध्यम से विशिष्ट व्याख्या पद्धति के द्वारा सूत्रार्थ के हार्द को स्पष्ट किया है तथा विषयवस्तु का सर्वांगीण विवेचन , किया है। आवश्यक सूत्र पर रचित प्राकृतपद्यात्मक व्याख्या आवश्यक-नियुक्ति' को आचार्य भद्रबाहु की कृति के रूप में मान्यता प्राप्त है। आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक सूत्र पर ही नहीं, अन्य अनेक, A आगमों पर नियुक्तियों की रचना की है। स्वयं नियुक्तिकार (भद्रबाहु) ने दस आगमों पर नियुक्ति रचने , का संकेत किया है। वे दश आगम हैं- आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, 9 दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प (बृहत्कल्प तथा पंचकल्प), सूर्यप्रज्ञप्ति व ऋषिभाषित / सूर्यप्रज्ञप्ति व ऋषिभाषित ल पर नियुक्तियां अब उपलब्ध नहीं हैं। इन सब नियुक्तियों में 'आवश्यक नियुक्ति' उनकी प्रथम 5 ल रचना है। नियुक्ति की उपादेयता:- नियुक्ति वह व्याख्यान है जो सूत्र व अर्थ का सम्यक् निर्णय ल करती है। आ. जिनदास गणी ने 'सूत्र में नियुक्त' अर्थ का निर्वृहण (अभिव्यक्तीकरण) करने वाली है व्याख्या को 'नियुक्ति' कहा है। भाष्यकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण तथा शीलांकाचार्य के मत में सूत्र व अर्थ के योग या अर्थघटना को 'युक्ति' कहा जाता है और निश्चयपूर्वक या अधिकता (विस्तार) पूर्वक अर्थ का सम्यक् निरूपण 'नियुक्ति' कहलाती है। अथवा निर्युक्त अर्थों की युक्ति (निर्युक्त-युक्ति) ही म 'नियुक्ति' है, अर्थात् सूत्रों में ही परस्पर-सम्बद्ध अर्थों की युक्ति करना नियुक्ति है। निष्कर्ष यह है कि 4 'नियुक्ति' सूत्रों के वास्तविक अर्थों का निरूपण करती है अर्थात् कौन-सा अर्थ वास्तविक है- इसे वह व निश्चित करती है और साथ ही उस अर्थ को विस्तार भी देती है, अर्थात् उस अर्थ को अधिकता से या विस्तृत व्याख्यान के माध्यम से स्पष्ट करती है। सूत्रार्थ को स्पष्ट करना, निर्णीत करना तथा अपेक्षानुरूप , प्रासंगिक विषयों का भी निरूपण करते हुए विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करना 'नियुक्ति' का कार्य होता है। 80000ROIReneROSCROSROOR II सर Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9080CREDICARB0RRORNOROR नियुक्तिकार भद्रबाहु कौन से? आचार्य भद्रबाहु नाम के दो आचार्य हुए हैं। एक हैं- छेदसूत्रकर्ता श्रुतकेवली स्थविर भद्रबाहु " (प्रथम), और दूसरे हैं- प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के भाई, अष्टांगनिमित्त-ज्ञानी व मंत्रशास्त्रपारंगत " & भद्रबाहु (द्वितीय)। आचार्य शीलांक (वि. 8-9 शती) तथा मलधारी हेमचन्द्र (वि. 12वीं शती) ने / चतुर्दशपूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी को ही नियुक्तिकार माना है। किन्तु इस मान्यता को युक्तिसंगत। व प्रामाणिक नहीं माना जा सकता, क्योंकि स्वयं नियुक्तिकार ने दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्ति में छेदसूत्रकर्ता ल चतुर्दशपूर्वधारी अंतिमश्रुतकेवली भद्रबाहु को नमस्कार किया है- निश्चित ही यह नमस्कार तभी संगत न होता है जब हम नियुक्तिकार को भद्रबाहु (द्वितीय) मानें। इसी प्रकार, उत्तराध्ययन-नियुक्ति (गाथा-233) में नियुक्तिकार का कथन इस प्रकार है सव्वे एए दारा मरणविभत्तीह वणिया कमसो। सगलणिउणे पयत्थे जिणचउद्दसपुव्विं भासंति॥ अर्थात् ( उत्तराध्ययन के अकाममरणीय नामक अध्ययन से सम्बन्धित) मरणविभक्ति ब से सम्बन्धित सभी द्वारों का अनुक्रम से वर्णन किया है। वस्तुतः पदार्थों का सम्पूर्ण एवं विशद 1 वर्णन तो 'जिन' यानी केवली व चतुर्दशपूर्वधारी ही कर सकते हैं। उक्त कथन से स्पष्ट है कि a नियुक्तिकर्ता चतुर्दशपूर्वधर नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, नियुक्तियों में ऐसी घटनाएं व आचार्यों के प्रसंग वर्णित हैं जो श्रुतकेवली 21 ल भद्रबाहु के उत्तरवर्ती हैं। जैसे- नियुक्तियों में कालकाचार्य, पादलिप्ताचार्य, स्थविर भद्रगुप्त, वज्रस्वामी, - आर्य रक्षित, फल्गुरक्षित आदि ऐसे आचार्यों के प्रसंग वर्णित हैं, जो प्रथम भद्रबाहु से बहुत अर्वाचीन " हैं। अतः निश्चित ही नियुक्तियों की रचना निमित्तज्ञानी भद्रबाहु (द्वितीय) द्वारा ही की गई है। नियुक्तियों के श्रुतकेवली-रचित होने की मान्यता का कारण यह हो सकता है कि आवश्यक " & नियुक्ति का प्रारम्भ श्रुतकेवली भद्रबाहु (प्रथम) द्वारा किया गया हो, बाद में उसकी गाथाओं में क्रमशः . 8 वृद्धि होती रही हो और इसे अन्तिम रूप भद्रबाहु (द्वितीय) ने दिया हो। नियुक्ति-गाथाओं में वृद्धि होती है रहने की पुष्टि कई उदाहरणों से होती है। जैसे- आवश्यक नियुक्ति के प्रथम अध्ययन की 157 गाथाएं , A हरिभद्रीय वृत्ति में हैं, किन्तु आवश्यक चूर्णि में मात्र 57 गाथाएं ही हैं। निश्चय ही चूर्णि व हरिभद्रीय / * वृत्ति के मध्य 100 गाथाएं और जुड़ गई हैं। इतना ही नहीं, भद्रबाहु (द्वितीय) के बाद भी गाथाओं में " वृद्धि होते रहने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। का IV BOOROSORB0ROORBOBORROR * 22222333333333333322233333232222223333333333 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DROORBOROORORSCREDROORRORE . मुनिश्री पुण्यविजय जी ने भी उक्त विचार का समर्थन करते हुए कहा है कि आगमों की / ca निरुक्ति-पद्धति से व्याख्या और नियुक्ति-रचना की परम्परा अति प्राचीन रही है। जैसे- वैदिक परम्परा M में 'निरुक्त' (यास्क आदि रचित) अति प्राचीन है, वैसे ही जैन परम्परा में भी नियुक्ति-व्याख्यान / परम्परा अति प्राचीन है। अनुयोगद्वार में नियुक्ति-अनुगम' का निर्देश है और वहां नियुक्ति रूप ब कुछ गाथाएं भी प्राप्त हैं। भद्रबाहु (द्वितीय) के पूर्व भी नियुक्ति साहित्य के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। अत: नियुक्ति की रचना में श्रुतकेवली भद्रबाहु (प्रथम) और भद्रबाहु 2 (द्वितीय)-दोनों का ही योगदान है -ऐसा माना जाना चाहिए। प्रो. सागरमल जैन के मत में " व आवश्यक नियुक्ति के रचनाकार आर्यभद्र हैं, भद्रबाहु नहीं (द्र. श्रमण, अप्रैल-जून 2008, पृष्ठ-194)। उनके अनुसार नियुक्ति का रचनाकाल ई. 2-3 शती है। पाठकों के लाभार्थ भद्रबाहु (प्रथम) और भद्रबाहु (द्वितीय) -दोनों का परिचय यहां प्रस्तुत किया जा रहा है भद्रबाहु (प्रथम) श्रुतधर आचार्यों में पांचवें श्रुतधर आ. भद्रबाहु (प्रथम) का महनीय स्थान है। श्रुत-परम्परा " c& में (अर्थ की दृष्टि से) ये अंतिम श्रुतधर थे। इनके दीक्षा-गुरु व शिक्षा-गुरु श्रुतधर आचार्य यशोभद्र थे। a इनका गोत्र 'प्राचीन' था। इनके जीवन आदि के सम्बन्ध में पर्याप्त सामग्री प्रबन्धकोश, प्रबन्ध चिन्तामणि, तित्थोगालिय पइन्ना, आवश्यक चूर्णि, आदि में प्राप्त है। उनका जन्म वि. पूर्व 376, दीक्षा- वर्ष वि. पू. 331 माना जाता है। वि. पू. 314 में ये आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। जैन शासन को वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी के मध्यकाल में भयंकर दुष्काल से जूझना " पड़ा। उचित भिक्षा के अभाव में अनेक श्रुतसम्पन्न मुनि काल-कवलित हो गये। भद्रबाहु के अलावा & कोई भी मुनि 14 पूर्व का ज्ञाता नहीं बचा था। वे उस समय नेपाल की पहाड़ियों में महाप्राण ध्यान की व साधना कर रहे थे। संघ को इससे गंभीर चिन्ता हुई। आगम निधि की सुरक्षा के लिए श्रमण संघाटक 4 नेपाल पहुंचा। करबद्ध होकर श्रमणों ने भद्रबाहु से प्रार्थना की। "संघ का निवेदन है कि आप वहां << पधार कर मुनिजनों को दृष्टिवाद की ज्ञानराशि से लाभान्वित करें।" भद्रबाहु ने अपनी साधना में विक्षेप " समझते हुए इसे अस्वीकार कर दिया। किन्तु श्रमण-संघ की ओर से प्रायश्चित्त दण्ड देने की स्थिति को दृष्टिगत रख कर उन्होंने " / आगम-वाचना देने की स्वीकृति दी। महामेधावी, उद्यमवंत, स्थूलभद्र आदि पांच सौ श्रमण, संघ का 222222333332332223333333333333333333333333232 : - 808Re8c6908880880880886 v - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पORB0BOROSCRBORORE DHORARROR A आदेश प्राप्त कर आचार्य भद्रबाहु के पास दृष्टिवाद की वाचना ग्रहण करने के लिए पहुंचे। आचार्य / R भद्रबाहु प्रतिदिन उन्हें सात वाचनाएं प्रदान करते थे। एक वाचना भिक्षाचर्या से आते समय, तीन / M वाचनाएं विकाल बेला में और तीन वाचनाएं प्रतिक्रमण के बाद रात्रिकाल में प्रदान करते थे। आर्य स्थूलभद्र का अध्ययन-क्रम चलता रहा। भद्रबाहु की महाप्राण ध्यान की साधना पूर्ण / & होने तक उन्होंने दो वस्तु कम दशपूर्व की वाचना ग्रहण कर ली थी। तित्थोगालिय पइन्ना के अनुसार, M आर्य स्थूलभद्र ने दशपूर्व पूर्ण कर लिए थे। उनके ग्यारहवें पूर्व का अध्ययन चल रहा था। ध्यान से साधना का काल संपन्न होने पर आर्य भद्रबाहु पाटलिपुत्र लौटे। यक्षा आदि साध्वियां आर्य भद्रबाहु के / व वन्दनार्थ आयीं। आर्य स्थूलभद्र उस समय एकांत में ध्यानरत थे। परम वंदनीय महाभाग आचार्य / ca भद्रबाहु के पास अपने ज्येष्ठ भ्राता मुनि आर्य स्थूलभद्र को न देख साध्वियों ने उनसे पूछा- "गुरुदेव! - हमारे ज्येष्ठ भ्राता मुनि आर्य स्थूलभद्र कहां है?" भद्रबाहु ने स्थान-विशेष का निर्देश किया। यक्षा आदि & साध्वियां वहां पहुंचीं। बहनों का आगमन जान आर्य स्थूलभद्र कुतूहलवश अपनी शक्ति का प्रदर्शन M करने के लिए सिंह का रूप बनाकर बैठ गए। साध्वियां शेर को देखकर डर गयीं। वे आचार्य भद्रबाहु / के पास तीव्र गति से चलकर पहुंची और प्रकंपित स्वर में बोली -"गुरुदेव, आपने जिस स्थान का , ल संकेत दिया था, वहां केसरीसिंह बैठा है। लगता है, हमारे भाई का उसने भक्षण कर लिया है।" र भद्रबाहु ने समग्र स्थिति को ज्ञानोपयोग से जाना और कहा- 'वह केसरीसिंह नहीं, तुम्हारा भाई है। पुनः 2 वहीं जाओ। तुम्हें तुम्हारा भाई मिलेगा। उसे वंदन करो।' आर्य स्थूलभद्र वाचना ग्रहण के लिए आचार्य भद्रबाहु के चरणों में उपस्थित हुए। अपने // ल सम्मुख आर्य स्थूलभद्र को देखकर आचार्य भद्रबाहु ने उनसे कहा- "वत्स! ज्ञान का अहं विकास में , में बाधक है। तुमने शक्ति का प्रदर्शन कर अपने को ज्ञान के लिए अपात्र सिद्ध कर दिया है। अग्रिम " वाचना के लिए अब तुम योग्य नहीं रहे हो।" आर्य भद्रबाहु द्वारा आगम वाचना न मिलने पर उन्हें 3 अपनी भूल समझ में आयी। प्रमाद वृत्ति पर गहरा अनुपात हुआ। भद्रबाहु के चरणों में गिरकर उन्होंने / क्षमायाचना की और कहा- "यह मेरी पहली भूल है। इस प्रकार की भूल का पुनरावर्तन नहीं होगा। * आप मेरी भूल को क्षमा कर मुझे वाचना प्रदान करें।" आचार्य भद्रबाहु ने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं है ल की। किन्तु बाद में आर्य स्थूलभद्र के अत्यन्त आग्रह पर आचार्य भद्रबाहु ने उन्हें चार पूर्वो का ज्ञान 23 अपवाद के साथ प्रदान किया। आर्य स्थूलभद्र को आचार्य भद्रबाहु से दश पूर्वो का ज्ञान अर्थसहित एवं - अवशिष्ट चार पूर्वो का ज्ञान शब्दशः प्राप्त हुआ। 888888888888888888888888888888888888888888888 - I HOROSCRRRRRORSCORRBT - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OR PER CROR (220*RO (RROR / भद्रबाहु (द्वितीय) * अधिकांश जैन विद्वान् भद्रबाहु (द्वितीय) को नियुक्तिकार मानते हैं। अतः इनके सम्बन्ध में . भी यहां विचार किया जाना उचित होगा। आ. भद्रबाहु (द्वितीय) ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के भाई थे। वराहमिहिर का समय वि. लगभग छठी शती माना जाता है, क्योंकि उन्हीं के द्वारा रचित ग्रन्थ पंचसिद्धान्तिका' में इसका रचना-काल शक सं. 427 अर्थात् वि. सं. 562 निर्दिष्ट किया गया है सप्ताश्विवेदसंख्यंशककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ। अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाद्ये // ___ अतः भद्रबाहु (द्वितीय) का समय वि. सं. 500-600 के मध्य (छठी से सातवीं शती के प्रारम्भ तक) माना जाना चाहिए। इन्हीं भद्रबाहु की रचना उपसर्गहर स्तोत्र व भद्रबाहुसंहिता (अनुपलब्ध)४ ये दो ग्रन्थ भी हैं। नियुक्तियों के भी इन्हीं के द्वारा रचित होने की संभावना इसलिए भी बलवती होती है क्योंकि उनकी मंत्रविद्याकुशलता का दर्शन कुछ स्थलों पर होता है। उदाहरणार्थ, आवश्यक नियुक्ति ? 4 में वर्णित गन्धर्व नागदत्त के कथानक में नाग-विष उतारने की क्रिया का निर्देश है जिसमें उपसर्गहरा ल स्तोत्र के 'विसहरफुल्लिंगमंतं' इत्यादि पद्य की प्रतिच्छाया देखी जा सकती है। इसके अतिरिक्त, M उन्होंने सूर्यप्रज्ञप्ति पर भी नियुक्ति की रचना की थी, जिसमें भी इनका ज्योतिर्विद्-स्वरूप समर्थित होता है। आ. भद्रबाहु (द्वितीय) का जीवन-वृत्त ___ 'प्रबन्धकोश' में वर्णित कथानक के अनुसार महाराष्ट्र के प्रतिष्ठानपुर में एक ब्राह्मण परिवार / ल में इनका जन्म हुआ। इनके कनिष्ठ भ्राता का नाम वराहमिहिर था, जो इतिहास में एक महान् / ज्योतिर्विद्-विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनका गृहस्थ जीवन निर्धन वह निराश्रित अवस्था में बीता।। CM दोनों भाइयों के मन में विरक्ति की भावना जगी और इन्होंने जैनी दीक्षा अंगीकार की। विनय, भद्रता व , विद्वत्ता आदि गुणों के कारण मुनि-संघ में भद्रबाहु की प्रतिष्ठा निरन्तर बढ़ती ही गई और इन्हें आचार्य , ल पद प्राप्त हुआ। इससे वराहमिहिर ने अपनी हीनता अनुभव की। अहंभाव व ईर्ष्या के आवेश में , 2 वराहमिहिर ने मुनिवेश त्याग दिया और प्रतिष्ठानपुर के राजा के यहां पहुंचा। राजा का नाम जितशत्रु था, न जो वराहमिहिर के विशिष्ट निमित्तज्ञान से प्रभावित हुआ और उसने वराहमिहिर को अपना प्रधान , ल पुरोहित बना लिया। वराहमिहिर ने स्वयं को ज्योतिष विद्या का सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता घोषित किया और वह " ईर्ष्यावश आचार्य भद्रबाहु की बढ़ती प्रतिष्ठा को निर्मूल करने के निरन्तर प्रयास करता रहा, किन्तु वह में सफल नहीं हो पाया। - 0 CROR ORROROR BOOR 80 OR VII Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R R R 203390033905688906R एक बार आचार्य भद्रबाहु का प्रतिष्ठानपुर में पदार्पण हुआ। जनता में उनका प्रभाव बढ़ता / CR गया। इधर वराहमिहिर की भविष्यवाणी क्रमशः असत्य होने लगीं। वराहमिहिर ने अपने पुत्र के . शतायु होने की भविष्यवाणी की। इधर आ. भद्रबाहु ने भविष्यवाणी की कि इस की आयु मात्र सात CM दिनों की होगी और इसकी मृत्यु में कोई बिल्ली निमित्त बनेगी। यद्यपि जैन मुनि के लिए निमित्त ज्ञान , ल व ज्योतिर्विद्या आदि का प्रयोग वर्जित होता है, किन्तु मिथ्या अज्ञान को दूर करने तथा धर्म-प्रभावना , 3 की दृष्टि से उन्होंने यह भवियवाणी की थी। आचार्य भद्रबाहु द्वारा की गई भविष्यवाणी ही सत्य सिद्ध / ल हुई और उस बालक की मृत्यु में द्वार की एक ऐसी अर्गला निमित्त बनी जिस पर बिल्ली का आकार र बना हुआ था। आचार्य भद्रबाहु की प्रतिष्ठा सर्वत्र संस्थापित हो गई। आ. भद्रबाहु के उपदेश से प्रभावित M होकर राजा जितशत्रु ने श्रावक धर्म स्वीकार किया। ल आचार्य भद्रबाहु के मुनि जीवन में एक घटना और घटी, जिसका उल्लेख भी यहां प्रासंगिक " & है। एक व्यन्तर देव श्रावकों को अत्यधिक कष्ट दे रहा था जो वराहमिहिर का ही जीव था और जो मर ल कर व्यन्तर योनि में आया था। जनता उस व्यन्तर देव के उपद्रव से त्रस्त हो गई थी। अंत में जनसामान्य M के कष्ट को दूर करने के लिए आ. भद्रबाहु ने पंचपद्यात्मक ‘उवसग्गहर' नामक प्राकृत स्तोत्र की रचना की। इस स्तोत्र को 'पूर्व'-साहित्य से उद्धत माना जाता है। वृत्तिकार आचार्य हरिभद्र सूरि जैन आचार्यों की परम्परा के इतिहास में आचार्य हरिभद्र सूरि को अत्यधिक आदरणीय M स्थान प्राप्त रहा है, जिसकी पुष्टि अनेक आचार्यों द्वारा यथासमय अभिव्यक्त श्रद्धापूर्ण उद्गारों से .. ल होती है। ‘पंचाशक' के टीकाकार अभयदेव सूरि के अनुसार वे 'श्वेताम्बर मत के प्रवचनकर्ता / म पुरुषों में श्रेष्ठ हैं। इनका जन्म स्थान चित्रकूटनगर (आधुनिक वित्तौड़, राजस्थान) है। ये जाति के ब्राह्मण थे। ये अपने वैदुष्य के कारण चित्तौड़-नरेश जितारि के राजपुरोहित भी रहे। इन्होंने ब्राह्मण-परम्परा के महान् / 4 विद्या-गुरुओं के पास सभी प्रमुख धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रन्थों का पर्याप्त अध्ययन किया था। संस्कृत और प्राकृत- दोनों भाषाओं में इन्होंने निपुणता प्राप्त की थी। राजशेखर सूरि ने 'प्रबन्धकोष' में इन्हें " ( चतुर्दशविद्यास्थानज्ञ ब्राह्मण कहा है। चतुर्दश विद्याओं के अन्तर्गत 'चार वेद, वेदांग, मीमांसा, न्याय, , पुराण, धर्मशास्त्र' -इनका ग्रहण होता है। वेदांगों के अन्तर्गत शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष, . निरुक्त- इन शास्त्रों का ग्रहण किया जाता है। आचार्य हरिभद्र सूरि द्वारा विविध विषयों पर लिखे गए मास VIII RROTHERO ROORBORROR .. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3333332802.22.23222.23322322223333333333333333 REARRB CROR(R: BOOR HAIR ) (REE ग्रन्थों को देख कर इनकी 'चतुर्दशविद्यास्थाननिपुणता' का स्वत: निश्चय हो जाता है। हरिभद्र की यह - प्रतिज्ञा थी कि जिस पद्य का अर्थ मैं नहीं समझ पाऊंगा, उसके वक्ता (या रचयित.) का मैं शिष्यत्व ) स्वीकार कर लूंगा। इनके जैन धर्म के प्रति झुकाव के पीछे एक प्रमुख घटना थी, जो इस प्रकार है __ एक दिन आचार्य हरिभद्र राजमहल से वापिस घर लौट रहे थे तो उन्होंने रास्ते में एक भवन में स्त्रियों का मधुर स्वर सुना। उन्होंने जब इस पर अपना ध्यान केन्द्रित किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि कुछ स्त्रियां (साध्वियां) एक प्राकृत आर्या (पद्य) का गान कर रही हैं। उनमें यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि इस पद्य का क्या अर्थ है। हरिभद्र बहुत प्रयास करने पर भी उसका अर्थ नहीं समझ पाए। वह गाथा इस प्रकार थी चक्किदुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की। केसव चक्की केसव, दुचक्कि केसी अ चक्की अ॥ यह गाथा आवश्यकनियुक्ति की (421वीं) है, उनमें चक्रवर्ती और वासुदेवों की परम्परा के सम्बन्ध पर प्रकाश डाला गया है। इसका अर्थ इस प्रकार है: "पहले दो चक्रवर्ती होते हैं, उसके अनन्तर 5 हरि (वासुदेव) होते हैं। इसके बाद 5th चक्रवर्ती, एक कशव, एक चक्रवर्ती, एक केशव, एक चक्रवर्ती, एक केशव, दो चक्रवर्ती, एक केशव- इस प्रकार के अनुक्रम के बाद, अन्त में एक चक्रवर्ती की उत्पत्ति होती है।" ___हरिभद्र को जैन परम्परा और इतिहास की जानकारी तो थी नहीं, इसलिए वे उक्त पद्य का अर्थ नहीं समझ सके। इसलिए हरिभद्र ने उपहास एवं रोष को व्यक्त करते हुए कहा- 'यह चक-चक 8 क्या लगा रखी है?' उक्त गाथा को पढ़ने वाली याकिनी नाम की एक जैन-साध्वी थी। उसने हरिभद्र : व द्वारा किए गए उपहास का प्रत्युत्तर देते हुए कहा- 'बेटे! यह गोमय (गोबर) से लिपा हुआ नया-नया 0 * स्थान है।' साध्वी के कथन का भाव यह था कि जिस प्रकार किसी घर में नया-नया गोबर का लेप कर दिया गया हो तो वह घर चक-चक करता है- अर्थात् चमकता है, उसी प्रकार मेरी यह गाथा तुम्हारे / लिए नई-नई है (अज्ञातपूर्व है)- इसलिए तुम इसका अर्थ नहीं समझ सकते। इतना सुनते ही हरिभद्र ल के अभिमान पर मानो घड़ों पानी पड़ गया, और उन्होंने उक्त साध्वी से आग्रह किया- 'माता'! आप , उक्त गाथा का अर्थ समझाएं, अपनी पूर्वप्रतिज्ञा के अनुरूप मैं स्वयं को आपका शिष्य मानने को " र तैयार हूं।' 08Rॐ08RORRECTOBRORS 08 IXE Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A A) RO RO RO (RP) * (R) (R) (R) (R साध्वी ने नम्रतापूर्वक कहा कि हमें आगमों के अध्ययन की अनुमति तो अपने गुरु से प्राप्त / (r हुई है किन्तु हमारे गुरु ने उनके अर्थ करने की अनुमति नहीं प्रदान की है। यदि आप को उसका अर्थ ) जानना हो तो आप हमारे गुरु के पास जाएं। आचार्य हरिभद्र साध्वी याकिनी के गुरुवर्य आचार्य : जिनभट्ट के पास पहुंचे और श्रद्धा से उनके चरणों में अपने आपको उन्होंने समर्पित कर दिया। अपनी 2 प्रतिज्ञा के अनुसार उन्होंने आचार्य जिनभट्ट की शिष्यता स्वीकार की। जैन धर्म में दीक्षित होकर 3 - उन्होंने अपना जीवन जैन धर्म-दर्शन की प्रभावना में समर्पित कर दिया। समस्त शास्त्रों के पारंगत तथा जैन शासन के महान् धर्मप्रभावक आचार्य हरिभद्र जैसे शिष्य " को पाकर गुरु धन्य हो गए। उन्होंने अपना उत्तराधिकारी बना कर उन्हें 'आचार्य-पद' प्रदान किया तथा 'हरिभद्र सूरि' यह नाम घोषित किया। जिस याकिनी महत्तरा के कारण उनके जीवन एवं विचारों में चमत्कारी परिवर्तन हुआ, उसके प्रति आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों में कृतज्ञता एवं श्रद्धा के भाव व्यक्त किए हैं। हरिभद्र ने / 3 याकिनी महत्तरा को अपनी धर्म-माता के रूप में स्वीकार किया और अपने ग्रन्थों के अन्त में " 2 'याकिनी-महत्तराधर्मसूनु' के रूप में बड़े गौरव के साथ अपना परिचय प्रस्तुत किया। हरिभद्र सूरि ने जैन-धर्म की प्रभावना एवं अल्पमति व्यक्तियों की सुविधा के लिए तथा 0 "R अपनी गुरु-परम्परा से प्राप्त ज्ञाननिधि को सुरक्षित रखने के लिए अनेक शास्त्रों की रचना की। इनके लग्रन्थों की संख्या 1400 से उपर बताई जाती है। चन्द्रप्रभ सूरि-रचित 'प्रभावकचरित', मुनिचन्द्र सूरिकृत उपदेश टीका, अभयदेव सूरि-कृत पंचाशक-टीका आदि ग्रन्थों में ग्रन्थों की संख्या 1400 बताई गई है। किन्तु 'प्रबन्धकोष' में यह संख्या 20 1440 है। रत्रशेखर सूरिकृत 'श्राद्धप्रतिक्रमणार्थ दीपिका'- टीका, अंचलगच्छ पट्टावली, विजयलक्ष्मी : सूरिकृत 'उपदेशप्रासाद', क्षमाकल्याण उपाध्यायकृत 'खरतरगच्छ पट्टावली' आदि ग्रन्थों में यह ल संख्या 1444 बताई गई है। अस्तु, यह संख्या कुछ भी रही हो, किन्तु आज इनकी उपलब्ध कृतियों की & संख्या100 से कम ही है। o आचार्य हरिभद्र ने अपने द्वारा विरचित विशाल साहित्य-राशि से जैन शासन व धर्म की जो ) महती प्रभावना की है, वह जैन परम्परा के इतिहास में स्वर्णाक्षरों मे लिखी जाने योग्य है। महानिशीथ सूत्र का उनके द्वारा किया गया उद्धार इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त, एक अनुश्रुति के (म अनुसार, मेवाड़ में पोड़वाल वंश की स्थापना उन्होंने की थी और इस जाति के लोगों को जैन-धर्म का " / अनुयायी बनाया था। A XN8ROROPRIR000र Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * RROR.90 2200 ( RROR आ. हरिभद्र का समय आ. हरिभद्र के समय के सम्बन्ध में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है। परम्परागत विद्वद्वर्ग उनका ) CM स्वर्गवास ई. 527 में मानता है। प्रो. हर्मन जैकोबी तथा प्रो. के. बी. अभ्यंकर के अनुसार इनका समय : वि. सं. 800-950 है तो पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के मत में ई. 720-810 है। किन्तु मुनि जिनविजय / जी ने अनेक युक्तिसंगत प्रमाणों के आधार पर इनका समय ई. 700-770 सिद्ध किया है। अतः / सामान्यतः इन्हें ई. 8वीं शती का माना जा सकता है। आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित प्रमुख ग्रन्थ इस प्रकार है जैन आगमों पर व्याख्या के रूप में रचित ग्रन्थ- अनुयोगद्वार वृत्ति, ओघनियुक्ति-टीका, , दशवैकालिक वृत्ति, नन्दी वृत्ति, प्रज्ञापना टीका, पिण्डनियुक्ति-वृत्ति, जीवाभिगम वृत्ति, क्षेत्रसमासवृत्ति, जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति-टीका, आवश्यकनियुक्ति-वृत्ति आदि। सिद्धान्त-आचार आदि के ग्रन्थ- धर्मसंग्रहणी, पंचवस्तुक, पंचाशक, श्रावकप्रज्ञप्ति, सम्बोधप्रकरण, सम्यक्त्व-सप्तति, लोकतत्त्वनिर्णय, षोडशक प्रकरण, धर्मबिन्दु आदि। जैन न्याय-दर्शन के ग्रन्थः- अनेकान्तजयपताका, षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, ( सर्वज्ञसिद्धि आदि। जैन अध्यात्म-योग के ग्रन्थ- योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक, योगविंशिका आदि . कथा-साहित्य ग्रन्थ- धूर्ताख्यान, समराइच्चकहा आदि। स्तुतिपरक ग्रन्थ- महादेवाष्टक, संसारदावानल-स्तुति आदि। आवश्यक-नियुक्ति पर आचार्य हरिभद्र कृत वृत्ति आचार्य हरिभद्र ने आवश्यक सूत्र पर तो नहीं, किन्तु आवश्यक नियुक्ति पर एक वृत्ति लिखी - है। इसमें आवश्यक चूर्णि का अनुसरण न करते हुए स्वतंत्र रूप से विषय-विवेचना की गई है। इसी ( वृत्ति में यह भी संकेत मिलता है कि आचार्य हरिभद्र ने आवश्यकसूत्र पर एक बृहत् टीका भी लिखी थी, किन्तु यह अनुपलब्ध है। नियुक्ति के पाठान्तरों का भी इसमें कहीं-कहीं निर्देश कि II गया है। यह वृत्ति संस्कृत में है, किन्तु दृष्टान्त व कथानक प्राकृत में ही दिये गये हैं। इस वृत्ति का प्रमाण 22 हजार श्लोक माना जाता है। BROSAROORGBROORB0RROR XI Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a ) (R ) (R (R ) (2 ) (R ) (R ) (R ) (2 ) प्रस्तुत प्रकाशन में आवश्यक नियुक्ति और उस पर रचित हरिभद्रीय वृत्ति- दोनों का - मूल एवं उनका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है। व्याख्या के साथ-साथ विशेषार्थ भी ) M (जहां अपेक्षित समझा गया) दिया जा रहा है। इस प्रकाशन की समग्र योजना की संकल्पना में तथा उसके क्रियान्वयन में पूज्य प्रवर्तक ल श्री सुमन मुनि जी म. 'प्रज्ञामहर्षि' का योगदान ही प्रमुख निमित्त रहा है। वे श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन CM संघ में उत्तरभारतीय प्रवर्तक के रूप में जैन धर्म व दर्शन की महती प्रभावना कर रहे हैं। जैन साहित्य की श्रीवृद्धि के प्रति उनकी महती रुचि रही है। प्राकृत, संस्कृत आदि विविध भाषाओं के वे ज्ञाता हैं। न मैं उनके तपोमय व्यक्तित्व के प्रति अपनी श्रद्धा-वन्दना निवेदन करते हुए, इस ग्रन्थ के शेष भागों की / न सम्पन्नता के लिए उनके शुभाशीर्वाद की कामना करता हूं। अन्त में, पूज्य प्रवर्तक जी के सहयोगी ल कार्यदक्ष भंडारी मुनिश्री सुमन्तभद्र म. सा. (बाबा जी) के प्रति भी अपनी श्रद्धासिक्त वन्दना करना M आवश्यक कर्तव्य समझता हूं क्योंकि प्रस्तुत कार्य की संयोजना में उनकी उल्लेखनीय सहभागिता रही है। XII0ROSORRO900CROREOGROROR. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *) (2 ) (R ) (R ) (2 ) (R ) (2 ) (2 ) (2 आवश्यक-नियुजिक Page #41 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (r)(r)(r)(r)(r)n@ca@@ce@@@ce@@ आचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली-रचित |आवश्यक नियुक्ति॥ [आचार्य हरिभद्र सूरि कृत वृत्ति' से युक्त] .. श्री गणधरेन्द्रो विजयतेतराम्। [-गणघरों में इन्द्र विजयवन्त हों।] 223222222222322232322233333333333333333333333 - (वृत्तिकार-कृत मङ्गलाचरण) प्रणिपत्य जिनवरेन्द्र, वीरं श्रुतदेवतां गुरून साधून। आवश्यकस्य विवृति, गुरूपदेशादहं वक्ष्ये / / (हिन्दी अर्थ-) जिनवरेन्द्र (तीर्थंकर) महावीर, श्रुत-देवता, गुरुजनों एवं साधु (परमेष्ठी) को प्रणाम कर, अपने गुरु-वर्य के उपदेश से, मैं 'आवश्यक' सूत्र की विवृति (व्याख्या) कर ca रहा हूं 1 // . विशेषार्थ4 (1) जिनवरेन्द्र वीर:-जिन अवधिजिन आदि, उनमें वर-श्रेष्ठ='केवली', उनमें इन्द्र श्रेष्ठ, अर्थात् तीर्थंकर। वीर= महावीर। जैन परम्परा में पंच परमेष्ठियों को मङ्गल रूप माना गया है, और इनका स्तवन-वंदन भी 7 मङ्गल रूप होता है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में अर्हद् आदि देवों से अन्य भी कुछ देवताओं का ध्यान, स्मरण : व वन्दन किया जाता है। शास्त्रकारों ने ऐसे वन्दनीय देवताओं के तीन प्रकार माने हैं। उदाहरणार्थ (1) अभीष्ट देवता-अभियुक्तों अर्थात् श्रेष्ठ-पुरुषों द्वारा जिनका यजन, पूजन किया जाता हो, वह सर्वसम्मत देव ही अभीष्ट देवता है, जैसे- जिनेन्द्र, तीर्थंकर आदि। - @nece@ Bce@ce@ @ce@009@ce@900 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aacaacaaca श्रीआवश्यकनियुक्ति (व्याख्या-अबुवाद सहित) 200mmon 2233333333332222232222 (2) अभिमत देवता-जो विघ्नविनाशक (शक्ति) के रूप में मान्य किये गए हों, वे अभिमत देवता होते हैं। जैसे- श्रुत-अधिष्ठात्री, एवं शासन देवता आदि। (तीर्थकर- विशेष की विशेष यक्षca यक्षिणी रूप) शासन देवता अविरत (संयमहीन) होते हैं, अतः उनकी अभीष्ट देवता के रूप में पूज्यता " a तो नहीं होती, किन्तु ग्रन्थ की निर्विघ्नता -इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए वे कार्य-साधक (सहायक) a होते हैं, साथ ही अभीष्ट देव जिनेन्द्र आदि से जुड़े हुए होते हैं, इसलिए उनके प्रति विनय-प्रदर्शन व ca कृतज्ञता-ज्ञापन के रूप में नमस्कार किया जाता है- ऐसा कुछ आचार्यों का मत है। (3) अधिकृत देवता-शास्त्र-निर्माण के संदर्भ में जिनका अधिकार (महत्त्व) हो, वे अधिकृत a देवता होते हैं। जैसे- भावश्रुत रूप देव, जिनवाणी या ज्ञानदाता के रूप में गुरु आदि, एवं प्राचीन 4 आचार्य आदि (भी अधिकृत देवता हैं)। अधिकृत देवता के प्रति नमन ज्ञानावरण के क्षयोपशम का ca साधक होता है, इसलिए उसका औचित्य है ही। आगम में भी प्रतिपादित किया गया है कि श्रुत- " a आराधना से अज्ञान-क्षय आदि (फल प्राप्त) होते हैं। ca 'अभीष्ट देवता' के रूप में भगवान् तीर्थंकर महावीर की यहां प्रणति-पूर्वक स्तुति की गई . है। प्रारम्भ किए जाने वाले ग्रन्थ की समाप्ति निर्विघ्न हो- इस उद्देश्य, से वृत्तिकार आचार्य हरिभद्र ने श्रुतदेवता की यहां अभिमत देवता के रूप में स्तुति की है। यहां श्रुतदेवता' से तात्पर्य है:- 'श्रुत' की , अधिष्ठात्री देवता। 'श्रुत' रूपी देवता- इस व्युत्पत्ति से तो 'अभिमत-देवता' अर्थ न होकर, 'अधिकृत देवता' अर्थ व्यक्त होगा। वृत्तिकार द्वारा 'श्रुत-देवता' को नमस्कार कर इस तथ्य को संकेतित किया ca गया है कि 'श्रुतदेवता' (शासन-देवता) अविरत' होने पर भी व्यावहारिक दृष्टि से स्तुति योग्य हैं। श्रुतce देवता को ज्ञान व आचार-दोनों में पारंगत मानना और जिनेन्द्र आदि की तरह पूज्य मानना -यह है मिथ्यात्व है। गुरुः-गुरु के प्रति की गई प्रणति के माध्यम से 'अधिकृत-देवता' की स्तुति की गई है। : शास्त्र-रचना में उपकारी होने से 'गुरु' 'अधिकृत देवता हैं। साधुः- यहां 'साधु' पद से उपाध्याय, वाचनाचार्य, गणावच्छेदक आदि का भी ग्रहण a शास्त्रकार को अभीष्ट है, क्योंकि इन सभी में 'साधुत्व' अनिवार्य रूप से होता ही है। यद्यपि मया तथाऽन्यः, कृताऽस्य विवृतिस्तथापि संयोपात्। तद्-सचिसत्त्वानुग्रहहेतोः क्रियते प्रयासोऽयम् RI (हिन्दी अर्थ-) यद्यपि मैंने तथा,अन्य (आचार्यो) ने इस (आवश्यक सूत्र) की विवृति * (व्याख्या) की है, तथापि संक्षेप-रुचि प्राधियों पर अनुग्रह की भावना के कारण, संक्षेप से | विवृति (वृत्ति) करने का यह मेरा प्रयास है।2।। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cacaacacacee 0000000 2333333333333332323222223222 नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) | विशेषार्थ ___ 'आवश्यक सूत्र' पर आचार्यों द्वारा विस्तृत व्याख्या की गई है, ऐसी स्थिति में प्रस्तुत " a व्याख्या की सार्थकता नहीं है- इस आशंका का समाधान वृत्तिकार ने उक्त कथन द्वारा किया है। " * वृत्तिकार का अभिप्राय यह है कि सूत्र/सिद्धान्त को कुछ शिष्य विस्तार से समझना चाहते हैं, तो कुछ संक्षेप से। यद्यपि आवश्यक सूत्र पर विस्तृत व्याख्यान उपलब्ध है, तथापि वह संक्षेप-रुचि' शिष्यों के , लिए उपकारक नहीं है, अतः उनके उपकार- हेतु (किया जा रहा) यह प्रयास निरर्थक नहीं, अपितु , सार्थक है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) इहावश्यकप्रारम्भप्रयासोऽयुक्तः, प्रयोजनादिरहितत्वात्, कण्टक-शाखामर्दनवत् - इत्येवमाद्याशङ्कापनोदाय प्रयोजनादि पूर्व प्रदर्श्यत इति, उक्तं च प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ, फलादित्रितयं स्फुटम्। मङ्गलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये / इत्यादि। (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) इस (शब्दमय व अर्थमय आवश्यक सूत्र की विवृति/ a व्याख्या) को प्रारम्भ करने का प्रयास संगत/औचित्यपूर्ण नहीं (प्रतीत होता) है, क्योंकि इस a (के प्रारम्भ) में प्रयोजन (अभिधेय, सम्बन्ध, मङ्गलाचरण) आदि का कथन नहीं किया गया , है। (प्रयोजन आदि के कथन के बिना ही शास्त्र-रचना करने का प्रयास तो वैसे ही / a (अनुचित/असंगत) है, जैसे कोई कांटों भरी शाखा का मर्दन करे (या कौए के कितने दांत : हैं- इसकी परीक्षा करे)। (समाधान-) उक्त आशंका के निराकरण करने की दृष्टि से, (मैं : पूर्वाचार्यों द्वारा मान्य), प्रयोजन (एवं अभिधेय/विषय-वस्तु, उनका सम्बन्ध व मङ्गलाचरण) , आदि को सर्वप्रथम बता रहा हूं। (इस विषय के समर्थन में शास्त्रकारों ने) कहा भी हैa (निर्विघ्न समाप्ति रूप) अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए (किसी भी) शास्त्र की रचना, के प्रारम्भ में फल (एवं अभिधेय/विषय वस्तु, और उनका परस्पर सम्बन्ध) आदि तीन के साथ-साथ मङ्गलाचरण (-इन चार बातों) का स्पष्ट रूप से कथन करना चाहिए, ताकि : समझदार (प्रेक्षावान्) लोग (उस शास्त्र के अध्ययन में) प्रवृत्त हों। इत्यादि। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)900 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -aaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2000000 222222222 विशेषार्थ .. ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति आदि प्रयोजनों की सिद्धि के लिए शास्त्र के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण , a परमावश्यक माना गया है। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने (विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-13 में) ca शास्त्र के प्रारम्भ, मध्य व अन्त में मङ्गलाचरण किये जाने का समर्थन करते हुए, कहा है- उस // ca मङ्गल को शास्त्र के आदि, मध्य व अन्त में भी करना चाहिए, इनमें प्रथम (आदि) माल से शास्त्र व उसके उद्देश्य की निर्विघ्न सम्पन्नता सम्भव होती है। बाकी के मध्य माल व अन्तिम मङ्गल से शास्त्र की स्थिरता और शिष्य-प्रशिष्य की परम्परा का न टूटना -ये प्रयोजन सिद्ध होते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने भी (प्रमाणमीमांसा में) पूर्वोक्त तथ्य का समर्थन करते हुए कहा है- “माल किये जाने , पर, प्रतिपक्ष (विघ्नरूपी शत्रु) के नाश होने के कारण, शास्त्र की निर्विघ्न, बिना रुकावट के समाप्ति , होती है, साथ ही शास्त्र को सुनने (पढ़ने-पढ़ाने) वाले भी दीर्घ आयु वाले होते हैं"। मङ्गलाचरण के . a अलावा अनुबन्धचतुष्टय या अनुबन्धत्रय का भी निर्देश करना आवश्यक माना गया है। प्रायः अनुबन्धों की संख्या चार मानी गई है- (वे हैं-) (1) अभिधेय (विषयवस्तु), (2) प्रयोजन हेतु या , फल), (3) अभिधेय व प्रयोजन -इन दोनों का शास्त्र (जिसकी रचना की जा रही है) के साथ a सम्बन्ध, तथा (4) अधिकारी (शास्त्र के अध्ययन का कौन अधिकारी, योग्य पात्र है)। जिस शास्त्र , की रचना की जा रही है, उसमें किस विषय का प्रतिपादन किया जाना है, उस शास्त्र के अध्ययन से क्या (लाभ) प्राप्त होगा, अथवा किस विशेष प्रयोजन की सिद्धि होगी, इसी प्रकार रचे जा रहे शास्त्र, ca के अध्ययन हेतु कौन उपयुक्त (योग्य) व्यक्ति (हो सकता) है-इत्यादि विषयों का निरूपण करना ही , ca चार अनुबन्धों का निदर्शन होता है। इन चारों अनुबन्धों में (भी), जैनाचार्यों ने तीन ही अनुबन्धों को . प्रमुख रूप से स्वीकारा है। वे हैं- अभिधेय, प्रयोजन और इन दोनों को शास्त्र से सम्बन्ध / इनमें , ca 'अधिकारी' की जगह मङ्गलाचरण का निर्देश कुछ आचार्य करते हैं, अतः उनके मतानुसार अभिधेय, ca प्रयोजन, इन दोनों का शास्त्र से सम्बन्ध और मङ्गलाचरण -इस प्रकार चार अनुबन्ध हैं- यह है a ज्ञातव्य है। इन अनुबन्धों के निर्देश करने से ही शास्त्र के अध्ययन में पाठकों की प्रवृत्ति होती है। उक्त , तथ्य के समर्थन में अन्य शास्त्रीय वचन भी यहां प्रासनिक हैं। जैसे- "सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं श्रोतुं , श्रोता प्रवर्तते" (मीमांसा-श्लोकवार्तिक, प्रतिज्ञासूत्र, श्लोक-17) अर्थात् उसी शास्त्र को सुनने के लिए, या पढ़ने के लिए श्रोता या अध्येता प्रवृत्त होता है जिसका अर्थ (अर्थ= अभिधेय व प्रयोजन) सिद्धव स्पष्ट निर्दिष्ट हो- वह प्रयोजन निर्विवाद रूप से संकेतित हो, और साथ ही उक्त प्रयोजन और उस " शास्त्र का परस्पर सम्बन्ध भी स्पष्ट हो। इसी दृष्टि से वृत्तिकार ने शंका उठा कर उसका आगे , समाधान भी प्रस्तुत किया है। 890820084000000000000000. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | Maacance नियुक्ति-गाथा-1 (भूमिका).. PORRORD 33333333333333333333333. (हरिभद्रीय वृत्तिः) a अतः प्रयोजनमभिधेयं संबन्धो मालं च यथावसरं प्रदर्श्यत इति। तत्र प्रयोजनं . तावत् परापरभेदभिन्नं द्विधा, पुनरेकैकं कर्तृश्रोत्रपेक्षया द्विथैव। a (वृत्ति-हिन्दी-) इसलिए प्रस्तुत शास्त्र-रचना से सम्बन्धित 1. प्रयोजन, 2. अभिधेय/ विषय-वस्तु, 3. अभिधेय व प्रयोजन -इन दोनों का शास्त्र से सम्बन्ध, 4. मङ्गलाचरण-, इनका अवसरानुरूप कथन कर रहा हूं। इनमें प्रयोजन तो दो प्रकार का होता है- (1) : परम/उत्कृष्ट प्रयोजन और (2) अपर ( अर्थात् परम प्रयोजन का साधक) प्रयोजन। (चूंकि : कोई भी रचना कर्ता व श्रोता-दोनों को लाभान्वित करती है, अतः) इन दोनों में प्रत्येक के . a भी दो-दो भेद होते (ही) हैं- (1) कर्ता से सम्बद्ध प्रयोजन, तथा (2) श्रोता से सम्बद्ध , a प्रयोजन। . (हरिभद्रीय वृत्तिः) तत्र द्रव्यास्तिकनयालोचनायामागमस्य नित्यत्वात् कर्तुरभाव एव, “इत्येषा द्वादशाङ्गी . न कदाचिन्नासीत्, न कदाचिन्न भविष्यति न कदाचिन्न भवति" इतिवचनात् / / व पर्यायास्तिकनयालोचनायां चानित्यत्वात्तत्सद्भाव इति। तत्त्वालोचनायां तु " . सूत्रार्थोभयरूपत्वादागमस्य अर्थापेक्षया नित्यत्वात् सूत्ररचनापेक्षया चानित्यत्वात् कवञ्चित् . कर्तृसिद्धिरिति। a (वृत्ति-हिन्दी-) 'द्रव्यास्तिक नय' की विचारणा में आगम नित्य है, इसलिए उस " a (आगम) का कोई कर्ता नहीं है, क्योंकि (नन्दी सूत्र, सूत्र सं.114 में) इस अभिप्राय वाला , a (आगमिक) कथन मिलता है- “यह द्वादशाही कभी नहीं थी- ऐसा नहीं है, भविष्य में नहीं होगी- ऐसा भी नहीं, वर्तमान में नहीं है- ऐसा भी नहीं है।" पर्यायास्तिक नय के : परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो 'आगम' अनित्य है, इसलिए आगम के कर्ता का सद्भाव है। (चूंकि प्रत्येक 'नय' समग्र वस्तु के एकदेश को विषय करता है, इसलिए स्याद्वादश्रुत रूपी " * 'प्रमाण' के परिप्रेक्ष्य में) अब पूर्ण 'तत्त्व' की विचारणा करते हैं। चूंकि 'आगम' सूत्रात्मक व . . अर्थात्मक-दोनों होता है, अतः वह 'अर्थ' की दृष्टि से नित्य है और (गणधरों द्वारा की जाने , वाली) सूत्र-रचना की अपेक्षा से अनित्य भी है, इस दृष्टि से आगम का 'स्यात् (कथंचित्) , कर्ता है' -यह सिद्ध होता है।) (r)(r)(r)(r)(r)(r)00000000000000 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -200332222222233333333302322222222222222222222 aaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 20000mmविशेषार्थ 'नत्थि नएहि विहूणो सुत्तं अत्थो व जिणमए किंचि'- अर्थात् जिन-मत में कोई भी सूत्र व . a अर्थ ऐसा नहीं है जो 'नयों' से रहित हो। इस दृष्टि से यहां कर्ता के प्रयोजन पर विचार किया गया है। कर्ता के प्रयोजन का विचार हो तो यह भी प्रश्न उठ जाता है कि शास्त्र का कोई कर्ता है भी क्या? क्योंकि आगम तो नित्य है। आगम की नित्यता को इस तरह भी स्पष्ट समझ सकते हैं- 'आगम' के / a अभिधेय/वाच्य जीवादि तत्त्व सर्वथा व सर्वदा नित्य हैं, और विदेह क्षेत्र में सर्वदा सूत्र/आगम का , क सद्भाव रहता ही है, इसलिए समस्त क्षेत्र की अपेक्षा से 'श्रुतवान्' आत्माओं का कभी अभाव नहीं " होता। वृत्तिकार ने पर्यायास्तिक नय की दृष्टि से आगम की अनित्यता भी प्रतिपादित की है। नन्दी सूत्र (सू. 78) में भी व्युच्छित्तिनय (पर्यायार्थिक) से श्रुत को सादि-सान्त, तथा अव्युच्छित्तिनय , a (द्रव्यास्तिक) से अनादि-अनन्त बताया गया है। इस तरह शास्त्रादि का कथंचित् कर्तृत्व संगत हो, जाता है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) a तत्र सूत्रकर्तुः परमपर्गप्राप्तिः अपरं सत्त्वानुग्रहः, तदर्थप्रतिपादयितुः किं प्रयोजनमिति . * चेत्, न किश्चित्, कृतकृत्यत्वात् / प्रयोजनमन्तरेणार्थप्रतिपादनप्रयासोऽयुक्तः इति चेत्, न, , तस्य तीर्थकरबाम-गोत्रविपाकित्वात् / वक्ष्यति च- "तं च कहं वेइज्जइ?, अगिलाए : धम्मदेसणादीहि" इत्यादिना। (वृत्ति-हिन्दी-) सूत्रकर्ता का परम प्रयोजन है- अपवर्ग/मोक्ष की प्राप्ति। और . a (सूत्रकर्ता का) अपर (पारम्परिक) प्रयोजन है- सत्त्वों/प्राणियों के प्रति अनुग्रह / (शंका-): सूत्र के अर्थ का प्रतिपादन करने वाले (तीर्थंकर आदि) का क्या प्रयोजन होता है? (समाधान-) न कोई भी प्रयोजन नहीं होता, क्योंकि वह कृतकृत्य होता है। (शंका-) यदि वह कृतकृत्य है & और किसी प्रयोजन की पूर्ति अवशिष्ट नहीं रह जाती, तो किसी प्रयोजन के बिना, तीर्थंकर केवली द्वारा अर्थ के प्रतिपादन का औचित्य ही नहीं रहेगा? (समाधान-) वह प्रयास * 'तीर्थंकर नाम गोत्र' कर्म के विपाक-स्वरूप होता है। (नियुक्तिकार द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ की गाथा-185 में) आगे कहा भी गया है- उस (तीर्थंकर नाम कर्म) का किस प्रकार वेदन किया जाता है? उत्तर है- अग्लानता-पूर्वक धर्म-देशना आदि द्वारा उसका वेदन किया जाता है है," इत्यादि। (r)Rece@ @ @ @ce@ @ce@9999@N000 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -aaraaaa គ គ គ គ គ គ 333333333333 नियुक्ति माथा-1 (भूमिका) विशेषार्थ तात्पर्य यह है कि मुक्ति रूप परम प्रयोजन की पूर्ति की दृष्टि से, तीर्थकर के लिए कुछ विशेष / करना नहीं रह जाता है, क्योंकि 'केवल' झान प्राप्त होने व 'केवली' होने से 'मुक्ति' उसके लिए . अवश्यम्भाविनी हो जाती है। अतः वह 'कृतकृत्य' है। फिर भी तीर्थकर नाम कर्म का वेदन कर ही है उसका क्षय हो सकता है। वह वेदन धर्मदेशना आदि से होता है। इस दृष्टि से उनकी धर्म-देशना का औचित्य स्पष्ट हो जाता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) प्रोणांत्वपरं तदर्थाधिगमः, परं मुक्तिरेवेति।कथम्? नानक्रियाभ्यां मोक्षस्तन्मयं चावश्यकमितिकृत्वा बावश्यकश्रवणमन्तरेण विशिष्ट-ज्ञानक्रियावाप्तिरुपजायते, कुतः?, , a तत्कारणत्वात्तदवाओः, तदवातौ च पारम्पर्येण मुक्तिसिद्धेः, इत्यतः प्रयोजनवान् . आवश्यकप्रारम्भप्रयास इति। (वृत्ति-हिन्दी-) श्रोताओं का अपर प्रयोजन तो उस (सूत्रात्मक व अर्थात्मक आगम) , का बोध प्राप्त करना है, और परम प्रयोजन मुक्ति ही है। (प्रश्न-) यह कथन किस प्रकार , . संगत है? (अर्थात् इस शास्त्र के अध्ययन से ये दोनों प्रयोजन किस प्रकार सिद्ध होते हैं?) a (उत्तर-) ज्ञान और क्रिया (इन दोनों) से मोक्ष प्राप्त होता है, और ज्ञान व क्रिया का समन्वित रूप (सामायिक आदि रूप) ही यह आवश्यक है, क्योंकि आवश्यक-श्रवण के बिना परम : प्रयोजन रूप 'मुक्ति' के अनुकूल (अर्थात् मुक्ति दिलाने योग्य) विशिष्ट ज्ञान-क्रिया की ? a सम्पन्नता सम्भव नहीं हो पाती। (प्रश्न-) ऐसा क्यों? (उत्तर-) इसलिए कि विशिष्ट ज्ञान क्रिया की प्राप्ति में आवश्यक-श्रवण कारण है, और विशिष्ट ज्ञान-क्रिया की प्राप्ति होने पर : परम्परा से मुक्ति की सिद्धि हो जाती है। इस तरह, (ग्रन्थकर्ता व श्रोता- दोनों के द्विविध प्रयोजनों को स्पष्ट कर दिये जाने पर), 'आवश्यक' सूत्र-विवृति के प्रारम्भ का प्रयास करना a (निष्प्रयोजन नहीं, अपितु) 'सप्रयोजन' है (-यह सिद्ध हो जाता है)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तदभिधेयं तु सामायिकादि।संबन्धश्चयोपेयभावलक्षणः तर्कानुसारिणः प्रति, कथम्? . उपेयं सामायिकादिपरिबानम, मुक्तिपदं वा, उपायस्तु आवश्यकमेव वचनरूपापन्नमिति, . यस्माततः सामायिकाधनिथयो भवति, सति च तस्मिन् सम्यग्दर्शनादिवैमल्यं क्रियाप्रयत्नश्च, 1 * तस्मात मुक्तिपदप्रातिरिति।अथवा उपोद्घातनिर्युक्तौ "उद्देसे निदेसे य” इत्यादिना ग्रन्थेन / सप्रपछेन स्वयमेव वक्ष्यति। . (r)p@@@@9808080808080@@ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333232323232223222222222222232 -kacacacacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 20000mm (वृत्ति-हिन्दी-) आवश्यक सूत्र' (ग्रन्थ) का अभिधेय (विषय वस्तु) है- (विशिष्ट ca ज्ञान-क्रिया की साधिका) सामायिक आदि (का निरूपण)। 'तर्कानुसारी' (श्रोताओं) को दृष्टि , में रखें तो 'सम्बन्ध' है- उपाय व उपेय (फल) भाव रूप। (प्रश्न-) कैसे? (उत्तर-). सामायिक आदि 'अपर-प्रयोजन' या मुक्ति रूपी 'परम प्रयोजन' उपेय (लक्ष्य प्राप्य) है और 1 वचनात्मक 'आवश्यक' शास्त्र ही (उस उपेय को प्राप्त करने का साधन) उपाय है। क्योंकि - उस (आवश्यक शास्त्र) से सामायिक (व चतुर्विंशति-स्तव) आदि अर्थ (विषय-वस्तु) का , निश्चय (निर्णयात्मक-ज्ञान) होता है, और उसके बाद (ही) सम्यक्दर्शन आदि में निर्मलता , एवं (समीचीन) क्रिया का प्रयत्न होता है जिससे 'मुक्ति' प्राप्त होती है। अथवा (श्रद्धानुसारी, श्रोताओं को लक्ष्य कर) स्वयं ही (नियुक्तिकार) उपोद्घात-नियुक्ति ग्रन्थ 'उद्देसे निद्देसे य' 1 a इत्यादि (140वीं गाथा) के द्वारा आगे विस्तार-पूर्वक (सम्बन्ध का) कथन करेंगे। ca विशेषार्थ तात्पर्य यह है कि श्रोता दो प्रकार के होते हैं- (1) तर्कानुसारी, अर्थात् तर्क, युक्ति व हेतु 44 आदि के माध्यम से उपदेश को ग्रहण करने वाले, और (2) श्रद्धानुसारी।तर्कानुसारी श्रोता सामायिक ca आदि का ज्ञान प्राप्त करना तथा मुक्ति रूप प्रयोजन की सिद्धि चाहता है। उसके लिए मुक्ति आदि 4 उपेय है तो यह शास्त्र उसका उपाय है। शास्त्र का उक्त प्रयोजन के साथ उपाय-उपेय सम्बन्ध भी उक्त , कथन से स्पष्ट हो जाता है। यहां 'तर्क' से तात्पर्य शुष्क तर्क से नहीं है। यहां तर्कानुसारी का अर्थ हैce श्रद्धा की गौणता और तर्क की प्रधानता का भाव रखने वाले अर्थात् श्रद्धासमन्वित परीक्षक व्यक्ति। ca शास्त्रीय वाद या चर्चा में भी कुछ मौलिक पदार्थों के सद्भाव की श्रद्धा अपेक्षित होती है।युक्ति व तर्क . के सहारे 'सत्य' की पुष्टि होती है-यह राजा प्रदेशी के दृष्टान्त से समझा जा सकता है (द्र. राजप्रश्नीय / सूत्र)। केशीकुमार श्रमण की युक्तियों और तर्क ने राजा प्रदेशी जैसे नास्तिक को आस्तिक बना दिया . ca था। इसी दृष्टि से नन्दी सूत्र (सू. 115) में जिज्ञासु जनों के 8 बौद्धिक गुणों का उल्लेख है, जिनमें 2 सुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण तो हैं ही, ईहा व अपोह का भी निर्देश है। ईहा व अपोह -ये चिन्तन-मननसमीक्षण आदि युक्ति मार्ग के ही अंग हैं। वस्तुतः वस्तु-स्वभाव तर्कातीत होता है। इसलिए आचार्य समन्तभद्र ने कहा है-स्वभावोऽतर्कगोचरः (आप्तमीमांसा, 100)।शुष्क तर्क-कोरा वाद-विवाद या , कुतर्क से तो वस्तु का यथार्थ स्वरूप ज्ञात नहीं हो सकता।शुष्क तर्कवाद की निन्दा करते हुए आचार्य व हरिभद्र ने अपने अन्य ग्रन्थ (योगदृष्टिसमुच्चय, 144-145) में कहा है कि यदि मात्र हेतुवाद से " & अतीन्द्रिय पदार्थों का निर्णय हो सकता होता तो अभी तक निर्णय हो गया होता। किन्तु शुष्क तर्क से , अतीन्द्रिय पदार्थों का निर्णय नहीं हो पाता, क्योंकि वहां मिथ्या अभिमान निहित होता है, अतः शुष्क " तर्कवाद हेय ही है। श्रद्धानसारी श्रोता के प्रयोजनादि का निरूपण आगे करेंगे। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000002 -acaaaaaa नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) (हरिभद्रीय वृत्तिः) कश्चिदाह- अधिगतशास्त्रार्थानां स्वयमेव प्रयोजनादिपरिज्ञानात् शास्त्रादौ प्रयोजनाडुपन्यासवैयर्यमिति तब्न, अनधिगतशास्त्रार्थानां प्रवृत्तिहेतुत्वात् तदुपन्यासोपपत्तेः।। प्रेक्षावतां हि प्रवृत्तिनिश्चयपूर्विका, प्रयोजनादौ उत्तेऽपि च अनधिगतशास्त्रार्थस्य तन्निश्चयानुपपत्तेः। 4 संशयतः प्रवृत्त्यभावात्तदुपन्यासोऽनर्थकः इति चेत्, न, संशयविशेषस्य प्रवृत्तिहेतुत्वदर्शनात्, " कृषीवलादिवत्, इत्यलं प्रसङ्गेन। (वृत्ति-हिन्दी-) यहां किसी ने (धर्मोत्तर आचार्य के अनुयायी-व्यपोहवादी बौद्ध) ने से शंका प्रस्तुत की- जिन्होंने शास्त्र का अध्ययन किया है, उन्हें तो स्वतः (प्रस्तुत) शास्त्र के . प्रयोजन आदि का ज्ञान है ही, तब शास्त्र के प्रारम्भ में (उनके लिए) प्रयोजन आदि का कथन व्यर्थ है? (उत्तर) ऐसी बात नहीं। जिन्होंने शास्त्र का अध्ययन नहीं किया है, उन्हें - इसमें प्रवृत्त कराने के लिए उस (प्रयोजन) का कथन करना संगत हो जाता है। (पुनः शंका) समझदार व्यक्तियों की प्रवृत्ति निश्चय पूर्वक होती है, तब प्रयोजन आदि का कथन करने पर भी, जब तक शास्त्र-निहित अर्थ का अध्ययन नहीं कर लें, तब तक उन्हें प्रयोजन आदि का 21 निश्चय नहीं होगा। (अनिर्णय की स्थिति में) संशय के कारण उनकी शास्त्र (के अध्ययन) में " प्रवृत्ति नहीं होगी, इसलिए प्रयोजन का कथन व्यर्थ है? (उत्तर-) ऐसा नहीं। (अनिष्ट-अभाव - एवं इष्ट सिद्धि से जुड़ा) संशय-विशेष प्रवृत्ति का हेतु होता देखा गया है, किसान की तरह [अर्थात् जैसे किसान को खेती के प्रयोजन का ज्ञान होता है, किन्तु अभीष्ट सिद्धि प्राप्त होगी कि नहीं है -ऐसा संशय-विशेष उसे खेती के कार्य में प्रवृत्त कराता ही है, उसी तरह शास्त्र के प्रयोजन को जान " a लेने पर भी, पाठक शास्त्र के अध्ययन में इसलिए प्रवृत्त होंगे कि चलो, देखा जाय ज्ञात प्रयोजन इस a शास्त्र के अध्ययन से पूरा होता है कि नहीं। यहां इतना ही कहना पर्याप्त होगा, अधिक विस्तार की जरूरत नहीं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) साम्प्रतं मङ्गलमुच्यते-यस्मात् श्रेयासि बहुविघ्नानि भवन्ति इति।उक्तं चश्रेयासि बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि। अश्रेयसि प्रवृत्तानाम्, क्वापि यान्ति विनायकाः॥ इति। आवश्यकानुयोगश्च अपवर्गप्राप्तिबीजभूतत्वात् श्रेयोभूत एव, तस्मात्तदारम्भे, विघ्नविनायकायुपशान्तये तत् प्रदर्श्यत इति।तच्च मङ्गलं शास्त्रादौ, मध्ये, अवसाने चेष्यत इति। 09092ece@nce@pecre2092cRO900 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333222333 aaaaaaaa श्रीआवश्यकवियक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) ROOPOOR (वृत्ति-हिन्दी-) अब माल के विषय में कथन रहे हैं। चूंकि श्रेयस्कर कार्यों में | अनेक विघ्न होते हैं। कहा भी है महापुरुषों के श्रेयस्कर कार्यों में (भी) अनेक विघ्न होते (देखे जाते) हैं, तब जो, अकल्याणकारी कार्यों में प्रवृत्त हों तो उनके लिए विघ्ननायक (बड़े-बड़े विघ्न) कहीं भी, पगपग पर उपस्थित होंगे ही। (नियुक्ति रूप यह) आवश्यक-अनुयोग अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति में बीज (प्रधान कारण जैसा) होने से श्रेयस्कर है ही, इसलिए (आवश्यक-अनुयोग के) प्रारम्भ में है ca विघ्नविनायक आदि की शांति हेतु वह (मङ्गल) किया जाता है। शास्त्र के प्रारम्भ में, मध्य में , और अन्त में भी मङ्गल करना अभीष्ट (अपेक्षित) माना गया है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) सर्वमेवेदं शास्त्रं मालमित्येतावदेवास्तु, मालत्रयाभ्युपगमस्त्वयुक्तः, प्रयोजनाभावात् , & इति चेत् न, प्रयोजनाभावस्यासिद्धत्वात्।तथा च कथं बुबाम विनेया विवक्षितशास्त्रार्थस्याविघ्नेन पारं गच्छेयुः? अतोऽर्थमादिमङ्गलोपन्यासः, तथा स एव कथं नु वाम तेषां स्थिरः / स्याद्? इत्यतोऽर्थ मध्यमङ्गलस्य, स एव च कथं नुनाम शिष्यप्रशिष्यादिवंशस्य अविछित्त्या : उपकारकः स्याद्? इत्यतोऽयं चरममालस्य, इत्यतो हेतोरसिद्धता इति। (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) यह समस्त शास्त्र ही मङ्गल रूप है, तो मात्र शास्त्र का कथन ही होना चाहिए, (आदि-मङ्गल, मध्यमङ्गल व अन्त मङ्गल -इन) तीन मङ्गलों का , & कथन (मङ्गलाचरण) युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि वे मङ्गल निष्प्रयोजन हो जाते हैं। (उत्तर-). ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि उनकी निष्प्रयोजनता सिद्ध नहीं है। दूसरी बात (मङ्गलाचरण : के अभाव में) शिष्य विवक्षित शास्त्र को किस प्रकार निर्विघ्नता पूर्वक पार कर पाएंगे? : (उनका शास्त्राध्ययन किस प्रकार निर्विघ्नता से सम्पन्न हो पाएगा?) इस प्रयोजन की। ca सिद्धि हेतु आदि- मङ्गल का उपन्यास करणीय है। वह शास्त्र किस प्रकार उन शिष्यों में , & स्थिरता को प्राप्त हो -इस प्रयोजन की सिद्धि हेतु मध्यमङ्गल करणीय होता है, और वह र a शास्त्र शिष्य-प्रशिष्य आदि वंश-परम्परा के लिए किस प्रकार निरन्तर, अविच्छिन्न रूप से , उपकारक हो -इस प्रयोजन की सिद्धि हेतु अन्तमङ्गल करणीय होता है, इसलिए (मङ्गलों : * की निष्प्रयोजनता को सिद्ध करने के लिए दिया गया) हेतु सिद्ध नहीं होता (वह असिद्ध व . व्यर्थ हो जाता है)। - 10 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaaaact 20000000 3333333333333330203020030332 नियुक्तिनाथा-1 (अमिका) विशेषार्थ आचार्य अभयदेव सूरि ने (भगवतीसूत्र-सूत्र-1/1/3-7 की वृत्ति में ) भी पञ्चपरमेष्ठीनमस्कार रूप भाव मजल से (1) विघ्न-नाश, (2) शिष्य की बुद्धि में मालाचरण करने का भाव भरना और शिष्यों को उसके लिए प्रेरणा देना, (3) शिष्ट जनों की आचार-परम्परा का अनुवर्तन -इन , प्रयोजनों की सिद्धि होने का सङ्केत किया है। पाणिनिशास्त्र के महान् भाष्यकार आदरणीय आचार्य , पतञ्जलि ने भी शास्त्र-रचना के पहले, मध्य में तथा अन्त में भी मङ्गलाचरण की महत्ता व सार्थकता : का समर्थन करते हुए कहा है “मङ्गलादीनि, मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्ते / वीरपुरुषाणि च भवन्ति, 1 आयुष्मत्पुरुषाणि च, अध्येतारश्च मङ्गलयुक्ता यथा स्युः।” अर्थात् “जिन शास्त्रों के आदि, मध्य व . 4 अन्त में मङ्गलाचरण किया जाता है, वे शास्त्र प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं। उसके पढ़ने वाले भी शूरवीर, , दीर्घ आयु वाले एवं मङ्गलमय जीवन वाले होते हैं।" क(हरिभद्रीय वृत्तिः) तत्र "आभिणिबोहियणाणं, सुयणाणंचेव" इत्यादिनाऽऽदिमङ्गलमाह।तथा “वंदण . चिति कितिकम्म" इत्यादिना मध्यमङ्गलम्, वन्दनस्य विनयरूपत्वात्, तस्य , चाभ्यन्तरतपोभेदत्वात्, तपोभेदस्य च मालत्वात्। तथा “पच्चक्खाणं" इत्यादिना : चावसानमङ्गलम्, प्रत्याख्यानस्यावतपो-भेदत्वादेव मालत्वमिति। तत्रैतत्स्यात्, इदं मालत्रयं शास्त्रादिन्नमभिब्बं वा?, यदि भिन्नमतः शास्त्रममङ्गलम्, , तभेदान्यथानुपपत्तेः, अमङ्गलस्य च सतोऽन्यमङ्गलशतेनापि मङ्गलीकर्तुमशक्यत्वात् तन्मजलोपन्यासवैयर्यम्।तदुपादानेऽनिष्ठ वा, यथा प्रागमनलस्य सतःशास्त्रस्य मङ्गलमुक्तम्, एवं मङ्गलान्तरमप्यभिधातव्यम्, आधमलाभिधानेऽपि तदमङ्गलत्वात्, इत्थं पुनरप्यभिघातव्यमित्यतोऽनिशेति। (वृत्ति-हिन्दी-) (नियुक्तिकार द्वारा इन तीनों मङ्गलों में) प्रथम मङ्गल a 'आभिणिबोहियणाणं सुयणाणं चेव' -इत्यादि (प्रथम गाथा के) रूप में किया गया है, और " 'वंदन चिति कितिकम्म' -इत्यादि गाथा के रूप में आगे मध्यमङ्गल किया गया है। चूंकि . - वन्दन विनयरूप होता है, और आभ्यन्तर तप का एक भेद है, इसलिए वह मङ्गलरूप माना , गया है। पच्चक्खाणं' इत्यादि गाथा के रूप में आगे अन्तमाल किया गया है, क्योंकि प्रत्याख्यान बाह्यतप का एक भेद है, अतः उसकी मङ्गलरूपता (स्पष्ट) है। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 11 - 2233333333 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 / Sacaacacacea श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 (यहां शंकाकार का कथन-) चलो, मान लिया (कि मङ्गलाचरण के उक्त प्रयोजन c& हैं, किन्तु यह बताएं कि) ये तीनों मङ्गल शास्त्र से भिन्न हैं या अभिन्न? यदि ये शास्त्र से भिन्न . हैं तो यह सिद्ध हो जाता है कि शास्त्र ‘मङ्गल' नहीं है, क्योंकि ऐसा न मानें तो शास्त्र व मङ्गल में भेद कैसे बन पाएगा? और जब शास्त्र अमङ्गल है तो जो अमङ्गल हो, उसे सैकड़ों मङ्गलाचरणों से भी 'मङ्गल' नहीं किया जा सकता, इसलिए मङ्गलाचरण की निःसारता , a सिद्ध हो जाती है। दूसरी बात, अमङ्गल के लिए दूसरा मजल किया जाना (उचित) मान भी / & लिया जाय तो 'अनिष्ठा' (अनवस्था) दोष आ जाएगा। जैसे, जो शास्त्र पहले मङ्गल नहीं है, . & उसके लिए मङ्गलाचरण किया जा रहा है, वह मङ्गलाचरण तो अमङ्गल रूप है तो उसके " & लिए अन्य मङ्गलाचरण करना पड़ेगा, फिर उसके लिए भी पुनः अन्यमङ्गलाचरण करना - इस तरह अनिष्ठा (अनवस्था) दोष आ जाता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) अथाभिन्नम्, एवं सति शास्त्रस्यैव मङ्गलत्वात् अन्यमङ्गलोपादानानक्यमेव।अथ मङ्गलभूतस्याप्यन्यन्मङ्गलमुपादीयत इति, एवं सति तस्याप्यन्यदुपादेयमित्यनवस्थानुषा एव। - अथानवस्था नेष्यत इति मङ्गलाभावप्रसङ्गः, कथम्? यथा मङ्गलात्मकस्यापि सतःशास्त्रस्य & अन्यमङ्गल-निरपेक्षस्यामङ्गलता, एवं मङ्गलस्याप्यन्यमङ्गलशून्यस्य, इत्यतो मङ्गलाभाव इति। . अत्रोच्यते-आद्यपक्षोक्तदोषाभावस्तावदनभ्युपगमादेव, तदभ्युपगमेऽपि च मङ्गलस्य, लवणप्रदीपादिवत् स्वपरानुग्रहकारित्वादुक्तदोषाभाव इति। चरमपक्षेऽपि न. मङ्गलोपादानानर्थक्यम्, शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहाय शास्त्रस्यैव मङ्गलत्वानुवादात्।एतदुक्तं ल भवति-कथं नु नाम विनेयो मङ्गलमिदं शास्त्रमित्येवं गृह्णीयात्?, अतो मङ्गलमिदं शास्त्रमिति ca कय्यते। (वृत्ति-हिन्दी-) और यदि ऐसा माने कि शास्त्र और मङ्गल -ये दोनों अभिन्न हैं, तो शास्त्र स्वयं मङ्गलरूप हो गया और उसके लिए अन्य मङ्गल का किया जाना निरर्थक ही हो , जाता है। यदि ऐसा कहो कि शास्त्र मङ्गलभूत है, फिर भी अन्य मङ्गल किया जाना चाहिए, n & तो फिर उस मङ्गल के लिए भी अन्य मङ्गल करना चाहिए -इस प्रकार (पुनः) अनवस्था दोष & आ ही जाता है। और अनवस्था से बवना चाहेंगे तो मङ्गल का ही अभाव हो जाएगा। (आप . पूछेगें) कैसे? (तो बता रहे हैं कि) जैसे शास्त्र के मङ्गलरूप होने पर भी अन्य मङ्गल के बिना / - 12 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) - Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Reace 99999000000 22222222222222222222222 नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) उसकी अमङ्गलता है तो मङ्गलाचरण की भी अन्य मङ्गल के अभाव में अमङ्गलता है, . * इसलिए (मङ्गलाचरण का जो फल है, वह) 'मङ्गल' ही नहीं हो पाएगा। (पूर्वोक्त शंका का) उत्तर दे रहे हैं- शास्त्र व मङ्गल में भेद मानने पर आपने जो " दोष बताए, वे निरस्त हो जाते हैं क्योंकि हम भेद मानते ही नहीं हैं। और भेद मान लें, तो भी , & उक्त दोष नहीं है क्योंकि नमक व दीपक आदि की तरह मङ्गलाचरण स्वयं भी मङ्गलरूप, होता है और दूसरों के लिए भी मङ्गल सिद्ध होता है [अर्थात् जैसे नमक स्वयं नमकीन होता है, . वह अन्य पदार्थ को भी नमकीन बनाता है, इसके लिए उसे अन्य नमक की अपेक्षा नहीं होती। इसी , व प्रकार दीपक स्वतः प्रकाशित होता है और वह अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है, दीपक को ल देखने के लिए दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती, वैसे ही मङ्गलाचरण स्वयं मङ्गलरूप है, उसके ? मङ्गल के लिए अन्य मङ्गल की जरूरत नहीं, इसलिए अनवस्था दोष नहीं होता।] अभेद मानने पर " भी मङ्गलाचरण की निरर्थकता इसलिए नहीं है क्योंकि शिष्यों के बुद्धि (मस्तिष्क) में 'मङ्गलाचरण करना चाहिए'- यह भाव बैठाना जरूरी है, और यह एक प्रकार से शास्त्र की मङ्गलरूपता का ही बोध कराना है। तात्पर्य यह है कि शिष्य 'यह शास्त्र मङ्गल है' इस भाव को किसी न किसी प्रकार समझे -इस दृष्टि से 'यह शास्त्र मङ्गल है' -यह कहा जाता है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह- यद्यपि मङ्गलमिदं शास्त्रमित्येवं न गृह्णाति विनेयस्तथापि तत् स्वतो मङ्गलरूपत्वात् स्वकार्यप्रसाधनायालमेवेति कथं नानर्थक्यम्?, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्।इह , मालमपि मङ्गलबुद्धया परिगृह्यमाणं मङ्गलं भवति, साधुवत्।तथाहि-साधुर्मगलभूतोऽपि बसन्मङ्गलबुद्धयैव गृह्यमाणः प्रशस्तचेतोवृत्ते व्यस्य तत्कार्यप्रसाघको भवति, यदा तु न तथा , गृह्यते, तदा कालुष्योपहतचेतसः सत्त्वस्य न भवतीति, एवं शास्त्रमपीति भावार्थः। ___ (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) यह शास्त्र मङ्गल रूप है- इस रूप से यद्यपि शिष्य नहीं है समझता है, फिर भी वह शास्त्र स्वतः मङ्गलरूप होने से मङ्गल-सम्पादन का अपना कार्य तो कर ही सकता है, ऐसी स्थिति में मङ्गलाचरण की निरर्थकता क्यों नहीं है? (अर्थात् उसकी . सार्थकता क्या है?) उत्तर-ऐसी बात नहीं है, आपने हमारे अभिप्राय को ही नहीं समझा है। " a (यद्यपि शास्त्र मङ्गलरूप है, फिर भी) मङ्गल को भी मङ्गल के रूप में ग्रहण करें (जानें, , समझें), तभी वह मङ्गल रूप होता है, जैसे साधु / अर्थात् साधु यद्यपि मङ्गल रूप होता है, - 8288906@ @ @ @ @ @ @ @ @ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222222222333333333333333333333333333333333 - caca cacaca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 200000 किन्तु जब प्रशस्त मन वाला भव्य प्राणी उसे मङ्गल रूप में ग्रहण करता है (जानता, ce समझता और वैसा व्यवहार करता है), तभी वह साधु उसके लिए मङ्गलकारक होता है, . और जब कोई मानसिक कलुषता वाला प्राणी उसे मङ्गलरूप में ग्रहण नहीं करता तो उसके : लिए वह साधु मङ्गलकारी सिद्ध नहीं होता, इसी प्रकार शास्त्र भी (मङ्गलकारी या अमङ्गलकारी), व होता है- यह भाव है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-यद्येवममङ्गलमपि मालबुद्धेः प्राणिनो मालकार्यकृत्प्राप्नोतीति, तथाहि-यदि कश्चित्काञ्चनमेव काञ्चनतयाऽभिगृह्य प्रवर्तते ततस्तत्फलमासादयति, न पुनरकाञ्चनं, सत्काञ्चनबुद्दया, नाप्यतबुद्धयेति। मालत्रयापान्तरालद्वयमित्वममालमापद्यत इति चेत्, न, अशेषशास्त्रस्यैव तत्त्वतो मालत्वात्, तस्यैव च संपूर्णस्यैव त्रिधा विभक्तत्वात् मोदकवदपान्तरालद्वयाभाव इति।यथा हि मोदकस्य त्रिधा विभक्तस्य अपान्तरालद्वयं नास्ति, एवं प्रकृतशास्त्रस्यापीति भावार्थः।। (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) यदि ऐसी बात है तो अमङ्गल को भी जो प्राणी मङ्गलबुद्धि, से ग्रहण करे तो वह भी मङ्गलकारी माना जाने लगेगा, और ऐसा होना अभीष्ट नहीं होगा। a (उत्तर-) ऐसा नहीं। वह (अमङ्गलकारी वस्तु या आचरण) तो स्वरूप से ही अमङ्गलकारी , है।जो स्वरूप से मङ्गलकारी हो, वही (प्रयोक्ता व व्यवहारकर्ता की ओर से) मङ्गल-बुद्धि की & अपेक्षा रखते हुए (विघ्ननाश आदि) मङ्गल कार्य का संपादन करेगा (अन्य नहीं)। जैसे कोई स्वर्ण को स्वर्ण की बुद्धि से ग्रहण कर प्रवृत्त होता है, तब उसे स्वर्ण वाला फल प्राप्त होता है, किन्तु जो स्वर्ण नहीं है (लोहा, पीतल आदि), उसे कोई अच्छे (निर्दोष) स्वर्ण की बुद्धि से ग्रहण करे या जो वह पदार्थ जैसा नहीं है, उस रूप में ग्रहण करे तो उस पदार्थ से वह स्वर्ण वाला (दरिद्रता-नाश आदि) फल नहीं प्राप्त होगा। (शंका-) तीन मङ्गलों के मध्य -जो खाली दो समय है (अर्थात् आदि मङ्गल व मध्य मङ्गल के मध्य, और मध्य मङ्गल व अंतिम मङ्गल के मध्य, यहां मङ्गल तो हैं नहीं, इसलिए) वहां अमङ्गलता होने लगेगी? (उत्तर-) ऐसा नहीं है। तात्त्विक रूप से (वस्तुतः) तो समस्त ca शास्त्र ही मङ्गल रूप है, उस सम्पूर्ण शास्त्र को ही तीन विभागों में (काल्पनिक रूप से). विभक्त कर दिया गया है, वस्तुतः तो एक (बंधे) मोदक की तरह उसका कोई अन्तराल भाग (r)(r)(r)(r)caepeca(r)080000000000.. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Raacaaaaa 0000000 222222223232222333333333330233232323232222222 नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) | नहीं होता है। यदि मोदक को तीन भागों में बांट भी दें तो, वहां कोई खाली भाग तो रहेगा | a नहीं, इसी प्रकार प्रकृत शास्त्र में भी समझना चाहिए (अर्थात् यह भागों में विभक्त किये " a जाने पर भी, उसमें कोई खाली भाग नहीं है, जहां अमङ्गल की स्थिति माननी पड़े)। . a (हरिभद्रीय वृत्तिः) मालत्वं चाशेषशास्त्रस्य निर्जराईत्वात्, प्रयोगश्च-विवक्षितं शास्त्रं मालम्, निर्जरार्थत्वात्, तपोवत् / कवं पुनरस्य निर्जरार्थतेति चेत्, बाबरूपत्वात्, नानस्य च कर्मनिर्जरणहेतुत्वात्।उक्तं च जंबेरइओ कम्म, खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं। तं नाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं। स्यादेतत्, एवमपि मालत्रयपरिकल्पबावैयर्थ्यमिति ब, विहितोत्तरत्वात्। a तस्मास्थितमेतत्-शास्त्रस्य आदौ मध्येऽवसाने च मालमुपादेयमिति। (वृत्ति-हिन्दी-) समस्त शास्त्र की मङ्गलमयता इसलिए है, क्योंकि इसका प्रयोजन व निर्जरा करना है। अनुमान वाक्य से भी इसका समर्थन होता है-विवक्षित शास्त्र मङ्गलमय व है, 'निर्जरा' रूपी प्रयोजन का साधक होने से, तप की तरह। (प्रश्न-) यह शास्त्र (कर्म-) 0 निर्जरा का साधक कैसे है? उत्तर है- ज्ञान रूप होने से, क्योंकि ज्ञान कर्मनिर्जरा में हेतु " a माना गया है। कहा भी है . जिन कर्मों को नैरयिक करोड़ों वर्षों में (भोग कर) क्षीण करता है, उसे ज्ञानी , त्रिविध गुप्तियों से युक्त होकर एक उच्छ्वास-काल मात्र में ही क्षीण कर देता है। . (शंका-) चलो माना। फिर भी तीन मङ्गलों की कल्पना की कोई सार्थकता नहीं है। (उत्तर-) आपका कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आपके प्रश्न का उत्तर दिया जा चुका है , a (पहले तीनों मङ्गलों के पृथक्-पृथक् प्रयोजन बताये जा चुके हैं)। इसलिए अब यह सिद्ध हो गया कि शास्त्र के आदि में, मध्य में तथा अन्त में मङ्गलाचरण करना चाहिए। 15 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -acaacance श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 222222222222223333332223333333333333232322323 / (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-मङ्गलमिति कः शब्दार्थः?, उच्यते, अगि-रगि-लगि-वगि-मगि इतिदण्डकघातुः, . & अस्य "इदितो नुम्धातोः” (पा० 7-1-58) इति नुमि विहिते औणादिकालन्-, प्रत्ययान्तस्यानुबन्धलोपे कृते प्रथमैकवचनान्तस्य मङ्गलमितिरूपं भवति।मझ्यते हितमनेनेति मङ्गलम्, मन्यते अधिगम्यते साध्यत इतियावत्।अथवा मङ्गेतिधर्माभिधानम्, 'ला आदाने' अस्य धातोर्मङ्ग-उपपदे "आतोऽनुपसर्गे कः” (पा० 3-2-3) इति कप्रत्ययान्तस्य अनुबन्धलोपे.. ca कृते “आतो लोप इटि च द्विति" (पा०६-४-६४ आतो लोप इटि च) इत्यनेन सूत्रेणाकारलोपे , a च प्रथमैकवचनान्तस्यैव मङ्गलमिति भवति।मङ्गं लातीति मङ्गलं धर्मोपादानहेतुरित्यर्थः। ॐ अथवा मां गालयति भवादिति मङ्गलम्, संसारादपनयतीत्यर्थः। (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) 'मङ्गल' यह शब्द क्या है? (व्याकरण की दृष्टि से इसमें 4 कौन-सी प्रकृतिरूप धातु है और प्रत्यय कौन सा है?) (उत्तर-) बता रहे हैं। अगि, रगि, & लगि, वगि, मगि -यह समस्त दण्डक (एक ही अर्थ वाली समूहबद्ध) धातुएं (गति अर्थ : वाली) हैं। (इसमें पठित ‘मगि') इस धातु से 'इदितो नुम् धातोः' (पाणिनीय सूत्र-7/1/58) से नुम् होकर औणादिक 'अलच्' प्रत्यय अन्त में हुआ, उसके (प्रातिपदिक रूप ‘मङ्गल' शब्द , ca के) प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'मङ्गलम्' यह रूप बनता है। गति अर्थवाली धातु 'प्राप्ति' है & अर्थ को भी अभिव्यक्त करती है, (इसलिए व्युत्पत्ति -इस प्रकार समझनी चाहिए-) जिससे " a हित की प्राप्ति या सिद्धि की जाय,वह मङ्गल होता है। अथवा 'मङ्ग' नाम धर्म का है। " मनपूर्वक 'ला' धातु से -जिसका अर्थ आदान (लेना, प्राप्त करना आदि) है- 'आतोऽनुपसर्गे कः' इस(पाणिनीय-3/2/3) सूत्र से क प्रत्यय हुआ (मङ्ग+ला+क), अनुबन्ध लोप की / क्रिया सम्पन्न होकर (अर्थात् 'क' के 'क्' का लोप होकर) 'आतो लोप इटि च विङति' इस 4 (पाणिनीय-6/4/64 आतो लोप इटि च) सूत्र से ('ला' के) आकार का लोप हुआ, और 4 (प्रातिपदिक संज्ञा होने पर) प्रथमा के एकवचन में ही यह 'मङ्गल' शब्द निष्पन्न होता है। जो 6 मङ्ग यानी धर्म को लाता है, उत्पन्न करता है वह 'मङ्गल', यानी जो धर्म के उपादान का & कारण होता है -यह अर्थ है। अथवा 'मा' को, यानी पाप या विघ्न को जो गलावे, नष्ट करे & (और मङ्गलकर्ता को) संसार से छुड़ावे -वह मङ्गल होता है। 16 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRR 2020009999 -2222222233333333333333333333333333333333333330 नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) (हरिभंद्रीय वृत्तिः) तच्च नामादि चतुर्विधम्, तद्यथा-नाममङ्गलम् 1, स्थापनामङ्गलम् र, द्रव्यमङ्गलम् 3, 4 भावमङ्गलम् 4 चेति।तत्र यद्वस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम्। पर्यायानभिधेयं (च) नाम यादृच्छिकं च तथा॥ ___ अस्यायमर्थः- 'यद्' 'वस्तुनो' जीवाजीवादेः 'नाम' यथा गोपालदारकस्येन्द्र इति, : & 'स्थितमन्यार्थे' इति परमार्थतः त्रिदशाधिपेऽवस्थानात्, 'तदर्थनिरपेक्षम्' इति इन्द्रार्थनिरपेक्षम्, कथम्? तत्र गुणतो वर्त्तत इति, इन्दनादिन्द्रः 'इदि परमैश्वर्ये' इति, तस्य परमैश्वर्ययुक्तत्वात्, . गोपालदारके तु तदर्थशून्यमिति।तथा पर्यायैः- शक्रपुरन्दरादिभिः नाभिधीयत इति, इह नामव नामवतोरभेदोपचाराद्-गोपालवस्त्वेव गृह्यते, एवंभूतं नामेति।तथाऽन्यत्रावर्त्तमानमपि किञ्चिद् & यादृच्छिकं डित्यादिवत्, चशब्दात् यावद्दव्यभावि च प्रायश इति। यत्तु सूत्रोपदिष्टं “णामं // ca आवकहियं", तत् प्रतिनियतजनपदसंज्ञामाश्रित्येति।नाम च तन्मङ्गलं चेतिसमासः, तत्र यत् " जीवस्याजीवस्योभयस्य वा मङ्गलमिति नाम क्रियते तन्नाममङ्गलम् / जीवस्य यथा- " सिन्धुविषयेऽग्निर्मङ्गलमभिधीयते, अजीवस्य यथा- श्रीमल्लाटदेशे दवरकवलनकं मङ्गलमभिधीयते, उभयस्य यथा-वन्दनमालेति। a (वृत्ति-हिन्दी-) वह मङ्गल नाम आदि भेदों से चार प्रकार का है। जैसे- (1) नाममङ्गल, (2) स्थापना मङ्गल, (3) द्रव्यमङ्गल और (4) भावमङ्गल। 4 . इनमें 'नाम' वह है जो ‘यदृच्छा' (अपनी मर्जी) से किसी का वाचक बना दिया , जाता है, अपने वास्तविक अर्थ से भिन्न अर्थ में प्रयुक्त होता है, अपने वास्तविक अर्थ से , निरपेक्ष (शून्य होकर विवक्षित अर्थ में) रहता है, और उसका पर्यायों से कथन नहीं किया। जाता है। - इसका अर्थ इस प्रकार है- जो जीव या अजीव आदि का नाम होता है, जैसे ग्वाले , के लड़के का वाचक 'इन्द्र' यह नाम, वह (वास्तविक इन्द्र से) अन्य (ग्वाले) अर्थ में स्थित है 4 (प्रयुक्त), परमार्थ रूप से (वस्तुतः) देवताओं के अधिपति के अर्थ में स्थित होता है, किन्तु " 8. उस अर्थ से, देवाधिपति -इस इन्द्रार्थ से निरपेक्ष होता है। किस प्रकार? 'इन्द्र' यह पद गुण " के आधार पर प्रयुक्त है, क्योंकि इन्द्र वह होता है जो इन्दन यानी परमैश्वर्य ये युक्त हो, किन्तु / - Rece@@cre@cROct@9082@Reme Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRcaca Race श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9999999 333333333333333333333333333333333333333333333 / ग्वाले के लड़के में वह अर्थ (घटित) नहीं होता है। और पर्यायों से, जैसे शक्र, पुरन्दर आदि पर्यायों से उसका कथन नहीं किया जाता। यहां नाम और नाम वाला -इन दोनों में अभेद , का उपचार कर 'ग्वाला' रूप वस्तु का यहां ग्रहण किया गया है। तो इस प्रकार का 'नाम', होता है। और अन्यत्र वर्तमान न होने पर यदृच्छा से रख दिया जाता है जैसे 'डित्थ' आदि / नाम। 'च' पद से यह सूचित होता है कि नामकरण जब तक विवक्षित द्रव्य रहता है, तब तक, या प्रायः अर्थात् कुछ समय के लिए भी होता है (जैसे- पुराने नाम की जगह दूसरा, & नाम रखा जा सकता है)। किन्तु जो सूत्र (आगम) में कहा गया है कि 'नाम यावदर्थिक' >> (या यावत्कथिक) होता है (अर्थात् जब तक वह वस्तु है, तब तक रहता है), वह तो प्रतिनियत जनपदों के नामों को दृष्टि में रखकर कहा गया है। नाम हो और मङ्गल हो- इस , & प्रकार (कर्मधारय) समास है (और 'नाममङ्गल' यह पद निष्पन्न हुआ है)। जिस किसी जीव, या अजीव या दोनों का 'मङ्गल' यह नाम रख दिया जाता है तो वह 'नाममङ्गल' है। जीव का a नाम, जैसे सिन्धु प्रदेश में अग्नि को 'मङ्गल' नाम से पुकारा जाता है। अजीव का नाम, " * जैसे- श्रीसम्पन्न लाट देश में दवरकवलनक (रस्सी के बने तोरण) को 'मङ्गल' कहा जाता " है। जीव व अजीव -इन दोनों का) नाम, जैसे- 'वन्दनमाला' यह (पुष्प रूप जीव और रस्सी रूप अजीव -इन दोनों का नाम है। ca विशेषार्थ आगम-निरूपित विषयों को स्पष्ट व विस्तार से समझाने में नियुक्ति-पद्धति विशेष सक्षम " मानी गई है। नियुक्ति-पद्धति में अनुयोग या अनुगम विधि का विशेष अवलम्बन लिया जाता है। 6 नियुक्ति-पद्धति को विशेष रूप से समझाने के लिए भाष्यकार ने अनुगम के तीन भेदों का निर्देश 1 & किया है। वे भेद हैं- (1) निक्षेपनियुक्ति अनुगम, (2) उपोद्घात-निर्युक्ति अनुगम, और (3) सूत्रस्पर्शिक . नियुक्ति-अनुगम। वस्तुतः उपोद्घात-नियुक्ति में ही निक्षेप-नियुक्ति समाविष्ट है। निक्षप को अनुयोग : & द्वार के भेद रूप में तथा उपोद्घात नियुक्ति के भेद रूप में- दोनों रूपों में निर्दिष्ट किया गया है। इन " & दोनों का अन्तर यह है कि निक्षेप रूप अनुयोग द्वार में नामादि निक्षेपों के अनुरूप 'अर्थ' का निर्देश : मात्र होता है, जब कि उपोद्घात-निर्युक्ति के अन्तर्गत उनका शब्दार्थविचार भी किया जाता है। यहां ca निक्षेप विधि से ‘मङ्गल' पदार्थ का विवेचन जो किया गया है, वह नियुक्ति पद्धति का अनुसरण है। " & निक्षेप -चार प्रकार के माने गये हैं- (1) नाम, (2) स्थापना, (3) द्रव्य, (4) भाव / प्रकृत में 'नाम " निक्षेप' के अनुरूप मङ्गल का निरूपण है। आगे अन्य तीन निक्षेपों के आधार पर मङ्गल का निरूपण " किया जा रहा है। (r)(r)(r)(r)(r)(r)RO90@cr@@@cR908 &&&&&&&&&&&&&&&&& - 18 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000 222222222222222238232322223333333333333333333 / नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) / (हरिभद्रीय वृत्तिः) यत्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण यच्च तत्करणि। लेप्यादिकर्म तत् स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च // अस्यायमर्थः- 'यद्' वस्तु 'तदर्थवियुक्तम्' भावेन्द्राद्यर्थरहितम्, तस्मिन्नभि-: प्रायस्तदभिप्रायः, अभिप्रायो बुद्धिः, तदबुद्धयेत्यर्थः, करणिराकृतिः, यच्वेन्द्राधाकृति लेप्यादिकर्म , क्रियते'।चशब्दात्तदाकृतिशून्यं चाक्षनिक्षेपादि, 'तत्स्थापनेति' ।तचेत्वरमल्पकालमितिपर्यायौ, << चशब्दाद्यावद्र्व्यभावि च।स्थाप्यत इति स्थापना, स्थापना चासौ मङ्गलं चेति समासः।तत्र * स्वस्तिकादि स्थापनामङ्गलमिति। (वृत्ति-हिन्दी-) जो अपने (वाच्य) अर्थ से शून्य होती है और उस (वाच्य वस्तु) के ही a अभिप्राय से उसके आकार से युक्त लेप्य (चित्रकर्म) आदि कार्य द्वारा, अल्पकाल के लिए जो वस्तु प्रतिष्ठित की जाती है, वह 'स्थापना' (निक्षेप) है। a इसका अर्थ (भाव) यह है कि जो वस्तु अपने वाच्य अर्थ से शून्य हो, जैसे : . उदाहरणस्वरूप, इन्द्र (नाम से स्थापित वस्तु) भाव इन्द्र (वास्तविक इन्द्र) आदि अर्थ से , a रहित हो, किन्तु उसके यानीं 'इन्द्र' के अभिप्राय से, अर्थात् उसे उसी (इन्द्र) जैसा मान " a कर, करणि अर्थात् इन्द्र आदि आकृति वाला जो लेप्य आदि कर्म किया जाता है, 'च' शब्द से " & उसकी आकृति से रहित भी हो, जैसे- पासे, मोहरे, गोटियों आदि के रूप में स्थापित , करना, वह ‘स्थापना' कही जाती है। वह स्थापना अल्पकालिक होती है। अल्पकालिक व , व इत्वर ये दोनों पर्याय हैं। 'च' शब्द से जब तक वह द्रव्य विद्यमान होता है तब तक के लिए, ca अर्थात् हमेशा के लिए भी स्थापना होती है। चूंकि वह स्थापित की जाती है, इसलिए वह " व स्थापना कही जाती है। स्थापना ही मङ्गल है, इस अर्थ में स्थापना व मङ्गल -इन दोनों का " a (कर्मधारय) समास हुआ है। उदाहरण के रूप में, स्वस्तिक आदि जो बनाये जाते हैं, वे , स्थापना मङ्गल कहलाते हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके। तद्रव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् // अस्यायं भावार्थः- 'भूतस्य' अतीतस्य ‘भाविनो वा' एष्यतो 'भावस्य' पर्यायस्य I'कारणं' निमित्तं 'यद्' एव 'लोके' 'तद् द्रव्यम्' इति।द्रवति गच्छति ताँस्तान्पर्यायान् क्षरति / - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)cR 0898c&(r)(r) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333338 333333333322238232 -cace cace ca caca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) Mmmmmm चेति द्रव्यं तत्त्वज्ञैः' सर्व स्तीर्थकृद्भिरिति यावत्।सचेतनम् अनुपयुक्तपुरुषाख्यम्, अचेतनं ce ज्ञशरीरादि तथाभूतमन्यद्वा 'कथितं' आख्यातं प्रतिपादितमित्यर्थः। तत्र द्रव्यं च तन्मङ्गलं : चेतिसमासः। (वृत्ति-हिन्दी-) जो भूत में या भावी काल में उस भाव का कारण हो, वह चेतन हो अचेतन, उसे तत्त्वज्ञानियों ने 'द्रव्य' कहा है। (आगम व नोआगम के संदर्भ में) इसका तात्पर्य यह है- भूत यानी अतीत, भावी / यानी अनागत, ऐसे भाव या पर्याय का कारण या निमित्त जो होता है, वह 'द्रव्य' (निक्षेप), होता है, क्योंकि द्रव्य वह है जो उन-उन पर्यायों (भावी पर्यायों) को प्राप्त करता है या (और) 0 R (पूर्वपर्यायों को) क्षय करता है- ऐसा तत्त्वज्ञानी, सर्वज्ञ तीर्थंकरों द्वारा कहा गया है। " & अनुपयुक्त (अर्थात् विवक्षित विषय में उपयोग-रहित) पुरुष को सचेतन द्रव्य, और ज्ञशरीर, या भव्य (भावी) शरीर आदि को अचेतन द्रव्य, इस प्रकार चेतन या उससे भिन्न अचेतन, दोनों को द्रव्य कहा गया है, प्रतिपादित किया गया है। द्रव्य जो मङ्गल -इस प्रकार (कर्मधारय) 1 c& समास होकर 'द्रव्यमङ्गल' शब्द बना है। 6 (हरिभद्रीय वृत्तिः) तच्च द्रव्यमङ्गलं द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च। तत्र आगमतः खल्वागममधिकृत्य ca आगमापेक्षमित्यर्थः, नोआगमतस्तुतद्विपर्ययमाश्रित्य।तत्रागमतो मङ्गलशब्दाध्येता अनुपयुक्तो " & द्रव्यमङ्गलम्, 'अनुपयोगो द्रव्यम्' इति वचनात्।तथा नोआगमतस्त्रिविधं द्रव्यमङ्गलम्।तद्यथा& ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलम् 1, भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलम् 2, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तम् 3, 4 द्रव्यमङ्गलमिति।तत्र ज्ञस्य शरीरं ज्ञशरीरम्, शीर्यत इति शरीरम् ज्ञशरीरमेव द्रव्यमङ्गलम् ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलम्, अथवा ज्ञशरीरं च तद्रव्यमङ्गलं चेतिसमासः। (वृत्ति-हिन्दी-) वह द्रव्यमङ्गल दो प्रकार का है- आगम-द्रव्यमङ्गल और नो-आगम & द्रव्यमङ्गल / इनमें 'आगम द्रव्यमङ्गधल' वह होता है जो आगम आधारित होता है, अर्थात् " जिसमें आगम (यानी शब्दार्थज्ञान या उसके कारणभूत आत्मा) की अपेक्षा रखी जाती है। " & नो-आगम इससे विपरीत होता है। इनमें 'आगम द्रव्य मङ्गल' वह है जो मङ्गल-शब्द का , अध्येता होते हुए (उसमें) उपयोग नहीं रखता, क्योंकि 'उपयोगरहित द्रव्य होता है' ऐसा / & कहा गया है। इसी प्रकार, 'नो आगम द्रव्य मङ्गल' तीन प्रकार का होता है, जैसे- (1) " / ज्ञशरीर द्रव्यमङ्गल, (2) भव्यशरीर द्रव्य मङ्गल, और (3) ज्ञशरीर भव्यशरीर (उभय) व्यतिरिक्त / - 20 0 3@@@@98R@088980cene 3 888888888888888888888888888888888888888888888 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRR नियुक्ति-गाथा-1 (भूमिका) | द्रव्यंमङ्गल / जो क्षीण हो जाए, वह शरीर होता है। 'ज्ञ' (ज्ञानयुक्त) का शरीर ही द्रव्यमङ्गल & हो, अथवा जो ज्ञशरीर हो और द्रव्यमङ्गल हो-इस प्रकार समास है और 'ज्ञशरीर द्रव्यमगल' -यह शब्द निष्पन्न होता है। 3333333333333333333333333333333333 (हरिभद्रीय वृत्तिः) एतदुक्तं भवति- मङ्गलपदार्थज्ञस्य यच्छरीरमात्मरहितं तदतीतकालानुभूततद्भावानुवृत्त्या सिद्धशिलादितलगतमपिघृतघटादिव्यायेन नोआगमतो ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलमिति, a मङ्गलज्ञानशून्यत्वाच्च तस्य, इह सर्वनिषेध एव नोशब्दः।तथा भव्यो योग्यः, मङ्गलपदार्थ ज्ञास्यति, यो न तावद्विजानाति स भव्य इति, तस्य शरीरं भव्यशरीरं, भव्यशरीरमेव द्रव्यमङ्गलम्। a अथवा भव्यशरीरं च तद्रव्यमङ्गलं चेतिसमास इति। a अयं भावार्थः-भाविनीं वृत्तिमङ्गीकृत्य मङ्गलोपयोगाधारत्वात् मधुघटादिन्यायेनैव : तत् बालादिशरीरं भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलमिति, नोशब्दः पूर्ववत्।ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं च / ( द्रव्यमङ्गलं संयमतपोनियमक्रियानुष्ठाता अनुपयुक्तः, आगमतोऽनुपयुक्तद्रव्यमङ्गलवत्।तथा 1 यछरीरमात्मद्रव्यं वा अतीतसंयमादिक्रियापरिणामम्, तच्च उभयातिरिक्तं द्रव्यमङ्गलम्, a ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलवत्, तथा यद् भाविसंयमादिक्रियापरिणामयोग्यं तदपि उभयव्यतिरिक्तम्, 0 a भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलवत्।तथा यदपि स्वभावतःशुभवर्णगन्धादिगुणं सुवर्णमाल्यादि, तदपि हि . भावमङ्गलपरिणामकारणत्वाद् द्रव्यमङ्गलम् / अत्रापि नोशब्दः सर्वनिषेध एव द्रष्टव्यः। इत्युक्तं a द्रव्यमङ्गलम्। ____ (वृत्ति-हिन्दी-) तात्पर्य यह है- जैसे 'घी का घड़ा' (घी के न रहने पर भी ‘घी का , घड़ा' ही कहा जाता है,) या ‘मधुकुम्भ' (शहद निकाल दिये जाने पर भी 'मधुकुम्भ' ही कहा , जाता है, उसी) की तरह मङ्गल-पदार्थ के ज्ञाता का शरीर आत्मा से शून्य हो जाने पर भी , है 'नो-आगम द्रव्यमङ्गल' हो जाता है, क्योंकि वह मङ्गल-सम्बन्धी ज्ञान से रहित है। यहां 'नो' & शब्द सर्व-निषेधवाचक रूप से प्रयुक्त हुआ है। भव्य यानी भविष्य में होने योग्य (होने की << योग्यता वाला), अर्थात् जो मङ्गल पदार्थ को जानेगा, किन्तु जानने से पूर्व, जो उसके ज्ञान , a से रहित है, वह 'भव्य' है। उसका शरीर ही द्रव्यमङ्गल हो अथवा भव्यशरीर हो और द्रव्यमङ्गल हो- इस अर्थ में समास हुआ है (और 'भव्यशरीर द्रव्यमङ्गल' -यह शब्द , निष्पन्न हुआ है)। - @ @ @ @ @@ReBR@@ @cr@900 21 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222222222222222333333333333323 -aaaacacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 90000000 तात्पर्य यह है- भाविनी (भविष्य में होने वाली) वृत्ति को स्वीकार कर जो मङ्गलca सम्बन्धी उपयोग का आधार है, वह बाल (या युवा) आदि का शरीर भी, 'मधुघट' के , & (पूर्वोक्त) न्याय के आधार पर ही 'भव्यशरीर द्रव्य मङ्गल' कहा जाता है। यहां भी 'नो'-शब्द . पूर्ववत् (पूर्ण-निषेध अर्थ का वाचक) है। इसी प्रकार, ज्ञशरीर व भव्यशरीर से अतिरिक्त है ca द्रव्यमङ्गल उस व्यक्ति को कहा जाएगा जो संयम, तप व नियम की क्रिया का अनुष्ठान a करता है और विवक्षित विषय में उपयोग नहीं रखता, उसी तरह जैसे 'आगम से अनुपयुक्त द्रव्यमङ्गल' होता है। और जो शरीर या आत्म-द्रव्य, अतीत में संयम आदि क्रिया की परिणति , से युक्त था, वह ज्ञशरीर द्रव्यमङ्गल की तरह उभय-व्यतिरिक्त (ज्ञशरीर-भव्यशरीर, इन दोनों से अतिरिक्त, नो-आगम) द्रव्यमङ्गल है। इसी प्रकार, जो स्वभाव से शुभ वर्ण, गन्ध आदि & गुण से युक्त हो, जैसे- सुवर्ण-माला आदि, वह भी, भावमङ्गल परिणाम का कारण होने से " (नो-आगम उभय व्यतिरिक्त) द्रव्यमङ्गल है। यहां भी 'नो'-शब्द सर्वनिषेध का वाचक है। इस प्रकार द्रव्यमङ्गल का निरूपण पूर्ण हुआ। (हरिभद्रीय वृत्तिः) भावो विवक्षितक्रियानुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः। सर्वज्ञैरिन्द्रादिवदिहे न्दनादि-क्रियानुभवात् // अस्यायमर्थः-भवनं भावः, स हि वक्तुमिष्टक्रियानुभवलक्षणः सर्वज्ञैः समाख्यातः, , इन्दनादिक्रियानुभवनयुक्तेन्द्रादिवदिति।तत्र भावतो मङ्गलं भावमङ्गलम्, अथवा भावश्चासौ मङ्गलं चेति समासः।तच द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च।तत्रागमतो मङ्गलपरिज्ञानोपयुक्तो भावमङ्गलम्। (वृत्ति-हिन्दी-) जैसे इन्दन आदि क्रिया का अनुभव करने वाला 'इन्द्र' होता है उसी // तरह जो विवक्षित क्रिया की अनुभूति से युक्त होता है, उसे सर्वज्ञों ने 'भाव' (निक्षेप) कहा है||4|| " इसका भाव (अर्थ) इस प्रकार है- होना ही भाव है, उसे सर्वज्ञों ने इन्दन (ऐश्वर्य) , ca आदि क्रिया का अनुभव करने वाले इन्द्र (देवराज) आदि की तरह 'विवक्षित क्रिया की 7 & अनुभूति' रूप कहा है। इस रीति से, भाव से जो मङ्गल है, वह भावमङ्गल है। अथवा भाव ही , जो मङ्गल है, वह भावमङ्गल है -इस अर्थ में (भाव व मङ्गल -इन दो पदों का) समास : होकर 'भावमङ्गल' शब्द बना है। वह दो प्रकार का है- आगमतः और नोआगमतः। इनमें 2 'आगमतः भावमङ्गल' वह है जो मङ्गल-सम्बन्धी ज्ञान के उपयोग से युक्त है। - 22 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Reeeeece 2999999 222828822222222222222333333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) (हरिभंद्रीय वृत्तिः) कथमिह भावमङ्गलोपयोगमात्रात् तन्मयताऽवगम्यत इति, नह्यग्निज्ञानोपयुक्तो 7 & माणवकोऽग्निरेव, दहनपचनप्रकाशनाद्यर्थक्रियाप्रसाधकत्वाभावाद् इति चेत्, न, . अभिप्रायापरिज्ञानात्। संवित् ज्ञानम् अवगमो भाव इत्यनन्तरम्, तत्र ‘अर्थाभिधानप्रत्ययाः / तुल्यनामधेयाः' इति सर्वप्रवादिनामविसंवादस्थानम्, अग्निरिति च यज्ज्ञानं तदव्यतिरिक्तो . ज्ञाता तल्लक्षणो गृह्यते, अन्यथा तज्ज्ञाने सत्यपि नोपलभेत, अतन्मयत्वात्, प्रदीपहस्तान्धवत् / & पुरुषान्तरवद्वा / न चानाकारं तज्ज्ञानम्, पदार्थान्तरवद्विवक्षितपदार्था-परिच्छेदप्रसङ्गात्, " * बन्धाद्यभावश्च, ज्ञानाज्ञानसुखदुःखपरिणामान्यत्वाद्, आकाशवत् / न चानलः सर्व एव . & दहनाद्यर्थक्रियाप्रसाधकः, भस्मच्छन्नादिना व्यभिचारात्, इत्यलं प्रसङ्गेन। (वृत्ति-हिन्दी-) (प्रश्न-) अग्निज्ञान के उपयोग से युक्त बालक (माणवक) अग्नि , ही नहीं हो जाता, क्योंकि वहां (उस बालक में) (अग्नि के गुण) जलाना, पकाना, प्रकाश >> करना आदि अर्थक्रियाओं को सिद्ध करने की क्षमता नहीं होती, उसी प्रकार भावमङ्गलसम्बन्धी उपयोग होने मात्र से भावमङ्गल से उसकी तन्मयता किस प्रकार मानी जा सकती है है? (उत्तर-) ऐसा नहीं कहें। आपने हमारा अभिप्राय नहीं समझा है। संवित्, ज्ञान, अवगम, ca भाव -ये शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। अर्थ, नाम व प्रतीति -इन्हें समान नामों से पुकारा , जा सकता है- इसमें किसी भी प्रवादी (मतविशेष के समर्थक) को कोई विसंवाद (आपत्ति) व नहीं है। अग्नि है' -यह जो ज्ञान है, वह और उसका ज्ञाता -ये दोनों परस्पर पृथक् नहीं है, . a अन्यथा (पार्थक्य मानने पर अन्य (पृथक्) पदार्थ की तरह ही उसके ज्ञान होने पर अग्नि की . . उपलब्धि नहीं हो पाएगी, क्योंकि हाथ में दीपक लिए हुए अन्धे (को रूपादिज्ञान जहीं होता, , उस) की तरह, या अन्य (ज्ञाता से भिन्न) पुरुष की तरह ही वहां ज्ञान व ज्ञाता की तन्मयता नहीं हो पाएगी। वहां (उक्त उदाहरणों- अन्धे पुरुष एवं अ-ज्ञाता आदि में) वह ज्ञान उस . a (ज्ञेय) से तदाकार उसी तरह नहीं हो पाता जैसे कि अन्य (अज्ञेय) पदार्थ / इस प्रकार " विवक्षित पदार्थ के ज्ञान न होने का दोष प्रसक्त होगा। और भी, यदि ज्ञान, अज्ञान, सुख, 7 व दुःख -इन परिणामों से ज्ञाता को भिन्न मानेगें तो, जैसे आकाश का बन्ध (व मोक्ष) आदि " नहीं होते, उसी तरह ज्ञाता (आत्मा) के बन्ध आदि का सद्भाव ही लुप्त हो जाएगा। (और जो . "आपने दाह आदि अर्थक्रिया का साधक न होने से अग्नि-ज्ञानोपयुक्त बालक को 'अग्नि' कहना असंगत बताया था, वह भी दोषयुक्त है, क्योंकि) सभी अग्नि (नाम से कहे जाने वाले - Recemc@@@@R@@neck@@ 23 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | Ranance श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0999900 222222222222222233333322232333333333333332223 पदार्थ) दहन आदि अर्थक्रिया के साधक होते नहीं भी देखे जाते हैं, क्योंकि भस्म से ca आच्छादित अग्नि में (या चन्द्रकान्त मणि के सान्निध्य में भी) दाह आदि अर्थक्रिया का अभाव , होने से उसका व्यभिचार देखा जाता है [उसी प्रकार, अग्नि ज्ञान रूप उपयोग होने पर भी यदि बालक दाहक्रिया नहीं करता तो कोई दोष नहीं है] / अतः अधिक विस्तार से कहना यहां अपेक्षित नहीं रह गया है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) प्रकृतमुच्यते-नोआगमतो भावमङ्गलम् आगमवर्ज ज्ञानचतुष्टयमिति, सर्वनिषेधवचनत्वान्नोशब्दस्य।अथवा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रोपयोगपरिणामो यः स नागम एव केवलः न चानागमः, इत्यतोऽपि मिश्रवचनत्वान्नोशब्दस्य नोआगमत इत्याख्यायते। अथवा " a अर्हन्बमस्काराचुपयोगः खल्वागमैकदेशत्वात् नोआगमतो भावमङ्गलमिति॥ ननु नामस्थापनाद्रव्येषु मङ्गलाभिधानं विवक्षितभावशून्यत्वाद्र्व्यत्वं च समानं वर्तते; ततश्चक एषां विशेष इति।अत्रोच्यते, यथा हि स्थापनेन्द्रे खल्विन्द्राकारों लक्ष्यते, तथा कर्तुश्च / सद्भूतेन्द्राभिप्रायो भवति, तथा द्रष्टुश्च तदाकारदर्शनादिन्द्रप्रत्ययः, तथा प्रणतिकृतधियश्च फलार्थिनः a स्तोतुं प्रवर्तन्ते, फलं च प्राप्नुवन्ति केचिद्देवतानुग्रहात्, न तथा नामद्रव्येन्द्रयोरिति, " a तस्मात्स्थापनायास्तावदित्यं भेद इति / यथा च द्रव्येन्द्रो भावेन्द्रस्य कारणतां प्रतिपद्यते, तथोपयोगापेक्षायामपि तदुपयोगतामासादयिष्यति अवाप्तवांश्च, न तथा नामस्थापनेन्द्रावित्ययं विशेषः। (वृत्ति-हिन्दी-) अब प्राकृत विषय का कथन (प्रारम्भ) कर रहे हैं- आगम को छोड़कर, चारों ज्ञान ‘नोआममतः भावमङ्गल' हैं। यहां 'नो' शब्द सर्वनिषेध का वाचक है / किन्तु प्रसज्ज्यप्रतिषेध का वाचक न होकर पर्युदास प्रतिषेध का वाचक है, अतः, जैसे 'अब्राह्मण को a बुलाओ' का अर्थ नहीं होता कि ब्राह्मण को मत बुलाओ, अपितु यह अर्थ होता है कि ब्राह्मण को a छोड़कर ब्राह्मण जैसे आमंत्रण योग्य को बुलाओ। इसी तरह 'नोआगम' का अर्थ यहां होगा कि " & आगम तो नहीं, किन्तु आगम जैसा ही।] अथवा सम्यग्दर्शन चारित्र रूप उपयोग परिणाम रूप जो आगम होता है, वही केवल नहीं हो, किन्तु अनागम भी नहीं हो -इस अर्थ का वाचक होते हुए (न आगम, न अनागम, इस प्रकार) 'नो' शब्द मिश्र पदार्थ का वाचक है -इसलिए ch 'नो-आगम' कहा गया है। अथवा अर्हन्तों को किये जाने वाले नमस्कार आदि उपयोग - आगम-एकदेश हैं, इस दृष्टि से वह 'नो-आगम भावमङ्गल' कहा गया है। 248988088@ReceneRec@@@ . 333333333333333333333333333338888888888888 . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRR नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) හ හ හ හ හ හ හ -..- 333333333333333333333333333333333333333333333 (शंका-) नाममङ्गल, स्थापनामङ्गल और द्रव्य मङ्गल -इन्हें 'मङ्गल' कहा गया है। ca किन्तु इन (तीनों) में विवक्षित मङ्गल रूप भाव तो रहता नहीं, और द्रव्यत्व भी इनमें समान " रूप से है, इसलिए (तीनों ही को भावशून्य व द्रव्यरूप होने के कारण) इनमें विशेषता क्या है रही? इसका उत्तर दे रहे हैं- जैसे स्थापना इन्द्र में तो इन्द्र का आकार (कहीं-कहीं) लक्षित होता है, (स्थापना के) कर्ता द्वारा वह सद्भूत इन्द्र रूप में अभिप्रेत (अभीष्ट भी) होता है। द्रष्टा को भी इन्द्र के आकार को देखकर इन्द्र की (यह इन्द्र है- इस प्रकार) प्रतीति होती है। & प्रणति की बुद्धि वाले (किसी अभीष्ट) फल की कामना से उसकी स्तुति भी करने लग जाते हैं व और (उनमें) कुछ को देवता-अनुग्रह से फल प्राप्त भी होता है, किन्तु ऐसा कुछ 'नाम इन्द्र' " व 'द्रव्य इन्द्र' में घटित नहीं होता। इस दृष्टि से 'स्थापना' की नाम व द्रव्य से भिन्नता है। इसी तरह, द्रव्य इन्द्र (भविष्य में) भाव इन्द्र का कारण होता है, और 'उपयोग' की दृष्टि से भी इन्द्र-सम्बन्धी उपयोग को या तो वह प्राप्त करने वाला होता है या कर चुका होता है, किन्तु : यह स्थिति नाम इन्द्र व स्थापना इन्द्र में नहीं होती (क्योंकि इन दोनों में इन्द्र होने की स्थिति न पहले कभी रही होती है और न ही आगे हो सकती है) -इस द्रष्टि से 'द्रव्य' (इन्द्र) की ca नाम (इन्द्र) व स्थापना (इन्द्र) से भिन्नता है। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) भावमङ्गलमेवैकं युक्तं, स्वकार्यप्रसाधकत्वात्, न नामादयः, तत्कार्याप्रसाधकत्वात्, पापवद् इति चेत्, न, नामादीनामपि भावविशेषत्वात्, यस्मादविशिष्टमिन्द्रादि वस्तु ल उच्चरितमात्रमेव नामादिभेदचतुष्टयं प्रतिपद्यते, भेदाश्च पर्याया एवेति।अथवा नामस्थापनाद्रव्याणि " a भावमङ्गलस्यैवाङ्गानि, तत्परिणामकारणत्वात्।तथा च मङ्गलाघभिधानं सिद्धाद्यभिधानं चोपश्रुत्य , 4 अर्हत्प्रतिमास्थापनां च दृष्ट्वा भूतयतिभावं भव्ययतिशरीरं चोपलभ्य प्रायः सम्यग्दर्शनादिभावमङ्गलपरिणामो जायते, इत्यलं प्रसङ्गेन। (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) (तब तो) एकमात्र भावमङ्गल का ही कथन युक्तियुक्त है, क्योंकि वही (इन्द्रत्व-सम्बन्धी) स्वकार्य का साधक होता है, अतः नाम आदि का कथन युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि वे (इन्द्रत्व-सम्बन्धी) स्व-कार्य के साधक नहीं होते? (उत्तर-) R आपका ऐसा कहना युक्तियुक्त नहीं। नाम आदि भी भाव-विशेष रूप ही हैं, क्योंकि विशेषरहित, अर्थात् सामान्य रूप में, इन्द्र आदि वस्तु (के नाम) का उच्चारण करते ही (बुद्धि में) नाम 6-7777777777777777777777777777777777777777777 (r)(r)ce@neck@@cROBR880868800 25 - Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -333333333333333333333333333333333333333323833 - a cace ce ce ca ca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0 0 0 0 0 0 0 0 || आदि चारों भेदों का बोध हो जाता है, और भेद पर्याय रूप ही होते हैं। अथवा नाम, स्थापना / ca व द्रव्य -ये तीनों भावमङ्गल के ही अंगभूत होते हैं, क्योंकि (ये तीनों) इन्द्र-सम्बन्धी परिणति , & में कारण होते हैं। उदाहरणार्थ- मङ्गल आदि के, तथा (नङ्गलरूप) सिद्ध आदि के नामों को , सुनकर तथा अर्हन्तों की स्थापित प्रतिमा का दर्शन कर अपने 'संयति' (साधु, मुनि) होने के 4 अतीत परिणाम को (स्मृति में लाते हुए) अथवा संयति के भावी शरीर की योग्यता (द्रव्य 6 अर्हत् अवस्था) को प्राप्त करते हुए प्रायः द्रष्टा को सम्यग्दर्शन आदि भावमङ्गल-सम्बन्धी & परिणाम उत्पन्न हो जाते हैं (इत्यादि)। इसलिए यहां इतना ही कहना पर्याप्त है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) प्रकृतं प्रस्तुमः-तत्र नोआगमतोऽहन्नमस्कारादि भावमङ्गलमुक्तम्, अथवा नोआगमतो, भावमङ्गलं नन्दी, तत्र नन्दनं नन्दी, नन्दन्त्यनयेति वा भव्यप्राणिन इति नन्दी, असावपि च // 4 मङ्गलवन्नामादिचतुर्भेदभिन्ना अवगन्तव्येति।तत्र नामस्थापने पूर्ववत् / द्रव्यनन्दी द्विधा& आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरोभय* व्यतिरिक्ता च द्रव्यनन्दी द्वादशप्रकारस्तूर्यसंघातः __ भंभा मुकुंद मद्दल कडंब झल्लरि हुडुक्क कंसाला। काहलि तलिमा वंसो, संखो पणवो य बारसमो॥ .. ___ (वृत्ति-हिन्दी-) अब प्रकृत विषय को प्रस्तुत कर रहे हैं- अर्हन्त-नमस्कार आदि को " ca 'नो-आगम भावमङ्गल' कहा जाता है, या जिसके द्वारा भव्य प्राणी नन्दित हों, समृद्धिसंपन्न - & हों, वह 'नन्दी' है, और इसके भी मङ्गल की तरह ही, नामनन्दी, स्थापना नन्दी, द्रव्यनन्दी व भावनन्दी -इस प्रकार चार भेद समझने चाहिएं। इनमें नाम व स्थापना तो पूर्ववत् ही हैं। द्रव्यनन्दी के दो प्रकार हैं- आगमतः और नो-आगमतः / जो नन्दी-सम्बन्धी ज्ञाता हो, किन्तु तत्सम्बन्धी उपयोग से रहित हो, वह 'आगमतः द्रव्यनन्दी' है। नो-आगम द्रव्यनन्दी के तीन व प्रकार हैं- ज्ञशरीर, भव्य शरीर और उभय-व्यतिरिक्त। इन तीनों 'द्रव्यनन्दी' को (निम्नलिखित) वाद्य-समूहों के रूप में जानना चाहिए (1) भंभा, (2) मुकुन्द, (3) मद्दल, (4) कडंब, (5) झल्लरी, (6) हुडुक्क, (7) & कंसाल, (8) काहली, (9) तलिमा, (10) वंश, (11) शंख, और बारहवां (12) प्रणव (-ये - सभी वाद्य-विशेष द्रव्यनन्दी हैं)। 8888888888888888888888888888888888888 - 26(r) (r)ce@@CROSCORR808080908 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 999999999999 - -RRRRRRR नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) विशेषार्थ वाद्यों के परिचय देने से पूर्व यह जान लेना जरूरी है कि वाद्यों के प्रमुख चार प्रकार हैं- तत, , 4 वितत (अवनद्ध), घन तथा सुषिर। तारों से स्वर उत्पन्न करने वाले -सितार आदि वाद्य 'तत' हैं। चमड़े से मढ़े हुए वाद्य- मृदंग, ढोल आदि 'वितत' (अवनद्ध), वाद्य हैं। आपस में टकरा कर स्वर उत्पन्न करने वाले वाद्य 'घन' हैं, जैसे ताल, मंजीरा आदि। सुषिर वाद्यों में वंशी (बांसुरी) व शंख आदि आते है। cm हैं जिन्हें फूंक व हवा से बजाया जाता है। इनमें तत और वितत स्वरवाद्य हैं, और वितत और घन - 3 ये लय वाद्य हैं। वृत्तिकार ने 'नन्दी' के रूप में बारह वाद्यों का निर्देश किया है। अतः प्रत्येक वाद्य (और व उसकी ध्वनि) मङ्गलरूप है- ऐसा समझना चाहिए। साथ ही इन सब की सामूहिक ध्वनि को " 'द्रव्यनन्दी' के रूप में निर्दिष्ट किया है, जिसे संगीताचार्यों ने 'नन्दीघोष' कहा है। . नंदिघोषः- प्राचीन संगीत ग्रंथों में पंच महाशब्द और पंच वाद्य का भी वर्णन मिलता है। पंच 3 महाशब्द में तुरही, घड़ियाल, ढोल, हुडक्का और शहनाई -इन के संयुक्त वादन होते थे। कर्नाटक, a केरल और उड़ीसा में आज भी पंच वाद्य का प्रचलन है। (1) भंभाः- यह ढोलनुमा द्विमुखी वाद्य विजयसार के काठ से बनता है। इसकी लम्बाई एक " हाथ तथा परिधि 39 अंगुल की होती है। इसके दोनों मुख तेरह-तेरह अंगुल के होते हैं। दोनों मुखों से को कड़े चमड़े से लपेटा जाता है तथा उसमें सात-सात छेद कर चमड़े से मढ़ दिया जाता है। उन छेदों " ra में मोटा डोरा लगाया जाता है। इसको बांयी बगल में दबाकर दाहिने हाथ से डण्डी द्वारा बजाया , जाता है। इस वाद्य का उल्लेख राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा -इन / आगमों में प्राप्त होता है। सामान्यतः इसे ढक्का, 'ढाक' (या ढंका) का पर्याय मान कर एक अवनद्ध " a वाद्य के रूप में जाना जाता है। बंगाल में काली पूजा आदि के अवसर पर कासर (घंटा) के साथ व 'ढाक' विशेष रूप से बजाया जाता है। कुछ आचार्यों ने इसे एक वीणा जैसा वाद्य बता कर इसे एक . व घन वाद्य भी माना है। a (2) मुकुंदः- यह एक अति प्राचीन मृदंग या भुरज सरीखा अवनद्ध वाद्य है, जिसे पखावज , भी कहा जाता है और जिसकी अनेक किस्में अलग-अलग क्षेत्रों में पाई जाती हैं। भक्ति और कीर्तन, के साथ इस वाद्य का गहरा संबंध है। कहते हैं- चैतन्य देव महाप्रभु का यह प्रिय वाद्य था। यह वाद्य लगभग पौन मीटर लम्बा होता है, दूसरे मुख की अपेक्षा एक मुख काफी चौड़ा होता है। यह लकड़ी या पकी मिट्टी का होता है और मृदंग की भांति कई पर्तों वाले दो मुख का होता है। लकड़ी के बने " a मृदंग को पखावज कहते हैं, जबकि पकी मिट्टी से बना मृदंग कहा जाता है- ऐसा भेद भी बताया , * गया है। यह बंगाल में खोल, श्री खोल, तथा मणिपुर व नागालैण्ड में मुकुन्द, मकंद, पुंग आदि नामों " से भी जाना जाता है। 333332323233333333333333333332223333333333333 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& &&&&&& 88888883 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 acca ca CR CR CR ca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0 0 0 0 0 0 0 (3) मद्दलः- यह (मृदंग के आकार का) एक प्राचीन अवनद्ध वाद्य था, जिसे मध्यकालीन / a एवं आधुनिक संगीतज्ञों ने मृदंग का ही पर्याय माना है। किन्तु उनकी मान्यता हृदयगम्य नहीं होती, 0 क्योंकि राजप्रश्नीय सूत्र में मृदंग व मर्दल -इनका पृथक्-पृथक् उल्लेख है। टीकाकार ने भी मर्दल, ce को एक ऐसा वाद्य बताया है जो दोनों ओर से समान मुख वाला होता है। तमिल व तेलगू में मृदंग का " c& एक विशेष रूप 'मद्दल' प्रचलित भी है। दशाश्रुत स्कंध में भी इस वाद्य का उल्लेख है। एक >> मध्यकालीन लेखक ने मर्दल का वर्णन किया है, जिसके अनुसार मर्दल लगभग 40 सेन्टीमीटर , लम्बा तथा बीच में फूला, लकड़ी से बना वाद्य है। इसके एक मुख का व्यास 24 सेन्टीमीटर तथा दूसरे मुख का व्यास लगभग 25 सेन्टीमीटर होता है। दोनों मुखों पर पके चावल में राख मिलाकर लेप " किया जाता है। (4) कडंब (करम्ब)- इस वाद्य का उल्लेख राजप्रश्नीय सूत्र में प्राप्त होता है। इसे उत्तर भारत .. / में खंजरी नाम से जाना जाता है। दक्षिण में यह कंजीरा या गंजीरा, कश्मीर में कडंब तथा महाराष्ट्र में दिमड़ी नाम से भी पुकारते हैं। यह ढफ नामक वाद्य से कुछ छोटा होता है और एक अवनद्ध वाद्य ल है। इस वाद्य में लगभग 30 सेन्टीमीटर व्यास का लकड़ी, पीतल या लोहे का बना एक ढांचा होता है , और यह एक खाल से मढ़ा होता है। यह खाल इतनी खिंची रहती है कि इसको बजाते समय इसे " & ढीला करने के लिए गीले कपड़े से पोंछते रहना पड़ता है। वाद्य अंगुली और हथेली का प्रयोग कर >> बजाया जाता है। खंजरी और ढप में केवल व्यास का ही अंतर उल्लेखनीय नहीं है। खास अंतर यह है है कि खंजरी में पीतल की छोटी-छोटी झांझ की जोड़ियां ढीली लगी होती हैं जो बजाने पर मधुर 8 झंकार उत्पन्न करती है। उपरोक्त खंजरी से छोटी बिना झांझ की खंजरी भी होती है जो लगभग c& वालिस्त भर का फासला रखकर हाथ में पकड़ी जाती है और दूसरे के द्वारा बजायी जाती है। खंजरी , भेड़, बकरी, बैल या भैंस की खाल से बनती है लेकिन कंजीरा और छोटी खंजरी एक किस्म की छिपकली की खाल से बनती है। चूंकि चमड़ा वाद्य को बनाने के दौरान ही ढांचे पर कस कर मढ़ दिया & जाता है और मिलाने की गुंजाइश नहीं होती इसलिए यह वाद्य बारीक संगीत के उपयुक्त नहीं होता। cn यह राजस्थान में कालबेलिया लोगों द्वारा बजाया जाता है। (5) झझल्लरी:-यह वाद्य जैन आगमों (राजप्रश्नीय, स्थानांग, दशाश्रुत स्कन्ध, अनुयोगद्व निशीथ औपपातिक आदि) में उल्लिखित है। इसके स्वरूप के विषय में कुछ विचारभेद है। कुछ इसे , वलयाकार एवं चमड़े से मढा हुआ एक अवनद्ध वाद्य मानते हैं तो कुछ इसे 'जय घंटा' का पर्याय मानकर एक घनवाद्य मानते हैं। अवनद्ध वाद्यों में इसे सामान्यतः 'झांझ' के रूप में पहचाना जाता है " | जो मंजीरे का बड़ा रूप होता है। इसे भाण, चक्रवाद्य, करचक्र आदि नामों से भी पुकारते हैं। अवनद्ध। 28 008R@neK@@@@&000088899 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ස හ හ හ හ හ හ .,, ඇව. Secece RRECE नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) वाद्य के रूप में यह वाद्य 10 अंगुल मोटा एवं 4 अंगुल लम्बा होता है। इसका बीच आर-पार से पोला / होता है। एक अंगुल के दल वाले इस वाद्य के एक मुख को चमड़े से मढ़ा जाता है। बजाते समय चमड़े , c को पानी से भिगो कर बाएं हाथ से उसका किनारा दबाकर दाहिने हाथ से बजाया जाता है। घनवाद्य के रूप में यह वाद्य आज जयघंटा के रूप में प्रायः हिन्दू मंदिरों में आरती के समय : ce बजाया जाता है। संगीत रत्नाकर के अनुसार-जय घंटा कांसे का होता था जो समतल, चिकना तथा 7 गोल होता था। मोटाई आधे अंगुल के बराबर होती थी। इसके वृत्त के किनारे पर दो छिद्र होते थे, जिनमें डोरी डालकर लटकाने योग्य बना लिया जाता था। इसे बाएं हाथ में पकड़कर दाएं हाथ में है कोई कठोर वस्तु लेकर बजाया जाता था, जिसे लौकिक भाषा में झालरि, झालर भी कहते थे। इसी // ca का बृहद् रूप महाघंटा होता था, जो कांसे अथवा अष्टधातु से निर्मित किया जाता था। (6) हुडुक्कः- इस वाद्य का उल्लेख राजप्रश्नीय, दशाश्रुत स्कन्ध, औपपातिक व जम्बूद्वीप , प्रज्ञप्ति आदि आगमों में मिलता है। यह 'डमरू' से कुछ बड़ा आकार का होता है। इसे हुडुक्का, हुडुक, डेरु आदि नामों से भी पुकारते हैं। यह दो मुखा अवनद्ध वाद्य 16 अंगुल लंबा तथा बीच में से कुछ " ca पतला होता है। इसके मुख का व्यास आठ-आठ अंगुल होता है। झिल्ली सादी होती है, और लगभग " डमरू जैसे आकार पर मढ़ी जाती है। इसमें कुछ छेद करके डोरियां कसी जाती हैं। डोरी के अंत में . on एक अन्य डोरी होती है। इसी को पकड़कर वाद्य बजाया जाता है। स्वर की ऊंचाई-नीचाई के लिए 2 << हुडुक्क की रस्सियों को ढीला और कड़ा किया जाता है। इसका एक छोटा रूप हुडुक्की भी होता है। " & उत्तर भारत में कहार जाति के लोगों द्वारा इसका प्रयोग किया देखा जाता है। (7) कंसाल (कांस्यताल)- इस वाद्य का उल्लेख राजप्रश्नीय, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति व निशीथ , आदि जैन आगमों में मिलता है। प्राचीन व मध्ययुगीन संगीत ग्रन्थों में इसे घनवाद्य के रूप में , ca स्वीकारा गया है। अनेक आचार्यों ने इसे वर्तमान के अवनद्ध वाद्य झांझ का एक रूप या पर्याय माना " है। कुछ स्थलों में झांझ व कंसताल का पृथक्-पृथक् नामोल्लेख भी है, अतः इन दोनों की भिन्नता भी , 4 प्रतीत होती है। सम्भवतः कंसताल से तात्पर्य कांसे से बने ताल-यानी मंजीरा वाद्य हो। संगीत ग्रन्थों ca में प्राप्त इस कांस्यताल का विवरण इस प्रकार है- यह कांसे की कमलिनी के पत्र के आकार का 0 ca होता है। इसका व्यास 13 अंगुल का होता है। इसके बीच दो अंगुल प्रमाण की गोलाई तथा एक . & अंगुल प्रमाण की गहराई वाली नाभि होती है। ताल वाद्य की भांति इसमें भी मध्य में छेद होता है। 22222223333333333333333333333333333332 1 जिसमें अलग-अलग डोरी डालकर भीतर से गांठ लगा दी जाती है। ऊपर की ओर उसी डोरी में ca कपड़ा लपेटकर इस प्रकार बांध देते हैं कि वह दोनों हाथों की मुट्टियों में पकड़ने के लिए मूठ का . " काम करें। प्रायः देवी-देवताओं की स्तुति, मंदिरों एवं शोभायात्रा के समय तथा अन्य उत्सवों पर इसका प्रयोग किया जाता है। (r)(r)RO908cR@@@@R89@CR(r)(r) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 aca cacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0902090 90909 (8) काहली (खरमुखी)- काहला को खरमुही (खरमुखी) नाम से भी निर्दिष्ट किया जाता है। इसका उल्लेख निशीथ, राजप्रश्नीय, दशाश्रुतस्कन्ध, औपपातिक व जीवाजीवाभिगम आदि , आगमों में प्राप्त होता है। यह एक सुषिर वाद्य है। इसका निर्माण तांबा, चांदी या सोने से होता था। ce एक टीकाकार ने इसे काष्ठनिर्मित व खरमुखाकार बताया है। लौकिक भाषा में इसे भूपाड़ों के नाम " & से भी जानते हैं। संगीत ग्रन्थों के अनुसार, फूंक से बजाया जाने वाला यह वाद्य भीतर से खोखला होता था। इसकी मुखाकृति धतूरे के फूल जैसी होती थी, जिसके बीच में दो छेद होते थे। बजाने पर & हाथी जैसी हूं, हूं आदि ध्वनि निकलती थी। विवाहादि सभी मांगलिक कार्यों पर यह वाद्य बजाया / जाता रहा है। - (9) तलिमः (मंजीरा या छोटी झांझ)-कुछ लोग इसे झल्लरी का ही छोटा रूप मानते हैं। ca कुछ ने ताल व मंजीरा को एक भी माना है। इसे तल, ताली भी कहा जाता है। तल या ताल -इन .. & वाद्यों का उल्लेख राजप्रश्नीय, स्थानांग, दशाश्रुत स्कन्ध, औपपातिक, निशीथ आदि आगमों में , मिलता है। तल या ताल का ही लघु रूप तलिम' प्रतीत होता है। इसे उत्तरभारत में झांझ, ब्रज भाषा, ल में तार (ताल) और महाराष्ट्र में टाड़ कहा जाता है। संगीताचार्यों के अनुसार इसका विवरण इस & प्रकार है- ताल वाद्य का निर्माण कांसे या पीतल से होता है। यह दो हिस्सों में होता है, ये दोनों भाग 2 ca लगभग छः अंगुल व्यास के गोल कांसे के बने हुए बीच से दो अंगुल गहरे होते हैं। मध्य में छेद होता & है। इन छेदों में डोरी डाल कर भीतर से गांठ लगा दी जाती है। जिससे डोरी निकल न पाए। दोनों : भागों को एक दूसरे के आघात द्वारा बजाया जाता है। कृष्ण-भक्त गवियों ने इस वाद्य का बहुलता से , ca उल्लेख किया है। 'झांझ' भी कहा जाता है। (12) वंश (बांसुरी, बंसी)- इस वाद्य का उल्लेखनिशीथ, नन्दीसूत्र, राजप्रश्नीय, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति : ce आदि आगमों में मिलता है। यह भारत का अति प्राचीन सुषिर वाद्य है, जिसे प्रायः मेले आदि के 7 & अवसर पर बिकते हुए देखा जाता है। आधुनिक युग में बांसुरी की अनेक किस्में प्राप्त हैं। & प्राचीन काल में वंशी बनाने के लिए चिकना, सीधा तथा बिना गांठ के बांस का प्रयोग करते " थे। खैर की लकड़ी, हाथी दांत, लाल चंदन तथा सफेद चंदन की भी बांसुरी बनती थी। लोहा, कांसा, . चांदी, सोने आदि की भी बांसुरियां बनाई जाती थीं। बांसुरियां गोल आकार की सीधी तथा चिकनी, ce होती थीं। प्रायः कनिष्ठा अंगुली प्रवेश कर सके, इतनी पोली होती थी। वंशी की लम्बाई 10 अंगुल से " & लेकर 35 अंगुल तक होती है। ऊपरी भाग में दो, तीन अथवा चार अंगुल छोड़कर एक अंगुल के . प्रमाण से एक छेद किया जाता है, जिसे मुखरन्ध्र कहते हैं। बांसुरी की लम्बाई के अनुपात में 4 से 15 | तक छेद किये जाते हैं। मुखरन्ध्र के पास वादन के लिए एक चोंच सी बना दी जाती है। जब संगीतकार | - 30 (r)(r)(r)(r)con@CR89c8080cr@98. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Recence नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) 29999900 घोंच से हवा फूंकता है तो इस छेद की पत्ती के किनारों से टकराती है जिससे ध्वनि पैदा होती है। वादक अपनी अंगुलियों से रन्ध्रों को खोलते, बंद करते समय सुरीली ध्वनि निकालता है। इस किस्म , की वंशी को उत्तर भारत में बांसुरी कहा जाता है। (13) संख (शंख)- इसका उल्लेख भी राजप्रश्नीय, उत्तराध्ययन, स्थानाज, दशाश्रुतस्कन्ध, . नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार आदि आगमों में मिलता है। शंख भारत का अति प्राचीन सुषिर वाद्य है। " ca आगम युग से ही इसका प्रयोग धार्मिक तथा युद्ध आदि में होता है। श्रीकृष्ण का पाञ्चजन्य शंख - प्रसिद्ध है। प्राचीन काल में शंख के अनेक रूप प्रचलित रहे हैं। आधुनिक काल में शंख का प्रयोग , धार्मिक उत्सवों में ही प्रायः होता देखा जाता है। शंख एक सामुद्रिक जीव का ढांचा है, जो समुद्र से . निकाला जाता है। इसकी दो जातियां 'दक्षिणावर्त' तथा 'वामावर्त' नाम से प्रसिद्ध है। संगीत पारिजात ca के अनुसार वाद्योपयोगी शंख का पेट बारह अंगुल का होता है। उसमें मुख का छेद बेर के बीज के " ca बराबर होता है तथा उसके ऊपर पतली धातु का कलश बनाते हैं। इस कलश को मुख में रखकर " शंख को वाद्य की भांति बजाया जाता है। . (12) पणवः (प्रणव)- इस वाद्य का उल्लेख निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध, राजप्रश्नीय, औपपातिक , व प्रश्नव्याकरण -इन आगमों में प्राप्त होता है। पणव एक अति प्राचीन अवनद्ध वाद्य था। इसे . अनुवादकों ने आधुनिक समय का ढोल बताया है। महर्षि भरत ने मृदंग के बाद पणव को ही सबसे / << अधिक महत्त्व दिया। महर्षि भरत के अनुसार पणव का आकार इस प्रकार है- सोलह अंगुल लम्बा, 7 'ca मध्य भाग भीतर की ओर दबा, जिसका विस्तार आठ अंगुल तथा जिसके दोनों मुख पांच अंगुल के , हों, वह प्रणव है। आधे अंगूठे के समान मोटा उसका काठ होता है और भीतर का खोखला भाग चार ca अंगुल के व्यास का होता है। प्रणव के दोनों मुख कोमल चमड़े से मढ़े जाते थे, जिन्हें सुतली से कस 1 ca दिया जाता था। सुतलियों का यह कसाव कुछ ढीला रखा जाता था जिसे वादन के समय बायें हाथ से " & मध्य भाग को दबाकर तथा ढीला कर आवश्यकतानुसार ऊंची-नीची ध्वनि निकाली जाती थी। युग , परिवर्तन के साथ-साथ वाद्यों की महत्ता में भी परिवर्तन आया, जिसके परिणाम स्वरूप पणव वाद्य आज कहार, अहीर और भांड जाति का ही वाद्य बनकर रह गया। दक्षिण भारत में अब भी कहीं- 1 c. कहीं मंदिरों में इसका प्रयोग देखने को मिलता है, किन्तु उत्तर भारतीय शिव मंदिरों में इसे बड़े " आकार का डमरू माना जाता है। 33333333333333222332222222 -3333333333333333333 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 31 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cacacancece श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 999999999 (हरिभद्रीय वृत्तिः) तथा भावनन्द्यपि द्विधा- आगमतो नोआगमतश्च। आगमतो ज्ञाता उपयुक्तः, " नोआगमतः पञ्चप्रकारं ज्ञानम्, तच्चेदम् (नियुक्तिः) आभिणिबोहियनाणं सुयनाणं चेव ओहिनाणं च। तह मणपज्जवनाणं केवलनाणं च पंचमयं // 1 // [संस्कृतच्छाया-आभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानं चैव अवधिज्ञानं च।तथा मनःपर्यवज्ञानं केवलज्ञानं च पञ्चमम् // (वृत्ति-हिन्दी-) इसी तरह, भावनन्दी के भी दो भेद हैं- आगम भावनन्दी और नोआगमभावनन्दी। जो (विवक्षित 'नन्दी' विषय का) ज्ञाता होने के साथ-साथ (तत्सम्बन्धी) CM उपयोग से युक्त हो, वह 'आगमतः भावनन्दी' है। 'नो-आगम भावनन्दी' तो पांच प्रकार का ज्ञान है, जो इस प्रकार है (1) 888888888888888888888888888888888888888888888 (नियुक्ति-अर्थ-) आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, तथा पांचवां केवलज्ञान (-ये पांच ज्ञान हैं)। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) अर्थाभिमुखो नियतो बोधः अभिनिबोधः, अभिनिबोध एव आभिनिबोधिकम, विनयादिपाठात् अभिनिबोधशब्दस्य “विनयादिभ्यष्ठक्” (पा० 5.4-34) इत्यनेन स्वार्थ एव ठप्रत्ययः, यथा विनय एव वैनयिकमिति, अभिनिबोधे वा भवं तेन वा निर्वृत्तं तन्मयं तत्प्रयोजनं 1 & वा, अथवा अभिनिबुध्यते तद् इत्याभिनिबोधिकम्, अवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमेव, तस्य a स्वसंविदितरूपत्वात्, भेदोपचारादित्यर्थः। . अभिनिबुध्यते वाऽनेनेत्याभिनिबोधिकम्, तदावरणकर्मक्षयोपशम इति भावार्थः। अभिनिबुध्यते अस्मादिति वाऽऽभिनिबोधिकम्, तदावरणकर्मक्षयोपशम एव, " & अभिनिबुध्यतेऽस्मिन्निति वा क्षयोपशम इत्याभिनिबोधिकम्, आत्मैव वाऽभिनिबोधोपयोगपरिणामानन्यत्वाद् अभिनिबुध्यत इत्याभिनिबोधिकम्, आभिनिबोधिकम् च तज्ज्ञानं चेति समासः। - 32(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ca@@ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rececent 0000000 333333333333022322232323333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) - (वृत्ति-हिन्दी-) अर्थाभिमुखी नियत ज्ञान को 'आभिनिबोध' कहते हैं। अभिनिबोध ca ही 'आभिनिबोधिक' है। चूंकि अभिनिबोध' शब्द 'विनयादि' गण में पठित है, अतः 'विनयादिभ्यः / a ठक्' -इस (पाणिनीय-5/4/34) सूत्र से स्वार्थ में 'अभिनिबोध' शब्द से ठक् प्रत्यय होने / पर उसी प्रकार 'आभिनिबोधिक' शब्द निष्पन्न हुआ है जिस प्रकार 'विनय ही' अर्थ में वैनयिक' पद निष्पन्न होता है। अथवा आभिनिबोधिक वह है जो अभिनिबोध में होता है, या , उससे निष्पन्न होता है, या तन्मय होता है, या जिसका प्रयोजन 'अभिनिबोध' ही होता है, या " जो अभिनिबुद्ध (अर्थात् अभिनिबोध का विषय) होता है। इस प्रकार, अवग्रह आदि मतिज्ञान , & ही 'आभिनिबोधिक' है, क्योंकि वह स्वसंविदित होता है। यह कथन अभिनिबुद्ध व आभिनिबोध , में औपचारिक भेद मानकर किया गया है -यह तात्पर्य है। अथवा आभिनिबोधिक वह है जिसके द्वारा अभिनिबोध प्राप्त होता है, अर्थात् जो " : अवधिज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम है, वह आभिनिबोधिक है। अथवा आभिनिबोधिक वह है : जिसके अनन्तर अभिनिबोध हो (या जिससे उद्भूत हो), इस दृष्टि से भी उक्तक्षयोपशम ही , आभिनिबोधिक सिद्ध होता है। अथवा आभिनिबोधिक वह है जिसके सद्भाव में (या होने पर) अभिनिबोध हो, इस (निर्वचन) से भी उक्त क्षयोपशम 'आभिनिबोधिक' कहलाता है। 4 अथवा आभिनिबोधिक वह हैं जो अभिनिबोध का विषय हो, इस (निर्वचन) से आत्मा ही है a 'अभिनिबोध' है, क्योंकि अभिनिबोध-उपयोग रूप परिणाम और आत्मा -ये दोनों अनन्य हैं - a (एक ही हैं)।आभिनिबोधिक जो ज्ञान -इस अर्थ में दोनों पदों का समास होकर 'आभिनिबोधिक a ज्ञान' यह शब्द (पद) निष्पन्न होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) . तथा श्रूयत इति श्रुतं शब्द एव, भावश्रुतकारणत्वादिति भावार्थः। अथवा श्रूयतेऽनेनेति * श्रुतम्, तदावरणक्षयोपशम इत्यर्थः, श्रूयतेऽस्मादिति वा श्रुतम्, तदावरणक्षयोपशम एव, 4 श्रूयतेऽस्मिन्निति वा क्षयोपशम इति श्रुतम्, शृणोतीति वाSSत्मैव तदुपयोगानन्यत्वात्, श्रुतं च // तज्ज्ञानं चेति समासः।चशब्दस्त्वनयोरेव तुल्यकक्षतोद्भावनार्यः, स्वाम्यादिसाम्यात्।कथम्?, से य एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्य “जत्थ मइनाणं तत्थ सुयणाणं" इति वचनात्। तथा यावान्मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेवेतरस्य, प्रवाहापेक्षया अतीतानागतवर्तमानः सर्व / एव, अप्रतिपतितैकजीवापेक्षया च षट्षष्टिसागरोपमाण्यधिकानीति। 8088@ @ce@ @ROBce@ @ @ @ @ 33 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333322233333333333333 cace caca ca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 09090202000 E S (वृत्ति-हिन्दी-) और, जो सुना जाय, वह (यानी) 'शब्द' ही (द्रव्य) 'श्रुत' है, क्योंकि c& वह (शब्द) भावश्रुत का कारण होता है। अथवा, जिससे सुना जाय, वह, अर्थात् श्रुतज्ञानावरण & कर्म का क्षयोपशम 'श्रुत' है। अथवा, जिसके कारण से सुना जाय, वह, यानी वही क्षयोपशम & ही श्रुत है। अथवा जिसके सद्भाव में (या जिसके होने पर) सुना जाय, वह यानी उक्त ca क्षयोपशम ही श्रुत है। अथवा जो सुनता है, वह अर्थात् आत्मा ही श्रुत है। अथवा जो सुनता है, . वह, अर्थात् आत्मा ही श्रुत है, क्योंकि वह श्रुत के उपयोग से अनन्य है। श्रुत जो ज्ञान -इस ce अर्थ में दो पदों का समास होकर श्रुतज्ञान -यह पद निष्पन्न होता है। गाथा में 'च' पद प्रयुक्त " न है जिससे आभिनिबोधिक ज्ञान व श्रुतज्ञान -इन दोनों की तुल्यकक्षता (समानस्तरता) सूचित होती है, क्योंकि स्वामी आदि दृष्टियों से दोनों की समानता (शास्त्रप्रतिपादित ही) है। " (प्रश्न) (यह समानता) कैसे है? (उत्तर-) जो ही मतिज्ञान का स्वामी है, वही श्रुतज्ञान का , भी स्वामी है, क्योंकि 'जहां-जहां मतिज्ञान है, वहां-वहां श्रुतज्ञान है' यह (शास्त्रीय) वचन 8 उपलब्ध होता है। और, जितना मतिज्ञान का स्थितिकाल है, उतना ही श्रुतज्ञान का भी है। c. इसके अतिरिक्त, प्रवाह की दृष्टि से भी अतीत, भावी, वर्तमान -इन तीनों कालों में इनकी ca स्थिति है। एक जीव की भी बात करें तो दोनों की , अप्रतिपाती (अविच्युति) रूप में साधिक & छाछठ सागरोपम काल तक की स्थिति मानी गई है। O (हरिभद्रीय वृत्तिः) उक्तं च भाष्यकारेण दोवारे विजयाइसु गयस्स तिण्णच्चुए अहव ताई। अइरे गं णरभविअं णाणाजीवाण सव्वद्धं // यथा च मतिज्ञानं क्षयोपशमहेतुकं, तथा श्रुतज्ञानमपि, यथा च मतिज्ञानमादेशतः " & सर्वद्रव्यादिविषयम्, एवं श्रुतज्ञानमपि, यथा च मतिज्ञानं परोक्षम्, एवं श्रुतज्ञानमपि इति। " a एवकारस्त्ववधारणार्थः, परोक्षत्वमनयोरेवावधारयति, आभिनिबोधिकश्रुतज्ञाने एव परोक्षे इति - ca भावार्थः। (वृत्ति-हिन्दी-) भाष्यकार ने भी (विशेषावश्यक भाष्य की गाथा सं. 436 में) कहा है (मनुष्य भव से, 33-33 सागरोपम आयु वाले) विजय आदि (वैमानिक देवों) में दो " / बार (आयु पूर्ण कर), या (22-22 हजार सागरोपम आयु वाले) अच्युत (आदि देवलोकों में ! - 34 (r)(r)(r)(r)(r)(r)R@necR@9080@cR@@ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRR 0900999900 33288323823333333333333 9223333333333333333333 नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) तीन बार (आयु पूर्ण कर) वहां से (पुनः) मनुष्य भव धारण करने वाले के, (मतिज्ञान की ca अविच्युति के रूप में,) साधिक छाछठ हजार सागरोपम काल की स्थिति होती है। नाना 2 जीवों की अपेक्षा से तो सभी कालों में मति ज्ञान की स्थिति है। जिस प्रकार मतिज्ञान में हेतु उसका (उसके आवरण का) क्षयोपशम होता है, उसी a प्रकार श्रुतज्ञान में भी। जिस प्रकार मतिज्ञान आदेश-अनुरूप (अर्थात् ओघदृष्टि से, सामान्यतया) सर्व द्रव्य (एवं क्षेत्र व काल) आदि को विषय करता है (अपना ज्ञेय बनाता है), उसी प्रकार , : श्रुतज्ञान भी। (गाथा में पठित) 'एव' शब्द 'अवधारण' अर्थ को अर्थात् (द्रव्येन्द्रिय व मन से a होने वाले) दोनों ज्ञानों की परोक्षता का अवधारण करता है- अर्थात् यह सूचित करता है कि a आभिनिबोधिक ज्ञान व श्रुत ज्ञान (-ये दोनों) परोक्ष ही हैं, यह तात्पर्य है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तथा अवधीयतेऽनेन इत्यवधिः, अवधीयते इति अधोऽधो विस्तृतं परिच्छिद्यते, मर्यादया वेति, अवधिज्ञानावरणक्षयोपशम एव, तदुपयोगहेतुत्वादित्यर्थः। अवधीयतेऽस्मादिति वेति a अवधिः, तदावरणीयक्षयोपशम एव, अवधीयतेऽस्मिन्निति वेत्यवधिः, भावार्थः पूर्ववदेव ।अवधानं " a वाऽवधिः, विषयपरिच्छेदनमित्यर्थः। अवधिश्चासौ ज्ञानं च अवधिज्ञानम् / चशब्दः // a खल्वनन्तरोक्तज्ञानद्वयसाधर्म्यप्रदर्शनार्थः, स्थित्यादिसाधात् / कथम्?, यावान् 2 a मतिश्रुतस्थितिकालः प्रवाहापेक्षया अप्रतिपतितैकसत्त्वाधारापेक्षया च, तावानेवावधेरपि, अतः / स्थितिसाधर्म्यात्, यथा मतिश्रुते विपर्ययज्ञाने भवतः, एवमिदमपि मिथ्यादृष्टर्विभङ्गज्ञानं भवतीति , विपर्ययसाधात्, य एव च मतिश्रुतयोः स्वामी स एव चावधेरपि भवतीति स्वामिसाधर्म्यात्, / विभङ्गज्ञानिनः त्रिदशादेः सम्यग्दर्शनावाप्तौ युगपज्ज्ञानत्रयं संभवतीति लाभसाधाच्च। (वृत्ति-हिन्दी-) और, जिससे (जिसके द्वारा) 'अवधान' किया जाय, वह 'अवधि' / (ज्ञान) है। अवधान का अर्थ है- (अव-यानी) नीचे से नीचे तक विस्तार में, या मर्यादा (रूपी 1 . द्रव्यों की सीमा) के साथ, (धान, यानी) ज्ञान की प्राप्ति।अतः अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम " (रूप-आत्मस्वरूप) ही 'अवधि' सिद्ध होता है, क्योंकि वही (क्षयोपशम) अवधिज्ञान-सम्बन्धी . a उपयोग (चेतना-व्यापार) में हेतु होता है। अथवा, जिसके निमित्त से अवधान (सम्भव) हो, या जिसके सद्भाव में (या होने पर) अवधान हो, वह 'अवधि' है, इन दोनों अर्थों में भी है / पूर्ववत् ज्ञानावरण-क्षयोपशम ही 'अवधि' सिद्ध होता है। अथवा जो अवधान होता है, (अर्थात् / (r)(r)(r)(r)(r)(r)ReecR@@@cRO900 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33333333333335888 -cace ca ca ca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0 0 0 0 0 0 अवधिज्ञान से होने वाला जो विषय-ज्ञान होता है), वह 'अवधि' है। अवधि जो ज्ञान -इस | ca अर्थ में दोनों पदों का समास होकर 'अवधि ज्ञान' यह शब्द निष्पन्न होता है। (गाथा में पठित) 7 & 'च' शब्द अपने अनन्तर-पठित (समीपवर्ती) दोनों ज्ञानों (मति व श्रुत) के साथ अवधि ज्ञान , ज्ञान का साधर्म्य (सादृश्य) प्रदर्शित करता है, क्योंकि उन (तीनों) में स्थिति (और विपर्यय, .. स्वामी व लाभ) आदि की दृष्टि से साधर्म्य है। (प्रश्न-) कैसे (साधर्म्य) है? (उत्तर दे रहे हैं)- 1 मति व श्रुत ज्ञान का- प्रवाह की दृष्टि से, या एक प्राणी में अविच्युत रूप से आधार होने की " & अपेक्षा से- जितना स्थितिकाल होता है, उतना ही, अवधि ज्ञान का भी होता है, इसलिए इनमें स्थिति-सम्बन्धी साधर्म्य है। और जिस प्रकार, मति व श्रुत ज्ञान विपर्यय ज्ञान (अज्ञान) - विभंग ज्ञान होता है, इस तरह विपर्यय-सम्बन्धी साधर्म्य भी है। और, जो मति व श्रुत का , स्वामी होता है, वही अवधिज्ञान का भी स्वामी होता है, इस तरह स्वामी-सम्बन्धी साधर्म्य , भी है। और, विभंगज्ञानी देव आदि को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर, युगपत् (एक साथ) तीनों ज्ञान सम्भव होते हैं, अतः लाभ-सम्बन्धी साधर्म्य भी है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तथा मनःपर्यवज्ञानम् / अयं भावार्थः- परिः सर्वतो भावे, अवनं अवः, अवनं गमनं वेदनमिति पर्यायाः, परि अवः पर्यवः पर्यवनं वा पर्यव इति, मनसि मनसो वा प्रर्यवो मनःपर्यवः, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, स एव ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानम्। अथवा मनसः पर्याया मनःपर्यायाः, पर्याया भेदा धर्मा बाह्य-वस्त्वालोचनप्रकारा & इत्यनन्तरम्, तेषु ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम्, तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् / इदं , ca चार्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वत्तिसंज्ञि-मनोगतद्रव्यालम्बनमेवेति, तथाशब्दोऽवधिज्ञानसारूप्य- . & प्रदर्शनार्थः। कथम्?, छद्मस्थस्वामिसाधर्म्यात्, तथा पुद्गलमात्रालम्बनत्वसाम्यात्, तथा . क्षायोपशमिकभावसाम्यात्, तथा प्रत्यक्षत्वसाम्याच्चेति। (वृत्ति-हिन्दी-) इसी तरह, मनःपर्यय ज्ञान भी है। तात्पर्य यह है- 'परि' अर्थात् सर्व . & प्रकार से, 'अव' अर्थात् अवन (ज्ञान)। अवन, गमन, वेदन -ये पर्याय हैं, अतः ‘परि' उपसर्गपूर्वक अर्थात् सर्वतोभावेन (सभी तरह से), अव या अवन (ज्ञान) होना- 'पर्यव' है। , वह (पर्यव) मनोविषय हो, या मन का हो तो उसे मनःपर्यव कहते हैं, जिसका अर्थ है- सभी प्रकारों से उसका (मनोविज्ञान या मन का) बोध / मनःपर्यव जो ज्ञान -वह मनःपर्यव ज्ञान है। 333333333333333333333333333333333333333333333 - 36 89088888@m@@ @ @ @ @ @ @ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARRRRRRA 90000 9000 333333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) * अथवा, मनःपर्यव का अर्थ है- मन के पर्याय / पर्याय कहें, या भेद कहें या धर्म कहें ca (एक ही बात हैं, क्योंकि) ये सब बाह्य वस्तु के विविध आलोचन (स्वरूप) हैं, अतः एक ही " & अर्थ को व्यक्त करते हैं। इनके विषय का जो ज्ञान है, वह मनःपर्याय ज्ञान है। अथवा, मन के , पर्यायों का या उनसे सम्बद्ध जो ज्ञान है, वह मनःपर्याय ज्ञान है। वह ज्ञान अढ़ाई द्वीप-समुद्र CM के भीतर (अन्तर्गत) रहने वाले संज्ञी प्राणियों के मनोगत द्रव्य का आलम्बन लेकर होता है। 2 गाथा में प्रयुक्त 'तथा' शब्द यह सूचित करता है कि मनःपर्याय ज्ञान की अवधिज्ञान से " * सरूपता (समानता) है। (प्रश्न-) यह समानता कैसे है? (उत्तर है-) दोनों के स्वामी छद्मस्थ " a (असर्वज्ञ) होते हैं- यह दोनों का (एक) साधर्म्य है। दोनों ही मात्र पुद्गल का ही अवलम्बन " लेते हैं, यह भी (एक) साम्य है। दोनों ही क्षायोपशमिक भाव हैं, और दोनों ही प्रत्यक्ष (कोटि , में परिगणित) हैं, ये भी समानताएं हैं। 4 (हरिभद्रीय वृत्तिः) केवलमसहायं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षम्, शुद्धं वा केवलम्, तदावरणकर्ममल- - कलङ्काङ्करहितम्, सकलं वा केवलम्, तत्प्रथमतयैव अशेषतदावरणाभावतः संपूर्णोत्पत्तेः। असाधारणं वा केवलम्, अनन्यसदृशमितिहृदयम्, ज्ञेयानन्तत्वाद् अनन्तं वा केवलम्, , यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभाव-स्वभावावभासीति भावना, केवलं च तज्ज्ञानं चेति समासः, , चशब्दस्तूक्तसमुच्चयार्थः, केवलज्ञानं च पञ्चमकमिति, अथवाऽनन्तराभिहितज्ञानसारूप्यप्रदर्शक एव, अप्रमत्तभावयतिस्वामि-साधात् विपर्ययाभावयुक्तत्वाच्चेति गाथासमासार्थः // a (वृत्ति-हिन्दी-) 'केवल' का अर्थ है- असहाय, अर्थात् बिना किसी की सहायता के, 1 मति आदि ज्ञान की अपेक्षा न रखते हुए होने वाला। अथवा 'केवल' से तात्पर्य है- शुद्ध 1 a (अमिश्रित) ज्ञान, क्योंकि वह अपने आवरण (ज्ञानावरण) कर्म के मल या कलंक रूपी धब्बे " a से रहित होता है। अथवा, केवल का अर्थ है- सकल (अर्थात् पूर्ण), क्योंकि वह समस्त " आवरणों के (पूर्णतया) अभाव होने के कारण, सम्पूर्ण (निरावरण) होकर प्रकट होता है। या 0 a केवल का अर्थ है- असाधारण (अकेला, अनुपम)। अर्थात् जिसके समान कोई और न हो यह तात्पर्य है। अथवा केवल का अर्थ है- अनन्त, क्योंकि उसके ज्ञेय अनन्त (पदार्थ एवं . उसके पर्याय) होते हैं। इसकी पूर्णता का अर्थ है- यथावस्थित (जो वस्तु जिस रूप में स्थित . है, उसे उसी रूप में) समस्त अतीत, भावी व वर्तमान पदार्थों के स्वभाव को प्रकाशित (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)cR00000000 37 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . -caca cace cacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 करना / केवल जो ज्ञान -इस अर्थ में दो पदों का समास होकर 'केवल ज्ञान' शब्द निष्पन्न ce हुआ। गाथा में प्रयुक्त 'च' शब्द 'समुच्चय' अर्थ को व्यक्त करता है, अर्थात् यह सूचित करता " & है कि उक्त चार ज्ञानों के अतिरिक्त, पांचवां भी ज्ञान है और वह है- केवलज्ञान / अथवा, . अनन्तर (पूर्व) में कहे गये मनःपर्याय ज्ञान से इसकी समानता को व्यक्त करने वाला ही यह & 'च' पद है, क्योंकि दोनों के स्वामी अप्रमत्त (गुणस्थान, भाव) में रहने वाले यति (मुनि ca आदि) होते हैं और दोनों के विपर्यय ज्ञान नहीं होते- यह साधर्म्य है। यह गाथा का संक्षिप्त + अर्थ पूर्ण हुआ // (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-मतिज्ञान-श्रुतज्ञानयोः कः प्रतिविशेष इति? उच्यते, उत्पन्नाविनष्टायग्राहकं साम्प्रतकालविषयम् मतिज्ञानम्, श्रुतज्ञानं तु त्रिकालविषयम्, उत्पन्नविनष्टानुत्पन्नार्थ ग्राहकमिति। भेदकृतो वा विशेषः, यस्मादवग्रहाद्यष्टाविंशतिभेदभिन्नं मतिज्ञानम्, " ca तथाऽङ्गानङ्गादिभेदभिन्नं च श्रुतमिति।अथवाSSत्मप्रकाशकं मतिज्ञानम्, स्वपरप्रकाशकं च " श्रुतमित्यलं प्रसङ्गेन, गमनिकामात्रमेवैतदिति। अत्राह- एषां ज्ञानानामित्थं क्रमोपन्यासे किं प्रयोजनम् इति, उच्यते, . & परोक्षत्वादिसाधान्मतिश्रुतसद्भावेच शेषज्ञानसंभवात् आदावेव मतिश्रुतोपन्यासः।मतिज्ञानस्य : C पूर्व किमिति चेत्, उच्यते, मतिपूर्वकत्वात् श्रुतस्येति।मतिपूर्वकत्वं चास्य “श्रुतं मतिपूर्वम्" , ca (...व्यनेकद्वादशभेदम्, श्रीतत्त्वार्थे अ. 1 सू. 20) इति वचनात् / तत्र प्रायो / ल मतिश्रुतपूर्वकत्वात्प्रत्यक्षत्व-साधाच्च ज्ञानत्रयोपन्यास इति, तत्रापि कालविपर्ययादि ce साम्यान्मतिश्रुतो पन्यासानन्तर मे वावधे रुपन्यास इति। तदनन्तरं च . छाद्मस्थिकादिसाधान्मनः- पर्यायज्ञानस्य, तदनन्तरं भावमुनिस्वाम्यादिराधात्सर्वोत्तमत्वाच्च केवलस्येति गाथार्थः॥१॥ __ (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) अच्छा, आप यह बताएं कि मति व श्रुत -इन दो ज्ञानों में , ca क्या अन्तर है? (उत्तर-) अन्तर बता रहे हैं- मतिज्ञान तो उत्पन्न, अविनष्ट (वर्तमान) पदार्थ , CR का (ही) ग्राहक है, किन्तु श्रुतज्ञान तो त्रिकाल (वर्ती पदार्थ) को विषय करता है, और उत्पन्न, . C. विनष्ट (अतीत) या अनुत्पन्न (भावी) पदार्थ को भी विषय करता है (यह एक भेद है)। (अलग अलग) भेदों की दृष्टि से भी इनमें अन्तर है। जैसे- मतिज्ञान के अवग्रह आदि अट्ठाईस भेद - 38 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRom 99222000 33333333332 नियुक्ति-गाथा-1 (भूमिका) हैं तो श्रुतज्ञान के अङ्ग व अनङ्ग (अंगप्रविष्ट व अंगबाह्य आदि) भेद हैं। अथवा, मतिज्ञान मात्र 4 अपने स्वरूप को (ही) प्रकाशित करता है, किन्तु श्रुत स्वयं को और अन्यान्य (पदार्थ) को " & भी प्रकाशित करता है। इतना संकेत मात्र किया जा रहा है। अधिक कुछ कहने की कोई , जरूरत नहीं है। 4 यहां किसी ने शंका प्रस्तुत की -इन (पांच) ज्ञानों का इस प्रकार जो क्रम रख गया : & है, उसका क्या प्रयोजन (उद्देश्य) है? उत्तर दे रहे हैं- एक तो परोक्षता की दृष्टि से (मति व . श्रुत -ये) दोनों समान हैं और दूसरे, इन (दोनों) के होने पर ही शेष ज्ञान संभव हो पाते हैं, .. है इसलिए मति व श्रुत को सब से पहले रखा गया है। (प्रश्न-) श्रुत से पूर्व मति को क्यों रखा आ गया? बता रहे है- मति-पूर्वक ही श्रुत होता है, इस सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र का 'श्रुतं / a मतिपूर्वम् व्यनेकद्वादशभेदम्' (अध्ययन-1, सूत्र-20) यह वचन (प्रमाण, समर्थक) है। " a अवधि आदि शेष तीन ज्ञानों को बाद में इसलिए रखा गया है, क्योंकि वे प्रायः मति-श्रुत पूर्वक होते हैं, और तीनों ज्ञान (अवधि, मनःपर्यय व केवल) प्रत्यक्ष की दृष्टि से साधर्म्य वाले , हैं। इनमें स्थिति-काल व विपर्यय -इन दोनों दृष्टियों से साम्य को देखते हुए मति व श्रुत के . बाद अवधि को रखा गया है। अवधि के बाद मनःपर्याय ज्ञान को इसलिए रखा गया है , क्योंकि दोनों के स्वामी छद्मस्थ ही होते हैं -इस दृष्टि से उनमें साधर्म्य है। उस (मनःपर्याय , a ज्ञान) के बाद केवल ज्ञान को इसलिए रखा गया है क्योंकि दोनों में यह साधर्म्य है कि दोनों , a के स्वामी 'भावमुनि' होते हैं। इसके अतिरिक्त, सब के अन्त में रखने का यह भी कारण है , a कि केवलज्ञान सभी ज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ |1|| (हरिभद्रीय वृत्तिः) a. साम्प्रतं यथोद्देशं निर्देशः' इति न्यायाद्ज्ञानपञ्चकादावुद्दिष्टस्य आभिनिबोधकज्ञानस्य " * स्वरूपमभिधीयते- तच्चाभिनिबोधिकज्ञानं द्विधा, श्रुतनिश्रितमश्रुतनिश्रितं च। यत्पूर्वमेव 9 * कृतश्रुतोपकारं इदानीं पुनस्तदनपेक्षमेवानुप्रवर्तते तद् अवग्रहादिलक्षणं श्रुतनिश्रितमिति।यत्पुनः / * पूर्व तदपरिकर्मितमतेः क्षयोपशम-पटीयस्त्वात् औत्पत्तिक्यादिलक्षणम् उपजायते, . तदश्रुतनिश्रितमिति। (वृत्ति-हिन्दी-) अब, 'उद्देश (नाम-निर्देश) के बाद निर्देश (स्वरूप-निरूपण) करना , चाहिए -इस नियम के अनुरूप, ज्ञान-पंचक आदि में उद्दिष्ट (नाम से कथित) आभिनिबोधिक &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& (r)(r)(r)(r)(r)(r)R@@@@@@@ 39 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sacace caceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 902099 90 900ज्ञान के स्वरूप का कथन किया जा रहा है। वह आभिनिबोधिक ज्ञान दो प्रकार का हैंc& श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित / जो श्रुतज्ञान से पहले उपकृत (परिकर्मित, संस्कारित) होकर " & अब पुनः उस (श्रुत ज्ञान) की अपेक्षा नहीं रखते हुए अनुप्रवृत्त होता है, वह अवग्रह आदि , स्वरूप वाला 'श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान' होता है। जो पूर्व में श्रुत से संस्कारित नहीं / हुआ है, किन्तु क्षयोपशम की अत्यन्त पटुता के कारण औत्पत्तिकी (वैनयिकी, कर्मिकी व ce पारिणामिकी बुद्धि) आदि रूप से जो (बुद्धिचतुष्टयात्मक) ज्ञान उत्पन्न होता है, वह 'अश्रुतनिश्रित' ce (आभिनिबोधिक) ज्ञान है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___ आह- "तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला" [त्रिवर्गसूत्रार्यगृहीतपेयाला] इति वचनात् . तत्रापि किञ्चित् श्रुतोपकारादेव जायते, तत्कथमश्रुतनिश्रितमिति। उच्यते, अवग्रहादीनां c. श्रुतनिश्रिताभिधानाद् औत्पत्तिक्यादिचतुष्ट ये ऽपि च अवग्र हादिसद्भावात् ce यथायोगमश्रुतनिश्रितत्वमवसेयम्, न तु सर्वमेवेति। ___ अयमत्र भावार्थः-श्रुतकृतोपकारनिरपेक्ष यदौत्पत्तिक्यादि तदश्रुतनिश्रितम्, प्रातिभमिति , c. हृदयम्, वैनयिकीं विहायेत्यर्थः।बुद्धिसाम्याच्च तस्या अपि निर्युक्तौ उपन्यासोऽविरुद्ध इत्यलं " प्रसङ्गेन। (वृत्ति-हिन्दी-) यहां शंकाकार ने प्रश्न किया- 'त्रिवर्ग के सूत्र व अर्थ का सार " व (पेयाल) ग्रहण करने वाली' (वैनयिकी बुद्धि होती है) -इस (नन्दीसूत्र-3/38) वचन से 1 & उनमें भी कुछ न कुछ श्रुतं-संस्कार रहता ही है (यह सूचित होता है), तब फिर उसे " & (बुद्धिचुष्टय को) 'अश्रुतनिश्रित' कैसे कहा? उत्तर दे रहे हैं- अवग्रह आदि को श्रुतनिश्रित , कहा गया है और औत्पतिकी आदि बुद्धियों में भी अवग्रह आदि का सद्भाव रहता है, . 68 इसलिए 'समस्त बुद्धियां अश्रुतनिश्रित ही हैं' -ऐसा नहीं मान लेना चाहिए, और इनकी & अश्रुतनिश्रितता को यथोचित रूप में (अर्थात् स्वल्पश्रुतनिश्रित, या प्रायिक अर्थात् कभी-कभी , c& अश्रुतनिश्रित होने वाली -इस रूप में) ही ग्रहण करना चाहिए। ____इसका तात्पर्य यह है- पूर्व में श्रुत-परिकर्मित, श्रुत-संस्कारित, किन्तु वर्तमान में है & उससे निरपेक्ष जो औत्पत्तिकी आदि बुद्धियां हैं, वे अश्रुत-निश्रित हैं, अर्थात् सभी प्रातिभ ज्ञान " अश्रुतनिश्रित है, किन्तु वैनयिकी को छोड़ कर (क्योंकि वह तो श्रुतनिश्रित ही है)। (मात्र), - 40 8888888880888080888 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IRRRRRRR ෆ ෆ ෆ ෆ ෆ ෆ --------- - 333333333333333333333333333333333333333333332 नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) बुद्धि-साम्य के आधार पर (अर्थात् वैनयिकी भी चार बुद्धियों में से एक है, इस दृष्टि से) ca नियुक्तिकार ने उसका भी 'अश्रुतनिश्रित' में ग्रहण कर दिया है, अतः उनका वैसा करना , (भी) अविरुद्ध है (संगत हो जाता है)। अब इस सम्बन्ध में अधिक कहने की अपेक्षा नहीं , & रह जाती है॥1॥ & विशेषार्थ प्रस्तुत गाथा में आभिनिबोधिकज्ञान के दो प्रकार बतलाए गए हैं- 1. श्रुतनिश्रित और 2. .. अश्रुतनिश्रित / इन्द्रियों से वस्तु का निर्विकल्प बोध अथवा दर्शन होता है। वह परोपदेश से सविकल्प या साकार बनता है। उदाहरणार्थ- एक बालक आंख से पुस्तक को देखता है। उसके रंग और " ca आकार को जान लेता है। इसके अतिरिक्त उस पुस्तक के बारे में अन्य कुछ भी नहीं जानता / माता- 1 ca पिता अथवा शिक्षक से उसके विषय में उसे अन्य जानकारी मिलती है। यह मानस ज्ञान ही श्रुत है। " इस प्रक्रिया के आधार पर श्रुत को मतिपूर्वक कहा गया है। इन्द्रियजन्य बोध -अर्थात् यह इस रंग, B रूप और आकार वाली कोई वस्तु है- इतना ज्ञान मतिज्ञान है। इसके पश्चात् परोपदेश से होने वाला , ज्ञान श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान से जिस वासना या संस्कार का निर्माण होता है, वह भविष्य के ज्ञान का 20 व स्थायी आधार बनता है। भविष्य में यह उस पुस्तक को समग्रता से जान लेता है। उस समय किसी 9 के उपदेश की अपेक्षा नहीं होती। इस प्रक्रिया के दो अंग हैं- वह पुस्तक को देखकर समग्रता से जान , लेता है, यह मतिज्ञान है। उसकी मति पहले श्रुत से परिकर्मित अथवा संस्कारित है- इसलिए यह 0 विशुद्ध मतिज्ञान नहीं है। इन दोनों अंगों की संयोजना से एक तीसरे तत्त्व का निर्माण हुआ है, वह है & है श्रुतनिश्रित मतिज्ञान अथवा श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिकज्ञान। 4. आ. हरिभद्र के अनुसार श्रुतनिश्रित मतिज्ञान 'पूर्व में श्रुत-संस्कारित' मति वाले के होता है, . किन्तु वर्तमान में वह श्रुत-निरपेक्ष होता है। विचारने पर श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान उभयात्मक प्रतीत होता है। इन्द्रियजन्य होने के कारण वह आभिनिबोधिक है तथा श्रुतपरिकर्मित अथवा श्रुत से 20 व संस्कारित होने के कारण वह श्रुतज्ञान है। इस प्रक्रिया में वह न केवल आभिनिबोधिक है और न " केवल श्रुतज्ञान / इसलिए इसका नाम श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिकज्ञान रखा गया है। यहां तथाविध , क्षयोपशम से उत्पन्न आभिनिबोधिक को अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिकज्ञान कहा गया है। निष्कर्ष यह है है कि जिस आभिनिबोधिकज्ञान की उत्पत्ति में द्रव्यश्रुत व भावश्रुत की अपेक्षा नहीं रहती, वह // ca अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिकज्ञान है। उसके चार प्रकार हैं- 1. औत्पत्तिकी 2. वैनयिकी 3. कार्मिकी 4. पारिणामिकी। ये चार विशिष्ट बुद्धियां हैं। औत्पत्तिकी बुद्धि इन्द्रियातीत और शब्दातीत चेतना का विकास है। इसलिए इसकी - @RecRO BRBRBRBRB CR@@m@CR898 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& 41 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 -acca caca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000उत्पत्ति में किसी इन्द्रिय अथवा शब्द का योग नहीं होता। इस अर्थ की अभिव्यक्ति अदृष्ट, अश्रुत और अवेदित शब्द से होती है। जो स्वयं अदृष्ट है, या जिसे कभी सुना नहीं है, या जिसके बारे में कभी चिंतन नहीं किया, उस अर्थ का तत्काल यथार्थ रूप में ग्रहण करने की क्षमता जिससे होती है, उस र बुद्धि का नाम है- औत्पत्तिकी। ज्ञान और ज्ञानी के प्रति जो प्रकृष्ट विनय होता है, उससे उत्पन्न बुद्धि / & वैनयिकी बुद्धि होती है। किसी एक कार्य में मन का अभिनिवेश हो जाता है। उस अभिनिवेश के 2 & कारण कार्य की सफलता हो जाती है। यह कर्मजा बुद्धि का फल है। यह बुद्धि कार्य में गहरी एकाग्रता 4 और अभ्यास से उत्पन्न होती है। अवस्था के परिपाक से होने वाली बुद्धि पारिणामिकी है। (इन सब ca को विस्तार से जानने हेतु नन्दीसूत्र देखें) औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों के धारक महापुरुषों के कई आख्यान आगमों की व्याख्याओं में विस्तार से दिये गये हैं। इन्होंने अपनी सूझबूझ से अनेक कठिन परिस्थितियों में मार्गदर्शक का काम किया है। ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों में राजा, मंत्री, न्यायाधीश, & संत-महात्मा आदि का उल्लेख हमें इन प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं। यहां वैनयिकी की व्याख्या के प्रसंग में एक प्रश्न उपस्थित हुआ है कि वैनयिकी बुद्धि वाला ca त्रिवर्ग के सूत्र और अर्थ का सार ग्रहण करता है। इससे इसके अश्रुतनिश्रित होने का विरोध स्पष्ट है, . है क्योंकि श्रुतनिश्रित हुए बिना सूत्रार्थ-सार का ग्रहण कैसे सम्भव है? किन्तु नन्दी सूत्र में इसे , अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के अन्तर्गत माना गया है। इस विरोध का परिहार क्या है? इस प्रश्न के उत्तर 4 में हरिभद्रसूरि के कथन का तात्पर्य है-अश्रुतनिश्रित होना प्रायिक (कभी-कभी घटित होने वाला) है, c& उसके स्वल्पश्रुतनिश्रित होने में कोई दोष नहीं है। मात्र बुद्धि-साम्य के आधार पर इसे अन्य बुद्धियों- जो अश्रुत-निश्रित हैं- के साथ उल्लिखित कर दिया गया है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तत्र श्रुतनिश्रितमतिज्ञानस्वरूपप्रदर्शनायाह (नियुक्तिः) उग्गह ईहाऽवाओ य धारणा एव हुँति चत्तारि। आभिणिबोहियनाणस्स भेयवत्थूसमासेणंIR // [संस्कृतच्छाया-अवग्रहः ईहाऽपायश्च धारणैव भवन्ति चत्वारि आभिनिबोधिकज्ञानस्य भेदवस्तूनि समासेन.] (वृत्ति-हिन्दी-) उक्त दोनों भेदों में श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के स्वरूप को बताने के लिए " नियुक्तिकार कह रहे हैं- . -88888888888888888888888 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Receman Rece नियुक्ति गाथा-2 9 9 9 9 9 9 90 9 RDER (2) 222232222222222222222222222222222222233333333 (नियुक्ति-अर्थ-) संक्षेप में, आभिनिबोधिक ज्ञान के अवग्रह, ईहा, अपाय (अवाय) : 4 और धारणा -इस प्रकार से (इसी क्रम से) चार ही भेदात्मक वस्तु (अर्थात् परस्पर भिन्नता " * रखने वाले और वस्तुरूप प्रकार) होते हैं // 2 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) तत्र सामान्यार्थस्याशेषविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहणम् अवग्रहः, . a तदर्थविशेषालोचनम् ईहा, तथा प्रक्रान्तार्थविशेषनिश्चयोऽवायः। चशब्दः पृथक् पृथक् अवग्रहादिस्वरूप-स्वातन्त्र्यप्रदर्शनार्यः।अवग्रहादीनाम् ईहादयः पर्याया न भवन्तीत्युक्तं भवति। " 4 अवगतार्थविशेषधरणं धारणा।एवकारः क्रमप्रदर्शनार्थः। एव' अनेनैव क्रमेण भवन्ति, चत्वारि, . आभिनिबोधिकज्ञानस्य। भिद्यन्त इति भेदा विकल्पा अंशा इत्यनर्थान्तरम्, त एव वस्तूनि , भेदवस्तूनि / कथम्?, यतो नानवगृहीतमीहते, न चानीहितमवगम्यते, न चानवगतं धार्यत इति।अथवा काक्वा नीयते-एवं भवन्ति चत्वार्याभिनिबोधिकज्ञानस्य भेदवस्तूनि?, 'समासेन', संक्षेपेण अविशिष्टावग्रहादिभावस्वरूपापेक्षया, न तु विस्तरत इति।विस्तरतोऽष्टाविंशतिव भेदभिन्नत्वात्तस्येति गाथार्थः। // (वृत्ति-हिन्दी-) (इन चारों में) समस्त विशेषों (भेदों) की अपेक्षा से रहित एवं : a अनिर्देश्य 'सामान्य' अर्थ के अवग्रहण को 'अवग्रह' कहते हैं। (तदनन्तर) उस अवगृहीत व सामान्य पदार्थ के विशेषों के सम्बन्ध में जो आलोचन (विचार-विमर्श, आन्तरिक) होता है, वह 'ईहा' है। उसके बाद, (ईहित) पदार्थ के विशेषों का निश्चय हो जाना 'अपाय' है। (गाथा : 4 में प्रयुक्त) 'च' पद अवग्रह आदि के पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र स्वरूप को सूचित करता है। तात्पर्य यह है कि अवग्रह आदि के ईहा आदि (परस्पर) पर्याय नहीं हैं। अवगत (अर्थात् , निश्चित किये गये) पदार्थ-विशेषों की धृति (धारण- पुनः स्मृति हेतु सुरक्षित रखना) 'धारणा' / . है। यहां 'एव' पद क्रम (के औचित्य) को प्रदर्शित करता है। एव=ही, इस क्रम से ही, अर्थात् // a आभिनिबोधिक ज्ञान के ये चारों भेद (इस) क्रम से ही, होते हैं। जो भिन्न हो जाएं, वे 'भेद' , होते हैं, विकल्प व अंश भेद के ही पर्याय हैं। वे (भेद) ही 'वस्तु' (तात्त्विक स्थितिवाले, न कि ? कोरे काल्पनिक, अपितु यथार्थ) होते हैं। (प्रश्न-) इनका यही क्रम होता है- यह कैसे? . / (उत्तर दे रहे हैं-) चूंकि बिना अवग्रह हुए वस्तु ईहा-विषय नहीं होती, और बिना ईहित हुए / BBCReech@888888888808 43 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब 22 RED ca ca CE CR NE CROR श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 20 20 20 20 20 900 कोई वस्तु 'अवगत' (निर्णीत, अपायात्मक) नहीं होती, और बिना 'अवगत' हुए धारणा नहीं। होती। अथवा यहां 'काकु' (प्रश्नादि वाचक स्वर के माध्यम से भिन्नार्थ के संकेत की / ॐ पद्धति) के माध्यम से उक्त कथन ग्राह्य है। ‘काकु' से उक्त कथन का तात्पर्य इस प्रकार : होगा- आभिनिबोधिक ज्ञान के क्या ये ही चार भेद हैं? इसका उत्तर है- संक्षेप में ही हैं, .. भेदरहित (अर्थात् भेदोपभेदों की सूक्ष्मता या विस्तार में न जाकर) अवग्रह आदि के भावों के .. & स्वरूप को ध्यान में रखकर ये चार भेद किये गए हैं, विस्तार से नहीं, क्योंकि विस्तार से तो 1 cइस (मति ज्ञान) के अट्ठाईस भेद होते हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 2 // विशेषार्थ ___ प्रस्तुत गाथा नन्दी सूत्र में भी (सं. 66) आई है। इस में श्रुतनिश्रित के चार प्रकार बताए गये / र हैं- अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा / इन्द्रिय और अर्थ का उचित देश में अवस्थान होने पर अर्थ ce का ग्रहण होता है। ग्रहण की प्रक्रिया इस प्रकार है 1. इन्द्रिय और अर्थ का उचित देश में अवस्थान। 2. दर्शन- पदार्थ की सत्ता मात्र का निराकार ग्रहण। 3. व्यअनावग्रह- इन्द्रिय और अर्थ के संबंध का ज्ञान / यहां वस्तु का अव्यक्त ज्ञान होता है। 4. अर्थावग्रह- अर्थ का ग्रहण अथवा ज्ञान, जैसे- मैंने कुछ देखा है। व्यंजनावग्रह की * अपेक्षा यह ज्ञान अधिक व्यक्त होता है, किन्तु उसे नाम आदि से निर्देश करना सम्भव नहीं होता। 5. ईहा- पर्यालोचनात्मक ज्ञान, जैसे- यह घट होना चाहिए। 6. अवाय- निर्णय, यह घट ही है। 7. धारणा- अविच्युति, घट के ज्ञान का संस्कार रूप में बदल जाना। . (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीमनन्तरोपन्यस्तानामवग्रहादीनां स्वरूपप्रतिपिपादयिषयेदमाह नियुक्तिः) अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं तह वियालणं ईहं। ववसायंच अवार्यधरणंपुण यधारणं बिंति॥३॥ [संस्कृतच्छायाः- अर्थानाम् अवग्रहणम्, अवग्रहम्, तथा विचारणम् ईहाम् / व्यवसायम् अपायम् घरणं च धारणां विदन्ति // ] (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@@ - 3333333333333333333333333333 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRRRR හ හ හ හ හ හ හ හ හ . .223222223322323222332223333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-3 (वृत्ति-हिन्दी-) इन (दो प्रकार के मति ज्ञानों) में श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट करने हेतु नियुक्तिकार कह रहे हैं (3) (नियुक्ति-अर्थ-) अर्थों के अवग्रहण को 'अवग्रह', अर्थों के पर्यालोचन को 'ईहा', ca अर्थों के निर्णयात्मक ज्ञान को 'अवाय' और उसके धारण को 'धारणा' कहते हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तत्र अर्यन्ते इत्यर्थाः, अर्यन्ते गम्यन्ते परिच्छिद्यन्त इतियावत्।ते च रूपादयः, तेषां / अर्थानाम्, प्रथमं दर्शनानन्तरं ग्रहणम् अवग्रहणम् अवग्रहं ब्रुवत इतियोगः। आह- वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकतयाऽविशिष्टत्वात् किमिति प्रथमं दर्शनं न * ज्ञानमिति।उच्यते, तस्य प्रबलावरणत्वात्, दर्शनस्य चाल्पावरणत्वादिति। सच द्विधा-व्यञ्जनावग्रहोऽर्थावग्रहश्च, तत्र व्यञ्जनावग्रहपूर्वकत्वादविग्रहस्य प्रथमं " & व्यञ्जनावग्रहः प्रतिपाद्यत इति। (वृत्ति-हिन्दी-) जो प्राप्त किये जाएं, अर्थात् जाने जाएं, वे 'अर्थ' होते हैं, जैसे रूप o आदि। उन अर्थों का प्रथम 'दर्शन' होने के बाद उनका ग्रहण -या अवग्रहण होता है, वह 'अवग्रह', 'कहा जाता है' इसका योग यहां किया जाता है। यहां किसी ने शंका की- वस्तु तो सामान्य-विशेषात्मक होती है, अतः वह अविशिष्ट है- उसमें सामान्य या विशेष -इस प्रकार भेद नहीं है, तब प्रथमतया 'दर्शन' ही क्यों कहते र हैं, ज्ञान क्यों नहीं? उत्तर दे रहे हैं- ज्ञान का आवरण प्रबल है, किन्तु दर्शन का आवरण 4 अल्प होता है, इसलिए (प्रथमतः 'दर्शन' होता है, ज्ञान नहीं)। वह अवग्रह दो प्रकार का है- व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह / इनमें व्यञ्जनावग्रह4 पूर्वक ही अर्थावग्रह होता है- इसलिए पहले व्यञ्जनावग्रह का प्रतिपादन किया गया है। -444744 88888888888888888888888888888888888888 8888888888888900908Rene 45 / Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 cacacancace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2020 20 99900(हरिभद्रीय वृत्तिः) & तत्र व्यञ्जनावग्रह इति कः शब्दार्थः?, उच्यते, व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति / व्यञ्जनम्, तच्च उपकरणेन्द्रियं शब्दादिपरिणतद्रव्यसंघातो वा, ततश्च व्यञ्जनेन उपकरणेन्द्रियेण , शब्दादिपरिणतद्रव्याणां च व्यञ्जनानां अवग्रहो व्यञ्जनावग्रह इति। अयं च नयनमनोवर्जेन्द्रियाणामवसेय इति।न तु नयनमनसोः, अप्राप्तकारित्वात्।अप्राप्तकारित्वं चानयोः “पुढे सुणेइ सदंरूवं पुण पासई अपुढेतु" इत्यत्र वक्ष्यामः।तथा च व्यञ्जनावग्रहचरमसमयोपात्तशब्दाद्यर्थावग्रहणलक्षणोऽर्थावग्रहः, सामान्यमात्रानिर्देश्य-ग्रहणमेकसामयिकमिति " भावार्थः। तथा' इत्यानन्तर्ये 'विचारणम्' पर्यालोचनम् अर्थानामित्यनुवर्त्तते, ईहनमीहा ताम्, 7 बुवत इति सम्बन्धः। ca (वृत्ति-हिन्दी-) इन (दोनों) में 'व्यञ्जनावग्रह' का शाब्दिक अर्थ क्या है? बता रहे हैंजिस प्रकार दीपक से घड़े की अभिव्यक्ति होती है, उस प्रकार जिससे पदार्थ की अभिव्यक्ति , होती है, उसे 'व्यञ्जन' कहते हैं। (ज्ञान की) उपकरण इन्द्रियां 'व्यञ्जन' हैं, अथवा शब्द आदि रूप में परिणत द्रव्य-समूह (भी) 'व्यञ्जन' हैं। इस प्रकार 'व्यञ्जन' रूप उपकरण-इन्द्रिय ce द्वारा शब्द आदि परिणत द्रव्य रूप 'व्यञ्जनों' का (प्रथम) अवग्रहण (ही) व्यअनावग्रह है। नेत्र और मन -इन दो को छोड़कर, अन्य इन्द्रियों से ही व्यञ्जनावग्रह का होना मानना चाहिए।" * नेत्र व मन -इन दोनों का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता, क्योंकि वे (नेत्र व मन) अप्राप्तकारी हैं। " & इनकी अप्राप्तकारिता का निरूपण 'स्पृष्टं शृणोति शब्दं रूपं पुनः पश्यति अस्पृष्टं तु' (नन्दीसूत्र- . & 3/सूत्र-69, नियुक्ति गाथा-5, विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-336) इस गाथा (के व्याख्यान) में & आगे करेंगे / और, इस व्यञ्जनावग्रह के अंतिम समय में शब्दादि अर्थ का जो अवग्रहण होता & है, वह 'अर्थावग्रह' है, वह ग्रहण वस्तु का सामान्य मात्र तथा 'अनिर्देश्य' रूप में होता है ब (अर्थात् उस समय उस पदार्थ का नाम, जाति आदि से निर्देश करना सम्भव नहीं होता) और 1 c. उसका काल-मान ‘एक समय' मात्र होता है- यह भावार्थ है। (गाथा में प्रयुक्त) 'तथा' यह 1 ca पद 'आनन्तर्य' ('पूर्वोक्त के बाद' -इस) अर्थ को व्यक्त कर रहा है। यहां वाक्य की पूर्णता , & हेतु ‘अर्थानाम्' (अर्थों के विषय में) और 'ब्रुवते (कहते हैं) -इन दो पदों की अनुवृत्ति होती " & है, फलस्वरूप पूरा वाक्य इस प्रकार निष्पन्न होगा- यहां अर्थों- पदार्थों के सम्बन्ध में जो विचारणा, पर्यालोचना होती है, उसे ईहा कहते हैं। ईहा का अर्थ है- ईहन (अर्थात् विशेषज्ञान की ओर अभिमुख होना)। - 46 @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRcm හ හ හ හ හ හ හ හ හ E :- ) 333333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-3 | विशेषार्थ यह गाथा नन्दी सूत्र (सू. 67) में भी आई है। इसमें अवग्रह आदि का स्वरूप समझाया - गया है। व्यअनावग्रह और अर्थावग्रह- 1. व्यञ्जन का एक अर्थ है- इन्द्रिय विषय / 2. इसका दूसरा " & अर्थ है- द्रव्येन्द्रिय, अर्थात् इन्द्रिय की विषय-ग्रहण में साधनभूत पौगलिक शक्ति, जिसकी संज्ञा , उपकरणेन्द्रिय है। उपकरणेन्द्रिय के साथ अर्थ का संबंध और संसर्ग होने पर अर्थ व्यक्त होता है। इसलिए यह प्रथम ग्रहण व्यअनावग्रह कहलाता है। विषय व विषयी का संयोग और दर्शन के पश्चात् अर्थ के ज्ञान की धारा शुरू होती है। व्यञ्जनावग्रह में वह अव्यक्त रहती है। इसका कालमान है असंख्य समय। व्यञ्जनावग्रह के अंतिम समय में वह पदार्थ व्यक्त हो जाता है। वह व्यक्त अवस्था & अर्थावग्रह है, जिसका कालमान एक समय है। व्यञ्जनावग्रह अर्थावग्रह कैसे बनता है- इसको & प्रतिबोधक दृष्टांत (नंदी सू. 62) व मल्लक दृष्टांत (नंदी सू. 63) के द्वारा समझाया गया है। चक्षु और 2 मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता इसलिए उसके चार प्रकार हैं। अर्थावग्रह पांच इन्द्रियों और मन का , होता है, इसलिए उसके छः प्रकार हैं। 4. प्रतिबोधक- (जगाने वाले का) दृष्टान्त का सार यह है-सोये हुए व्यक्ति को जगाने के लिए कोई दूसरा व्यक्ति आवाज देता है। वे शब्द गहरी नींद में सोये हुए व्यक्ति के कर्ण-विवर में प्रविष्ट होते हैं। किन्तु (कभी-कभी) कई देर तक वह जाग नहीं पाता। कारण यह है कि प्रथम समय से लेकर : प्रतिसमय शब्द-पुद्गल प्रविष्ट होते रहते हैं और असंख्यात समयों में (अर्थात् जघन्यतः आवलिका के असंख्येय भाग प्रमाण, और उत्कृष्टतः संख्येय आवलिका के काल-प्रमाण में, जो 2 से लेकर 9 तक & की संख्या वाला श्वासोच्छ्वास काल-प्रमाण होता है,) सुप्त व्यक्ति को शब्द-विज्ञान उत्पन्न करते हैं। & वृत्तिकार के अनुसार, चरम समय में प्रविष्ट पुद्गल ही ज्ञान के उत्पादक बनते हैं, शेष प्रविष्ट पुद्गल a इन्द्रिय-क्षयोपशम के उपकारक होते हैं। मल्लक दृष्टान्तः-सूखे मिट्टी के सकोरे (पात्र) में एक-एक बूंद डालते हैं तो वह बूंद उसमें a समा जाती है, सकोरा गीला नहीं होता, किन्तु डालते-डालते वह सकोरा गीला हो जाता है। इस " प्रकार असंख्यात समयों में प्रविष्ट होते रहने वाले जलबिन्दुओं में से अन्तिम बिन्दु उसे गीला होने की , स्थिति तक पहुंचाते हैं। यहां यह ज्ञातव्य है कि असंख्यात (या असंख्येय) समय भी कोई दीर्घ काल नहीं होता / वस्तुतः, एक बार आंखों की पलकें झपकाने जितने काल में असंख्यात समय बीत जाते हैं। -8888888888888888888888888888888888888888883 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ caca cace a cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0999999 (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___ एतदुक्तं भवति-अवग्रहादुत्तीर्णः अवायात्पूर्वं सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भूतार्थ& विशेषत्यागाभिमुखश्च 'प्रायो मधुरत्वादयः शङ्खशब्दधर्मा अत्र घटन्ते, न खरकर्कशनिष्ठुरतादयः & शार्ङ्गशब्दधर्माः' इति मतिविशेष ईहति।विशिष्टोऽवसायो व्यवसायः, निर्णयो निश्चयोऽवगम व इत्यनर्थान्तरम् / तं व्यवसायं च, अर्थानामिति वर्त्तते, अवायं बुवत इति संसर्गः। एतदुक्तं भवति-शाङ्क्ष एवायं शार्ङ्ग एव वा इत्यवधारणात्मकः प्रत्ययोऽवाय इति।चशब्द एवकारार्थः, ca स चावधारणे, व्यवसायमेवावायं ब्रुवत इति भावार्थः। (वृत्ति-हिन्दी-) तात्पर्य यह है- “अवग्रह (की स्थिति) से पार होकर, और 'अवाय' 1 होने से पहले, अर्थ के सद्भूत अर्थ के विशेष धर्मों के उपादान (ग्रहण) की ओर अभिमुख " ca होने वाला, शङ्खीय ध्वनि के 'मधुरत्व आदि जो धर्म हैं, वे प्रायः यहां घटित हो रहे हैं, शृंगी . a (वाद्य) की ध्वनि के धर्म -तीखापना, कर्कशपना व निष्ठुरपना आदि- घटित नहीं होते' - इस प्रकार जो मतिविशेष होता है, वह 'ईहा' है।' व्यवसाय का अर्थ है- विशिष्ट (विशेषों , & का) अवसाय (निर्णय)। अवसाय, निर्णय व अवगम -ये एकार्थक (पर्याय) हैं। यहां 'कहते है ल हैं (ब्रुवते) -इस की अनुवृत्ति की जानी चाहिए, अतः अर्थ होगा- पदार्थों के व्यवसाय को , ca 'अपाय' कहते हैं। तात्पर्य यह है- 'यह शब्द शंख का ही है, या शृंगी वाद्य का ही है' -इस " << प्रकार (किसी एक विशेषता की ओर झुकती हुई) अवधारणात्मक प्रतीति,को 'अवाय' कहा // ca जाता है। (गाथा में पठित) 'च' शब्द 'ही' अर्थ को, अर्थात् अवधारण को व्यक्त करता है, अतः & अर्थ होगा- व्यवसाय को ही 'अपाय' कहते हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) धृतिर्धरणम्, अर्थानामिति वर्त्तते, परिच्छिन्नस्य वस्तुनोऽविच्युतिस्मृतिवासनारूपं तद्धरणं पुनर्धारणां ब्रुवते।पुनःशब्दोऽप्येवकारार्थः, स चावधारणे, धरणमेव धारणां ब्रुवत इति, " & अनेन शास्त्रपारतन्त्र्यमाह, इत्यं तीर्थकरगणधरा ब्रुवत इति। एवं शब्दमधिकृत्य - श्रोत्रेन्द्रियनिबन्धना अवग्रहादयः प्रतिपादिताः। शेषेन्द्रियनिबन्धना अपि रूपादिगोचराः " C स्थाणुपुरुष-कुष्ठोत्पल-संभृतकरिल्लमांस-सर्पोत्पलनालादौ इत्यमेव द्रष्टव्याः।एवं मनसोऽपि स्वप्ने शब्दादिविषया अवग्रहादयोऽवसेया इति।अन्यत्र चेन्द्रियव्यापाराभावेऽभिमन्यमानस्येति।। (वृत्ति-हिन्दी-) पदार्थों की धृति, या उनके धरण को, अर्थात् ज्ञात वस्तु की अविच्युत 333333333333333333333333333333333333333333333 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& && - 48(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)R@8 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRRR नियुक्ति गाथा-3 2909200000 222222222333333333333333333333333333333333332 / स्मृति सम्बन्धी वासना रूप धरण को, 'धारणा' कहते हैं। (गाथा में, पठित) “पुनः' शब्द का ca (एव) 'ही' अर्थ है जो 'अवधारण' को सूचित कर रहा है, अतः अर्थ होगा- धरण को ही , & 'धारणा' कहते हैं। 'कहते हैं: (ब्रुवते) -इस पद से (वक्ता की) शास्त्र-परतन्त्रता सूचित की , जा रही है, अर्थात् उक्त कथन (मेरा अपना नहीं, किन्तु सर्वज्ञ) तीर्थंकर व गणधर (आदि) द्वारा निरूपित किया गया है। इस प्रकार, शाब्दिक (व्युत्पत्ति) के आधार पर श्रोत्रेन्द्रिय- 1 ब निमित्त वाले अवग्रह आदि का प्रतिपादन कर दिया गया है। शेष इन्द्रियों से होने वाले रूप , & आदि विषयों को -जैसे स्थाणु (ढूंठ वृक्ष) और पुरुष, कुष्ठ और उत्पल, संभृत करील और " a मांस, सर्प और उत्पल-नाल (कमल-नाल) आदि (की ईहा) में (अवग्रह आदि की प्रक्रिया " को) समझ लेना चाहिए। इसी प्रकार, स्वप्न में जो मन द्वारा किये जाते हैं, और स्वप्न के अलावा जब इन्द्रियव्यापार नहीं होता और मन की क्रिया प्रवृत्त होती रहती है, तब भी होने वाले, ऐसे (मानसिक) अवग्रह आदि के विषय में भी समझ लेना चाहिए। व विशेषार्थa अवग्रह के बाद 'हा' का प्रारम्भ होता है। इसमें विशेष-अर्थाभिमुखी आलोचना-पर्यालोचना प्रारम्भ होती है। साथ ही, विशेष अर्थ के अन्वय (सद्भूत) और व्यतिरेक (असद्भूत) धर्म का समालोचन, व्यतिरेक (असद्भूत) धर्म का परित्याग कर अन्वयधर्म का समालोचन भी होता है। ईहा का कार्य सम्पन्न होने पर अर्थ के स्वरूप का परिच्छेद (ज्ञान) होता है और ज्ञेय वस्तु सर्वथा / अवधारणा के योग्य बन जाती है। इसे 'अपाय' की अवस्था कहते हैं। अवाय के साथ, अवगृहीत, विषय की जो बोधात्मक प्रक्रिया प्रारम्भ हुई थी, वह सम्पन्न हो जाती है। अवधारित अर्थ का हृदय या / है मस्तिष्क में प्रतिष्ठित हो जाना 'धारणा' है। वासना व संस्कार धारणा के ही पर्याय या अंग हैं। धारणा " ही आगे चल कर स्मृति रूप में परिणत होती है। आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने विशेषावश्यक भाष्य , की (गाथा-291) में अविच्युति, वासना व स्मृति को धारणा के प्रकार के रूप में इस प्रकार निरूपित / a किया है- अपाय से निश्चित किये गये पदार्थ में, उस (अपाय) के होने से लेकर जब तक उस पदार्थ- 0 व सम्बन्धी उपयोग की निरन्तरता बनी रहती है, वह निवृत्त नहीं होती, तब तक उस पदार्थ से (अपाय- 1 ज्ञान की) जो अविच्युति है, वह धारणा का प्रथम भेद है (यह प्रथम प्रकार की धारणा है)। उसके बाद, . उस पदार्थ-सम्बन्धी उपयोग का जो आवरण (करने वाला) कर्म है, उसके क्षयोपशम से जीव सम्पन्न / होता है, जिससे कालान्तर में इन्द्रिय-व्यापार आदि सामग्री के कारण, पुनः पदार्थ-सम्बन्धी वह " उपयोग ‘स्मृति' रूप से उन्मीलित (प्रकट) हो जाता है। सम्बद्ध उपयोग के आवरण की क्षयोपशम रूप जो स्थिति है, वह 'वासना' है, यह धारणा का द्वितीय भेद है। और, कालान्तर में, वासना के - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ && &&&&&&& 332238232223333333333333333333333333333333333 -eca.cacaca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2200020 / कारण, उस अर्थ की, जो इन्द्रियों से उपलब्ध हो या उनसे अनुपलब्ध हो, मन में स्मृति आविर्भूत ca होती है, वह (धारणा का) तीसरा भेद है। स्थाणु-पुरुष आदि-अवग्रह चूंकि सामान्य मात्र का ग्राहक होता है, अतः उसमें द्वितीय वस्तु की अपेक्षा होती ही नहीं। किन्तु ईहा उभय वस्तु का अवलम्बन करती है। ईहा दो समानधर्मी , ca विषयों में से किसी एक की ओर झुकती हुई 'अपाय' को प्राप्त होती है। नेत्र इन्द्रिय दो समानधर्मी " & रूप वाले विषयों में, रसना दो समानधर्मी रस वाले विषयों में, घ्राण इन्द्रिय दो समानधर्मी गन्ध वाले , & विषयों में, श्रोत्र इन्द्रिय दो समानधर्मी शब्दों वाले विषयों में, तथा स्पर्शनेन्द्रिय दो समानधर्मी स्पर्श ca वाले विषयों में प्रवर्तित होती है। यहां यह ध्यान रखना होगा कि वस्तु तो एक ही होती है, किन्तु " & रूपादि-सादृश्य के आधार पर दूसरी असद्भूत वस्तु -जो सम्बद्ध स्थल पर नहीं होती -का ध्यान " ज्ञाता को होता है। किन्तु सदृशता के साथ-साथ उन वस्तुओं में भिन्नता के प्रतिष्ठापक धर्म होते हैं। ce ज्ञाता उन भिन्नता-प्रतिष्ठापक व्यतिरेक-धर्मों के आधार पर दो वस्तुओं में से किसी एक की ओर & निर्णयाभिमुख होता है। यह प्रक्रिया 'ईहा' का अंगभूत होती है। जैसे- थोड़ा अन्धेरा हो, धुंधली रोशनी हो सामने वृक्ष को देखकर ईहा होगी- जिज्ञासा , होगी कि यह वृक्ष है या पुरुष। चूंकि ऊंचाई, ऊपरी उभार, चौड़ाई आदि अनेक धर्मों की समानता, दोनों- वृक्ष व पुरुष में होती है। किन्तु ज्ञाता वहां कुछ ऐसे धर्म भी देखता है जो पुरुष में नहीं होते, " & वृक्ष में ही होते हैं, बाह्य परिस्थितियां भी जो वृक्ष के सद्भाव की और मनुष्य के अभाव की पोषक होती हैं, वे भी विमर्श में आती हैं। अंत में वृक्ष के सद्भाव की ओर बढ़ता हुआ जो बोध है, वह निर्णय से पूर्व की स्थिति 'ईहा' है। आचार्य हरिभद्र ने यहां समानरूपधर्मी विषयों के उदाहरण के रूप में 21 & स्थाणु (ढूंठ वृक्ष) और पुरुष (दैत्याकार भूत-प्रेत आदि) को प्रस्तुत किया है। इसी तरह कुष्ठ व उत्पल & को समांनगंधधर्मी के रूप में, संभृत करील और मांस को समान रसधर्मी, तथा सर्प व कमलनाल को समानस्पर्शधर्मी के रूप में प्रस्तुत किया है। घ्राणेन्द्रिय से होने वाले ईहादि ज्ञान के कुष्ठ व उत्पल 4 आदि की तरह 'समानगन्धधर्मी विषय' होते हैं। यहां कुष्ठ (एक वृक्ष, वनस्पति विशेष) इत्र के बाजार & में बिकने वाली कोई वस्तु होती है और उत्पल का अर्थ पद्म (कमल) है। इन दोनों की गन्ध समान होती है। जब वैसी ही गन्ध (अनुभूत) होती है, तब यह कुष्ठ है या कमल है?' -इस प्रकार की ईहा प्रवृत्त होती है। (इसी प्रकार,) संस्कारित (वंश) करील व मांस आदि समानरसधर्मी विषय होते हैं। वंशकरील- बांस का अंकुर होता है जो खाया जाता है। सुश्रुत संहिता में इसे वायु व कफ का कारक, " मधुरविपाकी, विदाही, कसैला, रूखा बताया गया है- वेणोः करीराः कफला मधुरा रसपाकतः। विदाहिनो वातकराः सकषायाः विरुक्षणाः (सुश्रुत-46/3/4)। दशवैकालिक (5/21) में इसे 'वेलुय' शब्द से अभिहित किया गया है। टीकाकारों ने इस का संस्कृत रूप वंशकरील (या बिल्व) दिया है। 50 (r)(r)ce@p@conce@@cr89828890 &&&&&&&& Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -tence Rece नियक्ति-गाथा-3 000000000 2223333 32322232222222222222222222222222222222 वहां इसे श्रमण के लिए बिना उबाले खाने का निषेध किया गया है। साफ कर उपयुक्त पदार्थों (मसाले a आदि) के मिश्रण से परिष्कृत व चटपटा बनाया हुआ वंशकरील नामक बांस की जाली वाला उक्त , खाद्य पदार्थ का और मांस का, दोनों का स्वाद एक जैसा होता है। इसलिए, अन्धकार आदि में, (इन" व दोनों में से) किसी एक को जिव्हा के अग्रभाग पर रखा जाय तो इस प्रकार ईहा होती है कि क्या यह 7 मसालेदार चटपटा वंशकरील है या मांस है?'। स्पर्शनेन्द्रिय से होने वाले ईहा आदि ज्ञान के विषय , सर्प व कमलनाल आदि की तरह 'समानस्पर्शधर्मी विषय' होते हैं। सर्प व कमलनाल -इन दोनों का स्पर्श एक जैसा होता है, इसलिए ईहा की प्रवृत्ति सुगम ही है अर्थात् 'यह सर्प है या कमलनाल?' यह ईहा होती है। मानसिक अवग्रह- इसी प्रकार, स्वप्न आदि में, इन्द्रिय-व्यापार के न होने पर भी, मन के द्वारा शब्द आदि विषयों में अवग्रह आदि होते हैं। बन्द दरवाजे वाले स्थान में, अन्धकारपूर्ण स्थान में, दीवार या परदे आदि से ढके स्थान में जहां इन्द्रिय-व्यापार का अभाव होता है. मानसिक अवग्रहादि, होते हैं। इनमें केवल मन का ही व्यापार होना माना जाता है, अर्थात् इन्द्रिय-प्रवृत्ति का प्रायः , अपेक्षाकृत अभाव होता है, अतः (उस स्थिति में भी) शब्दादि विषयों में अवग्रह, ईहा, अपाय, धारणा, ca का सदभाव होता है, जिनका (स्वरूपादि सम्बन्धी) विचार स्वयं कर लेना चाहिए। जैसे-स्वप्न आदि . a में चित्त की उत्प्रेक्षा (कल्पना) मात्र से गीत आदि शब्द सुनाई दे रहे हों तो (उक्त मनःकृत) उत्प्रेक्षा में . प्रथमतया 'सामान्य' मात्र का अवग्रह होता है, फिर 'क्या यह शब्द है या अशब्द है?' इत्यादि उत्प्रेक्षा रूप में 'ईहा' होती है। शब्द-सम्बन्धी निश्चय होने पर अपाय, और उसके बाद धारणा होती है। इसी , प्रकार, (स्वप्न में) देवता आदि के रूप दर्शन की, कर्पूर आदि पदार्थों के गन्ध-अनुभूति की, मोदक . आदि के रस-आस्वादन की, स्त्री के शरीरादि के स्पर्श-सुख की उत्प्रेक्षा होती है, तो केवल मन के अवग्रह आदि ज्ञानों का होना समझ लेना चाहिए। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) a ततश्च व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधः, तस्य नयनमनोवर्जेन्द्रियसंभवात्।अर्थावग्रहस्तु षोठा, तस्य सर्वेन्द्रियसंभवात्। एवमीहादयोऽपि प्रत्येकं षट्प्रकारा एवेति। एवं संकलिताः सर्व एव , अष्टाविंशतिर्मतिभेदा अवगन्तव्या इति। (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार व्यञ्जनावग्रह के चार भेद होते हैं, क्योंकि वह नेत्र व मन , को छोड़कर अन्य (शेष चार) इन्द्रियों से होता है। अर्थावग्रह के छः भेद हैं, क्योंकि ईहा आदि : " भी प्रत्येक (इन्द्रिय) के छः छः प्रकार होते हैं। इस तरह, सब का योग करने पर मति ज्ञान " के कुल अट्ठाईस भेद (होते हैं- ऐसा) जानना चाहिए। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 51 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rcaca cacacece श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2099 90 90900 (हरिभद्रीय वृत्तिः) अन्ये त्वेवं पठन्ति- 'अत्याणं उगहणंमि उगहो' तत्र अर्थानामवग्रहणे सति अवग्रहो , & नाम मतिभेद इत्येवं बुवते; एवं ईहादिष्वपि योज्यम्, भावार्यस्तु पूर्ववदिति।अथवा प्राकृतशैल्या , 'अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः' इति।यथाऽऽचाराने- “अगणिं च खलु पुछ एगे संघायमावजंति" इत्यत्र अग्निना च स्पृष्टाः,अथवा स्पृष्टशब्दः पतितवाची, ततश्चायमर्थः-अग्नौ च पतिता 2 / 'एके' शलभादयः 'संघातमापद्यन्ते' अन्योऽन्यगात्रसंकोचमासादयन्तीत्यर्थः, तस्माद् " अग्निसमारम्भोऽनेक-सत्त्वव्यापत्तिहेतुः इत्यतो न कार्यः, इत्यादिविचारे द्वितीया तृतीयार्थे , सप्तम्यर्थे च व्याख्यातेति। एवमत्रापि सप्तमी प्रथमार्थे द्रष्टव्येति गाथार्थः॥३॥ (वृत्ति-हिन्दी-) अन्य आचार्य तो (प्रस्तुत गाथा को) इस प्रकार पढ़ते हैं- 'अत्थाणं उग्गहणंमि उग्गहो' (तह वियारणे ईहा। ववसायंमि अवाओ, धरणंमि य धारणा बिंति।) इत्यादि। इसकी व्याख्या भी वे इस प्रकार करते हैं- पदार्थों के अवग्रहण होने पर अवग्रह 4 नाम का मति-भेद (मतिज्ञान का एक भेद) होता है (-ऐसा तीर्थकरादि कहते हैं)। इस पाठ 2 ca में भावार्थ तो पूर्ववत् ही है (शब्द भेद होने पर भी भाव-भेद नहीं है)। अथवा, प्राकृत शैली (अर्थात् प्राकृत व्याकरण-नियमों) के अनुसार अर्थ करते समय प्रयोजनवश (कुछ) विभक्यिों & का परिवर्तन भी किया जाता है। जैसे- आचारांग (1/1/4/85) में कहा गया है- “अग्नि & को स्पृष्ट कुछ (जीव) संघात को प्राप्त होते हैं। किन्तु अर्थ किया जाता हैं- अग्नि से स्पृष्ट / 44 अथवा 'स्पृष्ट' का अर्थ 'गिरे हुए' (पतित) होता है, अतः अर्थ किया जाता है- अग्नि में गिरे ca हुए शलभ (पतंगे) आदि जीव संघात यानी परस्पर शरीर-संकोच (शारीरिक रगड़ आदि) को . & प्राप्त करते हैं। इसलिए अग्नि का समारम्भ (जलाने का कार्य) नहीं करना चाहिए, क्योंकि " & वह कार्य अनेक प्राणियों की हिंसा का हेतु होता है। इत्यादि (पूर्वोक्त) अर्थ-विचार में (अग्नि & शब्द में) द्वितीया विभक्ति जो थी, उसे तृतीया अर्थ में अथवा सप्तमी अर्थ में मान कर & व्याख्यान किया गया है, उसी प्रकार प्रकृत गाथा-अर्थ में भी अवग्रह की सप्तमी विभक्ति को प्रथमा अर्थ में संयोजित करना चाहिए (अतः अर्थ होगा- जो अवग्रहण होता है, वह अवग्रह ca है, इत्यादि)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 3 // विशेषार्थ तृतीया व सप्तमी के अर्थ में द्वितीयाः प्राकृत व्याकरण के अनुसार तृतीया व सप्तमी विभक्ति के | स्थान पर द्वितीया विभक्ति भी क्वचित् होती है। आ. हेमचन्द्र ने 'सप्तम्या द्वितीया' (हेम व्याकरण, 21 (r)(r)(r)(r)RO0&cr@nece@98088808 -222382322322233333333333333333333333333333333 - / 52 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRR नियुक्ति गाथा-4 9090020209020200 137) के माध्यम से सप्तमी अर्थ में द्वितीया का भी होना स्वीकार किया है। विभक्ति परिवर्तन की ca प्रक्रिया यह सांकेतिक है, अतः अन्य परिवर्तन भी अनुमत हैं, जैसे-तृतीया के अर्थ में द्वितीया का होना। - 83333333333333333333333333333333333333333333 a (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीमभिहितस्वरूपाणामवग्रहादीनां कालप्रमाणमभिधित्सुराह (नियुक्तिः) उग्गह इक्कं समयं ईहावाया मुहुत्तमद्धं तु। कालमसंखं संखं च धारणा होइणायवा // 4 // [संस्कृतच्छायाः- अवग्रह एकं समयम् ईहा-अपायौ मुहूर्तान्तस्तु / कालमसंख्यं संख्यं च धारणा भवति ज्ञातव्या // ] . (वृत्ति-हिन्दी-) अवग्रह आदि का स्वरूप बताने के बाद, अब (नियुक्तिकार) उनका a काल-मान बता रहे हैं __(नियुक्ति-अर्थ-) अवग्रह एक समय तक रहता है, ईहा व अपाय-ये तो अर्धमुहूर्त (एक घड़ी) तक रहते हैं, और धारणा संख्येय, असंख्येय (एवं अन्तर्मुहूर्त) काल तक रहती है a -यह जानना चाहिए। ce (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र अभिहितलक्षणोऽर्थावग्रहो जघन्यो नैश्चयिकः, स खलु एकं समयं व भवतीति संबन्धः। तत्र कालः परमनिकृष्टः समयोऽभिधीयते, स च प्रवचनप्रतिपादितोत्पल« पत्रशतव्यतिभेदोदाहरणाद्जरत्पशाटिकापाटनदृष्टान्ताच्च अवसेयः।तथा सांव्यवहारिकार्थावग्रह व्यञ्जनावग्रहौ तु पृथक् पृथग् अन्तर्मुहूर्त्तमात्रं कालं भवति इति विज्ञातव्यौ / ईहा चावायश्च , ईहावायौ, प्राकृतशैल्या बहुवचनम्, उक्तं च दुव्वयणे बहुवयणं छट्ठीविहत्तीऍ भण्णइ चउत्थी। जह हत्था तह पाया, णमोऽत्यु देवाहिदेवाणं // a [द्विवचने बहुवचनम्, षष्ठीविभक्तौ भण्यते चतुर्थी।यथा हस्तौ तथा पादौ, नमोऽस्तु 7 देवाधिदेवेभ्यः॥] (r)(r)ca@nBR@@ce@@cR99280@CRO900 53 3 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ acacecaceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9200000 (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) जघन्य नैश्चयिक अर्थावग्रह का स्वरूप पहले बताया ca जा चुका है, उसका काल एक एक समय है, अर्थात् वह एक ही समय तक रहता है। यहां a काल का अर्थ है- परमसूक्ष्म समय / उसे (और उसकी सूक्ष्मता को) तीर्थंकर के प्रवचन : a (आगम) में प्रतिपादित दो दृष्टान्तों के आधार पर समझा जा सकता है। उनमें एक है उत्पलपत्रशतभेद, दूसरा है- जीर्ण साड़ी का फाड़ा जाना। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि सांव्यवहारिक अर्थावग्रह व व्यञ्जनावग्रह -ये दोनों पृथक्-पृथक् तो अन्तर्मुहूर्त काल तक व रहते हैं। ईहा और अवाय -इन दोनों का समास कर 'ईहावाया' (ईहापायौ) यह पद गाथा 4 में प्रयुक्त है। प्राकृत भाषा की शैली (व्याकरण-नियम) के अनुसार यहां द्विवचन की जगह a बहुवचन प्रयुक्त हुआ है। कहा भी है (प्राकृत भाषा में) द्विवचन में बहुवचन होता है और चतुर्थी को षष्ठी विभक्ति से कहा है 4 जाता है, जैसे दो हाथ, दो पांव (द्वौ हस्तौ, द्वौ पादौ) को प्राकृत में (बहुवचनान्त) हत्था , a (हस्ताः) पाया (पादाः) -इस प्रकार कहा जाता है। इसी तरह 'नमोऽस्तु देवाधिदेवेभ्यः' इस : चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर 'नमोऽत्यु देवाहिदेवाणं' में (नमोऽस्तु देवाधिदेवानाम् -इस . प्रकार) षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है। विशेषार्थ प्रस्तुत गाथा की व्याख्या में आचार्य हरिभद्रसूरि ने नैश्चयिक और सांव्यवहारिक अवग्रह की a चर्चा की है। अवग्रह के दो भेद हैं- जघन्य और उत्कृष्ट / इनमें जघन्य अर्थावग्रह नैश्चयिक ही कहा, जाता है और उत्कृष्ट अर्थावग्रह व्यावहारिक है। नैश्चयिक अर्थावग्रह का कालमान एक समय और सांव्यवहारिक अर्थावग्रह का समय अन्तर्मुहूर्त है। उक्त निरूपण का मूल स्रोत विशेषावयक भाष्य है। अवग्रह के बारह प्रकार बताये गए हैं। उनकी एक समय की अवस्थिति वाले अवग्रह के साथ संगति , नहीं बैठती है। इस समस्या को ध्यान में रखकर जिनभद्रगणि ने अवग्रह के नैश्चयिक और सांव्यवहारिक ये दो भेद किए हैं। अव्यक्त सामान्य मात्र ग्रहण करने वाला नैश्चयिक अवग्रह है। " अपाय के पश्चात् उत्तरोत्तर पर्याय का ज्ञान करने के लिए जो अवग्रह होता है वह सांव्यवहारिक है। उत्पलपत्रशतभेद-उत्पल कमल / शतपत्र सैकड़ों पत्ते / भेद छेदना / जिस प्रकार कमल . के सैकड़ों पत्रों को सुई से छेद करें तो एक साथ ही उन सबका छेदन हो जाता है। किन्तु वस्तुतः प्रत्येक पत्र को पृथक्-पृथक् सूई छेदती हुई जाती है। प्रत्येक पत्ते के छेदने में असंख्यात समय लगता - 54 0 0@cr@Recen@@@ce@9808808 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRERecent 9200000000 3333333333333333 नियुक्ति गाथा-4 है। यह एक दृष्टान्त है। दूसरा दृष्टान्त है- जरत्-पट्टशाटिका-पाटनः जरत् जीर्ण-शीर्ण, फटी-पुरानी। & पट्टशाटिका महीन वस्त्र साड़ी। पाटन-फाड़ना। जैसे जीर्ण-शीर्ण, महीन से महीन साड़ी को क्षण में , ही पूरा फाड़ी जा सकता है। किन्तु साड़ी के एक-एक रेशे (तन्तु) पृथक्-पृथक् समय में अलग-अलग है होते हैं। उनका समय भी सूक्ष्मतम है। प्राकृत में आ. हेमचन्द्र द्विवचनस्य बहुवचनम्' (हेमप्राकृत व्याकरण, 3/130) इस सूत्र द्वारा द्विवचन के स्थान पर बहुवचन प्रयोग करने का निर्देश दिया है। इसी प्रकार, 'चतुर्थ्याः षष्ठी' (हैम. व्याकरण- 3/131) इस सूत्र द्वारा चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी करने का विधान किया है। इसलिए 'नमः' के योग में नमस्करणीय पदार्थ से संस्कृत में सर्वत्र चतुर्थी विभक्ति होती है, किन्तु प्राकृत में षष्ठी की जाती है, इसीलिए णमो अरिहन्ताणं' आदि में 'अरिहन्त' शब्द से षष्ठी बहुवचन हुआ है। " (हरिभद्रीय वृत्तिः) तावीहावायौ मुहूर्ताध ज्ञातव्यौ भवतः। तत्र मुहूर्तशब्देन घटिकाद्वयपरिमाणः / कालोऽभिधीयते, तस्याध तु मुहूर्तार्धम्।तुशब्दो विशेषणार्यः, किं विशिनष्टि?-व्यवहारापेक्षया : एतद् मुहूर्तार्धमुक्तम्, तत्त्वतस्तु अन्तर्मुहूर्तमवसेयमिति। a (वृत्ति-हिन्दी-) वे ईहा व अपाय (अवाय) अर्धमुहूर्त तक रहने वाले हैं -ऐसा जानें। 1 यहां 'मुहूर्त' शब्द दो घड़ी काल का वाचक है, उसका अर्द्ध काल 'मुहूर्तार्द्ध' है। (गाथा में 'तु', यह शब्द विशेषण (विशेषता को बताने) हेतु प्रयुक्त है। कौन-सी विशेषता बता रहा है? (उत्तर) , * यह सूचित कर रहा है कि व्यवहार-दृष्टि से ही इसे मुहूर्तार्द्ध वाला कहा गया है, वस्तुतः तो " - इसे अन्तर्मुहूर्त रहने वाला समझना चाहिए। विशेषार्थ नन्दी सूत्र (61, सू. 35 ) नियुक्ति में ईहा, अवाय का कालमान अन्तर्मुहूर्त बताया गया है। " व प्रस्तुत गाथा में ईहा और अवाय का कालमान अर्द्धमुहूर्त बताया गया है। हरिभद्रसूरि ने नियुक्ति तथा >> a नंदी सूत्र में सामञ्जस्य स्थापित किया है। उनके अनुसार, व्यवहार की अपेक्षा ईहा और अवाय का , a कालमान अर्द्धमुहूर्त है। वस्तुतः तो अन्तर्मुहूर्त समझना चाहिए। अर्द्धमुहूर्तस्थायी भी अन्तर्मुहूर्त , : (मुहूर्त के भीतर) होता है, इसलिए अर्द्धमुहूर्त कहें या अन्तर्मुहूर्त कहें, कोई विशेष अन्तर नहीं है। " इसीलिए अन्तर्मुहूर्त के भी अनेक तारतम्य-निमित्तक भेद होते हैं। 232223222333333333332 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) ____55 1 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 099999999 - - 3333333333333333333333333333333 (हरिभद्रीय वृत्तिः) अन्ये त्वेवं पठन्ति 'मुहुत्तमन्तं तु'।मुहूर्तान्तस्तु द्वे पदे ।अयमर्थः-अन्तर्भध्यकरणे, & तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे।एतदुक्तं भवति-ईहावायौ मुहूर्तान्तः, भिन्नं मुहूर्त ज्ञातव्यौ & भवतः, अन्तर्मुहूर्तमेवेत्यर्थः। कलनं कालः,तंकालम्, न विद्यते संख्या इयन्तः पक्षमासर्वयनसंवत्सरादय इत्येवंभूता यस्यासावसंख्यः, पल्योपमादिलक्षण इत्यर्थः।तं कालमसंख्यम्, तथा संख्यायत इति संख्यः, . इयन्तः पक्षमासनयनादय इत्येवं संख्याप्रमित इत्यर्थः।तं संख्यं च, चशब्दात् अन्तर्मुहूर्त च। (वृत्ति-हिन्दी-) अन्य आचार्य तो प्रकृत गाथा (के 'मुहुत्तमद्धं') की जगह 'मुहुत्तमत्तं' -ऐसा पाठ मानते हैं। यहां मुहूर्त और अन्त -ये दो पद हैं। 'अन्त' का यहां अर्थ हैमध्यवर्ती, अन्तर्गत / अतः ‘मुहूर्तान्त' का भी अर्थ होगा- अन्तर्मुहूर्त / 'तु' पद 'एव' (ही) अर्थ है को, अर्थात् अवधारण को व्यक्त करता है। फलितार्थ होगा- ईहा व अवाय -ये भिन्न a (आंशिक, अपूर्ण) मुहूर्त तक होते हैं, अर्थात् अन्तर्मुहूर्त होते हैं। काल का अर्थ है- कलन (परिगणन)। उस 'कलन' रूप काल के अनुरूप ही है 'धारणा' का काल होता है। [जैसे, जिसका काल असंख्य है -अर्थात् जिसकी आयु असंख्यात " है, उसकी धारणा असंख्यात काल की होगी।] असंख्यात यानी जिसकी संख्या (परिगणना) 4 इतना पक्ष, इतने मास, ऋतु, अयन, संवत्सर आदि -इस रूप में संभव न हो, अर्थात् & पल्योपम आदि काल / उस (असंख्यात कलन वाले के धारणा असंख्यात काल तक होती है।) संख्य काल वह है जिसकी संख्या (परिगणना) की जा सके। -इतने पक्ष, मास, ऋतु, a अयन आदि -इस रूप में जो प्रमित यानी परिगणित की जा सके, वह संख्य (संख्यात) है। ca उस संख्यात काल वाले के धारणा संख्यात काल की होती है। गाथा में पठित 'च' शब्द से , & अन्तर्मुहूर्त काल का भी ग्रहण होता है। (अर्थात् धारणा अन्तर्मुहूर्त से लेकर, संख्यात व a असंख्यात समय तक रह सकती है।) (हरिभद्रीय वृत्तिः) धारणा अभिहितलक्षणा भवति ज्ञातव्या। अयमत्र भावार्थ:- अवायोत्तरकालं अविच्युतिरूपा- अन्तर्मुहूतं भवति, एवं " स्मृतिरूपाऽपि, वासनारूपा तुतदावरणक्षयोपशमाख्या स्मृतिधारणाया बीजभूता संख्येयवर्षायुषां / B eca@ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ 22222222222 - 56 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRRE नियुक्ति-गाथा- 5 00000009 - 323333322323333333333333333333333333333333333 / सत्त्वानां संख्येयं कालम्, असंख्येयवर्षायुषां पल्योपमादिजीविनां चासंख्येयमिति गाथार्थः // 4 // (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार धारणा को -जिसका स्वरूप बताया जा चुका हैa (कालमान की दृष्टि से) समझना चाहिए। तात्पर्य यह है- अवाय के बाद में होने वाली अविच्युतिरूप धारणा और इसी तरह , ल स्मृति रूप धारणा भी अन्तर्मुहूर्त होती है, किन्तु वासना रूप स्मृति जो स्मृति रूप धारणा का a बीज होती है और तदावरणक्षयोपशम रूप कही जाती है, वह तो संख्यात वर्ष की आयु वाले , & प्राणियों में संख्यात वर्षों तक, और पल्योपम आदि असंख्यात वर्षों की आयु वाले प्राणियों में असंख्यात वर्ष की होती है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||4|| a विशेषार्थ धारणा की प्रबलता से प्रत्यभिज्ञान एवं जातिस्मरण ज्ञान भी हो सकता है। अवाय हो जाने / पर यदि उपयोग की स्थिरता बनी रहे तो उसे अवाय नहीं, अपितु अविच्युति धारणा कहेंगे। a अविच्युति धारणा से वासना पैदा होती है। वासना जितनी दृढ़ होगी, निमित्त मिलने पर वह स्मृति को अधिकाधिक उद्बोधित करने में कारण बनेगी। इस वासना का कालमान संख्यात, असंख्यात वर्ष का बताया गया है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) इत्थमवग्रहादीनां स्वरूपमभिधाय इदानीं श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयतां प्रतिपिपादयिषुराह (नियुक्तिः) पुढे सुणेइ सदं रूवं पुण पासई अपुढे तु / गंधं रसं च फासं च बद्धपुढे वियागरे // 5 // [संस्कृतच्छायाः-स्पृष्टं शृणोति शब्दरूपं पुनः पश्यति अस्पृष्टं तु गन्धं रसंच स्पर्श च बद्धस्पृष्टं & व्याशृणीयात् / / (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, अवग्रह आदि का स्वरूप बता कर, अब नियुक्तिकार , श्रोत्र आदि इन्द्रियों की 'प्राप्तविषयता' या 'अप्राप्त-विषयता' का प्रतिपादन करने हेतु गाथा कह रहे हैं / (r)(r)(r)(r)(r)(r)caen@cR@@@ce@@ 57 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rance cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 &&&&&&&&&&& -333333333333333333333333333333332223333333223 (नियुक्ति-अर्थ-) (श्रोत्रेन्द्रिय) शब्द को स्पृष्ट सुनती है, किन्तु नेत्र इन्द्रिय रूप को , & अस्पृष्ट होकर (ही) देखती है। गन्ध, रस व स्पर्श को (घ्राण आदि इन्द्रियां) स्पृष्ट एवं बद्ध : & (आत्मसात्कृत) होकर जानती हैं- इस प्रकार व्याख्यान करना चाहिए। & (हरिद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) आह-ननु व्यञ्जनावग्रहनिरूपणाद्वारेण श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयता , प्रतिपादितैव, किमर्थं पुनरयं प्रयास इति? उच्यते, तत्र प्रक्रान्तगाथाव्याख्यानद्वारेण प्रतिपादिता। , & साम्प्रतं तु सूत्रतः प्रतिपाद्यत इत्यदोषः। तत्र 'स्पृष्टम्' इत्यालिङ्गितम्, तनौ रेणुवत्, शृणोति / गृह्णाति उपलभत इति पर्यायाः।कम्?-शब्द्यतेऽनेनेति शब्दः तं शब्दप्रायोग्यं द्रव्यसंघातम्। 1 इदमत्र हृदयम् -तस्य सूक्ष्मत्वात् भावुकत्वात् प्रचुरद्रव्यरूपत्वात्, श्रोत्रेन्द्रियस्य चान्येन्द्रियगणात्प्रायः पटुतरत्वात् स्पृष्टमात्रमेव शब्दद्रव्यनिवहं गृह्णाति।रूप्यत इति रूपम्, , ca तद्रूपंपुनः, पश्यति गृह्णति उपलभत इत्येकोऽर्थः, अस्पृष्टमनालिजितं गन्धादिवन्न संबद्धमित्यर्थः। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) (शंका-) व्यञ्जनावग्रह सम्बन्धी निरूपण के माध्यम " & से श्रोत्र आदि इन्द्रियों की प्राप्तविषयता या अप्राप्तविषयता का प्रतिपादन कर ही दिया गया है। " a [अर्थात् पिछली गाथा-3 की व्याख्या में यह बता दिया गया है कि नेत्र व मन -ये दो . & प्राप्तकारी हैं, शेष इन्द्रियां नहीं हैं।] तो फिर उसी के लिए यह प्रयास पुनः क्यों किया जा रहा , & है? उत्तर दे रहे हैं- उक्त प्रतिपादन पिछली गाथा के व्याख्यान में किया गया है इसलिए अब इस (गाथा) रूप से उसका प्रतिपादन किया जा रहा है, अतः कोई दोष नहीं है। यहां 'स्पृष्ट' a का अर्थ है- जिस प्रकार शरीर पर धूल (कण) स्पृष्ट होते हैं (शरीर के प्रत्येक प्रदेश पर छा , ल जाते हैं), उसी तरह आलिंगित (परस्पर-सम्बद्ध, आषिष्ट)। 'सुनती है' -ग्रहण करती है, & उपलब्ध करती है, ये तीनों (श्रवण, शब्द-ग्रहण, शब्द-उपलब्धि) पर्याय हैं (एक ही अर्थ को " & व्यक्त करते हैं)। किसको (श्रोत्र-इन्द्रिय) सुनती है? (उत्तर-) शब्द को, जो शब्दित होता है & उसे, अर्थात् शब्द रूप में परिणत होने की योग्यता वाले पौगलिक द्रव्य-समूह को सुनती है, , ग्रहण करती है, उपलब्ध करती है। तात्पर्य यह है- चूंकि शब्द रूप से परिणमनयोग्य द्रव्य-समूह सूक्ष्म, भावुक एवं प्रचुर द्रव्यरूप होता है, और श्रोत्रेन्द्रिय भी अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक पटु (सक्षम) होती - 58 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Racecacecacaaca 000000000 नियुक्ति गावा-5 है (इसीलिए व्यञ्जनावग्रह के बिना ही, इससे अर्थावग्रह हो जाता है), अतः छूने मात्र से ही a शब्द-द्रव्यों के पुंज का ग्रहण हो जाता है। जो रूपित होता है (अर्थात् जो मूर्त रूप में " दृष्टिगोचर होता है), वह 'रूप' होता है। उस रूप को (नेत्र) देखती है या ग्रहण करती है या , उपलब्ध करती है- एक ही बात है। किन्तु वह (दृश्य रूप, नेत्र द्वारा) अस्पृष्ट, अनालिंगित : :(ही) रहता है, अर्थात् जिस तरह गंध आदि (घ्राण आदि इन्द्रियों के साथ) सम्बद्ध होते हैं, : उस तरह नहीं (अर्थात् 'गन्ध' आदि के स्वभाव के विपरीत 'रूप' का स्वभाव है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तुशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चावधारणे, रूपं पुनः पश्यति अस्पृष्टमेव, चक्षुषः . अप्राधकारित्वादिति भावार्थः। पुनःशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि? अस्पृष्टमपि , योग्यवदेशावस्थितम्, न पुनरयोग्यदेशावस्थितम् अमरलोकादि। गन्थ्यते घायत इति गन्धस्तम्, रस्यत इति रसस्तं च, स्पृश्यत इति स्पर्शस्तं च, . चन्दौ पूरणार्यो। 'बद्धस्पृष्टम् इति बद्धमाश्लिष्ठम्, नवशरावे तोयवदात्मप्रदेशैरात्मीकृतमित्यर्थः। , स्पृष्टं पूर्ववत् प्राकृतशैल्या चेत्थमुपन्यासो 'बद्धपुढे' ति, अर्थतस्तु स्पृष्टं च बद्धं च स्पृष्टबद्धम्। , (वृत्ति-हिन्दी-गाथा में पठित 'तु' शब्द 'एव' (ही) अर्थ को व्यक्त करता है, अर्थात्, अवधारण अर्थ में यह प्रयुक्त है। अतः वाक्य का तात्पर्य यह है कि नेत्र इन्द्रिय रूप को अस्पृष्ट / ही देखती है, क्योंकि वह 'अप्राप्यकारी' है। 'पुनः' यह शब्द विशेषणपरक (विशेषता, विशेष, बात को बताने वाला) है। (प्रश्न-) वह क्या विशेषित करता है? (उत्तर-) वह यह कि नेत्र a 'अस्पृष्ट' को विषय तो करता है, किन्तु वह तभी जब वह पदार्थ योग्य देश में (नेत्र की सीमा : a में) स्थित हो, न कि (दूर, अदृश्य) देवलोक आदि में (स्थित हो)। a जो सूंघा जाय, वह गंध है। जिसका रसन (आस्वादन) किया जाय, वह रस है। -जिसे छूआ (स्पर्श किया) जाय, वह स्पर्श है। (गाथा में दो बार पठित) 'च' शब्द गाथा के . - रिक्त पदों की पूर्ति करते हैं (अर्थात् उनका और कोई प्रयोजन नहीं है, अपितु एकमात्र : प्रयोजन यह है कि गाथा में उनके बिना जो अक्षर (या मात्रा) कम पड़ रहे थे, उनकी पूर्ति , होती है। 'बद्ध-स्पृष्ट' का अर्थ है-जो बद्ध है, यानी आश्रुिष्ट है, अर्थात् नये सकोरे (मिट्टी के : पात्र) में जैसे जल अपने आत्म-प्रदेशों से आत्मभूत हो जाता है, अन्दर समा जाता है, उसी " | तरह पदार्थ त्वगिन्द्रिय से सम्बद्ध हो जाता है। 'स्पृष्ट' का अर्थ पूर्ववत् है। प्राकृत-शैली के (r)neces0c82c83c808080808 3.3333333333388888888888888888888888888888888 59 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRR श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 अनुरूप, (बद्ध व स्पृष्ट -इन दोनों शब्दों को अलग-अलग न लिख कर एक साथ) 'बद्धस्पृष्ट' ce इस रूप में रख दिया गया है। इसका तात्पर्य है- जो बद्ध है और स्पृष्ट (भी) है। (भी) है। . & [कहने का निष्कर्ष यह है कि गन्ध, रस व स्पर्श को सम्बद्ध इन्द्रियां तभी जानती हैं, जब वे ca उन (गन्ध, रस व स्पर्श) के साथ बद्ध भी हों और स्पृष्ट भी हों।] विशेषार्थ ___प्राप्तकारिता-अप्राप्तकारिता- चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता क्योंकि ये दोनों ca अप्राप्यकारी हैं। इन्द्रियां दो प्रकार की हैं- प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी। प्राप्यकारी उसे कहा जाता " है जिसका विषय-ग्रहण में पदार्थ के साथ सम्बन्ध होना अनिवार्य हो, और जिसका पदार्थ के साथ & सम्बद्ध नहीं होता उसे अप्राप्यकारी कहा जाता है। अर्थ और इन्द्रिय का संयोग व्यंजनावग्रह के लिए अपेक्षित है और संयोग के लिए प्राप्यकारिता अनिवार्य है। चक्षु और मन-ये दोनों अप्राप्यकारी हैं, अतः इनके साथ पदार्थ का संयोग नहीं होता। बिना संयोग के व्यंजनावग्रह सम्भव नहीं है। प्रश्न हो सकता है कि मन को तो अप्राप्यकारी मान सकते हैं, पर नेत्र अप्राप्यकारी किस प्रकार है? समाधान है- नेत्र स्पृष्ट अर्थ का ग्रहण नहीं करती है, इसलिए वह अप्राप्यकारी है। त्वगिन्द्रिय के समान वह ce स्पृष्ट अर्थ का ग्रहण करती होती तो वह भी प्राप्यकारी हो सकती थी, किन्तु वह स्पृष्ट होकर पदार्थ का " ca ग्रहण नहीं करती, अतः नेत्र अप्राप्यकारी है। स्पर्शन, रसन और घ्राण -ये तीन इन्द्रियां भोगी हैं तथा नेत्र और श्रोत्र -ये दो कामी हैं। ca कामी इन्द्रियों के द्वारा सिर्फ विषय जाना जाता है, उसकी अनुभूति नहीं होती। भोगी इन्द्रियों के द्वारा विषय का ज्ञान और अनुभूति दोनों होते हैं। इन्द्रियों के द्वारा हम बाहरी वस्तुओं को जानते हैं। जानने की प्रक्रिया सबकी एक-सी नहीं है। नेत्र की ज्ञान-शक्ति शेष इन्द्रियों से अधिक पटु है, इसलिए वह ce अस्पष्ट रूप को भी जान लेती है। स्पर्शन, रसन और घ्राण -ये तीन इन्द्रियां पटु, श्रोत्र पटुतर और नेत्र इन्द्रिय पटुतम होती , है। नेत्र इन्द्रिय की पटुता सर्वाधिक है, इसलिए वह अस्पृष्ट, अप्राप्त अथवा असंबद्ध विषय का भी c& ग्रहण कर लेती है। श्रोत्र इन्द्रिय पटुतर होती है, इसलिए वह स्पृष्ट अथवा प्राप्त मात्र विषय को ग्रहण 7 करती है। जैसे धूल शरीर को छूती है, वैसे ही शब्द कान को छूता है और उसका बोध हो जाता है। . c. शब्द के परमाणु-स्कन्ध सूक्ष्म, प्रचुर द्रव्य वाले तथा भावुक- उत्तरोत्तर शब्द के परमाणु स्कंधों को " वासित, प्रकम्पित करने वाले होते हैं। इसलिए उनका बोध स्पर्श मात्र से हो जाता है। स्पर्शन, रसन , C और घ्राण -ये तीन इन्द्रियां स्पृष्ट व बद्ध विषय का ही ग्रहण करती हैं। इसका हेतु यह है कि इनके ca विषयभूत परमाणु स्कन्ध अल्पद्रव्य वाले और अभावुक होते हैं। और चूंकि ये तीनों इन्द्रियां श्रोत्रेन्द्रिय " * के समान पटु नहीं होतीं, इसलिए इनका विषय पहले स्पृष्ट होता है, स्पर्श के अनन्तर वह बद्ध होता" है- आत्म-प्रदेशों के द्वारा गृहीत होता है। - 6089@ce@@@pc@DBr(r)(r)(r)cene - 223333333333333333333333333333333333333333333 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRE ඟ ග ග ග ග ග ග ග ග .. ... 22223333333333333333333333333 - नियुक्ति गाथा-5 (हरिभद्रीय वृत्तिः) - आह- यबद्धं गन्धादि तत् स्पृष्टं भवत्येव, अस्पृष्टस्य बन्धायोगात्, ततश्च // स्पृष्टशब्दोच्चारणं गतार्थत्वादनर्थकमिति।उच्यते, सर्वश्रोतृसाधारणत्वाच्छास्त्रारम्भस्यायमदोष , इति।त्रिप्रकाराश्च श्रोतारो भवन्ति-केचिद् उद्घाटितज्ञाः, केचित् मध्यमबुद्धयः, तथाऽन्ये , 4 प्रपञ्चितज्ञा इति।तत्र प्रपञ्चितज्ञानाम् अनुग्रहाय गम्यमानस्याप्यभिधानमदोषायैव।अथवा , व विशेषणसमासाङ्गीकरणाददोषः, स्पृष्टं च तद्बद्धं च स्पृष्टबद्धम्, तत्र स्पृष्टं गन्धादि विशेष्यम्, . a बद्धमिति च विशेषणम्। (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) जो भी ‘बद्ध' होता है, वह तो 'स्पृष्ट' होता ही है, क्योंकि 22 . स्पृष्ट हुए बिना बन्ध नहीं होता। इसलिए (बद्ध शब्द से ही) स्पृष्ट होने का अर्थ व्यक्त हो जाने " G के कारण स्पृष्ट शब्द का उच्चारण (प्रयोग) यहां निरर्थक ही है (अर्थात् बद्धस्पृष्ट की जगह " & 'बद्ध' इतना ही कह देना चाहिए था)। उत्तर दे रहे हैं- शास्त्र का निर्माण (या उपदेश) सभी से तरह के श्रोताओं को दृष्टि में रखकर किया जाता है, अतः उक्त दोष नहीं टिकता। क्योंकि , श्रोता तीन प्रकार के होते हैं- कुछ तो बोलते ही (तुरन्त) समझने वाले (तीव्र बुद्धि) होते हैं, . कुछ मध्यमबुद्धि वाले होते हैं, और बाकी लोग विस्तार से बताने पर समझते हैं। इनमें , विस्तार से बताने पर समझ सकने वाले लोगों पर अनुग्रह करते हुए जो (साधारणतया) , क स्पष्ट होती है, उस बात को भी कह देना कोई दोष नहीं होता। अथवा यहां 'विशेषण समास' >> a (कर्मधारय समास) को स्वीकारने से भी, दोष का अभाव (निराकरण) हो जाता है। जो स्पृष्ट . a हो और (वही) बद्ध हो (वह बद्ध-स्पृष्ट है)। यहां 'स्पृष्ट' (यह विशेषण है, उस) के विशेष्य / हैं- गन्ध आदि, 'बद्ध' पद भी उन (गन्ध) आदि का विशेषण है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह- एवमपि स्पृष्टग्रहणमतिरिच्यते, यस्माद्यबद्धं न तत्स्पृष्टत्वव्यभिचारि। : उभयपदव्यभिचारे च विशेषणविशेष्यभावो दृष्टये यथा नीलोत्पलमिति, न चेह उभयपदव्यभिचारः। , * अत्रोच्यते, नैष दोषः, यस्मादेकपदव्यभिचारेऽपि विशेषणविशेष्यभावो दृष्टः, यथा अब्दव्यं पृथिवी , द्रव्यमिति।भावना-अब् द्रव्यमेव, न द्रव्यत्वं व्यभिचरति, द्रव्यं पुनरब चानब् चेति व्यभिचारि, .. // अथ च विशेषणविशेष्यभाव इति। -333332222222222 890@ @ @cR@ @ @ @cRO9000@RO900 61 2 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33333333333333333333333333333333333333333333 -acancaceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 प्रकृतभावार्थस्त्वयम्-आलिङ्गितानन्तरमात्म-प्रदेशैरागृहीतं गन्धादि बादरत्वाद, ca अभावुकत्वात्, अल्पद्रव्यरूपत्वात्, घ्राणादीनां चापटुत्वात् गृह्णाति निश्चिनोतिघ्राणेन्द्रियादिगण . इत्येवं व्यागृणीयात् प्रतिपादयेदितियावत्। (वृत्ति-हिन्दी-) (पुनः) (शंका-) तब भी तो (कर्मधारय समास मानने पर भी), & 'स्पृष्ट' शब्द अतिरिक्त (अनपेक्षित) हो जाता है, क्योंकि जो बद्ध होता है, वह स्पृष्टत्व से , व्यभिचरित (अस्पृष्ट) नहीं हो सकता। विशेषण विशेष्य भाव वहां तो हो सकता है, जहां दोनों : CM पदों के अर्थ परस्पर व्यभिचरित हों, जैसे- 'नीलोत्पल' (नील कमल)। किन्तु 'स्पृष्टबद्ध' में ca तो वैसा उभय पद व्यभिचार नहीं है। (इस प्रकार, विशेषणविशेष्य भाव न होने से, समास ल ही नहीं हो पाएगा।) उत्तर दे रहे हैं- उक्त दोष यहां नहीं है। क्योंकि एक पद के व्यभिचार में . & भी विशेषण-विशेष्य भाव होता है। जैसे- अप्-द्रव्य (जल-द्रव्य), और पृथिवी द्रव्य / तात्पर्य - + यह है कि (अप) जल द्रव्य ही होता है, वह द्रव्यत्व से व्यभिचरित (रहित) नहीं होता, किन्तु & द्रव्य तो जल भी होता है और जल-इतर भी, इसलिए वह (द्रव्य) जल से व्यभिचरित होता है, . फिर भी वहां विशेषण-विशेष्य भाव होता है। a प्रकृत में गाथा का भावार्थ इस प्रकार है- आलिंगित (स्पृष्ट) होने के बाद, आत्मप्रदेशों से जो गंध आदि सर्वतः गृहीत होते हैं, उन्हें ही घ्राण आदि इन्द्रियां ग्रहण करती हैं, निश्चित (निर्णीत) करती हैं, क्योंकि घ्राण आदि इन्द्रियां अपेक्षाकृत 'अपटु' (कम सक्षम) होती हैं और दूसरी तरफ गंध आदि भी स्थूल, अभावुक और अल्पद्रव्यरूप होते हैं- इस & प्रकार व्याख्यान करें, प्रतिपादित करें। विशेषार्थ इन्द्रियों द्वारा किस प्रकार विषयों का ग्रहण होता है- इसका निरूपण प्रज्ञापना (5/1/190) 4 आदि में भी प्राप्त है। विशेषावश्यक भाष्य (336-339) की गाथाओं में तथा उसकी मलधारी हेमचन्द्र कृत शिष्यहिता टीका में भी इसका विस्तार से निरूपण किया गया है। प्रविष्ट, स्पृष्ट और बद्धस्पृष्ट- ये तीनों शब्द इन्द्रिय और विषय के मध्य सम्बन्ध की सामान्यता, प्रगाढ़ता व प्रगाढ़तरता को व्यक्त करते हैं। स्पृष्ट और प्रविष्ट में अन्तर यह है कि स्पर्श तो शरीर में रेत . लगने की तरह होता है, किन्तु प्रवेश मुख में कौर (यास) जाने की तरह है। इन्द्रियों द्वारा अपने-अपने उपकरण में प्रविष्ट विषयों को ग्रहण करना प्रविष्ट कहलाता है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय प्रविष्ट अर्थात् - 62 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ecaceaenance හ හ හ හ හ හ හ හ හ -- . 2323222233333333333333 नियुक्ति गाथा-5 कर्णकुहर में प्राप्त शब्दों को सुनती है, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं। नेत्र इन्द्रिय अपने में अप्रविष्ट रूप को ce ग्रहण करती है। घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय अपने-अपने उपकरण में बद्ध-प्रविष्ट विषय & को ग्रहण करती हैं। जैसे शरीर पर रेत लग जाती है, उसी तरह इन्द्रिय के साथ विषय का स्पर्श हो : तो, वह स्पृष्ट कहलाता है। स्पृष्ट का अर्थ- आत्मप्रदेशों के साथ सम्पर्कप्राप्त है, जबकि बद्ध का अर्थ है- आत्मप्रदेशों के द्वारा प्रगाढ़ संबंध को प्राप्त / विषय, स्पृष्ट तो स्पर्शमात्र से ही हो जाते हैं किन्तु बद्ध-स्पृष्ट तभी होते हैं, जब वे आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक हो जाते हैं। गृहीत होने के लिए गन्धादि ca द्रव्यों का बद्ध और स्पृष्ट होना इसलिए आवश्यक है कि वे बादर (स्थूल) हैं, अल्प हैं, वे अपने " cm समकक्ष द्रव्यों को भावित -उत्तरोत्तर द्रव्यों को वासित-प्रकम्पित नहीं करते तथा श्रोत्रेन्द्रिय की " अपेक्षा घ्राणेन्द्रिय आदि इन्द्रियां मन्दशक्ति वाली भी होती हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) . आह-भवतोक्तं योग्यदेशावस्थितमेव रूपं पश्यति, न पुनरयोग्यदेशावस्थितमिति, " * तत्र कियान् पुनश्चक्षुषो योग्यविषयः?, कियतो वा देशादागतं श्रोत्रादि शब्दादि गृह्णातीति? & उच्यते, श्रोत्रं तावच्छन्दंजघन्यतः खल्वङ्गुलासंख्येयमात्राद्देशात्, उत्कृष्टतस्तु द्वादशभ्यो योजनेभ्य इति। चक्षुरिन्द्रियमपि रूपं जघन्येनाङ्गुलसंख्येयभागमात्रावस्थितं पश्यति, उत्कृष्टतस्तु योजनशतसहसाभ्यधिकव्यवस्थितम् इति।घ्राणरसनस्पर्शनानि तु जघन्येनाङ्गुलासंख्येयc भागमात्राद्देशादागतं गन्धादिकं गृह्णन्ति, उत्कृष्टतस्तु नवभ्यो योजनेभ्य इति।आत्माङ्गुलनिष्पन्नं चेह योजनं ग्राहमिति। a. (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) आपने (अभी) कहा कि नेत्र अपने योग्य देश (देखने की शक्ति के सीमा-क्षेत्र) में स्थित रूप को ही देखती है, अयोग्य देश में स्थित रूप को नहीं है a (देखती)। तो यह बताएं कि नेत्र इन्द्रिय का 'योग्य विषय' कितना (कितनी दूरी तक का , व क्षेत्र) होता है? और (यह भी बताएं कि) श्रोत्र आदि इन्द्रियां कितने (दूरवर्ती) देश से (आगत) 4. शब्दों आदि को ग्रहण करती हैं? (उत्तर-) लो, बता रहे हैं। श्रोत्र इन्द्रिय तो कम से कम है अंगुल के असंख्येय भाग मात्र (दूर स्थित) देश से, और अधिक से अधिक बारह योजनों से , (12 योजन दूर से आए) शब्द को सुन सकती है। नेत्र इन्द्रिय कम से कम अंगुल के संख्यात भाग प्रमाण स्थित को देख सकती है। और अधिक से अधिक एक लाख योजन से (सातिरेक) कुछ अधिक दूर देश में स्थित रूप को देख सकती हैं। किन्तु घ्राण, रसना व स्पर्शन (त्वचा) -33333333333388888888888888833333333333333333 333333 322323 33.323 @@@@Re0@Reecr@@@Rene 63 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -222323232222222222222223333333333333333333333 -RRcaca cacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9009000000 / इन्द्रिय कम से कम अंगुल के असंख्यात भाग मात्र देश से आए गन्ध आदि को ग्रहण करती / है, और अधिक से अधिक नौ योजन दूर तक से आए हुए (गंध आदि) को / यहां योजन का , मान आत्मांगुल के आधार पर किया जाता है- यह जानना चाहिए। & विशेषार्थ इन्द्रियों की विषय-ग्रहण क्षमता के सम्बन्ध में प्रज्ञापना (5/1/992) में तथा विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-340) आदि में एवं उनकी व्याख्याओं में भी पर्याप्त विचार किया गया है, जिसे संक्षेप में : & वृत्तिकार ने प्रस्तुत किया है। उसे सरल शब्दों में इस प्रकार समझा जा सकता है श्रोत्रेन्द्रिय जघन्यतः आत्मांगुल के असंख्यातवें भाग दूर से आए हुए शब्दों को सुन सकती है और उत्कृष्ट 12 योजन दूर से आए हुए शब्दों को सुनती है, बशर्ते कि वे शब्द अच्छिन अर्थात् - 1 अव्यवहित हों, उनका तांता टूटना या बिखरना नहीं चाहिए। दूसरे, वायु आदि से उनकी शक्ति प्रतिहत , c& न हो गई हो, साथ ही वे शब्द-पुद्गल स्पृष्ट होने चाहिएं, अस्पृष्ट शब्दों को श्रोत्र ग्रहण नहीं कर & सकते। इसके अतिरिक्त वे शब्द-पुद्गल स्पृष्ट होने चाहिएं, अस्पृष्ट शब्दों को श्रोत्र ग्रहण नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त वे शब्द निर्वृत्तीन्द्रिय में प्रविष्ट भी होने चाहिएं। इससे अधिक दूरी से आए हुए ca शब्दों का परिणमन मन्द हो जाता है, इसलिए वे श्रवण करने योग्य नहीं रह जाते। चक्षुरिन्द्रिय जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की दूरी पर स्थित रूप को तथा उत्कृष्ट एक लाख योजन दूरी पर " स्थित रूप को देख सकती है। किन्तु वह रूप अच्छिन्न (दीवार आदि के व्यवधान से रहित), अस्पष्ट और अप्रविष्ट पुद्गलों को देख सकती है। इससे आगे के रूप को देखने की शक्ति नेत्र में नहीं है, चाहे , व्यवधान न भी हो। निष्कर्ष यह है कि श्रोत्र आदि चार इन्द्रियां प्राप्यकारी होने से जघन्य अंगुल के है ca असंख्यातवें भाग दूर के शब्द, गंध, रस और स्पर्श को ग्रहण कर सकती है, जबकि चक्षुरिन्द्रिय " 4 अप्राप्यकारी होने से जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग दूर स्थित अव्यवहित 'रूपी' द्रव्य को देखती है, . 9 इससे अधिक निकटवर्तीरूप को वह नहीं जान सकती, क्योंकि अत्यन्त सन्निकृष्ट अंजन, रज आदि को भी नहीं देख पाती। प्रकाशात्मक पदार्थों में उक्त नियम नहीं- विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-345-347) में स्पष्ट & किया है कि जो पदार्थ तैजस प्रकाश रहित हैं, जैसे पर्वत आदि, उन्हीं में यह नियम लागू होता है कि " नेत्र अधिक से अधिक (साधिक) एक लाख योजन तक ही देख सकती है। किन्तु सूर्य आदि स्वतः / प्रकाशमान पदार्थों में यह नियम प्रयुक्त नहीं है। पुष्करवरद्वीप के अर्ध भाग में जो मनुष्योत्तर पर्वत से लगा हुआ है, कर्क संक्रान्ति के समय वहां के लोग-(अधिक) इक्कीस लाख योजन दूरी पर स्थित - 64 (r) (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)cenece@080868609 (r)cal Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRRce 333333333333333333333333333333333333332233333 नियुक्ति गाथा-5 ගහ හ හ හ හ හ හහ සාහ කර सूर्य-को भी प्रत्यक्ष देखते हैं। ऐसा शास्त्रों में कहा भी गया है। आज भी हम सूर्य को लाखों योजनों ce से परे होने पर भी देख सकते हैं। अंगुल का माप तीन प्रकार का है- (1) आत्मांगुल (2) उत्सेधांगुल, और प्रमाणांगुल। " M इनका क्रमशः निरूपण इस प्रकार है आत्मांगुल- अपने अंगुल के द्वारा नापने पर अपने शरीर की ऊंचाई 105 अंगुल प्रमाण है होती है। वह अंगुल उसका आत्मांगुल कहलाता है। इस अंगुल का प्रमाण सर्वदा एकसा नहीं रहता, है, क्योंकि काल भेद से मनुष्यों के शरीर की ऊंचाई घटती-बढ़ती रहती है। उत्सेधांगुल- परमाणु दो प्रकार का होता है- एक निश्चय परमाणु और दूसरा व्यवहार , & परमाणु / अनन्त निश्चय परमाणुओं का एक व्यवहार परमाणु होता है। यद्यपि वह व्यवहार परमाणु वास्तव में स्कन्ध है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से उसे परमाणु कह दिया जाता है, क्योंकि वह इतना , सूक्ष्म होता है कि तीक्ष्ण-से-तीक्ष्ण शस्त्र के द्वारा भी इसका छेद-भेदन नहीं हो सकता है, फिर भी माप के लिए इसको मूल कारण माना गया है। जो इस प्रकार है- अनन्त व्यवहार परमाणुओं की cw एक उत्सूक्ष्ष्य-शुक्षिणका और आठ उत्भूक्ष्ण-शुक्षिणका की एक शुक्ष्ण-भूक्षिणका होती है। आठ शुक्ष्ण- 4 श्रुदिणका का एक ऊर्ध्वरेणु, आठ ऊर्ध्वरेणु का एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु, आठ रथरेणु . का देवकुरु व उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्य का एक केशाग्र, उन आठ केशायों का एक हरिवर्ष व रम्यक व क्षेत्र के मनुष्य का केशाय, उन आठ केशायों का एक पूर्वापर विदेह के मनुष्य का केशान, उन आठ c. केशानों का एक भरत व ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों का केशान, उन आठ केशागों की एक लीख, आठ n & लीख की एक यूका (जू), आठ यूका का एक यव का मध्य भाग और आठ यवमध्य का एक . G उत्सेधांगुल होता है। छह उत्सेधांगुल का एक पाद, दो पाद की एक वितस्ति, दो वितस्ति का एक हाथ, / चार हाथ का एक धनुष, दो हजार धनुष का एक गव्यूत और चार गव्यूत का एक योजन होता है। प्रमाणांगुल- प्रमाणांगुल की लम्बाई उत्सेधांगुल से 400 गुना ज्यादा होती है। उसकी व चौड़ाई उत्सेधांगुल से अढ़ाई गुना अधिक होती है। 400 को अढ़ाई से गुणा करने पर यह 1000 होता है है, अर्थात् बाहल्य की दृष्टि से उत्सेधांगुल से प्रमाणांगुल एक हजार गुना बड़ा माना गया है। " प्रमाणांगुल से द्वीप, समुद्र, लोक, आदि की लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई व परिधि आदि को मापा जाता है। उत्सेधांगुल से नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य व देवों के शरीर की अवगाहना का मान बताया जाता है। आत्मांगुल से समकालिक कूप, तालाब, नदी, उद्यान, रथ, यान आदि मापे जाते हैं। 1 (विस्तार हेतु द्र. अनुयोग द्वार, नवम प्रकरण तथा विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-340-344 एवं शिष्यहिता टीका)। Sece8c008RoRecen8086@ne Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222222222222222222222222232322 - cacacacacacaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 90900900900(हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-उक्तप्रमाणं विषयमुलक्य कस्माचक्षुरादीनि रूपादिकमर्थन गृह्णन्तीति? उच्यते, " सामर्थ्याभावात्, द्वादशभ्यो नवभ्यश्च योजनेभ्यः परतः समागतानां शब्दादिद्रव्याणां तथाविधपरिणामाभावाच ।मनसस्तुन क्षेत्रतो विषयपरिमाणमस्ति, पुद्गलमात्रनिबन्धनाभावात्, इह यत् पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं न भवति, न तस्य विषयपरिमाणमस्ति, यथा केवलज्ञानस्य। त यस्य च विषयपरिमाणमस्ति, तत्पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं दृष्टम्, यथाऽऽवधिज्ञानं & मनःपर्यायज्ञानं वेति गाथासमासार्थः // c. (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) क्या कारण है कि नेत्र आदि इन्द्रियां विषय-योग्य देश से सम्बन्धित पूर्वोक्त प्रमाण (सीमा-मान) का उल्लंघन कर रूप आदि अर्थ को ग्रहण नहीं कर " a पातीं? उत्तर दे रहे हैं- (एक तो), उन इन्द्रियों की वैसी सामर्थ्य नहीं होती, दूसरे, बारह या " & नौ योजनों से परे (दूर) स्थित किसी स्थान से आए हुए शब्द आदि द्रव्यों का (इन्द्रिय-ज्ञेय , होने का) वैसा परिणाम नहीं होता। किन्तु मन का क्षेत्र-सम्बन्धी विषय-गत परिमाण (मर्यादित क्षेत्र) नहीं होता, क्योंकि वह (विषय की दृष्टि से) मात्र पुद्गल (मूर्त वस्तु) तक ही , सम्बद्ध-सीमित नहीं है। जिस भी किसी (ज्ञान-साधन) का, मात्र पुद्गल से सम्बद्ध होना, नियत-सीमित नहीं होता, उसका विषय-परिमाण (परिमित-सीमित विषय) नहीं होता, जैसे , ca केवल ज्ञान (इसका विषय अपरिमित है, मूर्त ही नहीं, अपितु अमूर्त द्रव्य भी उसके विषय " क होते हैं, अतः उसके क्षेत्रादि की मर्यादा नहीं होती ) जिसका विषय-परिमाण होता है (अर्थात् " जो भी सीमित विषय वाला होता है), वह मात्र पौद्गलिक सम्बन्ध तक नियत (सीमित) होता है, जैसे- अवधिज्ञान या मनःपर्याय ज्ञान (क्योंकि ये पौद्गलिक द्रव्य को ही विषय , करने वाले होते हैं, अतः उनका ज्ञान मर्यादित होता है)। यहां तक गाथा का संक्षिप्त अर्थ हुआ। (हरिभद्रीय वृत्तिः) साम्प्रतं यदुक्तमासीत् यथा “नयनमनसोरप्राप्तकारित्वं 'पुढे सुणेइ सई' इत्यत्र वक्ष्यामः", तदुच्यते / नयनं योग्यदेशावस्थिताप्राप्तविषयपरिच्छेदकम्, प्राप्तिनिबन्धनतत्कृतानुग्रहोपघातशून्यत्वात्, मनोवत्, स्पर्शनेन्द्रियं विपक्ष इति। आह-जलघृतवनस्पत्यालोकनेष्वनुग्रहसद्भावात् सूर्याद्यालोकनेषु चोपघातसद्भावात् असिद्धो हेतुः, मनसोऽपि प्राप्तविषयपरिच्छेदकत्वात्साध्यविकलो दृष्टान्तः, तथा च लोके वक्तारो .833333333333333333333333333338888888888888883 / 6. 333333321 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@2009ne Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rececentence 2000000000 2223823333333333333333333333333333333333333331 नियुक्ति-गाथा-5 भवन्ति- “अमुत्र मे गतं मनः” इति।अत्रोच्यते, प्राप्तिनिबन्धनाख्यहेतुविशेषणार्थनिराकृतत्वाद् ca अस्याक्षेपस्येत्यदोषः। किं च-यदि हि प्राप्तिनिबन्धनौ विषयकृतावनुग्रहोपघातौ स्याताम्, एवं तर्हि अग्निशूलजलाद्यालोकनेषु दाहभेदक्लेदादयः स्युरिति।किंच-प्राप्तविषयपरिच्छेदकत्वे: सति अक्षिअञ्जनमलशलाकादिकमपि गृह्णीयात्। (वृत्ति-हिन्दी-) पहले हमने यह कहा था कि नेत्र व मन की अप्राप्यकारिता के विषय में 'स्पृष्टं शृणोति शब्दम्' -इत्यादि गाथा में आगे कहेंगें। अब उसी का निरूपण कर, रहे हैं। हमारा अनुमान वाक्य इस प्रकार है (जिससे नेत्र की अप्राप्यकारिता का समर्थन होता है)- नेत्र योग्य देश में स्थित तथा अप्राप्त (अस्पृष्ट रहती हुई) विषय को जानने वाली है, . ca क्योंकि स्पृष्ट होने के कारण, स्पृष्ट विषय की ओर से इन्द्रिय में जो अनुग्रह (अनुकूल वेदन) और उपघात (प्रतिकूल वेदन) होते हैं, वे इस (नेत्र) में नहीं होते, मन की तरह। यहां स्पर्शन इन्द्रिय विपक्ष है। (शंका-) आपके अनुमान-वाक्य में जो हेतु प्रयुक्त है, वह असिद्ध (दोष से दूषित) व है, क्योंकि जल, घृत, वनस्पति आदि को देखते रहने पर नेत्र में अनुग्रह (अनुकूल वेदन) होता है, और सूर्य आदि को देखते रहने पर उसमें उपघात (प्रतिकूल वेदन) होता है। इसके , ca अतिरिक्त, आपका दृष्टान्त (मन) भी साध्य से रहित है (अर्थात् दृष्टान्त भी दोषग्रस्त है), . क्योंकि लोक में लोग कहते (सुने जाते) हैं- मेरा मन तो यहां गया (लगा) हुआ है (अतः : मन तो प्राप्यकारी हुआ, किन्तु साध्य है अप्राप्यकारिता, जो दृष्टान्त से विरुद्ध है)। उत्तर दे / & रहे हैं। (वह यह है कि) हमने हेतु का विशेषण दिया है- स्पृष्ट होने के कारण (प्राप्तिनिबन्धनाख्य " व हेतु), अतः उक्त दोष वहां नहीं रहता (क्योंकि जल आदि को देखने पर जो (नेत्र में) अनुग्रह 1 a होता दिखाई देता है, या सूर्य आदि को देखने पर (नेत्र में) उपघात होता दिखाई देता है, वह स्पर्श-निमित्तक (विषय के साथ स्पर्श होने के कारण) नहीं, अपितु बिना स्पर्श किये ही वे , & (अस्पृष्ट पदार्थ) अनुग्रह या उपघात के कारण होते हैं।) और यदि ऐसा मानें कि वे अस्पृष्ट : पदार्थ अनुग्रह या उपघात के कारण होते हैं तो फिर अग्नि, शूल व जल आदि को देखने पर , क्रमशः नेत्र (अग्नि से) जल जाएगी, (शूल से) छिन्न-भिन्न हो जाएगी, (जल से) गीली हो / a जाएगी (किन्तु ऐसा नहीं होता, क्योंकि अग्नि आदि से नेत्र स्पृष्ट ही नहीं होती)। इसके . अतिरिक्त, यदि नेत्र अपने विषय से स्पृष्ट होकर जानती हो तो वह अपने में लगे अंजन, मल, - @SCRenecren@R@n@Ren@necene 67 - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -223222222222333333333333223823333333333333333 -acacaaaa& श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 92209999900 शलाका (सुरमा लगाने की सींक) आदि को भी ग्रहण कर लेती (जानती, देखती), (किन्तु a ऐसा नहीं होता, नेत्र अपने ही मल को, काजल को देख नहीं पाती)। . (हरिभद्रीय वृत्तिः) / आह- नायना मरीचयो निर्गत्य तमर्थं गृह्णन्ति, ततश्च तेषां तैजसत्वात् / सूक्ष्मत्वाचानलादिसंपर्के सत्यपि दाहाद्यभाव इति, प्राक् प्रतिज्ञातयोरनुग्रहोपघातयोरप्य- . & भावप्रसाद् अयुक्तमेतत्, तदस्तित्वस्य उपपत्त्या ग्रहीतुमशक्यत्वाच्च ।व्यवहितार्थानुपलब्ध्या " a तदस्तित्वावसाय इति चेत्, न।तत्रापि तदुपलब्धौ क्षयोपशमाभावात् व्यवहितार्थानुपलब्धिसिद्धेः। . आगममात्रमेवैतत् इति चेत्, नायुक्तिरप्यस्ति, आवरणाभावेऽपि परमाण्वादौ दर्शनाभावः, स: च तद्विपक्षयोपशमकृतः।यच्चोक्तम्- 'साध्यविकलो दृष्टान्तः' इति, तदप्ययुक्तम्, ज्ञेयमनसोः . संपर्काभावात्, अन्यथा हि सलिलकर्पूरादिचिन्तनादनुगृहोत, वह्निशस्त्रादिचिन्तनाचोपहन्येत, न चानुगृह्यते उपहन्यते वेति। आह-मनसोऽनिष्टविषयचिन्तनातिशोकात् दौर्बल्यम्, आर्तध्यानादुरोऽभिघातश्च 4 उपलभ्यते, तथेष्टविषयचिन्तनात्प्रमोदः, तस्मात्प्राप्तकारिता तस्येति।एतदप्ययुक्तम्, द्रव्यमनसा & अनिष्टेष्टपुद्गलोपचयलक्षणेन सकर्मकस्य जन्तोरनिष्टेष्टाहारेणेवोपघातानुग्रहकरणात्कयं प्राप्तविषयतेति। a (वृत्ति-हिन्दी-) (किसी पूर्वपक्षी की ओर से) (शंका-) (हम तो यह मानते हैं कि) 4 आंखों से किरणें निकलती हैं और वे जाकर उस (दृश्य) पदार्थ को ग्रहण (स्पृष्ट) करती हैं, . किन्तु चूंकि वे (किरणे) तैजस स्वभाव की, और सूक्ष्म होती हैं, इसलिए अग्नि आदि के . साथ संपर्क करने पर भी जलने आदि (उपघातादि) से रहित (सुरक्षित, अप्रभावित) रहा , करती हैं, (किन्तु नेत्र व पदार्थ का स्पर्श होता है, यह हम मानते हैं)। उत्तर- नेत्र में अनुग्रह / व उपघात होता है- आपने यह प्रतिज्ञा की थी, अर्थात् इसे आप सिद्ध करना चाहते थे, किन्तु , ca आपके कथन से तो उनका अभाव ही सिद्ध होने लगेगा, अतः आपका कथन युक्तियुक्त नहीं व है। दूसरी बात, युक्ति से यह बात सिद्ध नहीं होती कि उसका (अर्थात् आंखों की किरणें होती , & हैं, आदि आदि का) अस्तित्व है। (शंका-) नेत्र व्यवहित (दीवार आदि अवरोध से युक्त) पदार्थ " & को नहीं जान पाती, इसिलए यह मानना चाहिए कि उसका अस्तित्व है (अर्थात् नेत्र या नेत्रकिरणें जाकर पदार्थ को स्पृष्ट करती हैं, व्यवधान आने पर वे रुक जाती हैं, आगे नहीं जा / -888888888888888888888888888888888888888888888 - 68 (r)(r)ckeBR@@creece@9080@ce@@ - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9000000000 2222222223333333333333333333 33333333333322382 caca caca caca cace नियुक्ति गाथा-5 पाती)। उत्तर- अव्यवहित पदार्थ को नहीं देख पाने में कारण यह है कि विषय-ज्ञान में जो & अपेक्षित क्षयोपशम है, उसका वहां सद्भाव नहीं होता। (शंका-) क्षयोपशम आदि के कारण , की बात तो मात्र आगम में ही प्रतिपादित है (युक्ति से तो नहीं)। उत्तर- क्यों नहीं, यहां युक्ति से भी है। जैसे- किसी आवरण के न होने पर भी परमाणु का दर्शन (प्रत्यक्ष) नहीं होता, .. 8 इसका (कोई न कोई कारण तो होगा, वह) कारण क्षयोपशम ही है (अन्य कुछ नहीं)। और जो आपने यह कहा कि 'दृष्टान्त साध्य रहित है', वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञेय पदार्थ व 1 & मन का संपर्क होता ही नहीं (वह अप्राप्यकारी ही है), अन्यथा जल, कपूर आदि के चिन्तन a से मन का अनुग्रह होता और अग्नि आदि के चिन्तन से उपघात होता, किन्तु मन का कभी " & उन (जल, या अग्नि) के कारण अनुग्रह या उपघात नहीं होता (देखा गया है)। (शंका-) मन जब अनिष्ट विषय का चिन्तन करता है, तब वह अत्यधिक शोक के . कारण उसमें दुर्बलता रूप उपघात होता है और आर्तध्यान से उरोभिघात (छाती पर प्रहारादि) . होता देखा जाता है। इसी प्रकार, इष्ट विषय के चिन्तन में प्रमोद (रूप अनुग्रह) भी होता , & देखा जाता है, इसलिए मन की प्राप्यकारिता है। उत्तर- आपका यह भी कहना ठीक नहीं। , द्रव्य मन से अनिष्ट या इष्ट पुद्गलों के संग्रह रूप कार्य में प्रवृत्त प्राणी के उसी तरह अनुग्रह & या उपघात होता है जिस तरह अनिष्ट आहार से उपघात और इष्ट आहार से अनुग्रह होता है / a (अर्थात् विषय-चिन्तन से मन का कोई अनुग्रह व उपघात नहीं होता, अपतुि द्रव्यमन से इष्ट- 1 & अनिष्ट पुद्गल गृहीत होते हैं, उनसे मन का अनुग्रह या उपघात होता है), अतः मन की " प्राप्यकारिता कैसे सिद्ध हुई? (अर्थात् सिद्ध नहीं हुई) (हरिभंद्रीय वृत्तिः) 4. किं च-द्रव्यमनो वा बहिः निस्सरेत्, मनःपरिणामपरिणतं जीवाख्यं भावमनो वा?, स न तावद्भावमनः, तस्य शरीरमात्रत्वात्, सर्वगतत्वे च नित्यत्वात् बन्धमोक्षाद्यभावप्रसङ्गः ।अथ , a द्रव्यमनः, तदप्ययुक्तम्, यस्मान्निर्गतमपि सत् अकिश्चित्करं तत्, अज्ञत्वात्, उपलवत्।आह- 1 a करणत्वाद्रव्यमनसस्तेन प्रदीपेनेव प्रकाशितमर्थमात्मा गृह्णातीत्युच्यते, न / यस्मात् शरीरस्थेनैवानेनं जानीते, न बहिर्गतेन, अन्तःकरणत्वात् / इह यदात्मनोऽन्तःकरणं स तेन , शरीरस्थेनैव उपलभते, यथा स्पर्शनेन, प्रदीपस्तु बान्तःकरणमात्मनः, तस्माद् . दृष्टान्तदान्तिकयोवैषम्यमित्यलं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तुमः इति गाथार्थः // 5 // 88888888888888 (r)n@ca(r)(r)R@ @ @ @ @ @ @ @ @ 69 - Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ && accacacaack श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0900909099 (वृत्ति-हिन्दी-) दूसरी बात, (यह बताएं, जब मन प्राप्यकारी है तो) शरीर से बाहर कौन निकलता है, द्रव्यमन या मनोरूप में परिणत होने वाला जीवात्मक भावमन? भावमन , तो बाहर निकलता नहीं, क्योंकि वह तो सारे शरीर में (व्याप्त होकर) ही रहता है (कभी .. ca बाहर नहीं रहता)। यदि उसे सर्वगत मान लें तो उसे नित्य मानना पड़ेगा और तब उसके / बन्ध व मोक्ष आदि का अभाव प्रसक्त होगा (जो कथमपि अभीष्ट नहीं होगा)। यदि आप कहें / कि द्रव्य मन बाहर निकलता है तो यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि द्रव्यमन बाहर निकले भी तो वह जड़ होने से पत्थर की तरह अकिंचित्कर रहेगा (विषय-ज्ञान में किसी . प्रकार कार्यकारी नहीं होगा)। (शंका-) जैसे (जड़ पदार्थ) दीपक रूपी करण (प्रमुख र & साधन) द्वारा प्रकाशित किये गये पदार्थ को आत्मा ग्रहण करती है (जानती है), उसी तरह " a जड़ रूप द्रव्य मन से भी प्रकाशित किये गये पदार्थ को आत्मा ग्रहण करती है- ऐसा हमारा कहना है। (उत्तर-) आपका कथन समीचीन नहीं, क्योंकि आत्मा जो जानती है, वह शरीर ca में ही स्थित द्रव्यमन से जानती है, न कि किसी बहिर्गामी द्रव्यमन से, क्योंकि मन एक & अन्तःकरण है, और जो भी जिस आत्मा का अन्तःकरण होता है, उसकी उपलब्धि उस . आत्मा को शरीरस्थ रूप में ही होती है. जैसे त्वक इन्द्रिय / प्रदीप तो आत्मा का अन्तःकरण, है नहीं, इसलिए दृष्टान्त व दार्टान्त -इन दोनों का वैषम्य होता है (वस्तुतः तो दोनों का साम्य . न ही होना चाहिए, किन्तु दोनों में वैषम्य है, इसलिए उसके आधार पर द्रव्यमन को बहिर्गामी 1 & सिद्ध नहीं किया जा सकता)। अतः इससे अधिक कहने की अब अपेक्षा नहीं रह जाती है। " & प्रकृत विषय पर पुनः चर्चा कर रहे हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 5 // ca विशेषार्थ उपर्युक्त विषय की चर्चा विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-217-218) में और उसकी टीकाओं में a विस्तार से हुई है, जिसका सार इस प्रकार है- जीव काययोग की सहायता से चिन्तन-प्रक्रिया की , प्रवर्तक जिन मनोवर्गणा को ग्रहण करता है, उसी के अन्तर्गत जो द्रव्य-समूह है, वही द्रव्यमन है। वह स्वयं ज्ञाता नहीं होता, क्योंकि वह पत्थर के टुकड़े की तरह अचेतन है। यहां पूर्वपक्षी का कहना है कि 1 << यद्यपि द्रव्यमन स्वयं कुछ नहीं जानता, तथापि जैसे वस्तु को प्रकाशित होने में प्रदीप आदि करण , & (साधन) होते हैं, वैसे ही (पदार्थ-बोध में) द्रव्यमन का करण भाव या उसकी करण-रूपता मान सकते , हैं। इसका उत्तर भाष्यकार ने इस प्रकार दिया है- वह (द्रव्यमन) (शरीरस्थ) स्पर्शन इन्द्रिय की तरह * ही एक अन्तःकरण है बाह्य करण नहीं है। अन्तः करण होने के कारण, वह द्रव्यमन स्पर्शन इन्द्रिय " / की तरह कभी बाहर नहीं निकलता। 'करण' दो प्रकार के होते हैं- (१)अन्तःकरण, जो शरीर में ही / 333 333333333 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&a 70 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)RO900CR(r)(r) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRcace 488 नियुक्ति गाथा-6 2000900909 स्थित रहता है, और (2) बाह्यकरण, जो शरीर से बाहर रहता है। द्रव्य मन भी एक अन्तःकरण है। , शरीर से बिना बाहर निकले, शरीर में (ही) स्थित रहने वाले उस (अन्तःकरण रूप द्रव्यमन) के cs माध्यम से जीवात्मा (दूरस्थित) मेरु आदि विषयों को (भी) उसी प्रकार जान लेता है जिस प्रकार स्पर्शन इन्द्रिय के माध्यम से (बहिःस्थित) कमल-नाल आदि के स्पर्श का अनुभव वह करता है। यहां " & पूर्वपक्षी पुनः शंका करता है- यद्यपि द्रव्यमन शरीरस्थ ही है, किन्तु जैसे पद्मनाल का तन्तु अपने मूल , शरीर से बाहर निकल जाता है, उसी तरह द्रव्यमन शरीर से बाहर क्यों नहीं निकल सकता? भाष्यकार ने उत्तर दिया कि द्रव्यमन का अन्तःकरणत्व रूप लक्षण वाला होना ही वह 'हेतु' है, जिसके कारण वह द्रव्यमन स्पर्शन इन्द्रिय की तरह (शरीर से) बाहर नहीं निकलता। अगर वह बाहर निकलने वाला साधन हो तो उसका 'अन्तःकरण' यह नाम ही निरर्थक हो जाय। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) किं च प्रकृतम्?, स्पृष्टं शृणोति शब्दमित्यादि।अत्र किं शब्दप्रयोगोत्सृष्टान्येव केवलानि , शब्दद्रव्याणि गृह्णाति? उत अन्यान्येव तद्भावितानि? आहोस्विन्मिश्राणि इति / चोदकाभिप्रायमाशय, न तावत्केवलानि, तेषां वासकत्वात्, तद्योग्यद्रव्याकुलत्वाच्च लोकस्य, , किन्तु मिश्राणि तद्वासितानि वा गृह्णाति इत्यमुमर्थमभिघित्सुराह- . (नियुक्तिः) भासासमसेढीओ, सदं जंसुणइ मीसयंसुणई। वीसेढी पुण सदं, सुणेइ नियमा पराघाए // 6 // .. [संस्कृतच्छायाः-भाषासमश्रेणीतः शब्दं यं शृणोति मिश्रकं शृणोति।विश्रेणिः पुनः शब्दं शृणोति . नियमात्पराघाते॥] (वृत्ति-हिन्दी-) प्रकृत विषय क्या है? वह है- "(श्रोत्र इन्द्रिय) स्पृष्ट शब्द द्रव्यों का : a ग्रहण करती है" इत्यादि। यहां श्रोत्र इन्द्रिय जिन शब्द द्रव्यों का ग्रहण करती है, वे शब्द-द्रव्य " क्या मात्र शब्द-प्रयोग के रूप में उत्सृष्ट (छोड़े गये) द्रव्य ही होते हैं, या उनसे भावित अन्य , द्रव्य भी. या फिर मिश्रित होते हैं? इस प्रकार के अभिप्राय वाली शंका को दृष्टि में रख कर, : * नियुक्तिकार यह कहना चाहते हैं कि श्रोता केवल उक्त (वक्ता द्वारा उत्सृष्ट मूल) शब्द द्रव्यों को , ही ग्रहण नहीं करता, अपितु मिश्र रूप में ग्रहण करता है। अर्थात् वे शब्द द्रव्य जिन अन्य , द्रव्यों को वासित करते हैं, उन (वासित) द्रव्यों से यह लोक व्याकुल (आपूर्ण) है, इसलिए, श्रोता मिश्र या उनसे वासित शब्द द्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी अर्थ को कहने के लिए " नियुक्तिकार (आगे गाथा) कह रहे हैं- (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 71 22222223823222222232322322232333333333333333 88888888888 &&&&&&&&&&&& Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -acca cace car श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 200020 822322233333333333333333333333333333333333333 (नियुक्ति-अर्थ-) भाषा-समश्रेणी में स्थित श्रोता जिन शब्दों को सुनता है, उन्हें मिश्र . & रूप में ही सुनता है। किन्तु विश्रेणी में स्थित श्रोता जिन शब्दों को सुनता है, उन्हें पराघात : होने पर ही सुनता है (अर्थात् उत्सृष्ट शब्द-द्रव्य के पराघात से वासित शब्दो को ही सुनता है, . मूल उत्सृष्ट शब्दों को नहीं)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) भाष्यत इति भाषा, वका शब्दतयोत्सृज्यमाना द्रव्यसंहतिरित्यर्थः। तस्याः / समश्रेणयो भाषासमश्रेणयः। समग्रहणं विश्रेणिव्युदासार्थम् / इह श्रेणयः क्षेत्रप्रदेशपङ्क: योऽभिधीयन्ते, ताश्च सर्वस्यैव भाषमाणस्य षट्सु दिक्षु विद्यन्ते, यासूत्सृष्टा सती.. भाषाSSद्यसमय एव लोकान्तमनुधावतीति।ता इतो भाषासमश्रेणीतः, इतो गतः प्राप्तः स्थित * इत्यनान्तरम्।एतदुक्तं भवति-भाषासमश्रेणिव्यवस्थित इति।शब्द्यतेऽनेनेति शब्दः-भाषात्वेन , & परिणतः पुद्गलराशिस्तं शब्द 'य' पुरुषाश्वादिसंबन्धिनं शृणोति गृह्णात्युपलभत इति पर्यायाः, 1 यत्तदोर्नित्यसंबन्धात्तं मिश्रं शृणोति / एतदुक्तं भवति-व्युत्सृष्टद्रव्यभावितापान्तरालस्थशब्दद्रव्यमिश्रमिति। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) जो भाषित होती है, वह भाषा होती है, अर्थात् वक्ता द्वारा शब्द रूप में उत्सृष्ट (उच्चारित) होने वाला द्रव्य-समूह / उसकी समश्रेणी है- भाषासमश्रेणी। 'सम' यह पद विश्रेणी के निराकरण हेतु किया गया है। श्रेणी से अभिहित अर्थ हैक्षेत्र-प्रदेश पंक्ति। वे पंक्तियां बोल रहे वक्ता के छहों दिशाओं में स्थित रहती हैं, जिनमें उत्सृष्ट , भाषा प्रथम समय में ही लोकान्त तक चली जाती है। उन भाषा-सम-श्रेणियों को प्राप्त या " ca स्थित, प्राप्त और स्थित- इनका एक ही अर्थ है, अर्थात् भाषा की समश्रेणी में स्थित (व्यक्ति)। " & जो शब्दित हो, भाषा रूप में परिणत हो, वह पुद्गल-राशि 'शब्द' है। पुरुष, अश्व आदि से " & उच्चारित जिस पौद्गलिक शब्द को (श्रोता) सुनता है, ग्रहण करता है, उपलब्ध करता है , (सुनना, ग्रहण करना, उपलब्ध करना) -ये पर्याय हैं। 'यत्' शब्द का 'तद्' से नित्य : सम्बन्ध होता है (अर्थात् वाक्य में 'जो', 'जिसको','जिससे' आदि शब्द प्रयुक्त हों तो, वहां / व 'वह', 'उसको', 'उससे' आदि शब्द भी प्रयुक्त होते ही हैं, यदि प्रयुक्त न भी हों तो समझने वाले को अनुरूप शब्द पृथक् रूप से जोड़ना चाहिए) अतः अर्थ कहा जाएगा -उस (युत, 72 (r)(r)(r)(r)R@@ce@@@@@@@ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ හ හ හ හ හ හ හ හ හ හන 888888888 333333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-6 गृहीत, उपलब्ध) शब्द को (श्रोता) मिश्र रूप में (ही) सुनता है। तात्पर्य यह है कि जो शब्द ca समश्रेणी में प्राप्त होकर सुनाई देता है, वह उत्सृष्ट शब्द-द्रव्य से भावित (वासित-प्रकम्पित) >> & आकाशस्थ शब्द द्रव्यों से मिश्रित होकर सुनाई देता है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) विश्रेणिं पुनः इत इति वर्त्तते / ततश्चायमर्थो भवति-विश्रेणिव्यवस्थितः पुनः श्रोता & 'शब्दम्' इति।पुनः शब्दग्रहणं पराघातवासितद्रव्याणामपि तथाविधशब्दपरिणामख्यापनार्थम् / 1 शृणोति नियमात्' नियमेन पराघाते सति यानि शब्दद्रव्याणि उत्सृष्टाभिघातवासितानि तान्येव, न पुनरुत्सृष्टानीति भावार्थः।कुतः?-तेषामनुश्रेणिगमनात्प्रतीघाताभावाच्च ।अथवा विश्रेणिस्थित 6 एव विश्रेणिरभिधीयते, पदेऽपि पदावयवप्रयोगदर्शनात् 'भीमसेनः सेनः, सत्यभामा भामा' इतिगाथार्थः // 6 // (वृत्ति-हिन्दी-) इत=स्थित, प्राप्त / यह पद 'विश्रेणी' के साथ भी जुड़ता है (समश्रेणी , के साथ 'स्थित' शब्द जो जुड़ा था, वह 'विश्रेणी' के साथ भी जुड़ेगा, और तब) इस प्रकार , ca अर्थ होगा- किन्तु विश्रेणी (विषय श्रेणी) में स्थित जिस शब्द को सुनता है। यहां 'शब्द' का ? & पुनः ग्रहण (नियुक्ति में) किया गया है (अर्थात् गाथा के प्रथम चरण में 'शब्द' आ गया था, " उसका अध्याहार किया जा सकता था, फिर भी नियुक्ति में गाथा की दूसरी पंक्ति में पुनः . 'शब्द' इसका प्रयोग किया है)। इसका प्रयोजन यह है कि वे यह बताना चाहते हैं कि पराघात से वासित (प्रकाम्पित) द्रव्य भी वैसी ही अर्थात् (पूर्वोक्त उत्सृष्ट शब्दात्मक) परिणति वाले हैं (अर्थात् वे अशब्द नहीं हैं)। भावार्थ यह है कि पराघात होने पर, अर्थात् उत्सृष्ट शब्दव द्रव्य के अभिघात से वासित जो शब्द होते हैं, नियमतः उन्हें ही सुनता है, उत्सृष्ट (मूल शब्दों) 4 को नहीं सुनता / (प्रश्न-) ऐसा क्यों? (उत्तर-) इसलिए कि वे उत्सृष्ट शब्द द्रव्य अनुश्रेणी में 20 * ही गति करते हैं और (चूंकि वे सूक्ष्म होते हैं अतः) उनका प्रतिघात (अवरोध आदि) नहीं - होता / अथवा- 'विश्रेणी' का अर्थ है- विश्रेणी में स्थित (श्रोता), क्योंकि पद के अन्वय (अंश) को भी 'पद' के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, जैसे भीमसेन की जगह 'सेन', सत्यभामा की C जगह ‘भामा' / [इस व्याख्यान के अनुसार 'विश्रेणी' पद के साथ 'इत' (स्थित) पद की अनुवृत्ति CA करने की आवश्यकता नहीं है, बिना 'इत' लगाए ही 'विश्रेणी' का अर्थ 'विश्रेणी-स्थित' हो जाता - है।] | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ |6| &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& 808888@@@@@@@@ 73 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33338 333333333333333333333333333333333333333333333 ES ca RCA CA CROR श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9020 200000 / विशेषार्थ भाषा के स्वरूपादि के विषय में जैन शास्त्रों में पर्याप्त चर्चा हुई है। प्रज्ञापना एवं विशेषावश्यक है भाष्य आदि में विस्तार से इस पर प्रकाश डाला गया है। वक्ता जब अपने विचारों और भावनाओं को दूसरों के प्रति अभिव्यक्त करने की इच्छा करता है तो सर्वप्रथम उसका मनोयोग सक्रिय होता है। मन के सक्रिय होने से वचनयोग सक्रिय होता है। & वाक् के सक्रिय होने से काययोग सक्रिय होता है। शरीर के सक्रिय होने पर वक्ता का स्वरयंत्र भाषा- 2 & वर्गणा के परमाणुओं (अर्थात् ध्वनिरूप में परिवर्तित होने योग्य पुद्गल-परमाणुओं) का ग्रहण करता - है और उनका भाषारूप में परिणमन करता है अर्थात् उन्हें विशिष्ट शब्दध्वनियों के रूप में परिवर्तित , करता है और अन्त में उन ध्वनि रूपों का उत्सर्जन करता है अर्थात् उन्हें बाहर निकालता है। शब्द-ध्वनि के प्रसरण की यह प्रक्रिया को इस प्रकार समझा जा सकता है। सर्वप्रथम ध्वनि रूप में निःसृत पुद्गल अपने समीपस्थ पुद्गल स्कन्धों को प्रकम्पित कर अपनी शक्ति के अनुरूप c. उन्हें शब्दायमान करते हैं। अर्थात् उन ध्वनिरूप पुद्गलों के निमित्त से भाषावर्गणा के दूसरे पुद्गलों " में भी शब्द-पर्याय उत्पन्न हो जाती है, वे शब्दायमान दूसरे पुद्गल भी पुनः अपने समीपस्थ पुद्गलों , को शब्दायमान करते हैं और इस प्रकार क्रमशः उत्पन्न होती हुईं ये ध्वनि-तरंगें भाषा-वर्गणा के / पुद्गलों के माध्यम से लोकान्त तक पहुंच जाती है जिस प्रकार जलाशय में फेंके गये एक पत्थर से , प्रकम्पित जल में उत्पन्न तरंगें अपने समीपस्थ जल को क्रमशः प्रकम्पित करते हुए जलाशय के तट " & तक पहुंच जाती हैं, उसी प्रकार शब्द-ध्वनियां भी लोकान्त तक अपनी यात्रा करती हैं। वक्ता द्वारा , उत्सृष्ट शब्द द्रव्य प्रथम समय में स्वभावतः अनुश्रेणी में गमन करते हैं। दूसरे समय में उनके द्वारा वासित शब्द द्रव्यों की गति विषम श्रेणी में होती है, और वे मूल रूप में नहीं रह पाते / यही कारण है ? c& कि विषम श्रेणी में स्थित श्रोता को वासित शब्द ही सुनाई पड़ते हैं, मूल मुक्त शब्द द्रव्य नहीं। यद्यपि " ध्वनि प्रसरणशील होती है, फिर भी उसकी प्रसरणक्षमता वक्ता की शक्ति पर निर्भर करती है। अतः , कुछ ध्वनि-तरंगें वक्ता के स्वरयन्त्र से निकलकर दूर तक श्रव्यरूप में जाती हैं, जबकि कुछ थोड़ी दूर, CA जाकर अश्रव्य बन जाती हैं। अतः यह आवश्यक नहीं है कि सभी शब्द लोकान्त तक श्रव्यरूप में ही & पहुंचे। इसका कारण यह है कि शब्दों की संवेदना वायु के आधार पर निर्भर करती है। अनेक " स्थितियों में अनुकूल दिशा की वायु होने पर दूर के शब्द भी सुने जा सकते हैं। किन्तु प्रतिकूल वायु होने पर पास के शब्द भी सुनाई नहीं देते। यह श्रव्यमान ध्वनि तीन प्रकार की हो सकती है- उच्चरित, वासित, उच्चरित-वासित (मिश्र)। इसमें वक्ता द्वारा बोला गया मूल शब्द उच्चरित है। वक्ता द्वारा बोला गया यह शब्द जब अपने (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 888888888888888888888888888888888888 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRR नियक्ति-गाथा- 7 009 DDDDDDDU अनुरूप दूसरी ध्वनितरंगों को उत्पन्न करता है और वे दूसरी ध्वनितरंगें जब श्रोता तक पहुंचती हैं तब ca वह शब्द वासित होता है अर्थात् उन उच्चरित शब्दों से प्रकम्पित या शब्दायमान होकर जो अन्य शब्द- 2 ध्वनि निकलती है, वह वासित होती है, जैसे ध्वनिविस्तारक यन्त्र से निकले शब्द / जिस ध्वनि में / ca उच्चारित और वासित दोनों प्रकार की शब्द-ध्वनियां रहती हैं, वह उच्चरित-वासित (मिश्र) शब्दध्वनि " ल होती है। इसी प्रकार वक्ता की दृष्टि से भी ध्वनि या द्रव्यभाषा तीन प्रकार की मानी गयी है- ग्रहण, >> निःसरण और पराघात / वचनयोग वाली आत्मा अर्थात् वक्ता द्वारा गृहीत भाषावर्गणा के पुद्गलग्रहण, उसके द्वारा उच्चरित भाषावर्गणा के पुद्गल- निःसरण और उच्चरित भाषावर्गणा के पुद्गल द्वारा संस्कारित (वासित) अन्य भाषावर्गणा के पुद्गल- पराघात / शब्दात्मक भाषा को यहां पौगलिक बताया गया है। अर्थात् 'शब्द' पुद्गल का ही पर्याय है। इस कथन से नैयायिक-वैशिषिकों द्वारा शब्द को आकाश का गुण जो माना गया है, उसका खण्डन " हो जाता है। चूंकि शब्द की उत्पत्ति जीव के प्रयत्नों से होती है, अतः भाषा को जड़ व चेतन का संयुक्त , परिणाम कह सकते हैं। चूंकि शब्द पुद्गल का एक पर्याय है, अतः वह अनित्य भी है। इसमें स्पर्श गुण माना गया है। शास्त्रीय भाषा में यह चतुःस्पर्शी है जिसमें शीत-उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष -ये चार ही ca स्पर्श होते हैं। भाषात्मक शब्द सूक्ष्म होने के साथ-साथ प्रसरणशील भी होते हैं। सूक्ष्म होने से स्पर्शन " इन्द्रिय से उनका अनुभव नहीं हो पाता / सूक्ष्म होने के कारण ही किन्हीं अवरोधों से इन्हें बाधित v (अवरुद्ध) करना भी शक्य नहीं होता। जिस प्रकार गंध के परमाणु बिना किसी बाधा के बन्द दरवाजे वाले कमरे में प्रविष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार शब्द भी प्रविष्ट हो जाते हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) केन पुनर्योगेन एषां वारद्रव्याणां ग्रहणमुत्सर्गो वा कथं वेत्येतदाशय गुरुराह (नियुक्तिः) गिण्हइय काइएणं, निस्सरइतह वाइएणजोएणं। एगन्तरं च गिण्हइ, णिसिरइ एगंतरं चेव // 7 // [संस्कृतच्छाया:-गृह्मातिच कायिकेन, निसृजति तथा वाचिकेन योगेनाएकान्तरंच गृह्णाति, निसृजति a एकान्तरमेव // ] (वृत्ति-हिन्दी-) किन्तु इन भाषा द्रव्यों का ग्रहण या उत्सर्ग किस योग से और किस , प्रकार से होता है -इस आशंका (जिज्ञासा) को दृष्टि में रख कर गुरुवर कह रहे हैं 2333333333333333333333 / 2222223823222333333333. @ @@@ @ce@n@ce@n cR@ @ @ce(r)08 75 EET Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिक CACA CRORE श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 09 20 20 20 2009 33333333333333333333333333333333333333333333B (7) (नियुक्ति-अर्थ-) भाषा-द्रव्य का काय योग के द्वारा ग्रहण होता है और वचन योग : के द्वारा निस्सरण किया जाता है। ग्रहण एकान्तर होता है और निस्सरण भी एकान्तर होता है। . (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र कायेन निवृत्तः कायिकः, तेन कायिकेन योगेन, योगो व्यापारः कर्म " क्रियेत्यनन्तरम्। सर्व एव हि वक्ता कायक्रियया शब्दद्रव्याणि गृह्णाति, चशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चाप्यवधारणे, तस्य च व्यवहितः संबन्धः, गृह्णाति कायिकेनैद, निसृजत्युत्सृजति मुञ्चतीति : पर्यायाः, तथेत्यानन्तर्यार्थः, उक्तिर्वाक्, वाचा निर्वृत्तो वाचिकस्तेन वाचिकेन योगेन / कयं गृह्णाति , निसृजतीति वा? किमनुसमयम् उत अन्यथेत्याशङ्कासंभवे सति शिष्यानुग्रहार्थमाह4 एकान्तरमेव गृह्णाति, निसृजति एकान्तरं चैव।अयमत्र भावार्थ:- प्रतिसमयं गृह्णाति मुञ्चति & चेति, कथम्?, यथा ग्रामादन्यो ग्रामो ग्रामान्तरम्, पुरुषाद्वा पुरुषोऽनन्तरोऽपि सन्निति, " स एवमेकैकस्मात्समयाद् एकैक एव एकान्तरोऽनन्तरसमय एवेत्यर्थः / अयं गाथासमुदायार्थः। . (वृत्ति-हिन्दी-) वहां (कायिक योग शब्द में) कायिक का अर्थ है- काय से निष्पन्न / " & योग, व्यापार, कर्म या क्रिया -इनमें अर्थ-भेद नहीं है (अर्थात् ये एक ही अर्थ के वाचक हैं)। " सभी वक्ता कायिक क्रिया द्वारा शब्द (भाषा) द्रव्यों को ग्रहण करता है। यहां 'च' शब्द 'एव' , (ही) अर्थ को व्यक्त करता है और 'अवधारण' करता है, उसका व्यवहित सम्बन्ध है (अर्थात् 'ही' का सम्बन्ध 'ग्रहण करता है' के साथ नहीं, अपितु कायिक योग के साथ है)। अतः , 6 (फलित अर्थ होगा-) कायिक योग से ही (ग्रहण करता है)। 'तथा' यह पद अनन्तर 2 ('और') अर्थ को अभिव्यक्त करता है। निसर्जन करना. उत्सर्जन करना. छोडना -ये " पर्यायवाची हैं। कथन ही वाक् है, वाक् (वाणी) से जो निष्पन्न है, वह वाचिक है। (पूरा " वाक्यार्थ इस प्रकार होगा-) उस (वाचिक) योग के द्वारा (निसर्जन आदि करता है)। किस , & प्रकार ग्रहण करता है या छोड़ता है? क्या प्रत्येक समय में या अन्य रूप से? इस आशंका की सम्भावना हो सकती है, अतः शिष्य के अनुग्रह हेतु कह रहे हैं- एकान्तर (एक के बाद , एक -इस) रूप से ही ग्रहण करता है और उत्सर्जन (छोड़ना) भी एकान्तर रूप से करता है है। इसका भावार्थ यही है कि प्रतिसमय ग्रहण करता है और छोड़ता है। (एकान्तर का उक्त .. , भाव) कैसे? (उत्तर-) जैसे ग्रामान्तर का अर्थ होता है- पुरुषान्तर / इसी तरह (एकान्तर &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& - 76 (r)(r)R@@@mc@RSCR(r)(r)(r)(r)08 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A RRRRRRRece ස හ හ හ හ හ හ හ හ ***** 441444444444444 नियुक्ति गाथा-7 समय, यानी) एक-एक समय की अपेक्षा प्रत्येक अनन्तरभावी समय ही एकान्तर (समय) / & है- यह तात्पर्य है। यहां तक गाथा का समुदित अर्थ किया गया है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) अत्र कश्चिदाह- ननु कायिकेनैव गृह्णातीत्येतद् युक्तम्, तस्यात्मव्यापाररूपत्वात्, निसृजति तु कथं वाचिकेन?, को वाऽयं वाग्योग इति। किं वागेव व्यापारापन्ना, आहोश्वित् तद्विसर्गहतुः कायसंरम्भ इति?, यदि पूर्वो विकल्पः, स खल्वयुक्तः, तस्या योगत्वानुपपत्तेः, तथा च न वाक्केवला जीवव्यापारः, तस्याः पुद्गलमात्रपरिणामरूपत्वात्, रसादिवत्, " योगश्चात्मनः शरीरवतो व्यापार इति, न च तया भाषया निसृज्यते, किन्तु सैव निसृज्यत इत्युक्तम्। . . अथ द्वितीयः पक्षः, ततः स कायव्यापार एवेतिकृत्वा कायिकेनैव निसृजतीत्यापन्नम्, CM अनिष्टं चैतत् इति।अत्रोच्यते, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्। a (वृत्ति-हिन्दी-) यहां किसी ने शंका प्रस्तुत की- कायिक योग से ही ग्रहण करता है- यह (कहना) तो युक्तियुक्त है क्योंकि वह (योग) आत्म-व्यापार रूप है। किन्तु वाचिक ca (योग) से उत्सर्जन करता है -ऐसा कैसे? और फिर यह वाचिक योग है क्या? क्या वाणी ही . ca व्यापारात्मक होती है या कायिक व्यापार ही उक्त उत्सर्जन का कारण होता है? यदि प्रथम a विकल्प मानते हैं तो वह युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि वाणी का 'योग' रूप अनुपपन्न (असंगत) व है। और केवल वाणी को जीव-व्यापार नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह (वाणी) रस आदि की तरह पौगलिक है, जब कि योग तो शरीरधारी-आत्मा का व्यापार होता है। इसीलिए a (पहले) यह कहा गया है कि वह (भाषा ही) उत्सृष्ट (मुक्त) होती है, ऐसा नहीं कहा गया कि उस (शब्द-द्रव्य समूह रूप) वाणी से भाषा निसृष्ट होती है। यदि दूसरा पक्ष मानते हैं तो इसका अर्थ यह होगा कि वाचिक योग कायिक व्यापार ही है, इसलिए कायिक व्यापार से ही (वक्ता भाषा-द्रव्यों को) छोड़ता है, किन्तु यह (किसी , प्रकार) अभीष्ट नहीं है (क्योंकि गाथा में स्पष्ट कहा जा रहा है कि 'वाचिक योग से ही M उत्सर्जन किया जाता है')। अब (उपर्युक्त प्रश्नों का) उत्तर दे रहे हैं- आपका आक्षेप * युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि आपने हमारे अभिप्राय का नहीं समझा है। 22322333222322333333 89@ce@00c88999R89@ce@989nece@ @ 77 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRcace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2200000 223233333333333333333333333333333333333333333 ! (हरिभद्रीय वृत्तिः) ca इह तनुयोगविशेष एव वाग्योगो मनोयोगश्चेति, कायव्यापारशून्यस्य सिद्धवत् . तदभावप्रसङ्गात्।ततश्चात्मनः शरीरव्यापारे सति येन शब्दद्रव्योपादानं करोति स कायिकः, , येन तु कायसंरम्भेण तान्येव मुञ्चति स वाचिक इति, तथा येन मनोद्रव्याणि मन्यते स मानस, इति, कायव्यापार एवायं व्यवहारार्थं त्रिधा विभक्त इत्यतोऽदोषः।तथा 'एकान्तरं च गृह्णाति, " निसृजत्येकान्तरं चैव' इत्यत्र केचिदेकैकव्यवहितं एकान्तरमिति मन्यन्ते, तेषां च . & विछिन्नरत्नावलीकल्पो ध्वनिरापद्यते, सूत्रविरोधश्च, यत उक्तम्- “अणुसमयमविरहियं / निरन्तरं गिण्हइ” त्ति। आह-यत्पुनरिदमुक्तम् “संतरं निसरति, नो निरंतरं, एगेणं समएणं गिण्हति, , एगेणं णिसरती" त्यादि, तत्कथं नीयते?, उच्यते।इह ग्रहणापेक्षया निसर्गः सान्तरोऽभिहितः।। एतदुक्तं भवति-यथा आदिसमयादारभ्य प्रतिसमयं ग्रहणम्, नैवं निसर्ग इति, यस्मादायसमये . नास्तीति, ग्रहणमपि निसर्गापेक्षया सान्तरमापद्यत इति चेत्, न।तस्य स्वतन्त्रत्वात्, निसर्गस्य , च ग्रहणपरतन्त्रत्वात्, यतो नागृहीतं निसृज्यत इति, अतः पूर्वपूर्वग्रहणसमयापेक्षया / सान्तरव्यपदेश इति। तथा एकेन समयेन गृह्णाति, एकेन निसृजति। किमुक्तं भवति? - " * ग्रहणसमयानन्तरेण सर्वाण्येव तत्समयगृहीतानि निसृजतीति ।अथवा एकसमयेन गृह्णात्येव, 0 & आद्येन, न निसृजति।तथा एकेन निसृजत्येव, चरमेण, न गृह्णाति / अपान्तरालसमयेषु तु " ग्रहणनिसर्गावर्थगम्यौ इत्यतोऽविरोध इति। (वृत्ति-हिन्दी-) यहां शारीरिक विशेष योग (व्यापार) ही वाग्योग व मनोयोग है, . & क्योंकि कायिक व्यापार से रहित व्यक्ति के तो सिद्धात्मा की तरह वाग्योग व मनोयोग का " & अभाव प्रसक्त हो जाएगा। इसलिए शारीरिक व्यापार होने पर जिसके द्वारा, आत्मा भाषाद्रव्य " & का उपादान करती है, वह उस आत्मा का शारीरिक योग है। जिस शारीरिक प्रयत्न द्वारा उन्हें ही आत्मा छोड़ती है, वह आत्मा का वाचिक योग है, और जिसके द्वारा आत्मा मनोद्रव्यों का मनन (ज्ञान) करती है, वह (उस आत्मा का) मानस योग है, इस प्रकार एक शारीरिक व्यापार का ही व्यवहार की दृष्टि से तीन रूपों में विभाग है, अतः कोई दोष नहीं है & रहता / और 'एकान्तर ग्रहण करता है और एकान्तर ही छोड़ता है' इस कथन में कुछ लोग " - 'एकान्तर' का अर्थ करते हैं- एक (अन्तर यानी) व्यवधान के साथ। उनके अनुसार, ध्वनि 78 (r)(r)RecRO908R@@@@@@* - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Racecaceecece 909009009000 222333333333333333333333. नियुक्ति गाथा-7 | विच्छिन्न रत्न-पंक्ति की तरह हुआ करती है (अर्थात् एक रत्न के बाद दूसरे रत्न के मध्य में ca एक रत्नेतर होता है, उसी तरह एक ध्वनि के बाद दूसरी ध्वनि के मध्य एक 'समय' का " a व्यवधान होता है), (जो प्रत्यक्षविरुद्ध है और) इसमें सिद्धान्त-विरोध भी है; क्योंकि (आगम , में) कहा गया है- (वक्ता) प्रतिसमय अविरहित (बिना व्यवधान के) निरन्तर (भाषाद्रव्यों का) ग्रहण करता है। _ शंकाकार (पुनः) कहता है- किन्तु जो (आगम में) यह कहा गया है- “सान्तर विसर्जन करता है, निरन्तर नहीं, एक समय में ग्रहण करता है और एक समय में निसर्जन : व करता है" इत्यादि, उसकी संगति कैसे बैठाएंगें? (उत्तर) इसका उत्तर दे रहे हैं- यहां ग्रहण & की अपेक्षा निसर्ग को 'सान्तर' कहा गया है। कहने का तात्पर्य यह है- जिस प्रकार आदि & समय से लेकर प्रतिसमय ग्रहण होता है, उस तरह निसर्ग (मोचन) नहीं होता, क्योंकि आद्य . a (प्रथम) समय में (मात्र ग्रहण होता है) निसर्ग नहीं होता। (शंका-) निसर्ग की अपेक्षा ग्रहण की भी 'सान्तरता' सिद्ध होती है (अर्थात् गृहीत द्रव्यों का निसर्ग के विना जैसे ग्रहण नहीं होता, इसलिए ग्रहण की सान्तरता है, उसी तरह निसर्जन होने पर ही ग्रहण सम्भव है, . इसलिए ग्रहण की भी सान्तरता माननी चाहिए)। (उत्तर-) आपका कथन युक्तियुक्त नहीं, . क्योंकि उस (निसर्ग) की परतन्त्रता है (अर्थात् प्रथम समय में निसर्ग के बिना ग्रहण तो हो " ca जाता है, किन्तु निसर्जन तभी होता है जब पूर्व में कोई गृहीत हो)। चूंकि गृहीत हुए बिना " * निसर्ग नहीं होता, इसलिए पूर्व-पूर्व ग्रहण के समय की अपेक्षा से 'सान्तर' कथम किया गया है। इस प्रकार, एक समय में ग्रहण करता है और एक समय में निसर्जन करता है a (इसका तात्पर्य क्या है?) तात्पर्य यह है कि ग्रहण-समय के बाद ही, उक्त समय में गृहीत . समस्त (भाषा-द्रव्यों) को छोड़ता है। अथवा एक समय से ग्रहण करता ही है। जैसे, प्रथम समय में (ग्रहण करता ही है), और छोड़ता नहीं है। और एक समय में छोड़ता ही है, जैसे a अंतिम समय में, ग्रहण नहीं करता है, मध्य के समयों में तो ग्रहण व निसर्ग अर्थगम्य हैं ca (अर्थात् अर्थापत्ति से समझने योग्य हैं (अर्थात् ग्रहण और निसर्ग दोनों ही होते हैं, अन्यथा " * आद्य समय में ग्रहण ही होना, और अन्त्य समय में निसर्ग ही होना -इस अवधारण की असंगति हो जाएगी)। -888888888888888888888888888888888888888888888 333333 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)R@ne 79 - Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333382333333333333333333333333333 / -Racecacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 20000 90 / (हरिभद्रीय वृत्तिः) __ आह-ग्रहणनिसर्गप्रयत्नौ आत्मनः परस्परविरोधिनौ एकस्मिन्समये कथं , स्यातामिति? अत्रोच्यते, नायं दोषः, एकसमये कर्मादाननिसर्गक्रियावत् तथोत्पादव्ययक्रियावत् / तथाऽङ्गुल्याकाशदेशसंयोगविभागक्रियावच्च क्रियाद्वयस्वभावोपपत्तेरिति गाथार्थः // 7 // (वृत्ति-हिन्दी-) (शंकाकार द्वारा पुनः) (शंका-) ग्रहण व निसर्ग -ये दोनों स्वरूप से परस्पर-विरोधी हैं, अतः उनका एक समय में होना कैसे सम्भव हो सकता है? यहां उत्तर 8 दिया जा रहा है- उक्त दोष नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार एक समय में कर्म-सम्बन्धी आदान एवं निसर्ग (अर्थात् कर्म-बन्ध व विपाक वेदनीय निर्जरा) -ये दोनों क्रियाएं (साथ-साथ) स होती हैं, तथा (एक द्रव्य में, एक समय में ही) उत्पाद व व्यय सम्बन्धी क्रिया (परिणाम) होते " हैं, और जिस प्रकार अंगुली में एक आकाश-प्रदेश के साथ संयोग व विभाग -ये दोनों ही क्रियाएं (एक समय में) होती हैं, उसी प्रकार (एक ही समय में) दो क्रियाओं की स्वाभाविकता - संगत होती है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||7 || (हरिभद्रीय वृत्तिः) यदुक्तं- 'गृह्णाति कायिकेन' इत्यादि, तत्र कायिको योगः पञ्चप्रकारः, औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणभेदभिन्नत्वात्तस्य, ततश्च किं पञ्चप्रकारेणापि कायिकेन गृह्णाति आहोस्विदन्यथा-इत्याशङ्कासंभवे सति तदपनोदायेदमाह (नियुक्तिः) तिविहंमि सरीरंमि, जीवपएसा हवन्ति जीवस्स। जेहि उ गिण्हइ गहणं, तो भासइ भासओ भासं // 8 // [संस्कृतच्छायाः-त्रिविधे शरीरे जीवप्रदेशा भवन्ति जीवस्यायैस्तु गृह्णाति ग्रहणं ततो भाषते भाषको भाषाम् // ] (वृत्ति-हिन्दी-) 'कायिक योग से ग्रहण करता है' इत्यादि जो कथन किया गया है, & उसमें कायिक योग पांच प्रकार का होता है, क्योंकि काय के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, . तैजस व कार्मण -ये (पांच) भेद होते हैं। यहां यह आशंका हो सकती है कि (वक्ता) क्या है * पांचों प्रकार के शरीरों से (भाषा द्रव्य का) ग्रहण करता है या किसी एक से (या अन्य कुछ " से)। इस आशंका को दूर करने के लिए आगे गाथा कह रहे हैं (r)(r)cRBSCR@@@@c809009088009 - - 80 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARRRRRRRRRR नियुक्ति गाथा-8 902020009000 (8) 222222223333333333333332223333333333333333382 (नियुक्ति-अर्थ-) त्रिविध शरीर में जीव के (अंगभूत) जीव-प्रदेश हुआ करते हैं, . जिन (आत्म-प्रदेशों) के द्वारा जीव 'ग्रहण' (के योग्य शब्द-पुद्गलों) का ग्रहण करता है, . इसके बाद वक्ता भाषा का भाषण करता है। ce (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) 'त्रिविधे' त्रिप्रकारे।शीर्यत इति शरीरं तस्मिन्, औदारिकादीनामन्यतम , इत्यर्थः।जीवतीति जीवः तस्य प्रदेशाः जीवप्रदेशाः भवन्ति। एतावत्युच्यमाने 'भिक्षोः पात्रम्' . 4 इत्यादौ षष्ट्या भेदेऽपि दर्शनात्मा भूद् भिन्नप्रदेशतयाऽप्रदेशात्मसंप्रत्यय इत्यत आह-जीवस्य / c आत्मभूता भवन्ति, ततश्चानेन निष्प्रदेशजीववादिनिराकरणमाह, सति निष्प्रदेशत्वे करचरणोa रुग्रीवाद्यवयवसंसर्गाभावः, तदेकत्वापत्तेः। कथम्? -करादिसंयुक्तजीवप्रदेशस्य " उत्तमाङ्गादिसंबद्धात्मप्रदेशेभ्यो भेदाभेदविकल्पानुपपत्तेरिति। a. (वृत्ति-हिन्दी-) त्रिविध यानी तीन प्रकार के शरीर में / जो शीर्ण (क्षीण) होता है, वह 'शरीर' कहा जाता है, अर्थात् औदारिक आदि पांच प्रकार के शरीरों में से कोई भी एक।जो जीवित रहता है, वह 'जीव' है। जीव-प्रदेश यानी जीव के प्रदेश / किन्तु उक्त कथन करने पर, , जिस प्रकार 'भिक्षु का पात्र' इस कथन में 'का' (षष्ठी विभक्ति) के कारण (भिक्षु व पात्र में परस्पर) भेद देखा जाता है, उसी तरह कहीं जीव और प्रदेश -इन (दोनों) में परस्पर भेद " << मान कर, किसी को आत्मा के प्रदेशरहित होने की प्रतीति हो सकती है, इसलिए (उसके " a निवारण हेतु) कहा- (जीवस्य)। जीव के (वे जीव-प्रदेश) हैं, अर्थात् वे प्रदेश जीवरूप हैं जीव के आत्मभूत हैं (अर्थात् जीव से अभिन्न हैं)। इस कथन के द्वारा 'जो जीव को प्रदेशरहित (निरवयव) मानते हैं, उनका निराकरण भी सूचित कर दिया गया है। क्योंकि / जीव यदि प्रदेशहीन हो तो उसका हाथ, पांव, ऊरु, ग्रीवा आदि अवयवों से संसर्ग (संगत) n नहीं हो पाएगा, इसका कारण यह है कि यदि संसर्ग हो तो हाथ, पांव आदि की (भिन्नता & समाप्त होकर) एकता (अभिन्नता) की अनिष्ट स्थिति पैदा हो जाएगी। (प्रश्न-) यह कैसे होगी? (उत्तर-) हाथ आदि से संयुक्त जीव-प्रदेश और सिर आदि से सम्बद्ध आत्मप्रदेश -: इनमें परस्पर भेद या अभेद -इन दोनों विकल्पों की असंगति हो जाएगी। [तात्पर्य यह है कि * यदि भेद मानेंगे तो आत्मा को भी सावयव मानना पड़ेगा, और आत्मा को निष्प्रदेश मानने का मत खण्डित होगा, और अभेद मानेंगे तो निष्प्रदेश आत्मा की भिन्न-भिन्न अवयवों के साथ संयोग नहीं हो SecROBRO0808090Sce@ 81 - Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cace ca ca ca ca ca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 सकता, इसलिए किसी एक अवयव की ही सात्मकता (आत्मसम्बद्धता) माननी पड़ेगी, न कि सभी / अवयवों की। इस प्रकार, दोनों ही विकल्पों में अनिष्ट आपत्ति उठ खड़ी होगी। -222222222222223333333333333333333333333333333 ca (हरिभद्रीय वृत्तिः) यैः किं करोतीत्याह- 'यैस्तु गृह्णाति'।तुशब्दो विशेषणार्थः। किं विशिनष्टि? -न सर्वदैव गृह्णाति, किन्तु तत्परिणामे सति, किम्? -गृह्यत इति ग्रहणम्, ग्रहणमिति “कृत्यल्युटो, & बहुलम्” (पा. 3-3-113) इतिवचनात्कर्मकारकम्, शब्दद्रव्यनिवहमित्यर्थः। ततो' गृहीत्वा 'भाषते' वक्ति, भाषत इति भाषकः क्रियाऽऽविष्ट इत्यर्थः।अनेन निष्क्रियात्मवादव्यवच्छेदमाह, . & सति तस्मिन्निष्क्रियत्वात् अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपत्वाद्भाषणाभावप्रसङ्गः ।काम्?-भाष्यत , इति भाषा, तां भाषाम्। आह- 'ततो भाषते भाषक' इत्यनेनैव गतार्थत्वाद्भाषाग्रहणमतिरिच्यते इति, न / अभिप्रायापरिज्ञानात्।इह भाष्यमाणैव भाषोच्यते, न पूर्वं नापि पश्चाद, इत्यस्यार्थस्य ख्यापनाय & भाषाग्रहणमदुष्टमेवेति गाथार्थः॥८॥ (वृत्ति-हिन्दी-) जो (आत्म-प्रदेश बताए गये) हैं, उनसे (वक्ता) क्या करता है? उत्तर : & दिया- जिनसे (इन्हीं से) तो (वह) ग्रहण करता है। यहां 'तो' शब्द विशेषण-परक है। (प्रश्न) क्या विशेषता व्यक्त कर रहा है? (उत्तर-) यह बता रहा है कि सर्वदा ग्रहण नहीं करता, c. अपितु (योग्य) परिणाम होने पर (ग्रहण करता है)। (प्रश्न-) क्या (ग्रहण करता है)? (उत्तर & है-) 'ग्रहण' को (ग्रहण करता है)। जो ग्रहण किया जाव, अर्थात् शब्द-द्रव्य-समूह (ही & 'ग्रहण' शब्द से अभिप्रेत है), यहां ‘ग्रह' धातु से कर्म अर्थ में 'कृत्यल्युटो बहुलम्' (पाणिनीय . & सू. 3/3/113) से ल्युट् (अन) प्रत्यय हुआ है। ततः= उसके ('ग्रहण' के ग्रहण होते) के बाद, 6 भाषते बोलता है। कौन? (उत्तर-) भाषक, अर्थात् भाषण करने वाला, भाषण-क्रिया से 6 युक्त (वक्ता जीव बोलता है)। उपर्युक्त कथन (कि 'वक्ता जीव बोलता है') से आत्मा को a निष्क्रिय मानने वाले मत का निराकरण किया गया है, क्योंकि यदि आत्मा निष्क्रिय हो तो उसे अप्रच्युत, स्थिर, अनुत्पन्न व एकरूप (अर्थात् किसी भी परिणमन से रहित) मानना होगा, और उस स्थिति में उसके द्वारा भाषण किया जाना असंगत हो जाएगा (क्योंकि पहले : जो मौन था, अब बोल रहा है, यह परिणति 'विकार' होती है जो निष्क्रिय आत्मा में संगत ce नहीं हो सकती)। (प्रश्न-) किसे भाषित करता (बोलता) है? (उत्तर-) जो भाषित होती है, " / उसे अर्थात् भाषा को (भाषित करता है)। 82 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRece හ හ හ හ හ හ හ හ හ 23333333333333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-8 (शंकाकार ने) कहा- 'उसके बाद वक्ता भाषण करता है' -इतने कथन मात्र से ही ca बात पूरी हो जाती, ('भाषा का भाषण करता है' -यह कहकर 'भाषा का' यह कथन है अतिरिक्त (अनपेक्षित) हो जाता है (अतः भाषा को भाषित करता है -यह कथन क्यों किया . & गया?) (उत्तर-) आपका आरोप सही नहीं है, क्योंकि (हमारे कथन के) अभिप्राय को आप समझ नहीं पाए हैं। जो भाषित की जाती है, उसे ही 'भाषा' कहना चाहिए, भाषण से पूर्व या भाषण के बाद भाषा (की सत्ता) नहीं होती -इस अर्थ (अभिप्राय) को व्यक्त करने लिए यहां " 'भाषा' शब्द का (अतिरिक्त) ग्रहण किया गया है। अतः (जैसा शंकाकार ने कहा है, वैसा) a कोई दोष नहीं रह जाता। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ IB || विशेषार्थ ___“जीव के प्रदेश' इतना ही कहना पर्याप्त था, फिर भी नियुक्ति में 'जीव के जीव-प्रदेश' यह " ca कथन किया है जिसमें विशेष बात अन्तर्निहित है। यहां जीव शब्द दो बार पढ़ा गया है, जो यह सूचित ca करता है कि जो जीव के प्रदेश हैं, वे जीव के ही हैं (या जीव रूप ही हैं), अर्थात् जीव और उसके प्रदेश ca अभिन्न हैं। जिस प्रकार 'भिक्षु का पात्र' ऐसा कहने पर भिक्षु व पात्र -इन दोनों की भिन्नता समझ में 2 & आती है, उसी तरह ‘जीव के प्रदेश' ऐसा कहने पर जीव और उसके प्रदेश -इन दोनों में भी कोई परस्पर-भिन्नता का बोध कर सकता है- इसलिए दो बार जीव शब्द का कथन किया गया है। वस्तुतः जीव एक अखण्ड द्रव्य है, वह द्रव्यतः एक है, वह निर्विभाग है, उसका अंश-अंश करके पृथक्-पृथक् विभाग सम्भव नहीं है। किन्तु काल्पनिक या व्यावहारिक दृष्टि से उसके असंख्यात प्रदेशों (अंशों) का " ल होना माना जाता है। शुद्धनय से आत्मा अप्रदेश ही है। अतः आत्मा की सावयवता कथंचित् ही है (द्र. ca राजवार्तिक-5/6 तथा 5/8) / आत्मा की सप्रदेशता (सावयवता) को लेकर दार्शनिकों में मतभेद है। व्याय-वैशेषिकों के 6 मत में आत्मा नित्य, निरवयव है। उनके मत में सावयव पदार्थ कार्य (उत्पन्न होने वाले) तथा अनित्य & होते हैं, इसलिए यदि आत्मा को सावयव माना जाएगा तो उसकी नित्यता पर प्रश्नचिन्ह लगेगा। जैनदर्शन आत्मा को नित्य भी मानता है और असंख्यात प्रदेशी भी। आत्मा परिणामीनित्य है, और नित्यता व परिणामयुक्तता -दोनों उसमें सम्भव हैं। जहां तक शरीर के हाथ, पांव, ग्रीवा आदि अंगों की बात है, जैन व न्यायवैशेषिक -सभी उन्हें सावयव मानते हैं। - (r)(r)ca(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)e 83 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333332 -aca cace cacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9000000 प्रस्तुत प्रकरण में आत्मा की सावयवता की युक्तियुक्तता का समर्थन किया गया है। आत्मा a को सावयव मानने पर शरीर के हाथ, पांव, सिर, ग्रीवा आदि विविध अवयवों की पृथक-पृथक् सात्मकता (सचेतनता, आत्मसंबद्धता) संगत या सम्भव हो जाती है। आत्मा भी सावयव है और " शरीर के विविध अंग भी सावयव हैं। आत्मा के अवयवों का शरीर के अवयवों के साथ संसर्ग होता . है। निरवयव आत्मा का उनसे पृथक्-पृथक् संसर्ग हो नहीं पाएगा। निष्प्रदेश आत्मा का प्रत्येक अवयव के साथ युगपत् संसर्ग हो तो सब अवयवों की एकता -अभिन्नता हो जाएगी। किसी एक c. शरीरावयव से निष्प्रदेश आत्मा का संसर्ग हो जाय तो दूसरे अन्य अवयवों के साथ संसर्ग नहीं हो - ca पाएगा, और आत्मा युगपत् सभी अवयवों के साथ सम्बद्ध हो तो सभी की एकात्मता हो जाएगी, . भिन्नता नहीं रह पाएगी। आत्मा को सावयव मानने पर यह दोष नहीं रहता, क्योंकि आत्मा के कुछ अवयव हाथ से, कुछ अवयव ग्रीवा से सम्बद्ध हो जाते हैं और प्रत्येक शरीरावयव आत्मा के विभिन्न अवयवों से जुड़ता हुआ, अपनी-अपनी स्वतन्त्र, भिन्न स्थिति कायम रखता है। भाषा कौन सी?- प्रस्तुत प्रकरण में यह भी स्पष्ट किया गया है कि वक्ता अपने कायिक , योग से भाषावर्गणा के योग्य पुद्गल-द्रव्यों का ग्रहण करता है, वह भाषा नहीं है। इसी तरह बोलने , 8 के बाद जो शब्द आकाश-प्रदेशों में फैलते हैं, प्रतिध्वनित होते हैं, या श्रवणयोग्य होते हैं, वह भी / ce 'भाषा' नहीं कहा जा सकता। पुद्गल-द्रव्यों के ग्रहण के बाद जो वाचिक योग से जो भाषा-द्रव्य " & उत्सर्जित होते हैं, उसी उत्सर्जन की स्थिति में 'भाषा' की सत्ता है जो वक्ता द्वारा भाषित होती है। इस से तथ्य की प्ररूपणा भगवती-सूत्र (1/10) में भी की गई है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) यदुक्तं- 'त्रिविधे शरीरे' इत्यादि, तत्र न ज्ञायते कतमत् त्रैविध्यमिति, अतस्तदभिधातुकाम आह (नियुक्तिः) ओरालियवेउवियआहारो गिण्हई मुयइ भासं। सच्चं मोसं सच्चामोसं च असच्चमोसं च // 9 // [संस्कृतच्छायाः-औदारिक-वैक्रिय-आहारको गृह्णाति मुश्चति भाषाम् ।सत्यां सत्यमृषां मृषांच & असत्यमृषां च // ] (वृत्ति-हिन्दी-) (पूर्व गाथा में) त्रिविध शरीर में (जीव प्रदेश होते हैं-) इत्यादि कथन : किया गया था। वहां यह (स्पष्ट) ज्ञात नहीं होता कि वे शरीर के तीन प्रकार कौन से हैं? " इसलिए उसे बताने की इच्छा से (नियुक्तिकार) कह रहे हैं- 84 @@comcaeyca@2889089808990 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ এর যে যে যে যে যে হে হে হে হে। नियुक्ति गाया-9 හ හ හ හ හ හ හ හ හ -~ s 333333333333 (9) (नियुक्ति-अर्थ-) औदारिक, वैक्रियक व आहारक शरीर (वाले जीव) सत्य, मृषा " (असत्य), सत्य-मृषा और असत्य-मृषा (-इन चार प्रकारों वाली) भाषा (के योग्य पुद्गलद्रव्यों) को ग्रहण करता है और (उन्हें) छोड़ता (निसर्जन करता) है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र औदारिकवानौदारिकः, इहौदारिकशब्देनाभेदोपचाराद् मतुब्लोपाद्वा . औदारिकशरीरिणो ग्रहणमिति। एवं वैक्रियवान्वैक्रियः, आहारकवानाहारक इति।असौ , औदारिकादिः / गृह्णाति' आदत्ते, 'मुञ्चति' निसृजति च, भाष्यत इति भाषा तां भाषाम्, . & शब्दप्रायोग्यतया तद्भावपरिणतद्रव्यसंहतिमित्यर्थः। किंविशिष्टामित्याह-सतां हिता सत्या, . सन्तो मुनयस्तदुपकारिणी सत्येति, अथवा सन्तो मूलोत्तरगुणास्तदनुपघातिनी सत्या, अथवा सन्तः पदार्या जीवादयः, तद्धिता तत्प्रत्यायनफला जनपदसत्यादिभेदा सत्येति, तां सत्याम्। " व सत्याया विपरीतरूपा क्रोधाश्रितादिभेदा मृषेति ताम् / तथा तदुभयस्वभावा " वस्त्वेकदेशप्रत्यायनफला उत्पन्नमिश्रादिभेदा सत्यामृषेति ताम् / तथा तिसृष्वप्यनधिकृता & शब्दमात्रस्वभावाSSमन्त्रण्यादिभेदा असत्यामृषेति तां च / चशब्दः समुच्चयार्थः। आसां च . स्वरूपमुदाहरणयुक्तानां सूत्रादवसेयमिति गाथार्थः // 9 // (वृत्ति-हिन्दी-) यहां 'औदारिक' का अर्थ है-औदारिक शरीरवाला, क्योंकि अभेदोपचार : कर (औदारिक शरीर और शरीरधारी में परस्पर अभेद मानकर) अथवा 'मतुप' ('वाला') . प्रत्यय का लोप कर 'औदारिक' शब्द से- 'औरदारिक शरीरधारी' का ग्रहण किया गया है। ( इसी प्रकार, वैक्रिय का अर्थ है- वैक्रिय शरीर वाला। आहारक का अर्थ है- आहारक शरीर a वाला। औदारिक आदि (शरीर-धारक), उस भाषा को जो भाषित होती है, अर्थात् शब्द रूप " बनने की योग्यता के कारण शब्द रूप परिणत होने वाले द्रव्य-समूह को, ग्रहण करते हैं और " a (भाषा रूप में) छोड़ते हैं। (प्रश्न-) वह भाषा किस-किस प्रकार की होती है? उत्तर दे रहे , हैं- (वह सत्या आदि चार प्रकार की होती है, उनमें एक है-) सत्या भाषा यानी वह भाषा . जो सत्पुरुषों के लिए उपकारिणी होती है, अथवा सत्पुरुष यानी मुनिजन, उनके लिए उपकारिणी होती है, अथवा सत् यानी (श्रमण-चर्या के अंग) मूलगण व उत्तर-गुण उनका है उपघात न करने वाली, अथवा सत् यानी जीव आदि पदार्थ, उनके लिए हितकारी अर्थात् 2222222382322 85 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ acacacacacece श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 00000000 333333333333333333333333333333333331 / उनका (यथार्थ) बोध कराने वाली एवं 'जनपदसत्य' आदि (के आधार पर विभिन्न प्रकार / ce वाली, ऐसी भाषा को (वक्ता ग्रहण करता है और छोड़ता है)। सत्या भाषा से विपरीत स्वरूप , वाली, एवं 'क्रोध मिश्र' आदि-भेदों वाली जो भाषा है, वह 'मृषा' (असत्य) होती है (उसे भी वक्ता गहण करता व छोड़ता है)। तथा (सत्या व मृषा -इन) के स्वभाव वाली और वस्तु के / एकदेश (अंशभूत धर्म-विशेष) का प्रतिपादन करने वाली एवं 'उत्पन्नमिश्र' आदि भेदों वाली & जो भाषा है, वह 'सत्यामृषा' होती है (उसे भी वक्ता ग्रहण करता है व छोड़ता है)। तथा (इन " पूर्वोक्त) तीनों भाषाओं में अनधिकृत (अपरिगणित), शब्द मात्र स्वभाव वाली, एवं 'आमन्त्रणी' . & आदि भेदों वाली भाषा 'असत्यामृषा' होती है, उसे भी (वक्ता ग्रहण करता व छोड़ता है)। यहां , 'च' शब्द समुच्चय ('और' -इस) अर्थ को व्यक्त करता है अर्थात् वक्ता द्वारा ग्रहण की जाने वाली और छोड़ी जाने वाली भाषाओं में इन चारों भाषाओं का ग्रहण करना चाहिए। इन सभी & भाषाओं के स्वरूप आदि का सोदाहरण निरूपण (प्रज्ञापना आदि) सूत्र (आगम) से जाना ca जा सकता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // विशेषार्थ अहिंसा के साधकों के लिए वाणी-संयम अत्यन्त अपेक्षित माना गया है। विशेष कर श्रमण- " ce चर्या में तो यह अनिवार्यतः अपेक्षित है ही। इसी दृष्टि से दशवैकालिक सूत्र के सप्तम अध्ययन में स्पष्ट " & कहा गया है कि मुनि भाषा के चार प्रकारों को जानकर, उनमें दो प्रकार की भाषा का तो कभी, प्रयोग न करे। असत्याऽमृषा और सत्य भाषा -जो पूर्णतः निष्पाप, मृदु व संदेह रहित हो- वही , भाषा बोलने योग्य होती है। सत्यमृषा, मृषा, अवक्तव्य सत्य एवं बुद्ध पुरुषों द्वारा अप्रयुक्त भाषा का . & प्रयोग सर्वदा वर्जनीय है।जो कठोर व जीव-हिंसा में निमित्त हो -ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए। " सत्या भाषा को मूलगुण व उत्तरगुणों की अविरोधिनी कहा गया है। मुनित्व की साधना में जो , अनिवार्य गुण होते हैं, वे मूलगुण होते हैं और जो साधना में प्रगति के लिए अपेक्षित होते हैं, वे उत्तरगुण होते हैं। सूत्रकृतांग-नियुक्ति के अनुसार, पांच महाव्रत मूलगुण हैं और बारह प्रकार का तप & उत्तरगुण है। ठाणं-10, तथा भगवती-7/2 में अनागत-प्रत्याख्यान आदि दस उत्तरगुण बताये गए हैं। वह भाषा जो इनका उपघात करती हो, 'सत्या' नहीं कहलाती। प्रस्तुत प्रकरण में भाषा की महत्ता को ध्यान में रखकर भाषा के चार भेदों का निर्देश किया , गया है। टीकाकार ने इनके स्वरूपों की भी संक्षेप में विवेचना की है और विशेष परिचय हेतु आगमों : के स्वाध्याय का संकेत भी किया है। इन भाषाओं के सम्बन्ध में स्थानांग (दशम स्थान) तथा - 86 B BCRecr@ @ @ @ @ @ @ @ @ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRecace ce 999999999999999 23333333333333 नियुक्ति गाथा-9 प्रज्ञापना (ग्यारहवां पद, तथा उसकी मलयगिरिवृत्ति) में जो निरूपण प्राप्त है, उसे पाठकों के हितार्थ / a यहां प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। आराधनी व विराधनी भाषाएं- सत्या, सत्यामृषा, मृषा व असत्यमृषा -इन चारों में कुछ 'आराधनी' हैं तो कुछ 'विराधनी'। जिसके द्वारा मोक्षमार्ग की आराधना की जाए, वह आराधनी / भाषा है। किसी भी विषय में शंका उपस्थित होने पर वस्तुतत्त्व की स्थापना की बुद्धि से जो 8. सर्वज्ञमतानुसार बोली जाती है, जैसे कि आत्मा का सद्भाव है, वह स्वरूप से सत् है, पररूप से असत् " & है, द्रव्यार्थिक नय से नित्य है, पर्यायार्थिक नय से अनित्य है, इत्यादि रूप से यथार्थ वस्तुस्वरूप का , कथन वाली होने से आराधनी है। जो आराधनी हो, उस भाषा को सत्याभाषा समझनी चाहिए। जो , विराधनी हो, वह मृषा है, अर्थात् –जिसके द्वारा मुक्तिमार्ग की विराधना हो, वह विराधनी भाषा है। 1 विपरीत वस्तुस्थापना के आशय से सर्वज्ञमत के प्रतिकूल जो बोली जाती है, जैसे- आत्मा नहीं है, . a अथवा आत्मा एकान्त नित्य है या एकान्त अनित्य है, इत्यादि। अथवा जो भाषा सच्ची होते हुए भी " परपीड़ा-जनक हो, वह भाषा विराधनी है। इस प्रकार रत्नत्रयरूप मुक्तिमार्ग की विराधना करने , वाली जो हो, वह भी विराधनी है। विराधनी भाषा को मृषा समझना चाहिए।जो आराधनी-विराधनी , & उभयरूप हो, वह सत्यामृषा- है, अर्थात् जो भाषा आंशिक रूप से आराधनी और आंशिक रूप से " a विराधनी हो, वह आराधनी-विराधनी कहलाती है। जैसे- किसी ग्राम या नगर में पांच बालकों का " a जन्म हुआ, किन्तु किसी के पूछने पर कह देना 'इस गांव या नगर में आज दसेक बालकों का जन्म , हुआ है।' 'पांच बालकों का जो जन्म हुआ' उतने अंश में यह भाषा संवादिनी होने से आराधनी है, .. a किन्तु पूरे दस बालकों का जन्म न होने से उतने अंश में यह भाषा विसंवादिनी होने से विराधनी है। " * इस प्रकार स्थूल व्यवहारनय के मत से यह भाषा आराधनी-विराधनी हुई। इस प्रकार की भाषा 2 'सत्यामषा' है। जो न आराधनी हो. न विराधनी, वह असत्यामषा-जिस भाषा में आराधनी के लक्षण भी घटित न होते हों तथा जो विपरीतवस्तुस्वरूप कथन के अभाव का तथा परपीड़ा का कारण न होने से जो भाषा विराधनी भी न हो तथा जो भाषा आंशिक संवादी और आंशिक विसंवादी भी न , a होने से आराधन-विराधनी भी न हो, ऐसी भाषा असत्यामृषा समझनी चाहिए। ऐसी भाषा प्रायः " a आज्ञापनी या आमंत्रणी होती है, जैसे- मुने! प्रतिक्रमण करो -ऐसा कहना। a इन भाषाओं के विविध प्रकारों का निरूपण इस प्रकार है- सत्या भाषा के 10 भेद हैं- (1) . जनपदसत्या, (2) सम्मतसत्या, (3) स्थापनासत्या, (4) जामसत्या, (5) रूपसत्या, (6) प्रतीत्यसत्या, (7) : * व्यवहारसत्या, (8) भावसत्या, (9) योगसत्या, (10) औपम्यसत्या। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- " (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)cR9900 87 - Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222222222222222222222222222233333333333333 - -cace cace cace ca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 09009090902 (1) जनपदसत्या-विभिन्न जनपदों (प्रान्तों या प्रदेशों) में जिस शब्द का जो अर्थ इष्ट है, उस ca इष्ट अर्थ का बोध कराने वाली होने के कारण व्यवहार का हेतु होने से जो सत्य मानी जाती है। जैसे , कोंकण आदि प्रदेशों में पय को 'पिच्चम्' कहते हैं। (2) सम्मतसत्या-जो समस्सलोक में सम्मत होने .. ce के कारण सत्यरूप में प्रसिद्ध है।जैसे- शैवाल, कुमुद (चन्द्रविकासी कमल) और कमल (सूर्यविकासी ca कमल) ये सब पंकज हैं- कीचड़ में ही उत्पन्न होते हैं, किन्तु 'पंकज' शब्द से जनसाधारण 'कमल' . & अर्थ ही समझते हैं। शैवाल आदि को कोई पंकज नहीं कहता। अतएव कमल को ‘पंकज' कहना है सम्मतसत्य भाषा है। (3) स्थापनासत्या-तथाविध (विशेष प्रकार के) अंकादि के विन्यास तथा मुद्रा : ca आदि के ऊपर रचना (छाप) देखकर जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, वह स्थापनासत्या भाषा ce है। जैसे '1' अङ्क के आगे दो बिन्दु देखकर कहना- यह सौ (100) है, तीन बिन्दु देखकर कहना- यह एक हजार (1000) है। अथवा मिट्टी, चांदी, सोना आदि पर अमुक मुद्रा (मुहरछाप) अंकित देखकर माष, कार्षापण, मुहर (गिन्नी), रुपया आदि कहना। (4) नामसत्या- केवल नाम के कारण ही जो / 4 भाषा सत्य मानी जाती है, वह नामसत्या कहलाती है। जैसे- कोई व्यक्ति अपने कुल की वृद्धि नहीं ? ca करता, फिर भी उसका नाम 'कुलवर्द्धन' कहा जाता है। (5) रूपसत्या-जो भाषा केवल अमुक रुप . a (वेशभूषा आदि) से ही सत्य है। जैसे- किसी व्यक्ति ने दम्भपूर्वक साधु का रूप (स्वांग) बना लिया हो, उसे 'साधु' कहना रूपसत्या भाषा है। (6) प्रतीत्यसत्या-जो किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा से 2 ca सत्य हो। जैसे- अनामिका अंगुली को 'कनिष्ठा' (सबसे छोटी) अंगुली की अपेक्षा से दीर्घ कहना, .. 4 और मध्यमा की अपेक्षा से ह्रस्व कहना प्रतीत्यसत्या भाषा है। (7) व्यवहारसत्या- व्यवहार से- " लोकविवक्षा से जो सत्य हो वह व्यवहारसत्य भाषा है। जैसे- किसी ने कहा- 'पहाड़ जल रहा है'। यहां पहाड़ के साथ घास की अभेदविवक्षा करके ऐसा कहा गया है। अतः लोकव्यवहार की अपेक्षा से .. 4 ऐसा बोलने वाले साधु की भाषा भी व्यवहारसत्या होती है। (8) भावसत्या--भाव से अर्थात् -वर्ण ce आदि (की उत्कटता) को लेकर जो भाषा बोली जाती हो, वह भावसत्या भाषा है। अर्थात्- जो भाव " & जिस पदार्थ में अधिकता से पाया जाता है, उसी के आधार पर भाषा का प्रयोग करना भावसत्या , & भाषा है।जैसे- बलाका (बगुलों की पंक्ति) में पांचों वर्ण होने पर भी उसे श्वेत कहना / (7) योगसत्या योग का अर्थ है- सम्बन्ध, संयोग; उसके कारण जो भाषा सत्य मानी जाए। जैसे- छत्र के योग से , ca किसी को छत्री कहना, भले ही शब्दप्रयोगकाल में उसके पास छत्र न हो। इसी प्रकार किसी को दण्ड " ca के योग से दण्डी कहना। (10) औपम्यसत्या- उपमा से जो भाषा सत्य मानी जाए। जैसे- गौ के 2 समान 'गवय' (पशु विशेष) होता है। इस प्रकार की उपमा पर आश्रित भाषा को औपम्यसत्या कहा जाता है। &&&&&&aaaaaaaaaaaaaaaaaaa हामी 88 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRce හ හ හ හ හ හ හ ග න * - 2322323233 23 नियुक्ति गाथा-१ मृषा भाषा के 10 भेद इस प्रकार हैं- (1) क्रोधनिःसृता (2) माननिःसृता, (3) मायानिःसृता, a (4) लोभनिःसृता, (5) प्रेय (राग)-निःसृता, (6) द्वेषनिःसृता, (7) हास्यनिःसृता, (8) भयनिःसृता, (9) a आख्यायिका-निःसृता, (10) उपघात-निःसृता। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है (1) क्रोधनिःसृता-क्रोधवश मुंह से निकली हुई भाषा, (2) माननिःसृता- पहले अनुभव न / ca किये हुए ऐश्वर्य का, अपना आत्मोत्कर्ष बताने के लिए कहना कि हमने भी एक समय ऐश्वर्य का a अनुभव किया था, यह कथन मिथ्या होने से मान-निःसृता है। (3) मायानिःसृता- परवंचना आदि के 4 अभिप्राय से निकली हुई वाणी। (4) लोभ निःसृता-लोभवश, झूठ तौल-नाप करके पूछने पर कहना है यह तौल-नाप ठीक प्रमाणोपेत है, ऐसी भाषा लोभनिःसृता है। (5) प्रेय (राग) निःसृता-किसी के प्रति a अत्यन्त रागवश कहना- 'मैं तो आपका दास हूं', ऐसी भाषा प्रेयनिःसृता है। (6) द्वेषनिःसृताद्वेषवश तीर्थकरादि का अवर्णवाद करना। (7) हास्यनिःसृता- हंसी-मजाक में झूठ बोलना। (8) भयनिःसृता- भय से निकली हुई भाषा। जैसे- चोरों आदि के डर से कोई अंटसंट या ऊटपटांग " a बोलता है, उसकी भाषा भयनिःसृता है। (9) उपघात-निःसृता- किसी कथा-कहानी के कहने में 2 सम्भव वस्तु का कथन करना। (10) उपघात-निःसृता- दूसरे केहृदय को उपघात (आघात-चोट) पहुंचाने की दृष्टि से मुख से निकाली हुई भाषा।जैसे- किसी पर अभ्याख्यान लगाना कि 'तू चोर है।' ca अथवा अन्धे को अंधा या काने को काना बोलना। ca सत्यामृषा भाषा के दस भेद इस प्रकार हैं- (1) उत्पन्न-मिश्रिता, (2) विगतामिश्रिता (3) m Ma उत्पन्नविगतमिश्रिता, (4) जीवमिश्रिता, (5) अजीवमिश्रिता (6) जीवाजीवमिश्रिता (7) अनन्तमिश्रिता, CM (8) प्रत्येक-मिश्रिता, (9)अद्धामिश्रिता, (10) अद्धाद्धामिश्रिता / इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है . () उत्पन्नमिश्रिता- अनुत्पन्नों (जो उत्पन्न नहीं हुए हैं) के साथ संख्यापूर्ति के लिए उत्पन्नों & को मिश्रित करके बोलना / जैसे- किसी ग्राम या नगर में कम या अधिक शिशुओं का जन्म होने पर भी कहना कि आज इस ग्राम या नगर में दस शिशुओं का जन्म हुआ है। (2) विगतमिश्रिता-विगत का अर्थ है- विगत न हो, वह अविगत है। अविगतों (जीवितों) के साथ विगतों (मृतों) को संख्या की << पूर्ति हेतु मिला कर कहना / जैसे- किसी ग्राम या नगर में कम या अधिक वृद्धों के मरने पर भी ऐसे " ca कहना कि आज इस ग्राम या नगर में बारह बूढ़े मर गए। यह भाषा विगतमिश्रिता सत्यामृषा है। (3) . उत्पन्नविगतिमिश्रता- उत्पन्नों (जन्में हुओं) और मृतकों (मरे हुओं) की संख्या नियत होने पर भी / 4 उसमें गड़बड़ करके कहना। (4) जीवमिश्रिता-शंख आदि की ऐसी राशि हो, जिसमें बहुत-से जीवित 1 ca हों और कुछ मृत हों, उस एक राशि को देख कर कहना कि कितनी बड़ी जीवराशि है, यह . जीवमिश्रिता सत्यामृषा भाषा है, क्योंकि यह भाषा जीवित शंखों की अपेक्षा सत्य है और मृत शंखों की अपेक्षा से मृषा / (5) अजीवमिश्रिता- बहुत-से मृतकों और थोड़े-से जीवित शंखों की एक राशि (r)(r)(r)(r)(r)Recr@9880808080908 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& 22222 333333 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ce CE CR CR CR cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2020009| को देखकर कहना कि 'कितनी बड़ी मृतकों की राशि है', इस प्रकार की भाषा अजीवमिश्रिता a सत्यामृषा भाषा कहलाती है, क्योंकि यह भाषा भी मृतकों की अपेक्षा से सत्य और जीवितों की 4 अपेक्षा मृषा है। (6) जीवा-जीवमिश्रिता-उसी पूर्वोक्त राशि को देखकर, संख्या में विसंवाद होने पर : ce भी नियतरूप से निश्चित कह देना कि इसमें इतने मृतक हैं, इतने जीवित हैं। यहां जीवों और अजीवों , की विद्यमानता सत्य है, किन्तु उनकी संख्या निश्चित कहना मृषा है। अतएव यह जीवाजीवमिश्रिता , सत्यामृषा भाषा है। (7) अनन्तमिश्रिता-मूली, गाजर आदि अनन्तकाय कहलाते हैं, उनके साथ कुछ c. प्रत्येक वनस्पतिकायिक भी मिले हुए हैं, इन्हें देखकर कहना किये सब अनन्तकायिक हैं- यह भाषा & अनन्तमिश्रिता सत्यामृषा है। (8) प्रत्येकमिश्रिता- प्रत्येक वनस्पतिकाय का संघात अनन्तकायिक के & साथ ढेर करके रखा हो, उसे देखकर कहना कि 'यह सब प्रत्येकवनस्पतिकायिक है'; इस प्रकार की र भाषा प्रत्येकमिश्रिता सत्यामृषा है। (9) अद्धामिश्रिता- अद्धा कहते हैं- काल को। यहां प्रसङ्गवश . c& अद्धा से दिन या रात्रि अर्थ ग्रहण करना चाहिए, जिसमें दोनों का मिश्रण करके कहा जाए। जैसे अभी दिन विद्यमान है, फिर भी किसी से कहा- उठ, रात पड़ गई। अथवा अभी रात्रि शेष है, फिर भी कहना कि उठ, सूर्योदय हो गया। (10) अद्धाद्धामिश्रिता- अद्धाद्धा कहते हैं- दिन या रात्रि काल cm के एक देश (अंश) को। जिस भाषा के द्वारा उन कालांशों का मिश्रण करके बोला जाए। जैसे- अभी " ca पहला पहर चल रहा है, फिर भी कोई व्यक्ति किसी को जल्दी करने की दृष्टि से कहे कि 'चल' मध्याह्न CM हो गया है', ऐसी भाषा अद्धाद्धामिश्रिता होगी है। असत्यामृषा के 12 भेद इस प्रकार हैं- (1) आमंत्रणी, (2) आज्ञापनी (3) याचनी (4) पृच्छनी (5) प्रज्ञापनी (6) प्रत्याख्यानी (7) इच्छानुलोमा (8) अनभिगृहीता (9) अभिगृहीता, (10) ca संशयकरणी, (11) व्याकृता (12) अव्याकृता। R (1) आमंत्रणी-सम्बोधनसूचक भाषा।जैसे- हे देवदत्त! (2) आज्ञापनी-जिसके द्वारा दूसरे & को किसी प्रकार की आज्ञा दी जाए। जैसे- 'तुम यह कार्य करो। आज्ञापनी भाषा दूसरे को कार्य में , प्रवृत्त करने वाली होती है। (3) याचनी-किसी वस्तु की याचना करने (मांगने) के लिए प्रयुक्त की। जाने वाली भाषा / जैसे- मुझे दीजिए। (4) पृच्छनी-किसी संदिग्ध या अनिश्चित वस्तु के विषय में ce किसी विशिष्ट ज्ञाता से जिज्ञासावश पूछना कि 'इस शब्द का अर्थ क्या है?' (5) प्रज्ञापनी-विनीत शिष्यादि जनों के लिए उपदेशरूप भाषा। जैसे- जो प्राणिहिंसा से निवृत्त होते हैं, वे दूसरे जन्म में दीर्घायु होते हैं। (6) प्रत्याख्यानी-जिस भाषा के द्वारा अमुक वस्तु का प्रत्याख्यान कराया जाए या & प्रकट किया जाए। जैसे- आज तुम्हारे एक प्रहर तक आहार करने का प्रत्याख्यान है। अथवा किसी के द्वारा याचना करने पर कहना कि 'मैं यह वस्तु तुम्हें नहीं दे सकता। (7) इच्छानुलोमा-जो भाषा | इच्छा के अनुकूल हो, अर्थात्- वक्ता के इष्ट अर्थ का समर्थन करने वाली हो। इसके अनेक प्रकार हो - 90 (r)(r)(r)(r)ce@@ce@@cr80@@ce(r)(r) 333333333333333333388888888888 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRece හ හ හ හ හ හ හ හ හ **y 3333333333 222223333333333322822333333333 नियुक्ति गाथा-१ सकते हैं- (1) जैसे कोई किसी गुरुजन आदि से कहे- 'आपकी अनुमति (इच्छा) हो तो मैं / प्रतिक्रमण करना चाहता हूं।' (2) कोई व्यक्ति किसी साथी से कहे- 'आपकी इच्छा हो तो यह कार्य कीजिए', (3) आप यह कार्य कीजिए, इसमें मेरी अनुमति है। (या ऐसी मेरी इच्छा है)। इस प्रकार a की भाषा इच्छानुलोमा कहलाती है। (8) अनभिगृहीता-जो भाषा किसी नियत अर्थ का अवधारण न . कर पाती हो, वक्ता की जिस भाषा में कार्य का कोई निश्चित रूप न हो, वह अनभिगृहीता भाषा है। " जैसे किसी के सामने बहुत-से कार्य उपस्थित हैं, अतः वह अपने किसी बड़े या अनुभवी से पूछता हैce 'इस समय में कौन-सा कार्य करूं?' इस पर वह उत्तर देता है- 'जो उचित समझो, करो।' ऐसी भाषा 0 से किसी विशिष्ट कार्य का निर्णय नहीं होता, अतः इसे अनभिगृहीता भाषा कहते हैं। (9) अभिगृहीता- 2 जो भाषा किसी नियत अर्थ का निश्चय करने वाली हो, जैसे- इस समय अमुक कार्य करो, दूसरा कोई कार्य न करो। इस प्रकार की भाषा अभिगृहीता है। (10) संशयकरणी-जो भाषा अनेक अर्थों , & को प्रकट करने के कारण दूसरे के चित्त में संशय उत्पन्न कर देती हो। जैसे- किसी ने किसी से " कहा- सैन्धव ले आओ। सैन्धव शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे- घोड़ा, नमक, वस्त्र और पुरुष। , 'सैन्धव' शब्द को सुनकर यह संशय उत्पन्न होता है कि यह नमक मंगवाता है, या घोड़ा आदि / यह ca संशयकरणी भाषा है। (11) व्याकृता- जिस भाषा का अर्थ स्पष्ट हो, जैसे- यह घोड़ा है। (12) " ca अव्याकृता- जिस भाषा का अर्थ अत्यन्त ही गूढ हो, अथवा अव्यक्त (अस्पष्ट) अक्षरों का प्रयोग , करना अव्याकृता भाषा है, क्योंकि वह भाषा ही समझ में नहीं आती। असत्यामृषा भाषा पूर्वोक्त सत्या, मृषा और मिश्र -इन तीनों भाषाओं के लक्षण से विलक्षण ल होने के कारण न तो सत्य कहलाती है, न असत्य और न ही सत्यामृषा , यह भाषा केवल & व्यवहारप्रवर्तक है। . . प्रज्ञापना सूत्र की मलयगिरि-वृत्ति के अनुसार, उपर्युक्त- चारों प्रकार की भाषाओं को जो " & जीव सम्यक् प्रकार से उपयोग रख कर प्रवचन (संघ) पर आई हुई मलिनता की रक्षा करने में तत्पर , होकर बोलता है, अर्थात्- प्रवचन (संघ) को निन्दा और मलिनता से बचाने के लिए गौरव-लाघव का , 6 पर्यालोचन करके चारों में से किसी भी प्रकार की भाषा बोलता हुआ साधुवर्ग आराधक होता है, . विराधक नहीं। किन्तु जो उपयोगपूर्वक बोलने वाले से पर-भिन्न है तथा असंयत (मन-वचन-काय " के संयम से रहित) है, जो सावद्य व्यापार (हिंसादि पापमय प्रवृत्ति) से विरत नहीं (अविरत) है, जिसने , अपने भूतकालिक पापों को मिच्छा मि दुक्कडं (मेरा दुष्कृत मिथ्या हो), देकर तथा प्रायश्चित्त आदि / व स्वीकार करके प्रतिहत (नष्ट) नहीं किया है तथा जिसने भविष्य कालसम्बन्धी पाप न हों, इसके लिए 2 पापकर्मों का प्रत्याख्यान नहीं किया है, ऐसा जीव चाहे सत्यभाषा बोले या मृषा, सत्यामृषा या . असत्यामृषा में से कोई भी भाषा बोले, वह आराधक नहीं, विराधक है। - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)909 91 9 33333388888888888888888888888888888888888888 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rececacance श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 900900900 - -333333333333333333333333333333333333333333333 (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह- 'औदारिकादिः गृह्णाति मुञ्चति च भाषाम्' इत्युक्तम् / सा हि मुक्ता उत्कृष्टतः . & कियत्क्षेत्रं व्याप्नोतीति? उच्यते, समस्तमेव लोकमिति आह-यद्येवं 'कइo'त्तिगाहा।अयं & सूत्रतोऽभिसंबन्धः। (वृत्ति-हिन्दी-) [वृत्तिकार आगे वाली गाथा को पूर्वसन्दर्भ से जोड़ रहे हैं। वे अग्रिम गाथा 1 को दो प्रकार के संदर्भो से जोड़ कर देख रहे हैं। पूर्वगाथा में ही कुछ जिज्ञासा पैदा होती है, वही " * जिज्ञासा आगे की गाथा में है। यह एक संदर्भ हुआ। दूसरा संदर्भ इस प्रकार है। पीछे की गाथा के " ce अर्थ या व्याख्यान में इन्द्रिय-विषयों की, विशेषतः श्रोत्र इन्द्रिय की सीमा बताई गई थी, उस सम्बन्ध स में भी कुछ जिज्ञासा उठती है, वही आगे की गाथा में है।] जिज्ञासु का कहना है- 'औदारिक आदि (शरीरों के धारक) भाषा का ग्रहण व ce निसर्जन करता है'- ऐसा पहले (पूर्व गाथा में) कहा गया है। (तो कृपया यह बताएं कि) वह , मुक्त (निसर्जित) भाषा उत्कृष्टतः कितने क्षेत्र को व्याप्त करती है? उत्तर है- समस्त लोक & को। तब हमारी जिज्ञासा आगे की गाथा 'कइहिं समएहि' के रूप में है। इस प्रकार आगे ca की गाथा का सूत्र (मूल गाथा) से सम्बन्ध समझना चाहिए। (हरिभद्रीय वृत्तिः) अथवाऽर्थतः प्रतिपाद्यते।आह- द्वादशभ्यो योजनेभ्यः परतो न शृणोति शब्दम्, मन्दपरिणामत्वात्तद्रव्याणामित्युक्तम्, तत्र किं परतोऽपि द्रव्याणामागतिरस्ति?, यथा च विषयाभ्यन्तरे नैरन्तर्येण तद्वासनासामर्थ्यम्, एवं बहिरप्यस्ति उत बेति? उच्यते, अस्ति, CM केषाञ्चित् कृत्स्नलोकव्याप्तेः।आह-यद्येवम् नियुक्तिः) कइहि समएहि लोगो, भासाइ निरन्तरंतु होइ फुडो। लोगस्स य कइभागे, कइभागो होइ भासाएmon [संस्कृतच्छायाः-कतिभिः समयैः लोकः, भाषया निरन्तरं तु भवति स्पृष्टः।लोकस्य च कतिभागे कतिभागो भवति भाषायाः।] -333333333333333338888888888888888888888888883 92 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@@@@@ - Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ acacecacaacance 2200020009 223322233333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-10 (वृत्ति-हिन्दी-) अथवा अर्थ (गाथा के व्याख्यान) से जोड़कर (भी) (आगे की गाथा & का) प्रतिपादन (संदर्भ-निर्देश आदि) किया जा रहा है। जिज्ञासु का कथन है कि पूर्व (गाथा . सं. 5 के व्याख्यान में श्रोत्रेन्द्रिय के विषय की सीमा बताते हुए कहा गया है कि) बारह 1 योजन से आगे के शब्द को श्रोता नहीं सुन पाता, क्योंकि वहां भाषा-सम्बन्धी पुद्गल-द्रव्यों a का गति-परिणाम मंद पड़ जाता है। वहां यह प्रश्न उठता है कि बारह योजन के आगे से भी a (शब्द-पुद्गल) द्रव्यों का आना सम्भव है क्या? (इसी तरह यह भी प्रश्न है कि) जैसे (श्रोत्र) a इन्द्रिय-विषय की सीमा (बारह योजन) के अन्दर, निरन्तर से (पूर्णतया, समग्रतया) शब्द पुद्गलों द्वारा अन्य द्रव्यों को वासित करने की जितने सामर्थ्य बताई गई है, क्या वह सामर्थ्य अपनी विषय-सीमा से बाहर भी है या नहीं? यदि यह कहें कि यह सामर्थ्य है . क्योंकि किन्हीं के मत में भाषा में समस्त लोक में व्याप्त होने की सामर्थ्य है, तो (एक और जिज्ञासा उठती है, वह इस प्रकार आगे की गाथा के रूप में है-) (10) (नियुक्ति-अर्थ-) कितने समयों में भाषा-द्रव्यों द्वारा यह लोक निरन्तर (पूर्णतया : समग्ररूप से) स्पृष्ट होता है? और भाषा (द्रव्यों) का कितना भाग और लोक के कितने भाग में स्पृष्ट होता है? 4 (हरिभद्रीय वृत्तिः) a (व्याख्या-) 'कतिभिः समयैः' 'लोकः' लोक्यत इति लोकः चतुर्दशरज्ज्वात्मकः क्षेत्रलोकः परिगृह्यते,भाषया निरन्तरमेव भवति स्पृष्टः व्याप्तः पूर्ण इत्यनन्तरम्, लोकस्य च कतिभागे कतिभागो भवति भाषायाः?,१०॥ a (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) जो अवलोकित होता है, वह 'लोक' है। यहां 'लोक' पद से चौदह राजू प्रमाण 'क्षेत्र लोक' अर्थ गृहीत है। वह क्षेत्रलोक भाषा-द्रव्यों से निरन्तर (पूर्णतया) स्पृष्ट होता है तो कितने समयों में? स्पृष्ट, व्याप्त, पूर्ण -ये एकार्थक हैं। (इसी , ce प्रकार) लोक के कितने भाग में भाषा द्रव्य का कितना भाग स्पृष्ट, व्याप्त, पूर्ण होता " ce है? ||10 // 80@RO0BRORROR@@@@@ 93 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 acacaca cacece श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 200000 / (हरिभद्रीय वृत्तिः) अत्रोच्यते (नियुक्तिः) चउहि समएहि लोगो, भासाइनिरंतरंतु होइ फुडो। लोगस्स य चरमंते, चरमंतो होइ भासाए // 11 // [संस्कृतच्छायाः- चतुर्भिः समयैः लोकः, भाषया निरन्तरं तु भवति स्पृष्टः / लोकस्य च चरमान्ते चरमान्तो भवति भाषायाः॥] (वृत्ति-हिन्दी-) इस विषय में (उक्त जिज्ञासा के समाधान हेतु) आगे की गाथा कही जा रही है (11) (नियुक्ति-अर्थ-) (यह) लोक चार समयों में भाषा (द्रव्यों) द्वारा निरन्तर (पूर्णतया, : बिना किसी खाली स्थान के) स्पृष्ट हो जाता है। और लोक के चरम (असंख्येय) भाग में , भाषा का चरमान्त (असंख्येय) भाग स्पृष्ट होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) चतुर्भिः समयैर्लोको भाषया निरन्तरमेव भवति स्पृष्टः।आह-किं सर्वथैव भाषया उत विशिष्टयैवेति।उच्यते, विशिष्टया, कथम्? -इह कश्चिन्मन्दप्रयत्नो वक्ता भवति, स ह्यभिन्नान्येव शब्दद्रव्याणि विसृजति, तानि च विसृष्टानि असंख्येयात्मकत्वात् परिस्थूलत्वाच्च विभिद्यन्ते, भिद्यमानानि च संख्येयानि योजनानि गत्वा शब्दपरिणाम-त्यागमेव कुर्वन्ति। कश्चित्तु महाप्रयत्नः, स खलु आदाननिसर्गप्रयत्नाभ्यां भित्त्वैव विसृजति, तानि च सूक्ष्मत्वाद्बहुत्वाच्च अनन्तगुणवृद्ध्या वर्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नुवन्ति।अन्यानि च तत्पराघातवासितानि वासनाविशेषात् समस्तं लोकमापूरयन्ति।इह च चतुःसमयग्रहणात् त्रिपञ्चसमयग्रहणमपि प्रत्येतव्यम्, तुलादिमध्यग्रहणवत्। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) चार समयों में भाषा (-द्रव्यों) द्वारा निरन्तरता (यानी : ca कोई स्थान खाली न रहे -ऐसी स्थिति) के साथ यह लोक स्पृष्ट (व्याप्त, पूर्ण) हो जाता है। शंकाकार ने कहा- ऐसा क्या सभी भाषाओं से होता है या किसी विशिष्ट भाषा से? उत्तर है - - 94 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r). मा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C -RecenamRece 393029999990 -233333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-11 | किसी विशिष्ट भाषा से ही (लोक स्पृष्ट होता है, न कि सभी भाषाओं से)। (प्रश्न-) ऐसा / ca क्यों? (उत्तर-) कोई वक्ता मन्द प्रयत्न (के साथ बोलने) वाला होता है, वह अभिन्न (पृथक् पृथक् स्पष्ट न सुनाई देने वाले, अपूर्ण) शब्द-द्रव्यों का ही विसर्जन करता है, वे विसर्जित , शब्द-द्रव्य असंख्येय (पुद्गल-स्कन्ध) होने तथा (अपेक्षाकृत) अतिस्थूल होने के कारण, भिन्न-भिन्न (बिखर) जाते हैं, भिन्न-भिन्न होकर वे संख्यात योजन तक जाकर शब्द-परिणति , का त्याग कर देते हैं (अर्थात् शब्दात्मक परिणति से च्युत ही हो जाते हैं, इसलिए ऐसी भाषा " से लोक स्पृष्ट नहीं हो पाता)। किन्तु कोई महाप्रयत्न वाला (वक्ता) हो तो वह शब्द-द्रव्यों के ग्रहण व निसर्जन में ही ऐसा (अधिक) प्रयत्न करता है कि (वे शब्द-द्रव्य) भिन्न-भिन्न (पृथक्-पृथक् स्पष्ट) होकर " . ही विसर्जित होते हैं, जो (अपेक्षाकृत अधिक) सूक्ष्मता और बहुलता के कारण, अनन्तगुण- 20 बुद्धि के साथ (आगे-आगे) बढ़ते हुए, छहों दिशाओं में (फैलते हुए) लोक के अंतिम छोर तक , पहुंच जाते हैं, (क्योंकि) उनके अतिरिक्त भी जो उनके द्वारा वासित भाषा-द्रव्य होते हैं, ऐसे , 64 पौगलिक द्रव्य विशिष्ट वासना के कारण समस्त लोक को पूरित कर देते हैं। चूंकि नाप-तौल , आदि में मध्यम (औसत) परिमाण का निरूपण किया जाता है, इसलिए यहां 'चार समय' . का जो निर्देश किया गया है, उससे तीन या पांच समयों का भी ग्रहण करणीय है- ऐसा & समझना चाहिए। (हरिभद्रीय वृत्तिः) - तत्र कथं पुनस्त्रिभिः समयैः लोको भाषया निरन्तरमेव भवति स्पृष्ट इति?, उच्यते। लोकमध्यस्थवक्तृपुरुषनिसृष्टानि, यतस्तानि प्रथमसमय एव षट्सु दिक्षु लोकान्तमनुधावन्ति, जीवसूक्ष्मपुद्गलयोः 'अनुश्रेणि गतिः' (तत्त्वार्थ. अ. 2 सूत्र 21) इति वचनात्।द्वितीयसमये तु " त एव हि षट् दण्डाश्चतुर्दिशमेकैकशो विवर्धमानाः षट् मन्यानो भवन्ति, तृतीयसमये तु पृथक् . * पृथक् तदन्तरालपूरणात् पूर्णो भवति लोक इति।एवं त्रिभिः समयैर्भाषया लोकः स्पृष्टो भवति। " यदा तु लोकान्तस्थितो वा भाषको वक्ति, चतसृणां दिशामन्यतमस्यां दिशि नाड्या . a बहिरवस्थितस्तदा चतुर्भिः समयैरापूर्यत इति।कथम्?, एकसमयेन अन्तर्नाडीमनुप्रविशति, . त्रयोऽन्ये पूर्ववद्रष्टव्याः। यदा तु विदिग्व्यवस्थितो वक्ति, तदा पुद्गलानामनुश्रेणिगमनात् समयद्वयेनान्तर्नाडीमनुप्रविशति, शेषसमयत्रयं पूर्ववद्रष्टव्यमित्येवं पञ्चभिः समयैरापूर्यत इति। , / 8088890cRneK@@@908900CRO900 95 म Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -aca cacacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) DOODOOD (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) किन्तु किस रीति से तीन समयों में (ही) भाषा-द्रव्यों से ca यह लोक निरन्तरता के साथ स्पृष्ट होता है? (उत्तर-) बता रहे हैं- चूंकि कभी लोक के ठीक . & मध्य में स्थित होकर वक्ता पुरुष शब्द द्रव्यों को विसर्जित करता है, इसलिए वे (शब्द-द्रव्य) : प्रथम समय में ही छहों दिशाओं में (फैल कर) लोक के अंतिम छोर तक पहुंच जाते हैं, , व क्योंकि (तत्त्वार्थसूत्र, 2/25 में) जीव और सूक्ष्म पुद्गल -इन दोनों की 'अनुश्रेणी गति' कही / ce गई है। अतः द्वितीय समय में तो वे ही छः दण्डों के रूप में (परिणत हो जाते हैं और प्रत्येक " a दण्ड) चारों दिशाओं में (और ऊपर व नीचे) फैलते हुए छः मथानी के रूप में परिणत हो जाते है हैं। तीसरे समय में उनके द्वारा पृथक्-पृथक् रूप से चारों दिशाओं के अन्तराल (मध्यवर्ती , स्थान) भी पूरित हो जाते हैं, और इस प्रकार (समस्त) लोक उनसे पूरित हो जाता है। इस रीति से तीन समयों में भाषा द्वारा लोक का स्पर्श होता है। किन्तु जब कोई वक्ता लोक के , अंतिम छोर पर स्थित होकर बोलता है, अर्थात् चारों दिशाओं में से किसी एक दिशा में (त्रस), a नाड़ी के बाहर स्थित होकर बोलता है, तब चार समयों में यह लोक भाषा-द्रव्यों से पूरित क होता है। (प्रश्न-) ऐसा क्यों? (अर्थात् तीन की जगह चार समय क्यों लगते हैं?) (उत्तर-) क्योंकि एक समय में तो वह भाषा त्रस नाड़ी के अन्दर प्रविष्ट हो पाती है, बाकी तीन समय : पूर्ववत् समझने चाहिएं। किन्तु जब वक्ता विदिशा में स्थित होकर बोलता है, तो चूंकि / व पुद्गलों की गति अनुश्रेणी में होती है, इसलिए दो समयों में वह भाषा त्रस नाड़ी के भीतर प्रविष्ट हो पाती है, बाकी तीन समय पूर्ववत् लगते हैं। इस प्रकार (कुल) पांच समयों में & (भाषा-द्रव्यों से यह लोक) पूरित होता है। विशेषार्थ यह लोक त्रस और स्थावर जीवों से ठसाठस भरा हुआ है। त्रस जीव त्रस नाड़ी' में ही रहते हैं ca हैं, बाहर नहीं। स्थावर जीव त्रस नाड़ी के भीतर व बाहर दोनों जगह वर्तमान हैं। लोक के ऊपर से a नीचे तक चौदह राजू प्रमाण लंबे और एक राजू प्रमाण चौड़े ठीक मध्य के आकाश-प्रदेशों की , a त्रसनाड़ी होती है। इसके बाहर शेष स्थावरनाड़ी होती है। त्रसनाड़ी के बाहर लोक के अन्त में स्थित " CM वक्ता द्वारा उच्चारित भाषा के द्रव्य प्रथम समय में तो बस नाड़ी में प्रविष्ट होते हैं। द्वितीय समय में वहीं / C. अनुश्रेणी गति करते हैं, तृतीय समय में चारों दिशाओं में फैलते हुए छः मथानी के रूप में परिणत : व होते हैं और चतुर्थ समय में दिशाओं के अन्तरालों को भी स्पृष्ट करते हुए समस्त लोक को पूरित कर " | देते हैं। इसी तरह कोई वक्ता त्रस नाड़ी के बाहर, विदिशा (अर्थात् चारों दिशा में दो दिशाओं के मध्य | - 96 @@cR@@c@@cr(r)(r)(r)(r)(r)cr(r)900 333333 22222222233333333333333333333333333332 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 223222333333333333333333333333333333333333333 cace ca cace cace can नियुक्ति गाथा- 11 9 09020 20 20 20 2009 की कोई दिशा) में स्थित होकर बोलता है तो उस व्यक्ति द्वारा उच्चारित भाषा-द्रव्यों को दो समय त्रस & नाड़ी में प्रविष्ट होने में लग जाते हैं। क्योंकि प्रथम समय में विदिक् से दिक् में, द्वितीय समय में त्रस , नाड़ी के मध्य आना सम्भव होता है। तृतीय समय में चारों दिशाओं में प्रसरण, चतुर्थ समय में छः मथानी का रूप ग्रहण सम्भव होता है और समस्त लोक को पूरित होने में पांच समय लग जाते हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) अन्ये तु जैनसमुद्घातगत्या लोकापूरणमिच्छन्ति / तेषां चाद्यसमये भाषायाः खलु , & ऊर्ध्वाधोगमनात् शेषदिक्षु न मिश्रशब्दश्रवणसंभवः ।उक्तं चाविशेषेण- "भासासमसेटीओ, , सदं जं सुणइ मीसयं सुणइ" (६)त्ति। अथ मतम्- 'व्याख्यानतोऽर्थप्रतिपत्तिः' इति न्यायाद्दण्ड एव मिश्रश्रवणं भविष्यति, , न शेषदिक्ष्विति, ततश्चादोष इति।अत्रोच्यते, एवमपि त्रिभिः समयैर्लोकापूरणमापद्यते, न , चतुःसमयसंभवोऽस्ति / कथम्? प्रथमसमयानन्तरमेव शेषदिक्षु पराघातद्रव्यसद्भावात् द्वितीयसमय एव मन्थानसिद्धेः, तृतीये च तदन्तरालापूरणात् इति। . (वृत्ति-हिन्दी-) कुछ (व्याख्याता) जैन (दर्शन में मान्य) समुद्घात के जैसी ही 4 (भाषा द्रव्य की) गति (विस्तार) मान कर भाषा-द्रव्यों से लोक का पूरित होना मानते हैं। / c. उनके मत में, प्रथम समय में भाषा ऊर्ध्व व नीचे (समुद्घात की तरह, चतुरंगुल-प्रमाण दण्ड 0 a रूप में) गमन करती है, इसलिए शेष दिशाओं में मिश्र शब्द का श्रवण सम्भव नहीं हो पाता ल है (और ऐसा होना दोषपूर्ण व आगमविरुद्ध है), क्योंकि सामान्यतः यह (पहले, गाथा सं. छः में) कहा जा चुका है- 'भाषा की समश्रेणी में स्थित श्रोता जिस शब्द को सुनता है, वह , & मिश्र शब्द सुनता है'। तब (उक्त दोष के निवारण हेतु) वे (व्याख्याता) इस प्रकार कहते हैं- 'व्याख्यान से (विशेष) अर्थ का प्रतिपादन होता है' -इस नियम से (ऊर्ध्व व नीचे फैले चार अंगुल वाले), दण्ड (आकृति की स्थिति) में ही 'मिश्र' श्रवण होता है (ऐसा हम मानते हैं), शेष दिशाओं में से ल नहीं, इसलिए कोई दोष नहीं रहा (अर्थात् मिश्र शब्द के श्रवण न होने का जो दोष लगाया , गया था, वह उक्त प्रकार से निरस्त हो जाता है)। (उत्तर-) (उक्त व्याख्यानानुसार जो 2. & प्रतिपादन किया गया है, उसके निराकरण हेतु) हमारा यह कहना है- उक्त प्रकार से तो " / तीन समयों में ही (भाषा-द्रव्य द्वारा) लोक का आपूरण हो जाएगा, वहां चार समयों का , 888888888888888888888888333333333333388888888 - @BRBRBROSRO90@RO90000000 970 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -333333333333333333333333333333333333333333333 - RR OR CROR OR GR श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 22000202000 होना सम्भव ही नहीं है। (प्रश्न-) क्यों? (उत्तर-) प्रथम समय के बाद, शेष दिशाओं में | ce पराघात-द्रव्यों के अस्तित्व के कारण, द्वितीय समय में ही मथानी के आकार की सिद्धि हो , & जाएगी, और तृतीय समय में (दिशाओं के) अन्तराल भाग (भाषा द्रव्यों से) पूरित हो जाएंगें , (अतः समुद्घात की तरह भाषा द्रव्य के प्रसार मानने वाले मत में दोष यह है कि चार समयों / की बजाय तीन समयों में ही भाषा-द्रव्यों से लोक पूरित हो जाता है, जो आगम-विरुद्ध है)। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-जैनसमुद्घातवच्चतुभिरेवापूरणं भविष्यतीति को दोष इति, अत्रोच्यते, न, . सिद्धान्तापरिज्ञानात् / इह जैनसमुद्घाते स्वरूपेणापूरणात्, न तत्र पराघातद्रव्यसंभवोऽस्ति, . सकर्मकजीवव्यापारत्वात्तस्य।ततश्च कपाटनिवृत्तिरेव तत्र द्वितीयसमय इति।शब्दद्रव्याणां त्वनुश्रेणिगमनात्पराघातद्रव्यान्तरवासकस्वभावत्वाच्च द्वितीयसमय एव मन्थानापत्तिरिति। व अचित्तमहास्कन्धोऽपि वैससिकत्वात् पराघाताभावाच चतुर्भिरेव पूरयति, न चैवं शब्द इति, . << सर्वत्रानुश्रेणिगमनात्। इत्यलमतिविस्तरेण, गमनिकामात्रमेवैतत् प्रस्तुतमिति। " ca यदुक्तं 'लोकस्य च कतिभागे कतिभागो भवति भाषायाः' इति।तत्रेदमुच्यते-'लोकस्य c& च' |क्षेत्रगणितमपेक्ष्य 'चरमान्ते' असंख्येयभागे, 'चरमान्तः' असंख्येयभागो भवति 'भाषायाः' - समग्रलोकव्यापिन्याः, इति गाथार्थः // 11 // (वृत्ति-हिन्दी-) पूर्वपक्षी (जो समुद्घात की तरह भाषा द्रव्य के प्रसार का समर्थक & है, उसके) द्वारा कथन- (चार समयों में समस्त लोक को पूरित करने वाले) जैन समुद्घात - & की तरह चार समयों में ही लोक पूरित होगा, फिर दोष क्या है? (उत्तर-) ऐसा कहना ठीक , & नहीं। वस्तुतः सिद्धान्त से आप परिचित नहीं है। जैन समुद्घात में (आत्म-प्रदेश) स्वरूपतः C लोक को स्पृष्ट करते हैं। वहां चूंकि वह (समुद्घात) सक्रिय जीव-व्यापार रूप होता है, अतः C पराघात-द्रव्यों का सद्भाव सम्भव नहीं। इसलिए द्वितीय समय में कपाट-आकृति का निर्माण होता है, किन्तु शब्दद्रव्यों की गति 'अनुश्रेणी' ही होती है और वे पराघात-स्वभावी भी है होते हैं, इसलिए द्वितीय समय में ही मथानी के आकार का निर्माण हो जाएगा (जब कि " * समुद्घात में तो तृतीय समय में जाकर मथानी की आकृति बनती है)। अचित्त महास्कन्ध भी " & स्वाभाविक (स्वभावप्रेरित) होने से तथा पराघात की स्थिति का अभाव होने से, चार समयों में ही लोक को पूरित करता है, किन्तु शब्द वैसा नहीं होता, क्योंकि वह सर्वत्र अनुश्रेणी 98 @ @ @ @ce@ @ @ @ @ @ @cR998 - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRR. គ ព គ គ គ គ គ គ 1 - &&& && नियुक्ति गाथा-11 गमन ही करता है (अतः समुद्घातवत् गति मानें तो वह तीन समयों में ही लोक को पूरित ce कर देगा, जो आगम-सम्मत नहीं होगा)। अतः अब अधिक कहना अपेक्षित नहीं। यहां जो , & कहा गया है, वह मात्र ‘गमनिका' (सामान्यतः समझाने की दृष्टि से कथन) है। और, जो यह आपने पूछा था कि लोक के कितने भाग में भाषा द्रव्य का कितना भाग स्पृष्ट होता है, तो हमारा उत्तर है- (लोकस्य)। क्षेत्रगणित की दृष्टि से (चरमान्ते) लोक , के असंख्येय भाग में, (भाषायाः चरमान्तः) समग्र लोक में व्याप्त होने वाली भाषा का C. असंख्येय भाग (स्पृष्ट होता) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||11 || विशेषार्थ प्रस्तुत प्रकरण में भाषा की सूक्ष्मता और उसकी लोक-व्यापिता का स्पष्टीकरण किया गया है & है। भाषा वर्गणा के पुद्गल सूक्ष्म और चतुःस्पर्शी होते हैं, इसलिए सामान्य जनों यानी छद्मस्थों के लिए दृश्य नहीं होते। किन्तु केवली-सर्वज्ञ ध्वनि-तरंगों को, चाहे वे कहीं भी हों, साक्षात् आत्मा से (न कि इन्द्रियों से) जानता है। छद्मस्थ उन्हें कान से सुनकर जानता है। वे सूक्ष्म शब्द किस प्रकार श्रवणयोग्य बनते हैं? इसका समाधान इस प्रकार है- वक्ता के मुख से निकले शब्दों का विस्फोट होता है, उनमें अनन्तप्रदेशी (भाषा वर्गणा के) स्कन्ध मिलकर उन्हें अष्टस्पर्शी बना देते हैं। विशेषावश्यक भाष्य व टीकाकार (गाथा-628-629) के अनुसार भाषा के अन्तरालवर्ती द्रव्य गुरुलघु व अगुरुलघु , Ga -दोनों होते हैं। लोक में त्रस जीवों का एक नियत क्षेत्र-प्रसनाड़ी-होता है, उसमें स्थित व्यक्ति छहों , दिशाओं से आने वाले शब्दों को सुन सकता है। विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य -भगवती सूत्र (5/4 उद्दे.) . ce. आदि। भाषा के वक्ता (भाषक) कौन-कौन से जीव हो सकते हैं- इस सम्बन्ध में भी शास्त्रों & (पण्णवणा, 11 पद आदि) में सामग्री प्राप्त होती है। सिद्ध, शैलेशी अवस्था प्राप्त केवली, एकेन्द्रिय, 4 अपर्याप्तक अनेकेन्द्रिय -ये अभाषक माने गए हैं। पर्याप्तक अनेकेन्द्रिय जीवों की भाषा दो प्रकार की होती है- अक्षरात्मक व अनक्षरात्मक (स्थानांग- 2/3/212) / वर्णों की नियत क्रम से होने वाली ल ध्वन्यात्मक भाषा 'अक्षरात्मक' होती है। यही भाषा श्रवण-ग्राह्य होकर व्यवहार-जगत् में परस्पर & मनोभावों के सम्प्रेषण में सहायक होती है। प्रस्तुत प्रकरण में यही भाषा विशेषतः ग्राह्य है। इस भाषा " a के वक्ताओं में कुछ वक्ता मन्दप्रयत्न वाले होते हैं तो कुछ तीव्र प्रयत्न वाले। यदि वक्ता मन्द प्रयत्न से . बोलता है तो उसके द्वारा निसर्जित शब्द द्रव्य 'अभिन्न' होते हैं जो आगे जाकर 'भेद' को प्राप्त होते हैं। . खण्ड, प्रतर, चूर्णिका, अनुतटिका, उत्करिका -इन रूपों में ये पांच प्रकार के भेद माने गये हैं , | (जिनका विशेष विवरण पन्नवणा (11 पद) से ज्ञातव्य है। - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 99 222833333333333333333333333333333333333333333 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& य Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cacace caceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 33333333333333333333333333333333333333 (भिन्न-अभिन्न का स्पष्टीकरण-) भाषा रूप में गृहीत पुद्गलों का निर्गमन दो प्रकार से ce होता है- जिस प्रमाण में वे ग्रहण किये गये हों, उन सब पुद्गल-पिण्डों का उसी रूप में निर्गमन . & होता है, अर्थात् वक्ता भाषावर्गणा के पुद्गलों के पिण्ड को अखण्ड रूप में ही विसर्जित करता है। ऐसा, & अभिन्न शब्द-द्रव्य स्थूल होने से शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होता है। इसके विपरीत यदि वक्ता गृहीत पुद्गलों का भेद (विभाग) करके विसर्जित करता है तो वे पिण्ड (भिन्न) सूक्ष्म हो जाते हैं जो शीघ्र c. ध्वस्त नहीं होते, अपितु सम्पर्क में आने वाले अन्य (भाषा वर्गणा के) पुद्गलों को भी दासित a (भाषारूप में परिणत) करते हुए, (वीचीतरंगन्याय से) अनन्तगुण वृद्धि से बढ़ते-बढ़ते लोकान्त तक & पहुंच जाते हैं। ___वृत्तिकार ने 'समुद्घात' का प्रसंगवश संकेत किया है। समुद्घात-सम्बन्धी विशेष विवरण " c& प्रज्ञापना (36 पद), स्थानांग (4/4/645, 8/114), भगवती सूत्र (6/6, 2/2) तथा औपपातिक (सूत्र 141-150) आदि से ज्ञातव्य हैं। तथापि प्रकृत विषय को स्पष्ट करने हेतु अपेक्षित निरूपण यहां दिया जा रहा है समुद्घात का अर्थ है- वेदना आदि कारणों से आत्म-प्रदेशों का बहिःनिस्सरण (बाहर , निकलना)। इसके सात भेद हैं- वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात, वैक्रिय , समुद्घात, तैजस समुद्घात, आहारक समुद्घात, और केवली-समुद्घात। प्रस्तुत प्रकरण में समुद्घात से तात्पर्य है- केवली समुद्घात / औपपातिक सूत्र एवं स्थानांग के अनुसार केवली समुद्घात का स्वरूप इस प्रकार है समुद्घात के पहले समय में केवली के आत्म-प्रदेश ऊपर और नीचे की ओर लोकान्त तक शरीर-प्रमाण चौड़े आकार में फैलते हैं। उनका आकार दण्ड के समान होता है, अतः इसे दण्डसमुद्घात कहा जाता है। दूसरे समय में वे ही आत्म-प्रदेश पूर्व-पश्चिम दिशा में चौड़े होकर लोकान्त तक फैल कर कपाट के आकार के हो जाते हैं, उसे कपाटसमुद्घात कहते हैं। तीसरे समय में वे ही आत्म-प्रदेश c& दक्षिण-उत्तर दिशा में लोक के अन्त तक फैल जाते हैं, इसे मन्थान समुद्घात कहते हैं। दिगम्बर शास्त्रों में इसे प्रतर समुद्घात कहते हैं। चौथे समय में वे आत्म-प्रदेश बीच के भागों सहित सारे लोक में फैल जाते है, इसे लोक-पूरण समुद्घात कहते हैं। इस अवस्था में केवली के आत्म-प्रदेश और लोकाकाश के प्रदेश सम-प्रदेश रूप से अवस्थित होते हैं। इस प्रकार इन चार समयों में केवली के प्रदेश उत्तरोत्तर फैलते जाते हैं। - 100 B BCR@ @@@ @ @ @ @ @ @c&000 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100KGeeeee. 000000000 333333333333333333333333333333333333222222222 नियुक्ति गाथा-11 -पुनः पांचवें समय में उनका संकोच प्रारम्भ होकर मंथान-आकार हो जाता है, छठे समय में ca कपाट-आकार हो जाता है, सातवें समय में दण्ड-आकार हो जाता है और आठवें समय में वे शरीर , ल में प्रवेश कर पूर्ववत् शरीराकार से अवस्थित हो जाते हैं। पहले और आठवें में वे औदारिक शरीर-काययोग का प्रयोग करते हैं। दूसरे, छठे और सातवें समय में वे औदारिक मिश्र शरीर-काययोग का प्रयोग करते हैं। तीसरे, चौथे, और पांचवें समय में वे कार्मण शरीर-काययोग का प्रयोग करते हैं। a इन आठ समयों के भीतर नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म-की स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों की उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित क्रम से निर्जरा होकर उनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण रह जाती है। . तब वे सयोगी जिनन्द्र योग-निरोध की क्रिया करते हुए अयोगी बनकर चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं और 'अ, इ, उ, ऋ, लु' -इन पांच ह्रस्व अक्षरों के प्रमाणकाल में शेष रहे चारों अघाति-कर्मों की एक साथ सम्पूर्ण निर्जरा करके मुक्ति को प्राप्त करते हैं। & सभी केवली भगवान् समुद्घात करते हैं, या नहीं करते हैं? इस विषय में श्वेताम्बर और 2 दिगम्बर शास्त्रों में दो-दो मान्यताएं स्पष्ट रूप से लिखित मिलती हैं। पहली मान्यता यही है कि सभी केवली भगवान् समुद्घात करते हुए ही मुक्ति प्राप्त करते हैं। किन्तु दूसरी मान्यता यह है कि जिनको 1 a छह मास से अधिक आयुष्य के शेष रहने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है, वे समुद्घात नहीं करते हैं। " किन्तु छह मास या इससे कम आयुष्य शेष रहने पर जिनको केवलज्ञान उत्पन्न होता है, वे नियम से समुद्घात करते हुए हुए ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। - जब केवली का आयुष्य कर्म अन्तर्मुहूर्त रह जाता है और शेष नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति अधिक शेष रहती है, तब उनकी स्थिति का आयुष्यकर्म के साथ समीकरण करने के लिए c. समुद्घात किया जाता होता हैं। औपपातिक सूत्र में केवलिसमुद्घात का कारण इस प्रकार बताया a गया है-केवलियों के वेदनीय, आयुष्य, नाम तथा गोत्र -ये चार कर्माश अपरिक्षीण होते हैं-सर्वथा क्षीण नहीं होते, उनमें वेदनीय कर्म सबसे अधिक होता है, आयुष्य कर्म सबसे कम होता है, बन्धन & एवं स्थिति द्वारा विषम कर्मों को वे सम करते हैं। निष्कर्ष यह है कि बन्धन और स्थिति से विषम a. कर्मों को सम करने हेतु केवली आत्मप्रदेशों को विस्तीर्ण करते हैं, समुद्घात करते हैं। ca प्रस्तुत प्रकरण में केवली समुद्घात में होने वाले आत्मप्रदेशों के विस्तार में और भाषावर्गणा a के द्रव्यों के लोकान्त-स्पर्श में अन्तर बताया गया है। यदि भाषा वर्गणा के द्रव्यों में समुद्घात वाला नियम लागू हो तो भाषा द्रव्य तीन समयों में ही लोकान्त-स्पर्श कर लेंगे, जब कि आगम मान्यता " | यह है कि उन्हें चार समय लगते हैं। अतः आगम-विरोध प्रसक्त होता है। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) -888888888888888888888888888888888 101 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 233333333333 caca caca cacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0090090900(हरिभद्रीय वृत्तिः) _ 'तत्त्व-भेद-पर्यायैर्व्याख्या' इति न्यायात् तत्त्वतो भेदतश्च मतिज्ञानस्वरूपमभिधाय & इदानीं नानादेशजविनेयगणसुखप्रतिपत्तये तत्पर्यायशब्दान् अभिधित्सुराह (नियुक्तिः) ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा। सण्णा सई मई पण्णा, सलं आभिणिबोहियं // 12 // [संस्कृतच्छायाः- ईहा अपोहो विमर्शो मार्गणा च गवेषणा। संज्ञा स्मृतिः मतिः प्रज्ञा, सर्वमाभिनिबोधिकम्॥] ___ (वृत्ति-हिन्दी-) स्वरूप, भेद व पर्याय -इनके निरूपण द्वारा व्याख्या की जाती है - इस नियम (न्याय) के अनुसार मतिज्ञान का तात्त्विक स्वरूप और उसके भेद का कथन / कर दिया गया, अब नाना देशों से सम्बद्ध शिष्य गणों को सुखपूर्वक ज्ञान कराने के उद्देश्य से उस (मति) के पर्याय वाचक शब्दों का कथन (आगे की गाथा में) किया जा रहा है (12) (नियुक्ति-अर्थ-) ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा & -ये सब आभिनिबोधिक ज्ञान (के पर्याय) हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) __ (व्याख्या-) 'ईह चेष्टायाम्', ईहजमीहा, सतामर्थानाम अन्वयिनां व्यतिरेकिणां च " पर्यालोचना इतियावत् ।अपोहनम्, अपोहः निश्चय इत्यर्थः। विमर्शनं विमर्शः ईहाया उत्तरः, " a प्रायः शिरःकण्डूयनादयः पुरुषधर्मा घटन्ते इति संप्रत्ययो विमर्शः।तथा अन्वयधर्मान्वेषणा & मार्गणा। चशब्दः समुच्चयार्थः। व्यतिरेकधर्मालोचना गवेषणा। तथा संज्ञानं संज्ञा, व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष इत्यर्थः।स्मरणं स्मृतिः, पूर्वानुभूतार्यालम्बनः प्रत्ययः। / मननं मतिः-कथञ्चिदर्थपरिछित्तावपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिरिति।तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा विशिष्टक्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तुगतयथावस्थितधर्मालोचनरूपा मतिरित्यर्थः। सर्वमिदं ca 'आभिनिबोधिकं' मतिज्ञानमित्यर्थः। एवं किश्चिद्भेदाढ़ेदः प्रदर्शितः। तत्त्वतस्तु मतिवाचकाः " सर्व एवैते पर्यायशब्दाः, इति गाथार्थः॥१२॥ (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) 'ईह चेष्टायाम्' (अर्थात् चेष्टा अर्थवाली 'ईह' धातु) से - 10280@@@@cr(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 3333333333333333 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A RRRRRRRRce 999999999000 222222222222222222238232233333333333333333332 नियुक्ति गाथा-13-15 | 'ईहा' शब्द निष्पन्न हुआ है। ईहन (अर्थात् चेष्टा) ही 'ईहा' है, अर्थात् सद्भूत पदार्थों से | / सम्बद्ध अन्वय-धर्मों और व्यतिरेक धर्मों की जो पर्यालोचना (रूप चेष्टा) होती है, वही 'ईहा' . है। अपोहन अर्थात् निश्चय होना 'अपोह' है। विमर्श करना, अर्थात् 'ईहा' के बाद 'सिर', खुजलाना आदि पुरुषगत धर्म इसमें घटित होते हैं- यह जो प्रतीति होती है, वह 'विमर्श : ( करना, अर्थात् 'ईहा' के बाद 'सिर खुजलाना आदि पुरुषगत धर्म इसमें घटित होते हैं' -यह / ca जो प्रतीति होती है, वह 'विमर्श' है। ‘मार्गणा' का अर्थ है- अन्वय-धर्मों की अन्वेषणा। 'च' , * शब्द समुच्चय ('और') का बोधक है (अर्थात् यह ईहा, अपोह आदि -इन सभी की , & आभिनिबोधिकता बता रहा है)। व्यतिरेक-धर्मों की आलोचना 'गवेषणा' है। संज्ञा यानी , a संज्ञान, अर्थात् व्यञ्जनावग्रह के उत्तरकाल में होने वाला विशेष मतिज्ञान / स्मृति का अर्थ है+ स्मरण, अर्थात् पूर्व अनुभूत पदार्थ का आश्रय लेकर होने वाली प्रतीति / मति यानी मनन, . अर्थात् किसी रूप में पदार्थ का ज्ञान होने पर भी, उस पदार्थ के सूक्ष्म धर्मों के सम्बन्ध में जो की जाने वाली पर्यालोचना रूप बुद्धि / प्रज्ञा यानी प्रज्ञान, अर्थात् सद्भूत वस्तु में यथार्थ में / व स्थित धर्मों की अलोचनात्मक मति जो प्रकृष्ट क्षयोपशम से जनित होती है। ये सभी (ईहा 2 आदि) आभिनिबोधिक यानी मतिज्ञान हैं- यह तात्पर्य है। उक्त रीति से (पृथक्-पृथक् नाम : a बताकर) कुछ भेद का भी संकेत किया गया है, वास्तविक रूप से तो ये सभी मतिज्ञान के 7 पर्याय-शब्द हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||12|| a (हरिभद्रीय वृत्तिः) / तत्त्व-भेद-पर्यायैर्मतिज्ञानस्वरूपं व्याख्यायेदानीं नवभिरनुयोगद्वारैः पुनः तद्रूपनिरूपणायेदमाह (नियुक्तिः) संत-पय-परूवणया-दव्वपमाणंच खित्त-फुसणाय। कालो अ अंतरं भाग-भावे अप्पाबहुं चेव // 13 // गइ-इंदिए य काए, जोए वेए कसाय-लेसासु / सम्मत्तनाण-दंसण-संजय-उवओग-आहारे // 14 // भासग-परित्त-पज्जत्त-सुहमे सण्णीय होइ भवचरिमे। आभिणिबोहिअनाणं, मग्गिज्जइ एसु ठाणेसु // 15 // (r)(r) CR@D(r)CRORRORSCR989@cr@@ 103 - &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ acaceaaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9009000 322232222322232223222322233333333333333322333 (संस्कृतच्छाया:-सत्पदग्ररूपणता द्रव्यप्रमाणंच क्षेत्रस्पर्शनेच कालश्च अन्तरंभाग-भाव-अल्पबह ce (वं) वैव ।गति-इन्द्रिययोश्च काये योगे वेदे कषाय-लेश्ययोः। सम्यक्त्वज्ञानदर्शनसंयम-उपयोग-आहारेषु। 2 a भाषक-परीत्त-पर्याप्त-सूक्ष्म-संज्ञिषु च भवचरमयोश्च ।आभिनिबोधिकज्ञानं माय॑ते एषु स्थानेषु // ] (वृत्ति-हिन्दी-) तत्त्व (स्वरूप), भेद, पर्याय -इन दृष्टियों से मतिज्ञान के स्वरूप का " & कथन करने के बाद, अब नौ अनुयोग-द्वारों के माध्यम से पुनः उसके स्वरूप का निरूपण . करने के लिए नियुक्तिकार (आगे की गाथाएं) कह रहे हैं (13-15) (नियुक्ति-अर्थ-) सत्पदप्ररुपणता, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अन्तर, भाग, भाव, अल्पबहुत्व, (-इन नौ अनुयोगद्वारों के माध्यम से, तथा) गति, इन्द्रिय, काय, योग, , वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयम, उपयोग, आहार, भाषक, परीत्त, पर्याप्त, . र सूक्ष्म, संज्ञी, भव, चरम -इन स्थानों में आभिनिबोधिक ज्ञान की मार्गणा की जाती है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) सच तत्पदं च सत्पदम्, तस्य प्ररूपणं सत्पदप्ररूपणम्, तस्य भावः सत्पदप्ररूपणता, गत्यादिभिरिराभिनिबोधिकस्य कर्त्तव्येति।अथवा सद्विषयं पदं सत्पदम्, शेषं पूर्ववत् आह-किमसत्पदस्यापि प्ररूपणा क्रियते? येनेदमुच्यते 'सत्पदप्ररूपणेति'।क्रियत , ca इत्याह खरविषाणादेरसत्पदस्यापीति, तस्मात् सद्ग्रहणमिति।अथवा सन्ति च तानि पदानि " a च सत्पदानि गत्यादीनि, तैः प्ररूपणं सत्पदप्ररूपणं मतेरिति / तथा 'द्रव्यप्रमाणम्' इति , a जीवद्रव्यप्रमाणं वक्तव्यम् / एतदुक्तं भवति- एकस्मिन् समये कियन्तो मतिज्ञानं प्रतिपद्यन्त . & इति, सर्वे वा कियन्त इति।कः समुच्चये। क्षेत्रम्' इति क्षेत्रं वक्तव्यम्, कियति क्षेत्रे मतिज्ञानं , संभवति। स्पर्शना च' वक्तव्या, कियत् क्षेत्रं मतिज्ञानिनः स्पृशन्ति।आह-क्षेत्रस्य स्पर्शनायाश्च कः प्रतिविशेषः?, उच्यते, यत्रावगाहस्तत् क्षेत्रम्, स्पर्शना तु तद्बाह्यतोऽपि भवति, अयं विशेष 4 इति।चशब्दः पूर्ववत्। c (वृत्ति-हिन्दी-) सत्पदप्ररूपणा का अर्थ इस प्रकार है- सत् जो पद (वाचक शब्द), . उसकी प्ररूपणा का होना (भाव)। (प्रस्तुत प्रकरण में नियुक्तिकार का अभिप्राय है-) गति , आदि द्वारों से 'आभिनिबोधिक ज्ञान' -इस सत्पद की प्ररूपणा करनी चाहिए। अथवा " 'सत्पदप्ररूपणा' का अर्थ है- सद् विषय वाले (सद्भूत विषय/अर्थ के वाचक) पद की (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 104 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33222222233333223222322233333333333333333332 -aaaaacaca cace नियुक्ति गाथा-13-15 0 00 90 91 92000| प्ररूपणा, शेष अर्थ पूर्ववत् नियोजित कर लेना चाहिए। (शंका-) जो असत् पद है, क्या | c. उसकी भी प्ररूपणा होती है, जो आप (“पद' के साथ 'सत्' यह विशेषण लगाकर) a 'सत्पदप्ररूपणा' इस प्रकार कह रहे हैं? उत्तर है- खरविषाण (गधे की सींग) आदि असत् , CM पदार्थ की भी प्ररूपणा की जाती है, इसलिए (उसके निराकरण हेतु) 'सत्पदप्ररूवणा' इस : & प्रकार कहा। अथवा यहां 'सत्पदप्ररूपणा' का अर्थ है- गति आदि द्वार रूप जो सत्पद, . - उनके द्वारा मतिज्ञान की प्ररूपणा करना / (सत्पदप्ररूपणा के अलावा) द्रव्य-प्रमाण, अर्थात् 1 ca जीव द्रव्य सम्बन्धी प्रमाण (परिमाण) की भी प्ररूपणा करनी चाहिए। तात्पर्य यह है- एक " * समय में कितनी आत्माएं मतिज्ञान को प्राप्त करती हैं, या सभी मतिज्ञानी कितने हैं इत्यादि (रूप में प्ररूपणा करनी चाहिए)। 'च' समुच्चय ('और' इस) अर्थ को बता रहा है। , (इसके अतिरिक्त,) क्षेत्र की भी प्ररूपणा करनी चाहिए- (जैसे) कितने क्षेत्र में मतिज्ञान : सम्भव है? और 'स्पर्शना' की भी प्ररूपणा करनी चाहिए, (जैसे) मतिज्ञानी कितने क्षेत्र की स्पर्शना करते हैं (आदि)। (शंका-) क्षेत्र व स्पर्शना में क्या अन्तर है? बता रहे है- जहां ce (वर्तमान काल में) पदार्थ का अवगाहन है, वह क्षेत्र है, किन्तु स्पर्शना से तो उससे बाह्य , a भाग (अर्थात् क्षेत्र का पार्श्ववर्ती, अगल-बगल के भाग) का भी ग्रहण होता है, यही दोनों में , 4 अन्तर है। 'च' शब्द पूर्ववत् ('समुच्चय' अर्थ का वाचक) है। व विशेषार्थ ___ वस्तुविशेष को निरूपित करने के अनेक अनुयोग-द्वार (व्याख्यान-बिन्दु) होते हैं। वस्तु को , ca जानना उस वस्तु से सम्बन्धित विविध प्रश्नों के माध्यम से होता है। वे प्रश्न विविध विचार-बिन्दुओं . पर केन्द्रित होते हैं। इन्हें 'अनुयोग द्वार' के रूप में जैन शास्त्रों में व्यवस्थित किया गया है। " सत्पदप्ररूपणा आदि अनुयोगद्वार ही हैं। सद्भूत पदार्थ के अस्तित्व का प्ररूपण विविध दृष्टियों (गति : a आदि द्वारों) से करणीय होता है। द्रव्य प्रमाण के अन्तर्गत विवक्षित वस्तु के परिमाण, भेद, संख्या 1 आदि का निरूपण होता है। क्षेत्र' अनुयोग द्वार और स्पर्शन अनुयोग द्वार -ये परस्परसम्बद्ध प्रतीत " & होते हुए भी कुछ भिन्नता लिए हुए हैं। आचार्य पूज्यपाद ने 'सर्वार्थसिद्धि' में क्षेत्र को वर्तमानकालवी . 4 और स्पर्शन को त्रिकालवर्ती माना है, अर्थात् पदार्थ वर्तमान में जितने प्रदेश में निवास करता है, वह क्षेत्र होता है और जहां त्रिकालवर्ती निवास होता है, वह स्पर्शन होता है (क्षेत्रं निवासः वर्तमान4 कालविषयः, तदेव स्पर्शनं त्रिकालगोचरम्, त. सू. 3/8)।किन्तु विशेषावश्यक भाष्य, उसके व्याख्याकार " / मलधारी हेमचन्द्र तथा आवश्यकनियुक्ति के प्रकृत व्याख्याकार आ. हरिभद्र आदि के मत में जितने | (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 105 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aca cacaca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 333333333333333333333333333333333333333333333 आकाश-प्रदेश में पदार्थ अवगाढ़ (अवगाहना रखने वाला) होता है, वह 'क्षेत्र' है और उस अवगाहना से अतिरिक्त जो पार्श्ववर्ती (शरीर-प्रदेशों से स्पष्ट) अतिरिक्त क्षेत्र होता है, वह स्पर्शन है (यत्र अवगाढः, तत् क्षेत्रमुच्यते, यत्तु अवगाहनातः, बहिरपि अतिरिक्त क्षेत्रं स्पृशति, सा स्पर्शना अभिधीयते, विशेषा. . भा. 432-33, व वृत्ति आदि)। उदाहरणार्थ- एक परमाणु का क्षेत्र है- आकाश का एक प्रदेश, और 3 & स्पर्शना है- सप्तप्रदेश, (क्षेत्र-एक प्रदेश के अतिरिक्त, चारों दिशाओं, ऊपर व नीचे का आकाश प्रदेश)। " अतः विवक्षित धर्म वाले जीवादि पदार्थों के (वर्तमान) निवास स्थान का निरूपण क्षेत्र अनुयोग द्वार है, उसके क्षेत्र-स्पर्श का समुच्चय रूप से निर्देश करना स्पर्शन अनुयोग द्वार है। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) कालश्च वक्तव्यः, स्थित्यादिकालः।अन्तरं च वक्तव्यं प्रतिपत्त्यादाविति।भागो वक्तव्यः, - मतिज्ञानिनःशेषज्ञानिनां कतिभागे वर्तन्त इति।तथा भावो वक्तव्यः, कस्मिन् भावे मतिज्ञानिन . इति। अल्पबहुत्वं च वक्तव्यम् / आह- भागद्वारादेवायमर्थोऽवगतः, ततश्चालमनेनेति, न, अभिप्रायापरिज्ञानात् / इह मतिज्ञानिनामेव पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकापेक्षया अल्पबहुत्वं वक्तव्यमिति समुदायार्थः। (वृत्ति-हिन्दी-) 'काल' अर्थात् स्थिति आदि की भी प्ररूपणा करनी चाहिए। अन्तर : अर्थात् प्रतिपत्ति आदि से सम्बन्धित ‘अन्तर' (विरह-काल) की भी प्ररूपणा करनी चाहिए। 'भाग' की, जैसे मतिज्ञानी शेष ज्ञानियों के कितने भाग (प्रमाण) में हैं- इसकी प्ररूपणा, करनी चाहिए। 'भाव' की भी प्ररूपणा करनी चाहिए, जैसे- किस-किस भाव में मतिज्ञानी , : हैं। ‘अल्पबहुत्व' की प्ररूपणा भी करनी चाहिए। (शंका-) 'भाग' द्वार के द्वारा ही इस >> (अल्पबहुत्व) अर्थ का ज्ञान हो जाता है, इसलिए 'भाग' द्वार का कथन अनपेक्षित है। " (उत्तर-) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि हमारे अभिप्राय को आपने नहीं समझा है। यहां , (अल्पबहुत्व द्वार में) मतिज्ञानियों का ही पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान -इन (दो भेदों) की / अपेक्षा रखकर अल्पबहुत्व का निरूपण करना चाहिए। इस प्रकार गाथा का समुदित अर्थ है पूरा हुआ। विशेषार्थ_ 'काल' द्वार के द्वारा वस्तु या पदार्थ की जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति-समय का निरूपण होता है है। 'अन्तर' से तात्पर्य है- विरहकाल या मध्य काल जिसमें विवक्षित गुण के गुणान्तर रूप से - 106 @9888088@@ce890@ @nen@ce@00 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SecemRRRRcace ග ග ග ග ග ග ග ග ග ල්ලා 333333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-13-15 संक्रमित होने के बाद उसे पुनः पूर्व स्थिति की प्राप्ति होती है। अर्थात् दो सदृश अवस्थाओं के बीच का & काल 'अन्तर' काल होता है। जैसे- एक जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर पुनः सम्यक्त्व की स्थिति प्राप्त करता है तो सम्यक्त्व च्युति का मध्यकाल या विरह-काल कितना, जघन्य या उत्कृष्ट हो सकता हैइसका निरूपण 'अन्तर' द्वार से किया जाता है। 'भाग' द्वार के अन्तर्गत यह स्पष्ट किया जाता है कि ? & कोई पदार्थ अन्य पदार्थों का कितने भाग-प्रमाण है। 'भाव' से तात्पर्य है- पदार्थ का अपने-अपने स्वभाव से परिणमन / जीव के औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक व पारिणामिक -ये , & पांच भाव मुख्य हैं। प्रकृत प्रसंग में इन्हीं भावों में ज्ञान या ज्ञानी के सद्भाव का निरूपण 'भाव' द्वार ca के माध्यम से किया गया है। पदार्थों के परस्पर न्यूनाधिक-अल्पाधिक भाव ही 'अल्पबहुत्व' हैं। ca पदार्थों के किसी एक परिणाम का निर्णय हो जाने पर उनकी परस्पर विशेष प्रतिपत्ति (ज्ञान) के लिए अल्पबहुत्व का आधार लिया जाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव आदि निक्षेपों की अपेक्षा अल्पबहुत्व के अनेक भेद सम्भव हैं। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीं प्रागुपन्यस्तगाथाद्वयेन आभिनिबोधिकस्य सत्पदप्ररूपणाद्वारा अवयवार्थः / प्रतिपाद्यते।कथम्?, अन्विष्यते 'आभिनिबोधिकज्ञानं किमस्ति नास्तीति।' अस्ति, यद्यस्ति / क्व तत् ?, तत्र ‘गताविति'। गतिमङ्गीकृत्यालोच्यते / सा गतिश्चतुर्विधा नारकतिर्यड्नरामरभेदभिन्ना।तत्र चतुष्प्रकारायामपि गतौ आभिनिबोधिकज्ञानस्य पूर्वप्रतिपन्ना : 6 नियमतो विद्यन्ते, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्याः, कदाचिद्भवन्ति कदाचिन्नेति।तत्र ca प्रतिपद्यमाना अभिधीयन्ते ते ये तत्प्रथमतयाऽऽभिनिबोधिकं प्रतिपद्यन्ते, प्रथमसमय एव, ca शेषसमयेषु तु पूर्वप्रतिपन्ना एव भवन्ति (1) / ca (वृत्ति-हिन्दी-) अब पूर्व में प्रस्तुत दो (कुल तीन) गाथाओं के द्वारा आभिनिबोधिक " a ज्ञान की 'सत्पदप्ररूपणा' करते हुए गाथा का अवयवार्य (गति आदि प्रत्येक द्वार के अनुसार) प्रतिपादित किया जा रहा है। (उत्तर-) किस रीति से? (उत्तर-) जैसे, यह अन्वेषणा करना , कि आभिनिबोधिक ज्ञान है कि नहीं है? यदि है तो वह कहां-कहां है (आदि)। (1) अब इन 5 a (गति आदि 20 द्वारों) में 'गति' -इस (द्वार) को अंगीकार कर आलोचना की जा रही है। . वह गति नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव -इन भेदों के कारण चार प्रकार की है। इन चारों . प्रकार की गतियों में आभिनिबोधिक ज्ञान के पूर्वप्रतिपन्न (पहले से ही इस ज्ञान से युक्त) >> / नियमतः विद्यमान हैं। जो प्रतिपद्यमान, अर्थात् जो यह ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, वे (छद्मस्थ हैं | (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)R@ 107 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333332223222333223222333333333333 - -RacecacRcace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9009OOR | तो) विवक्षित काल के अनुरूप भजनीय हैं, अर्थात् कभी होते हैं तो कभी नहीं होते। इनमें | (विवक्षित लब्धि उपयोग की स्थिति की अपेक्षा से, न कि अपूर्व लब्धि-प्राप्ति की अपेक्षा से) " जो प्रतिपद्यमान हैं, प्रथम बार आभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त करते हैं, वे प्रथम समय में तो प्रतिपद्यमान हैं, बाकी (उत्तरवर्ती) समयों में पूर्वप्रतिपन्न ही हो जाते हैं। & विशेषार्थ ‘गति' द्वार के माध्यम से आभिनिबोधिक ज्ञान की स्थिति का यहां निरूपण किया गया है। " गतियां चार हैं-देव, नारक, तिर्यंच और मनुष्य जीव किसी भी गति में हो, आभिनिबोधिक ज्ञान से , सम्पन्न होगा ही। अतः सभी जीव पूर्वप्रतिपन्न हैं। किन्तु ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम-विशेष रूप 'लब्धि-उपयोग' की प्राप्ति की दृष्टि से वे प्रतिद्यमान हो सकते हैं, वे उक्त प्राप्ति के प्रथम समय में ही : प्रतिपद्यमान होंगे, उत्तर काल में तो 'पूर्वप्रतिपन्न' होंगें। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तथा इन्द्रियद्वारे'। इन्द्रियाण्यङ्गीकृत्य मृग्यते।तत्र पञ्चेन्द्रियाः पूर्वप्रतिपन्नाः नियमतः / सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विकल्पनीया इति।द्वित्रिचतुरिन्द्रियास्तु पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, नतु, प्रतिपद्यमानाः, एकेन्द्रियास्तु उभयविकलाः (2) / तथा 'काय इति' | कायमङ्गीकृत्य विचार्यते।तत्र त्रसकाये पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो a विद्यन्ते, इतरे तु भाज्याः।शेषकायेषु च पृथिव्यादिषु उभयाभाव इति (3) / (वृत्ति-हिन्दी-) (2) 'इन्द्रिय' द्वार में इन्द्रियों को आधार बनाकर मार्गणा की जा . ल रही है। इसमें पञ्चेन्द्रिय तो नियम से पूर्वप्रतिपन्न (इन्द्रिय-प्राप्त) होते ही हैं, किन्तु प्रतिपद्यमान , (इन्द्रिय-प्राप्ति कर रहे) तो भजनीय हैं (विकल्प द्वारा कथनीय हैं, अर्थात्-वे होते भी हैं, नहीं , & भी होते हैं)। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय के धारक (जो लब्धिपर्याप्तक हैं, करण की " अपर्याप्त अवस्था में अन्य जन्म में प्राप्त सासादन-सम्यक्त्व का जिनमें सद्भाव है, वे) पूर्व , प्रतिपन्न तो हो सकते हैं, किन्तु प्रतिपद्यमान नहीं। एकेन्द्रिय तो उभयविकल (न पूर्वप्रतिपन्न : और न ही प्रतिपद्यमान) होते हैं। (3) 'काय' (शरीर) द्वार में काय को आधार बनाकर विचार किया जा रहा है। वहां : त्रस काय में पूर्वप्रतिपन्न नियम से होते हैं, अन्य (प्रतिपद्यमान) तो भजनीय हैं। शेष कायों- " पृथिवी आदि में तो दोनों (पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -इन) का अभाव है। - 108 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r). Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RacemeRect नियुक्ति-गाथा-13-15 0 90020902090209 222382322322333333333333333333333333333333333 विशेषार्थ इन्द्रियां पांच हैं- स्पर्शन, रसन, घ्राण, नेत्र और श्रोत्र / इनके भी द्रव्य व भाव रूप से दो-2 दो भेद हैं। द्रव्येन्द्रियां पौगलिक, पुद्गलजन्य होने से अर्थात् अंगोपांग व निर्माण नाम कर्म से निर्मित ल होने से जड़, अचेतन हैं, किन्तु भावेन्द्रियां चेतनाशक्ति की पर्याय होने से भाव रूप हैं। मति ज्ञानावरण ? ca कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न आत्म-विशुद्धि या उस विशुद्धि से उत्पन्न ज्ञान ही भावेन्द्रिय हैं। इनके भी 7 लब्धि व उपयोग -ये दो-दो भेद हैं। मतिज्ञानवरण कर्म के क्षयोपशम -चेतना शक्ति की योग्यता- . विशेष को लब्धि रूप भावेन्द्रिय कहते हैं, और भावेन्द्रिय के अनुसार, आत्मा की विषय-ग्रहण में प्रवृत्ति को उपयोग रूप भावेन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियों की दृष्टि से जीवों के 5 भेद हैं- एकेन्द्रिय (जिनमें मात्र स्पर्शनइन्द्रिय होती हैं), .. ब द्वीन्द्रिय (स्पर्शन व रसन इन्द्रिय से युक्त), त्रीन्द्रिय (स्पर्शन, रसन व घ्राण से युक्त), चतुरिन्द्रिय " ca (स्पर्शन, रसन, घ्राण व नेत्र से सम्पन्न) व पंचेन्द्रिय (स्पर्शन. रसन. घाण. नेत्र व श्रोत्र से सम्पन्न)। & एकेन्द्रिय जीवों के 5 भेद हैं- पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय व वनस्पतिकाय / सभी , एकेन्द्रिय 'स्थावर' कहलाते हैं, शेष द्वीन्द्रिय आदि ‘त्रस' कहलाते हैं। ये सभी (स्थावर व त्रस) पर्याप्त / ca भी होते हैं और अपर्याप्त भी। पर्याप्ति वह शक्ति है जिसके द्वारा जीव गृहीत योग्य पुद्गलों को ग्रहण , ca कर, उनसे इन्द्रिय आदि की रचना पूर्ण करता है। पर्याप्त जीव वे हैं जिनके पर्याप्त नाम कर्म के उदय से इन्द्रियादि-रचना पूर्ण होती है, शेष अपर्याप्त / पर्याप्ति के निम्नलिखित छह भेद हो जाते हैं4 (1) आहारपर्याप्ति, (2) शरीरपर्याप्ति, (3) इन्द्रियपर्याप्ति, (4) श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, (5) 0 भाषापर्याप्ति और (6) मन-पर्याप्ति / मन व भाषा -इन दोनों को एक मानकर पर्याप्तियों की संख्या : पांच भी मानी गई है। इन पर्याप्तियों का प्रारम्भ युगपत् होता है, क्योंकि जन्म समय से लेकर ही है इनका अस्तित्व पाया जाता है किन्तु पूर्णता क्रम से होती है। उक्त पर्याप्तियों में से एकेन्द्रिय जीवों के " & आदि की चार पर्याप्तियों और विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय) जीवों के मनपर्याप्ति के सिवाय शेष पांच पर्याप्तियां, तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के सभी छः पर्याप्तियां होती हैं। पर्याप्त और अपर्याप्ति के निम्न प्रकार से दो भेद भी हैं(1) लब्धि-अपर्याप्त, (2) करण-अपर्याप्त / (3).लब्धि-पर्याप्त, (4) करण-पर्याप्त / पर्याप्त नामकर्म के उदय से जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों से पूर्ण होता है, तथापि जब तक 1 | उसकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक उसको पर्याप्त नहीं कहते हैं किन्तु निर्वृत्ति-अपर्याप्त कहते - (r)(r)(r)(r)(r)necke8c680@Recen@ ___109 - Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 -acca cace cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 | हैं। लेकिन श्वेताम्बर साहित्य में करण शब्द से 'शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियां' इतना अर्थ किया हुआ मिलता है। अतः लब्धि-अपर्याप्त वे जीव कहलाते हैं जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर , जाते हैं किन्तु करण-अपर्याप्त के विषय में यह बात नहीं है। वे पर्याप्त नामकर्म के उदय वाले भी होते हैं और अपर्याप्त नामकर्म के उदय वाले भी। इसका आशय यह है कि चाहे पर्याप्त नामकर्म का उदय , & हो या अपर्याप्त नाम का, किन्तु जब तक करणों -शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियों की पूर्णता न हो तब " तक जीव करण-अपर्याप्त कहे जाते हैं। जिसने शरीर-पर्याप्ति पूर्ण की है, किन्तु इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण नहीं की है, वह भी करण-अपर्याप्ति कहा जा सकता है। अर्थात् शरीररूप करण के पूर्ण करने से करण९ पर्याप्ति और इन्द्रियरूप करण पूर्ण न करने से करण-अपर्याप्ति है। इसलिए शरीरपर्याप्ति से लेकर & मनःपर्याप्ति पर्यन्त पूर्व-पूर्व पर्याप्ति के पूर्ण होने पर करण-पर्याप्त और उत्तरोत्तर पर्याप्ति के पूर्ण न होने , से करण-अपर्याप्त कह सकते हैं, लेकिन जब जीव स्वयोग्य सम्पूर्ण पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है तब उसे करण-अपर्याप्त नहीं कहते हैं। लब्धि-पर्याप्त जीव वे कहलाते हैं जिनको पर्याप्त नामकर्म का उदय हो और इससे वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके मरते हैं, पहले नहीं। लेकिन करण-पर्याप्तों के लिए यह नियम नहीं & है कि वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरण को प्राप्त हों। लब्धि-अपर्याप्त जीव भी करण-अपर्याप्त होते हैं। क्योंकि यह नियम है कि लब्धि-अपर्याप्त भी , & कम से कम आहार, शरीर और इन्द्रिय -इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना महीं मरते हैं। जीव " का मरण तभी होता है जब आगामी भव की आयु का बंध हो जाता है और आयु तभी बांधी जा सकती है जबकि आहार, शरीर और इन्द्रिय -ये तीन पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं। लब्धि-अपर्याप्त जीव / पहली तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही अग्रिम भव की आयु बांधता है। जो अग्रिम आयु को नहीं है ce बांधता है और उसके अबाधाकाल को पूर्ण नही करता है, वह मर भी नहीं सकता। इस प्रकार से स्व- . योग्य पर्याप्तियों के पूर्ण करने और न करने की योग्यता की अपेक्षा से समस्त संसारी जीवों - एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों -को पर्याप्त और अपर्याप्त माना जाता है। विकलेन्द्रियों (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय) में मतिज्ञान के सद्भाव के प्रसंग में प्रतिपादित : किया गया है कि वे पूर्वप्रतिपन्न तो हो सकते हैं, प्रतिपद्यमान नहीं। यहां यह समझ लेना चाहिए कि, << यहां 'आभिनिबोधिक ज्ञान' के सद्भाव से तात्पर्य है- सम्यक्त्व-सहित ज्ञान, क्योंकि सम्यक्त्वरहित , ce तो वह अज्ञान रूप ही है। यदि विकलेन्द्रिय ‘सास्वादन सम्यक्त्व' के साथ पूर्व भव से आते हैं, उनमें 7 'पूर्वप्रतिपत्ति' होने से मतिज्ञान का सद्भाव है, इसलिए वे पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं। किन्तु इन सभी" विकलेन्द्रियों में अपेक्षित विशुद्धि न होने से 'प्रतिपद्यमान' का सद्भाव नहीं होता। . (r)(r)CRORRORRORecr@@@cR929 -8888888888888883333333333333333333333333333 - 110 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRce 99999999999 -333333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-13-15 एकेन्द्रियों में प्रतिपद्यमान व पूर्वप्रतिपन्न -इन दोनों का अभाव कहा गया है। क्योंकि वे ce मिथ्यात्वी-अज्ञानी हैं। यह कथन सैद्धान्तिक मत से है। कर्मग्रन्थ के अनुसार लब्धि-पर्याप्त बादर , पृथ्वी, जल, वनस्पति काय के जीव, जो ‘करण-अपर्याप्त होते हैं, पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं, क्योंकि 4 उनमें सास्वादन सम्यक्त्व के साथ पूर्व भव से आना हो सकता है। किन्तु एकेन्द्रियों में प्रतिपद्यमान " & नहीं होते -इसमें कर्मग्रन्थ व सिद्धान्त पक्ष दोनों सहमत हैं (द्र. मलधारीवृत्ति, विशेषा. भाष्य, गाथा- 2 4 412-413, तथा भगवती सूत्र-8/2/205-207 पर वृत्ति)। a 'काय' द्वार के अन्तर्गत, विविध शरीरों से सम्पन्न जीवों में आभिनिबोधिक ज्ञान के सद्भाव , का विचार किया गया है। स्थावरकाय के पांच भेद तथा त्रस काय -इन्हें मिलाकर छः काय हैं। 6 स्थावरकायों में न तो पूर्वप्रतिपन्न होते हैं और न ही प्रतिपद्यमान | त्रसकाय में पूर्वप्रतिपन्न होते ही हैं, प्रतिपद्यमान तो कुछ ही हो सकते हैं, सब नहीं। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) तथा 'योग' इति। त्रिषु योगेषु समुदितेषु पञ्चेन्द्रियवद्वक्तव्यम्।मनोरहितवाग्योगेषु विकलेन्द्रियवत्, केवलकाययोगे तूभयाभाव इति (4) / तथा 'वेदे' इति।त्रिष्वपि वेदेषु विवक्षितकाले पूर्वप्रतिपन्ना अवश्यमेव सन्ति, इतरेतु , भाज्या इति (5) / तथा 'कषाय' इति द्वारम् / कषायाः क्रोधमानमायालोभाख्याः / ca प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभेदभिन्ना इति। तत्रायेषु अनन्तानुबन्धेषु क्रोधादिषूभयाभाव इति।शेषेषु तु पञ्चेन्द्रियवद् योज्यम् (6) / ब . (वृत्ति-हिन्दी-) (4) अब 'योग' द्वार का निरूपण इस प्रकार है- तीनों समुदित , a योगों में पञ्चेन्द्रिय की तरह इसकी वक्तव्यता समझनी चाहिए। मनोयोग से रहित वचन योग में विकलेन्द्रिय की तरह वक्तव्यता है। मात्र काययोग में तो दोनों का अभाव है (क्योंकि " & विकलेन्द्रियों में सासादन का सद्भाव होने पर भी एकेन्द्रियों में उनका असद्भाव होता है)। " (5) अब 'वेद' द्वार का निरूपण इस प्रकार है- तीनों वेदों में विवक्षित समय में ca पूर्वप्रतिपन्न अवश्य होते हैं, अन्य का सद्भाव भजनीय (विकल्प से कथनीय) है। (6) 7 & 'कषाय' द्वार का निरूपण इस प्रकार है- क्रोध, मान, माया व लोभ -ये चार कषाय हैं। . इन चारों में प्रत्येक के भी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण व संज्वलन / -ये (चार-चार) भेद हैं। इनमें प्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोधादि (चार) कषायों में (पूर्वप्रतिपन्नक / 88888333333333333333333333333333333333333333 - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)R@@@R@80@ 111 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Ramacacea श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 99000000 व प्रतिपद्यमान -इन) दोनों का अभाव है (यहां सास्वादन काल की अल्पता के कारण ce उसकी विवक्षा नहीं की गई है- ऐसा मलधारी हेमचन्द्र का मत है)। शेष में पञ्चेन्द्रियों की . तरह वक्तव्यता समझनी चाहिए। (अर्थात् वहां पूर्वप्रतिपन्न हैं, प्रतिपद्यमान का सद्भाव , भजनीय है। जो पूर्व में प्राप्त कर वर्तमान में उनके उपयोग में या सम्बन्धित लब्धि में / 4 विद्यमान हैं, वे यहां 'प्रतिपन्न' रूप से ग्राह्य हैं, न कि वे जो प्रतिपन्न होकर उसे छोड़ चुके हैं। विशेषार्थ योग का अर्थ है- व्यापार, प्रवृत्ति। योग के तीन भेद हैं- काययोग, वचनयोग व मनोयोग। मन, वचन व शरीर के द्वारा होने वाले आत्म-प्रदेशों का परिस्पन्द (हलचल) 'योग' यहां गृहीत है। शास्त्रीय शब्दावली में कहें तो बाह्य व आभ्यन्तर कारणों से उत्पन्न, आत्मा का गमनादिक सम्बन्धी & प्रदेश-परिस्पन्द 'काय योग' है। इसमें बाह्य कारण औदारिक आदि किसी न किसी प्रकार की शरीर& वर्गणा का अवलम्बन है और अन्तरंग कारण है- वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम / इसी प्रकार आत्मा का भाषाभिमुख प्रदेश-परिस्पन्द 'वचनयोग' है जिसमें बाह्य कारण , & पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से होने वाला वचन-वर्गणा का अवलम्बन है और अन्तरंग कारण वीर्यान्तराय कर्म व मतिज्ञानावरण व अक्षरश्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम है। इसी 6 प्रकार, मनन-अभिमुख आत्म-प्रदेश परिस्पन्द ‘मनोयोग' है जिसमें अन्तरङ्ग कारण है- वीर्यान्तराय a कर्म क्षय या क्षयोपशम तथा नोइन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम और बाह्य कारण है- मनोवर्गणा a का अवलम्बन / वस्तुतः इन तीनों में मुख्यता काययोग की है, क्योंकि काययोग की सहायता से होने 4 वाले भिन्न-भिन्न व्यापार को व्यवहार के लिए इन तीन योगों के रूप में निरूपित किया जाता है। 'योग' द्वार में मनोयोग आदि वाले जीवों में आभिनिबोधिक ज्ञान के सद्भाव का या वहां पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान का सद्भाव बताया गया है। तीनों योग समुदित रूप में जिन जीवों में हैं, & उनमें आभिनिबोधिक ज्ञान का कथन पञ्चेन्द्रियों की तरह कथनीय है। मनोयोग-रहित वचनयोग वालों में विकलेन्द्रियों (द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय आदि) की तरह, तथा मात्र शरीर योग वालों में & एकेन्द्रियों की तरह कथन करना चाहिए (अर्थात् सैद्धान्तिक दृष्टि से मात्र शरीर-योग वालों में प्रतिपन्न / व प्रतिपद्यमान -इन दोनों का अभाव है)। 'वेद' के द्वारा इन्द्रियजन्य, संयोगजन्य सुख आदि का वेदन होता है। मोहनीय कर्म के , ca उदय, उदीरणा से होने वाला जीव-परिणाम का संमोह (चंचलपना), जिससे गुण-दोष का विवेक नहीं " / रह पाता, वह (नो-कषाय) 'वेद' है। 'वेद' के तीन भेद हैं- पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसक वेद / 'वेद' (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 222333333333333332222222333333333333333333333 - 112 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ គ គ គ គ គ គ គ គ 1 2322222222222222222222 cace cecace crance नियुक्ति गाथा-13-15 अनुयोग-द्वार के माध्यम से यहां ज्ञान के सद्भाव का निरूपण किया गया है। उक्त तीनों वेदों में ज्ञान ca के सद्भाव का कथन पञ्चेन्द्रिय जीवों की तरह करणीय है। अर्थात् वहां पूर्वप्रतिपन्न तो नियम से होते 6 हैं, किन्तु प्रतिपद्यमानकों का सद्भाव भजनीय है, भाव या अभाव दोनों यथाप्रसङ्ग होते हैं। 'कषाय' मानसिक विकार हैं जो मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं। वस्तुतः ये आत्मीय परिणाम हैं जो मोहनीय कर्म के कारण होते हैं। ये आत्मपरिणाम या आत्मीय वैभाविक परिणमन जीव के सम्यकत्व, देशचारित्र, सकल चारित्र व यथाख्यात चारित्र का घात करने में सक्षम होते हैं। " कषाय मुख्यतः चार हैं-क्रोध, मान, माया व लोभ / इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद हैं- अनन्तानुबन्धी, , अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, व संज्ज्वलन / अनन्तानुबन्धी कषाय जीव के सम्यक्त्व गुण का घात करता है। इस कषाय वालों में सम्यक्त्व के अभाव व अज्ञान के कारण, पूर्वप्रतिपन्न व ca प्रतिपद्यमान -इन दोनों का अभाव है। अप्रत्याख्यानावरण आदि तीन कषायों वाले जीवों में पञ्चेन्द्रियों की तरह आभिनिबोधिक ज्ञान का कथन करणीय है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) व तथा लेश्यासु' चिन्त्यते। तत्र श्लेषयन्त्यात्मानमष्टविधेन कर्मणा इति लेश्याःca कायाद्यन्यतमयोगवतः कृष्णादिद्रव्यसंबन्धादात्मनः परिणामा इत्यर्थः। तत्रोपरितनीषु तिसृषु " व लेश्यासु पञ्चेन्द्रियवद्योजनीयम् इति।आद्यासुतु पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, नत्वितर इति (7) / " तथा 'सम्यक्त्वद्वारम्'। सम्यग्दृष्टिः किं पूर्वप्रतिपन्नः किं वा प्रतिपद्यमानक इति। अत्र , व्यवहारनिश्चयाभ्यां विचार इति। तत्र व्यवहारनय आह- सम्यग्दृष्टिः पूर्वप्रतिपन्नः, न / प्रतिपद्यमानकः आभिनिबोधिकज्ञानलाभस्य, सम्यग्दर्शनमतिश्रुतानां युगपल्लाभात्, 4 आभिनिबोधिकप्रतिपत्त्यनवस्थाप्रसङ्गाच्च / निश्चयनयस्त्वाह- सम्यग्दृष्टिः पूर्वप्रतिपन्नः ल प्रतिपद्यमानश्च आभिनिबोधिकज्ञानलाभस्य, सम्यग्दर्शनसहायत्वात्, क्रियाकाल- 1 a निष्ठाकालयोरभेदात्, भेदे च क्रियाऽभाव-अविशेषात् पूर्ववद् वस्तुनोऽनुत्पत्तिप्रसङ्गात्, न चेत्यं / तत्प्रतिपत्त्यनवस्थेति (8) / (वृत्ति-हिन्दी-) (7) अब 'लेश्या' द्वारा का विचार किया जा रहा है। जो आत्मा को " a आठ प्रकार के कर्मों से श्लिष्ट (संयुक्त) करती हैं, वे लेश्या होती हैं, अर्थात् काय, वाणी व . मन -इन तीनों योगों में से किसी भी एक योग वाले व्यक्ति के आत्म-परिणाम 'लेश्या' हैं। , इन (छः) लेश्याओं में ऊपर की (प्रशस्त, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या व शुक्ललेश्या -इन) तीन " लेश्याओं में पञ्चेन्द्रिय की तरह कथन करना चाहिए। प्रथम तीन में तो 'पूर्वप्रतिपन्न' का (r)(r)(r)(r)ce@9808988999@cr(r)08 113 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333 caca ca cace cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 090020200090 सद्भाव है, अन्य का नहीं। (8) अब 'सम्यक्त्व' द्वार का विचार किया जा रहा हैcसम्यग्दृष्टि (आभिनिबोधिक ज्ञान-लाभ की दृष्टि से) क्या पूर्वप्रतिपन्न है या प्रतिपद्यमानक है & -इस सम्बन्ध में व्यवहार व निश्चय -इन दोनों नयों से विचार किया जा रहा है। इनमें से व्यवहार नय का कथन है कि सम्यग्दृष्टि आभिनिबोधिक ज्ञान के लाभ की दृष्टि से 'पूर्वप्रतिपन्न' ल होता है, प्रतिपद्यमानक नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन, मति, श्रुत ज्ञान -इन (तीनों) की युगपत् / 4 (एक साथ) प्राप्ति होती है, अन्यथा (युगपत् प्राप्ति न हो तो) आभिनिबोधिक ज्ञान की प्राप्ति ca की अनवस्था हो जाएगी। किन्तु निश्चय नय कहता है- सम्यग्दृष्टि आभिनिबोधिक ज्ञान& लाभ की दृष्टि से पूर्वप्रतिपन्न भी है और प्रतिपद्यमानक भी है, क्योंकि वहां सम्यग्दर्शन साथ, a में रहता है, एवं क्रिया-काल और निष्ठाकाल (कार्योत्पत्ति-काल) -इन दोनों में अभेद है। यदि . & भेद मानें तो क्रिया और वस्तु-अभाव -इन दोनों में अन्तर नहीं रहेगा, और पूर्व की तरह... 4 (असद्) वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो पाएगी। और इस प्रकार (अभेद मानने पर) आभिनिबोधिक * ज्ञान की प्रतिपत्ति की अनवस्था भी नहीं रहती। विशेषार्थ कषायोदय से अनुरंजित योग-प्रवृत्ति द्वारा होने वाले आत्मीय विविध परिणामों को -जो कृष्ण, नील आदि विविध वर्णीय पुद्गल-विशेष के प्रभाव से होते हैं- 'लेश्या' कहा जाता है। लेश्या ही आत्मा को पुण्य-पाप से, विविध कर्मों से संश्रुिष्ट करती है। लेश्या के दो प्रकार हैं- द्रव्यलेश्या व ca भावलेश्या / मोह कर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम या क्षय से जीव में होने वाली आत्म-प्रदेशीय ca चंचलता या परिस्पन्द ही भावलेश्या है। इसमें साधन हैं-जीवविपाकी मोहनीय कर्म तथा वीर्यान्तराय ca कर्म की अवस्थाएं। द्रव्य लेश्या शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न एवं पौद्गलिक हैं, इस दृष्टि से & वर्णनामकर्म के उदय से उत्पन्न शरीर-वर्ण को द्रव्य लेश्या कहा जाता है। लेश्याओं के छः प्रकार हैं- कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल / इनमें प्रथम तीन " ce अप्रशस्त हैं, शेष प्रशस्त हैं, इनमें भी उत्तरोत्तर प्रशस्तता (श्रेष्ठता) समझनी चाहिए। (विशेष विवरण 2 हेतु उत्तराध्ययन का (34वां) लेश्याध्ययन द्रष्टव्य है।) 'लेश्याद्वार' द्वारा विविध लेश्या वाले जीवों में ज्ञान के सद्भाव का निरूपण किया गया है। " & प्रशस्त तीन लेश्याओं में ज्ञान के सद्भाव का कथन पंचेन्द्रियों की तरह कथनीय है। तीनों अप्रशस्त , लेश्याओं में पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं, प्रतिपद्यमान नहीं होते। 3333333333333333333333333333338888888888888 333333333 - 114 @ @R@nec8e8 @ @ @ @ @ @ @ - Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222333232322332223222333333333333333333333 aacacacacacacace नियुक्ति गाथा-13-15 0 00000000 'आत्मा का मोक्ष-अविरोधी विशिष्ट (आंशिक निर्मल) परिणाम 'सम्यक्त्व' है। इसमें जीवादि पदार्थों का विपरीत अभिनिवेश हटकर उनके प्रति यथार्थ श्रद्धान होता है। इसमें आत्मा की 6 अन्तर्मुखी प्रवृत्ति सम्भव होती है। प्रशम, संगेव, निर्वेद, अनुकम्पा व आस्तिकता -ये लक्षण, सम्यक्त्व के माने गये हैं। सम्यक्त्व की प्राप्ति का निश्चित कारण होता है -अनादि पारिणामिक " व भव्यत्व भाव का विपाक (अन्तरंग कारण)। प्रवचन-श्रवण आदि बाह्य कारण भी निमित्त रूप से माने " जाते हैं। आन्तरिक कारण की विविधता से सम्यक्त्व के औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक आदि भेद होते हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क व दर्शनमोहनीय-त्रिक -इन सात प्रकृतियों के उपशम से c तत्त्वरुचि रूप आत्मीय परिणाम 'उपशम सम्यक्त्व' है, और इन्हीं सात प्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न a आत्म-परिणाम क्षायिक सम्यक्त्व' है।अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यग् मिथ्यात्व " & -इन छः प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सद्-अवस्था रूप उपशम से तथा देशघाती . स्पर्धक (वर्गणा-समूह) वाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में तत्त्वरुचि परिणाम 'औपशमिक सम्यक्त्व' होता है। (विशेष विवरण हेतु अन्य कर्मग्रन्थ द्रष्टव्य हैं।) सम्यग्दृष्टि में आभिनिबोधिक ज्ञान के सद्भाव का निरूपण 'सम्यक्त्व' द्वार के माध्यम से यहां किया गया है। इस विषय में नय दृष्टि के अन्तर को विशेष ध्यान में रखा गया है। प्रकृत निरूपण " a सूत्रात्मक व संक्षिप्त है। अतः स्पष्टीकरण हेतु व्यवहार व निश्चयनय -इन दोनों के स्वरूप-भेद को " समझना यहां अपेक्षित है। व्यवहार नय 'असत्कार्यवादी' है। मिट्टी बिखरी हुई होती है, उस समय घड़ा नहीं होता। उसमें पानी मिला कर, पिण्ड बनाकर, चाक पर चढ़ा कर, विविध क्रिया करते हुए 'घट' का निर्माण ल होता है, तब 'घट' सत् होता है। अपने निर्माण से पहले 'घट' सत् नहीं, असत् रहता है, मात्र मिट्टी 22 on 'सत्' रहती है। इसी मान्यता के परिप्रेक्ष्य में 'ज्ञान' द्वार का निरूपण करते हुए कहा गया है कि " मिथ्यादृष्टि-अज्ञानी को जब सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, तब वह सम्यक्त्व व ज्ञान (जो पहले नहीं था, , : उस) को प्राप्त करता हुआ ‘प्रतिपद्यमान' होता है, किन्तु (पहले से ही) सम्यक्त्व ज्ञान-सम्पन्न व्यक्ति / a 'प्रतिपद्यमान' नहीं होता। इसके विपरीत, निश्चय नय यह मानता है कि सम्यक्त्व, सहित के ही a सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। किन्तु इस मान्यता का विरोध करता हुआ व्यवहार नय कहता है कि जो " वस्तु पहले से ही सद्प हो, उसका उत्पादन संगत नहीं। जो नहीं है, उसी की उत्पत्ति होती है। मिथ्यादृष्टि पहले सम्यक्त्वहीन था, बाद में वह सम्यक्त्व प्राप्त करता है। जैसे कोई पूर्वनिष्पन्न घड़े को * कोई (पुनः) बना नहीं सकता, वैसे सम्यग्दृष्टि के पहले से ही सम्यक्त्व है, उस सम्यक्त्व को वह उत्पन्न , कैसे करेगा? यदि फिर भी करे तो करता ही रहेगा, उसका विराम होगा ही नहीं, तब सम्यक्त्व का नाश (r)(r)(r)(r)(r)Recence@@@ce@@ 115 -88888888888888888888888888888888888888888 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222223333333333333333333333333333333333333 -acacace cacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2900 0000(सम्यक्त्व-प्रच्युति) नहीं हो पाएगा। विद्यमान की ही पुनः कार्यरुप में परिणति हो तो कार्य करने की & क्रिया निष्फल कही जाएगी, क्योंकि कार्य तो पहले से ही विद्यमान था, क्रिया ने फिर क्या किया? क्रियाकाल व निष्ठाकाल (कार्य-उत्पत्तिसमय)-इन दोनों को अभिन्न मानने वाले निश्चयनय , Ma के विरोध में व्यवहार नय का कहना है कि क्रिया-काल व निष्ठा-काल में भिन्नता ही दृष्टिगोचर होती। है, क्योंकि क्रिया प्रारम्भ करते ही घट उत्पन्न नहीं हो जाता, अपितु मिट्टी लाना, उसमें पानी मिलाना, & पिण्ड बनाना, चाक पर चढ़ाना आदि दीर्घकालीन क्रिया के बाद, उसकी समाप्ति पर ही, 'घट’ उत्पन्न " होता है, इससे पहले 'घट' कहीं (उनपूर्ववर्ती क्रियाओं के मध्य) उपलब्ध नहीं होता। इसलिए प्रस्तुत , ज्ञान (सम्यक्त्व) की प्राप्ति के प्रसंग में यह निष्कर्ष निकलता है कि गुरु-सन्निधि में उपदेश-श्रवण- . चिन्तन-मनन आदि (सम्यक्त्व-उपादक) क्रियाओं के समय आभिनिबोधिक ज्ञान (सम्यक्त्व) नहीं ca होता, अपितु अन्त में (निष्ठाकाल में) वह उत्पन्न होता है। अतः मिथ्यादृष्टि व अज्ञानी ही सम्यक्त्व* ज्ञान प्रतिपन्न' होता है, न कि सम्यग्दृष्टि-ज्ञानी। ce निश्चयनय सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद का समर्थन करता है। सत्कार्यवाद के अनुसार " कारण व कार्य एक ही वस्तु तत्त्व की दो अवस्थाएं हैं। कारण अपने कार्य का अव्यक्त रूप है तो कार्य , अपने कारण का व्यक्त रूप। वृक्ष रूप कार्य बीज रूप कारण में विद्यमान ही रहता है, किन्तु, अव्यक्त रूप से ही रहता है। उपयुक्त सामग्री मिलने पर वह वृक्ष रूप में व्यक्त हो जाता है। इस प्रकार 'कार्य' & का सदा सद्भाव है। हां, उसके व्यक्त रूप को व्यवहार में कार्य की उत्पत्ति' कह देते हैं, वस्तुतः वहां >> & अव्यक्त रूप में सत् कार्य ही व्यक्त होता है। उक्त सत्कार्यवादी मान्यता के अनुरूप ही निश्चय नय' का , यहां कथन किया गया है। निश्चय नय के अनुसार सत् की ही उत्पत्ति होती है, (सर्वथा) असत् की / & नहीं।आकाश-कुसुम आदि की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि वे सर्वथा असत् पदार्थ हैं। यदि असत् की , & भी उत्पत्ति हो तो आकाश कुसुम और गधे की सींग जैसे असत् पदार्थ की भी उत्पत्ति होनी चाहिए। " ca कार्य-विशेष की उत्पत्ति के प्रसङ्ग में जो क्रियाएं की जाती हैं, वे प्रतिसमय भिन्न-भिन्न होती हैं, उन उनका भिन्न-भिन्न कुछ न कुछ फल विशेष प्रकट होता है, किन्तु पूर्ण कार्य (घट) की उत्पत्ति (अभिव्यक्ति) चरम-क्रिया काल में होती है। घट की उत्पत्ति के पहले जितनी क्रियाएं हैं, वे प्रतिसमय & भिन्न-भिन्न हैं, और उन सबका उद्देश्य घट-उत्पत्ति नहीं, अपितु घट-उत्पत्ति के अनुकूल विविध a स्थितियों का निर्माण है जिनका प्रत्यक्ष मिट्टी की विविध परिणतियों के रूप में भिन्न-भिन्न रूप से , होता ही है। इस दृष्टि से वे क्रियाएं निष्फल नहीं कही जा सकतीं। उन क्रियाओं में जो चरम क्रिया है, . र वह घट को उत्पन्न करती है, अतः वह भी सार्थक है ही। इस तरह क्रियाकाल व निष्ठाकाल -इन दोनों की अभिन्नता में कोई असंगति नहीं है, क्योंकि प्रत्येक क्षणिक क्रिया अपने द्वारा उत्पन्न विशिष्ट कार्य - 116 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 223333333333333333232323 -acca caca cace caca नियुक्ति-गाथा-13-15 000000mmकी निष्ठा से जुड़ी हुई है, अर्थात् क्रिया-काल ही उनका निष्ठाकाल है, दोनों अभिन्न हैं। उपर्युक्त विचारों के परिप्रेक्ष्य में, निश्चय नय के अनुसार, धर्मश्रमण आदि सम्यक्त्व-साधिका " a क्रियाओं के चरम समय में, सम्यक्त्व व ज्ञान 'प्रतिपद्यमान' होता हुआ 'प्रतिपन्न' भी है (द्र. . विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-414-2,6 तथा उन पर शिष्यहिता वृत्ति)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तथा 'ज्ञानद्वारम्' ।तत्र ज्ञानं पञ्चप्रकारम्, मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलभेदभिन्नम् >> इति। अत्रापि व्यवहार निश्चयनयाभ्यां विचार इति। तत्र व्यवहार नयमतं . ल मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानिनः पूर्वप्रतिपन्ना न तु प्रतिपद्यमानका इति, मत्यादिलाभस्य , सम्यग्दर्शनसहचरितत्वात् / केवली तु न पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकः, तस्य : क्षायोपशमिकज्ञानातीतत्वात्।तथा मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानवन्तस्तु विवक्षितकाले / प्रतिपद्यमाना भवन्ति, न तु पूर्वप्रतिपन्ना इति। निश्चयनयमतं तु मतिश्रुतावधिज्ञानिनः / << पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमाना अपि सम्यग्दर्शनसहचरितत्वात् मत्यादिलाभस्य " a संभवन्तीति, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदात् / मनःपर्यायज्ञानिनस्तु पूर्वप्रतिपन्ना एव, न . प्रतिपद्यमानकाः, तस्य च भावयतेरेवोत्पत्तेः।केवलिनां तूभयाभाव इति।मत्याद्यज्ञानवन्तस्तु न पूर्वप्रतिपन्ना नापि प्रतिपद्यमानकाः, प्रतिपत्तिक्रियाकाले मत्याद्यज्ञानाभावात्, क्रियाकालनिष्ठाकालयोश्चाभेदात्, अज्ञानभावे च प्रतिपत्तिक्रियाऽभावात् (9) / a (वृत्ति-हिन्दी-) (9) अब 'ज्ञान' द्वार का निरूपण किया जा रहा है। ज्ञान के पांच . भेद इस प्रकार हैं- मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञान / इनमें भी व्यवहार व : व निश्चय -इन दोनों दृष्टियों से विचार किया जा रहा है। इनमें व्यवहार नय का मत है कि मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यय ज्ञान वाले जीव पूर्वप्रतिपन्न हैं, प्रतिपद्यमान नहीं हैं। सम्यग्दर्शन 20 के साथ ही मति आदि का लाभ होता है। किन्तु 'केवली' न तो पूर्वप्रतिपन्न है और न ही " व प्रतिपद्यमान, क्योंकि उसके क्षायोपशमिक ज्ञान व्यतीत हो गया है (अर्थात् नष्ट, विलीन, 4 अतीत की बात हो गया है, क्षायिक केवल ज्ञान होने पर मति आदि चारों क्षायोपशमिक ज्ञान " फिर नहीं होते)। मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान व विभंग ज्ञान वाले विवक्षित समय में प्रतिपद्यमान : होते हैं, किन्तु पूर्वप्रतिपन्न नहीं होते। निश्चय नय का मत तो यह है कि मति, श्रुत व अवधि ज्ञान वाले नियम से 'पूर्वप्रतिपन्न' होते हैं, और सम्यग्दर्शन के साथ होने के कारण मति 888888888888888888888888888888888888888888888 332222222222223323 8 88@ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ &&&&&&&&&&&& Racecacee श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 200000 | आदि लाभ की दृष्टि से प्रतिपद्यमान भी होते हैं, क्योंकि क्रियाकाल व निष्ठाकाल (कालनिष्पत्तिकाल) -इन दोनों कालों में अभेद (हमें स्वीकार्य) है। मनःपर्ययज्ञानी तो , ch पूर्वप्रतिपन्न ही होते हैं, प्रतिपद्यमान नहीं, क्योंकि वह ज्ञान भावयति के ही उत्पन्न होता है। & 'केवली' में तो पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -इन दोनों का अभाव होता है। मति आदि अज्ञान * वाले जीव न पूर्वप्रतिपन्न हैं और न ही प्रतिपद्यमान, क्योंकि प्रतिपत्ति की क्रिया के समय मति ce आदि अज्ञान नहीं होता, और क्रियाकाल व निष्ठा-काल में (हमें) अभेद (स्वीकार्य) है और " ce अज्ञान होने पर प्रतिपत्ति-क्रिया सम्भव नहीं होती। विशेषार्थ आत्मा का लक्षण ‘उपयोग' है। उपयोग का अर्थ है- बोधात्मक व्यापार। यह चैतन्य का cm अनुविधायी (सहवर्ती) परिणाम है। उपयोग के दो रूप हैं- ज्ञान व दर्शन / सामान्य-विशेषात्मक वस्तु ce के सामान्य स्वरूप को विषय करने वाला 'दर्शन' है और विशेष स्वरूप को विषय करने वाला 'ज्ञान' . है। 'दर्शन' निराकार ज्ञान है तो ज्ञान साकार उपयोग है। साकार का अर्थ है- सविकल्प, अनाकार , ca का अर्थ है- निर्विकल्प / जो उपयोग सामान्य अंश को ग्रहण करता है, वह निर्विकल्प है। दार्शनिकों , ce की भाषा में सामान्य विशेषात्मक बाह्य पदार्थ को ग्रहण करने वाला आत्मीय विशेष गुण 'ज्ञान' है। & वस्तुतः एक चैतन्य या उपयोग के ही विषय-भेद के आधार पर दिये गए ये दो नाम हैं। आत्मग्रहण " & में प्रवृत्त चैतन्य (उपयोग) 'दर्शन' है तो परपदार्थ-ग्रहण में प्रवृत्त 'ज्ञान' है। पदार्थबोध के क्षेत्र में दोनों , ही परस्पर अनुबद्ध हैं। ज्ञान के पांच मुख्य भेद हैं- मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल (ज्ञान)।मिथ्यात्वयुक्त ल होने पर मति, श्रुत व अवधि -ये तीनों अज्ञान रूप भी होते हैं। मनःपर्यायं ज्ञान व केवल ज्ञान c& सम्यक्त्व के सद्भाव में ही होते हैं, इसलिए इन दोनों के 'अज्ञान' नहीं होते। उक्त पांच ज्ञान तथा उक्त " ca तीन अज्ञान- इन्हें मिलाकर आठ ‘सामान्य ज्ञान' के रूप में यहां ग्राह्य हैं। 'ज्ञान' द्वार के निरूपण में भी व्यवहार व निश्चय नय (की दृष्टियों) को सामने रख कर पांच " प्रकार के ज्ञानियों में आभिनिबोधिक ज्ञान की दृष्टि से पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -इन दोनों प्रकार , के जीवों का सद्भाव किस प्रकार है- इसका निरूपण किया गया है। व्यवहार नय का निष्कर्ष कथन / ce यह है कि मति आदि पांच ज्ञानियों में आभिनिबोधिक ज्ञान के पूर्वप्रतिपन्न तो होते हैं, प्रतिपद्यमान " & नहीं, क्योंकि इस मत में वहां मति ज्ञान की प्रतिपत्ति का योग होता नहीं। केवली' चूंकि क्षायोपशमिक ज्ञान से अतीत हैं, अतः वहां पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -इन दोनों का ही सद्भाव नहीं है। मति 118 118 89@c(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 3888888888888888 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ReceRecence नियुक्ति-गाथा-13-15 000000000 अज्ञान, श्रुत-अज्ञान व विभंग ज्ञान (अवधि-अज्ञान)-इन तीनों ज्ञान के धारकों में कभी प्रतिपद्यमान ce तो होते हैं, किन्तु प्रतिपन्न नहीं होते हैं। इसके विपरीत, निश्चय नय का निष्कर्ष कथन यह है कि चूंकि , ज्ञानी द्वारा ही ज्ञान की प्रतिपत्ति की जाती है, अतः मति-श्रुत-अवधि-ज्ञानी के धारक में पूर्वप्रतिपन्न / तो नियमतः होते हैं, प्रतिपद्यमान की भजना है। मनःपर्यय ज्ञान के धारकों में पूर्वप्रतिपन्न ही होते हैं, 0 & प्रतिपद्यमान नहीं होते, क्योंकि पूर्वसम्यक्त्व की उपलब्धि के समय प्रतिपन्न मतिज्ञान के ही अनन्तर, 9 a अन्त्य अवस्था में मनःपर्यय ज्ञान होता है। केवलियों में तो दोनों -पूर्वपतिपन्न व प्रतिपद्यमान-का , 6 अभाव है। इसी तरह, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान व विभंग ज्ञान के धारकों में दोनों का अभाव है, ca क्योंकि ज्ञानी को ही ज्ञान की प्रतिपत्ति होनी मानी गई है। 333333333333333333333333333333333333333333 (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीं 'दर्शनद्वारम्'।तद्दर्शनं चतुर्विधम्, चक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदभिन्नम्। तत्र चक्षुर्दर्शनिनः अचक्षुर्दर्शनिनश्च।किमुक्तं भवति? -दर्शनलब्धिसम्पन्नाः, न तु दर्शनोपयोगिन इति, सनाओलद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स उप्पज्जइ' [सा अपिलब्धयः साकारोपयोगउपयुक्तस्य उपपद्यन्ते] इति वचनात् / पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु . विवक्षितकाले भाज्याः। अवधिदर्शनिनस्तु पूर्वप्रतिपन्ना एव, न तु प्रतिपद्यमानकाः। * केवलदर्शनिनस्तूभयविकला इति (10) / संयत इति द्वारम्' ।संयतः पूर्वप्रतिपन्नोन प्रतिपद्यमान " इति (11) / 'उपयोगद्वारम् / स च द्विधा- साकारोऽनाकारश्च। तत्र साकारोपयोगिनः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति प्रतिपद्यमानास्तुविवक्षितकाले भाज्या इति।अनाकारोपयोगिनस्तु, पूर्वप्रतिपन्ना एव न प्रतिपद्यमानकाः (12) / (वृत्ति-हिन्दी-) (10) अब 'दर्शन' द्वार का कथन किया जा रहा है। दर्शन चार : प्रकार का है- चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवल दर्शन। इनमें चक्षुर्दर्शन वाले और अचक्षुर्दर्शन वाले (आभिनिबोधिक-ज्ञानी) जीव से क्या तात्पर्य है? (चूंकि साकार व a अनाकार उपयोग का युगपद् सद्भाव नहीं होता, अतः ऐसा मानना चाहिए कि ये दर्शनोपयोग१ युक्त नहीं, अपितु दर्शनलब्धि सम्पन्न हैं, क्योंकि 'समस्त लब्धियां साकार उपयोग वाले के ही , होती हैं' -ऐसा शास्त्रीय वचन है। इस प्रकार, इनमें नियम से 'पूर्वप्रतिपन्न होते हैं, . प्रतिपद्यमान का सद्भाव तो विवक्षित समय के अनुरूप विकल्पं से कथनीय है। अवधिदर्शनी में (अवधिदर्शनोपयोग-युक्त तो 'पूर्वप्रतिपन्न' ही होते हैं और प्रतिपद्यमान नहीं होते हैं (क्योंकि " | साकार उपयोग वाले के ही मतिज्ञान की उत्पत्ति सम्भव है, अनाकारोपयोग दर्शन वाले के / (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 119 888888888888888888888888888888888888 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222333333333333333333 cace ce ca cace ce श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) POOOOOOD नहीं)। केवलदर्शनी तो उभय-रहित हैं (अर्थात् न तो वे पूर्वप्रतिपन्न हैं और न ही प्रतिपद्यमान)। 4 (11) अब संयम द्वार का निरूपण किया जा रहा है। संयत जीव पूर्वप्रतिपन्न होता है, . & प्रतिपद्यमान नहीं होता है। (12) उपयोग द्वार का निरूपण इस प्रकार है- वह (उपयोग) दो , प्रकार का होता है- साकार और अनाकार। इनमें साकार उपयोग वाले नियम से / पूर्वप्रतिपन्नक होते हैं, प्रतिपद्यमान का सद्भाव विवक्षित काल के अनुरूप विकल्प से , ca कथनीय है। अनाकार उपयोग वाले तो पूर्वप्रतिपन्न ही होते हैं, प्रतिपद्यमान नहीं होते। " विशेषार्थ . सामान्य-विशेषात्मक वस्तु-स्वरूप में से वस्तु के सामान्य अंश को देखने वाले, जानने वाले / चेतना, व्यापार को 'दर्शन' कहा जाता है। अथवा सामान्य की मुख्यता पूर्वक, विशेष को गौण करके, पदार्थ-ज्ञान को 'दर्शन' कहा जाता है। दर्शन अनाकार माना जाता है, क्योंकि पदार्थों में यद्यपि सामान्य, विशेष दोनों ही धर्म रहते हैं, किन्तु दर्शन द्वारा मात्र सामान्य धर्म की अपेक्षा से, & स्वपरसत्ता का अभेद रूप निर्विकल्प अवभासन होता है। दर्शन मार्गणा के चार भेद होते हैं- (1) चक्षुर्दर्शन, (2) अचक्षुर्दर्शन, (3) अवधिदर्शन, (4) C केवल दर्शन / मनःपर्याय का दर्शन नहीं माना गया, क्योंकि मनःपर्यय ज्ञान अवधिज्ञान की तरह . स्वमुख से विषयों को नहीं जानता है, किन्तु परकीय मन-प्रणाली से जानता है। अतः जिस प्रकार है मन अतीत. अनागत अर्थों का विचार-चिन्तन तो करता है, किन्तु देखता नहीं है, उसी प्रकार , & मनःपर्यायज्ञानी भी भूत, भविष्यत् को जानता तो है, पर देखता नहीं है। वह वर्तमान को भी मन के विषय रूप विशेषाधिकार से जानता है। अतः सामान्यावलोकनपूर्वक प्रवृत्ति न होने से मनःपर्याय दर्शन नहीं माना जाता है। (कुछ आचार्य मनःपर्याय को दर्शन भी मानते हैं।) चक्षु इन्द्रिय द्वारा पदार्थ के सामान्य अंश का बोध 'चक्षुर्दर्शन' है। चक्षु को छोड़ कर अन्य : ce इन्द्रियों से पदार्थ के सामान्य अंश का बोध 'अचक्षुर्दर्शन' है।अवधि दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से " a इन्द्रियों की सहायता के विना 'रूपी' द्रव्य का जो सामान्य बोध होता है, वह 'अवधिदर्शन' है।सम्पूर्ण . द्रव्य-पर्यायों को सामान्य रूप से विषय करने वाला बोध केवल-दर्शन है, जो घाती कर्मों के क्षय के : अनन्तर ही होता है। _ 'दर्शन' मार्गणा से आभिनिबोधिक ज्ञान का निरूपण इस प्रकार है-चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, और अवधि दर्शन -इन तीन दर्शनों में दर्शन-लब्धि की अपेक्षा से नियमतः वहां पूर्वप्रतिपन्न होते हैं, / / 'प्रतिपद्यमान' का सद्भाव भजना (विकल्प) से कथनीय है।दर्शनोपयोग की दृष्टि से तो पूर्वपतिपन्न ही | 22333333 120 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRR 9999999999999 Fuc tuc is 333333333333333333332232233333333333333333333 नियुक्ति गाथा-13-15 होते हैं, प्रपिद्यमान नहीं होते, क्योंकि लब्धि रूप मतिज्ञान की दर्शनोपयोग में उत्पत्ति निषिद्ध है, ca इसका कारण यह है कि 'साकारोपयोगयुक्त के सभी लब्धियां उत्पन्न होती हैं' -ऐसा शास्त्रीय वचन , क है। 'केवल दर्शन' के धारकों में तो दोनों -पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान- का अभाव है। (संयम मार्गणा-) सावध योगों- पापजनक प्रवृत्तियों से उपरत होना, अथवा पापजनक व्यापार-आरम्भ, समारम्भ से आत्मा को जिसके द्वारा संयमित-नियमित किया जाता है, रोका जाता & है, वह 'संयम' कहलाता है। संयम-मार्गणा के सात भेद होते हैं- सामायिक, छेदोपस्थापनीय परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात, देशविरति व अविरति। इनके स्वरूप आदि के लिए अन्य शास्त्र द्रष्टव्य हैं। संयत जीव आभिनिबोधिक ज्ञान की दृष्टि से पूर्वप्रतिपन्न ही होते हैं, प्रतिपद्यमान का सद्भाव भजना (विकल्प) से कथनीय है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- संयत जीव सम्यक्त्वसहित ही & होता है और सम्यक्त्व लाभ होते ही (होने के बाद) मतिज्ञान की दृष्टि से वह 'पूर्वप्रतिपन्न हो जाता है, . किन्तु 'प्रतिपद्यमान' की भजना (सद्भाव या असद्भाव) कैसे संगत होती है? समाधान यह है कि आवश्यक चूर्णि में कहा गया है- सम्यक्त्वविहीन चारित्र नहीं होता, किन्तु दर्शन की भजना है a (नास्ति चारित्रं सम्यक्त्व-विहीनम्, दर्शनं तु भजनीयम्)। तथा यह भी कहा गया है कि सम्यक्त्व व , & चारित्र एक साथ भी हो सकते हैं, और पूर्व में सम्यक्त्व और बाद में चारित्र का होना- यह भी . सम्भव है (सम्यक्त्वचारित्रे युगपत्, पूर्वं च सम्यक्त्वम्)। तो जब अतिशय विशुद्धि के कारण सम्यक्त्व व चारित्र की युगपत् प्राप्ति होती है, तब संयम प्रतिपद्यमान होता है। सम्यक्त्व व चारित्र की युगपत् प्राप्ति न हो, पूर्व में सम्यक्त्व होकर बाद में चारित्र की प्राप्ति हो तो संयत जीवों में मतिज्ञान के " ca प्रतिपद्यमान का अभाव है। यही प्रतिपद्यमान के सद्भाव की भजना का स्पष्टीकरण है। (द्र. विशेषा. भाष्य, गा. 426 पर शिष्यहिता) 'उपयोग' जीव का लक्षण है। इसके दर्शन व ज्ञान -ये दो भेद हैं। दर्शन अनाकारोपयोग है , और ज्ञान साकारोपयोग है। दर्शन के चार भेद और ज्ञान के आठ भेद, कुल मिलाकर बारह भेद 4 उपयोग के हो जाते हैं। ये इस प्रकार हैं- (1) चक्षुर्दर्शन, (2) अचक्षुर्दर्शन, (3) अवधि दर्शन, (4) & केवल दर्शन, (5) मतिज्ञान, (6) मति-अज्ञान, (7) श्रुत ज्ञान, (8) श्रुत-अज्ञान, (9) अवधि ज्ञान (10) 0 विभंग ज्ञान, (11) मनःपर्यय ज्ञान, और (12) केवल ज्ञान / 'उपयोग' द्वार से मतिज्ञान का निरूपण यहां किया गया है। साकारोपयोग में नियमतः * पूर्वप्रतिप्रन्न होते ही हैं, और प्रतिपद्यमान के सद्भाव की भजना है। अनाकारोपयोग में तो प्रतिपन्न ही होते हैं, प्रतिपद्य-मान नहीं होते, क्योंकि अनाकारोपयोग में लब्धि की उत्पत्ति का निषेध है। (r)(r)(r) ca(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 121 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -333333333333333333333332222222222222222223322 -acaca cace cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2000000 (हरिभद्रीय वृत्तिः) अधुना 'आहारकद्वारम्'।आहारकाः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु, विकल्पनीया विवक्षितकाल इति।अनाहारकास्तु अपान्तरालगतौ पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, न तु प्रतिपद्यमानका इति (१३)।तथा 'भाषक' इति द्वारम् / तत्र भाषालब्धिसंपन्ना भाषकाः, ते " * भाषमाणा अभाषमाणा वा पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्तिः, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले . & भजनीया इति, तल्लब्धिशून्याश्चोभयविकला इति (14) / (वृत्ति-हिन्दी-) (13) अब 'आहारक' द्वार का निरूपण किया जा रहा है। आहारक, जीव नियम से 'पूर्वप्रतिपन्नक' होते हैं। उन (आहारकों) में प्रतिपद्यमान का सद्भाव विवक्षित काल के अनुरूप विकल्प से कथनीय है। अनाहारक अपान्तराल गति में पूर्वप्रतिपन्न हो , 4 सकते हैं, प्रतिपद्यमान नहीं। (14) अब 'भाषक' द्वार का कथन कर रहे हैं। यहां भाषक का " अर्थ है- भाषालब्धिसम्पन्न / वे बोल रहे हों या नहीं बोल रहे हों, नियम से पूर्वप्रतिपन्नक होते , & हैं, प्रतिपद्यमान का सद्भाव विवक्षित समय के अनुरूप विकल्प से कथनीय है। भाषालब्धि से रहित जीवों में (पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -इन) दोनों का अभाव है। विशेषार्थ औदारिक, वैक्रिय व आहारक -इनमें से यथासम्भव किसी भी शरीर के योग्य, तथा : 8 आहार आदि छः पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करना 'आहार' कहलाता है। किन्तु यहां c'आहारक' से तात्पर्य उन जीवों से है जो ओज, लोम और कवल -इन तीनों में से किसी भी प्रकार " & के आहार को ग्रहण करता है। गर्भ में उत्पन्न होने के समय जो शुक्र-शोणित रूप आहार कार्मण शरीर द्वारा किया जाता है, वह ओज आहार है। स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा जो ग्रहण किया.जाता है, वह रोम ce या लोम आहार है, और जो अन्न आदि के रूप में मुख द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह कवल-आहार ce है। इन तीनों आहारों में से जो कोई भी ग्रहण नहीं करता, वह अनाहारक है।आहारकों में मति ज्ञान & के प्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान -इनका सद्भाव साकारोपयोग की तरह कथनीय है। अनाहारक जीवों की अपान्तराल गति में पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं, प्रतिपद्यमान तो किसी भी तरह नहीं। यहां अपान्तराल गति से तात्पर्य है- एक भव से दूसरे भव को प्राप्त करने के मध्य की गति। भाषक यानी भाषालब्धि सम्पन्न / ऐसा जीव भाषा बोल रहा भी हो सकता है, नहीं भी बोल c रहा होता है। दोनों ही स्थितियों में मतिज्ञान प्राप्त करते समय, पूर्वप्रतिपन्न हो भी सकता है और नहीं " भी हो सकता। भाषा-लब्धि से रहित जीवों में, अर्थात् एकेन्द्रिय जीवों में, पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -दोनों ही नहीं होते। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) - 122 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRece 2090090090090 33333333333332.3323333333333333333333333333333 - नियुक्ति गाथा-13-15 (हरिभद्रीय वृत्तिः) . 'परीत्त' इति द्वारम्।तत्र परीत्ताः प्रत्येकशरीरिणः।ते पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्या इति, साधारणास्तु उभयविकला इति (15) / पर्याप्तक' & इति द्वारम् / तत्र षड्भिराहारादिपर्याप्तिभिर्ये पर्याप्तकाः, ते पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो विद्यन्ते, , & विवक्षितकाले प्रतिपद्यमानास्तु भजनीया इति।अपर्याप्तकास्तु षट्पर्याप्त्यपेक्षया पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, न त्वितरे (16) / (वृत्ति-हिन्दी-) (15) अब 'परीत्त' द्वार का निरूपण किया जा रहा है। यहां 'परीत्त' से तात्पर्य है- प्रत्येकशरीरी। वे नियम से पूर्वप्रतिपन्न होते हैं, प्रतिपद्यमान का सद्भाव तो विवक्षित समय के अनुरूप, विकल्प से कथनीय है। साधारणशरीर जीवों में तो पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -इन दोनों का अभाव है। (16) अब ‘पर्याप्तक' द्वार का निरूपण किया जा & रहा है। यहां आहार (एवं शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा, मन) आदि छः पर्याप्तियों से , जो पर्याप्त (संपन्न) हैं, वे ही 'पर्याप्तक' कहलाते हैं। वे (पर्याप्तक) नियम से पूर्वप्रतिपन्न होते . ce हैं (क्योंकि संझी पंचेन्द्रियों में छहों पर्याप्तियां होती ही हैं) विवक्षित समय की दृष्टि से 20 ल प्रतिपद्यमान का सद्भाव विकल्प से कथनीय है। अपर्याप्तक छहों पर्याप्तियों की अपेक्षा से & पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं, प्रतिपद्यमान नहीं। विशेषार्थ- परीत्त का अर्थ किया गया है- प्रत्येकशरीरी जीव / एकेन्द्रिय वनस्पतिकाय के जीव दो " प्रकार के होते हैं- साधारण व प्रत्येक / एक शरीर में अनन्त जीव जिसमें होते हैं, वे साधारणशरीरी , हैं और जहां एक शरीर में एक ही जीव होता है, वह प्रत्येकशरीरी होता है। प्रत्येक-वनस्पति जीवों के . शरीर-पृथक्-पृथक् होते हैं। प्रत्येकशरीरी जीव अपने शरीर का निर्माण स्वयं करता है। उनमें , ca पराश्रयता भी होती है। एक घटक जीव के आश्रय में असंख्य जीव पलते हैं। वृक्ष के घटक बीज में & एक जीव होता है। उसके आश्रय में पत्र, पुष्प और फूल के असंख्य जीव उपजते हैं। बीजावस्था के . सिवाय वनस्पति-जीव संघातरूप में रहते हैं। श्लेष्म-द्रव्य-मिश्रित सरसों के दाने अथवा तिलपपड़ी के तिल एक-रुप बन जाते हैं। तब भी उनकी सत्ता पृथक्-पृथक् रहती है। प्रत्येक वनस्पति के शरीरों की भी यही बात है। शरीर की संघात-दशा में भी उनकी सत्ता स्वतन्त्र रहती है। साधारण वनस्पति जीवों " ca की भांति प्रत्येक वनस्पति का एक-एक जीव लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रखा जाए तो ऐसे . असंख्य लोक बन जाएं। यह लोक असंख्य आकाश प्रदेश वाला है, ऐसे असंख्य लोकों के जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उतने प्रत्येक शरीरी वनस्पति जीव हैं। Recen@cBRORSCR8080808890 123 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ &&&&&&&&&&& &&&& cacacaceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और a मन पर्याप्ति -ये छः पर्याप्तियां हैं (भाषा व मन पर्याप्ति को एक मान कर पांच पर्याप्तियां भी मानी गई हैं)। इन छः पर्याप्तियों का प्रारम्भ युगपत् होता है, क्योंकि जन्म समय से लेकर ही इनका cr अस्तित्व पाया जाता है, किन्तु पूर्णता क्रम से होती है। सर्वप्रथम आहार पर्याप्ति पूर्ण होती है, बाद में ca क्रमशः शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा व मन पर्याप्तियां पूर्ण होती हैं। संज्ञी पञ्चेन्द्रियों को , 4 छोड़कर अन्य जीवों में सभी पर्याप्तियां होती हैं। पर्याप्त जीवों में गृहीत पुद्गलों को आहार आदि रूप से परिणत करने की शक्ति होती है, और अपर्याप्त जीवों में इस प्रकार की शक्ति नहीं होती। पर्याप्तक ca के दो प्रकार भी हैं- लब्धिपर्याप्त और करणपर्याप्त। लब्धिपर्याप्त वे हैं जिनके पर्याप्त नाम कर्म का ca उदय हो, वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरते हैं, पहले नहीं। जिसने शरीर पर्याप्ति पूर्ण कर ली है, किन्तु इन्द्रिय-पर्याप्ति पूर्ण नहीं की है, वह भी करण-अपर्याप्त कहा जाता है। वह शरीर << पर्याप्ति पूर्ण करने से करण पर्याप्त भी है और इन्द्रिय पर्याप्ति की अपूर्णता से करण-अपर्याप्त भी है। ca दिगम्बर साहित्य में करण-अपर्याप्त की जगह निवृत्ति-अपर्याप्त शब्द व्यवहृत हुआ है। प्रस्तुत प्रकरण CG में पर्याप्त पद से वे जीव ग्राह्य हैं जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करते हैं, और अपर्याप्त वे हैं जो उसे C पूर्ण न करें। इस दृष्टि से जो पर्याप्त हैं, उन में (अर्थात् छहों पर्याप्तियों से पूर्ण जीवों में) नियमतः ce पूर्वप्रतिपन्न होते हैं, किन्तु प्रतिपद्यमान होते भी हैं और नहीं भी होते हैं। अपर्याप्तकों में छहों . पर्याप्तियों की अपेक्षा से पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं, अन्य (प्रतिपद्यमान) नहीं। ' ca (हरिभद्रीय वृत्तिः) & 'सूक्ष्म' इति द्वारम्।तत्र सूक्ष्माः खलुभयविकलाः। बादरास्तु पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः // & सन्ति, इतरे तु विवक्षितकाले भाज्या इति (१७)।तथा संज्ञिद्वारम्'।तत्रेह दीर्घकालिक्युपदेशेन , व संज्ञिनः प्रतिगृह्यन्ते, ते च बादरवद्वक्तव्याः।असंज्ञिनस्तु पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, न वितर. & इति (18) / _ 'भव' इति द्वारम् / तत्र भवसिद्धिकाः संज्ञिवद्वक्तव्याः अभवसिद्धिकास्तूभयशून्या : इति (19) / 'चरम' इति द्वारम्।चरमो भवो भविष्यति यस्यासौ अभेदोपचाराच्चरम इति।तत्र , & इत्थंभूताः चरमाः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, इतरे तु भाज्याः।अचरमास्तूभयविकलाः / ca ()।उत्तरार्धं तु व्याख्यातमेव।कृता सत्पदप्ररूपणेति। (वृत्ति-हिन्दी-) (17) 'सूक्ष्म' द्वार से निरूपण किया जा रहा है। यहां सूक्ष्म जीवों में " दोनों (पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान) का अभाव है। बादर जीवों में नियम से पूर्वप्रतिपन्न होते (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) - 124 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 8 & 222222233333333333333322222223333333333333333 -acaca cace caca cacR नियुक्ति गाथा-13-15 000000000 . हैं, अन्य-(प्रतिपद्यमान) का सद्भाव तो विवक्षित समय के अनुरूप विकल्प से कथनीय है। & (18) अब 'संज्ञी' द्वार से निरूपण किया जा रहा है। यहां दीर्घकालिक उपदेश की अपेक्षा से - & 'संज्ञी' का ग्रहण समझना चाहिए। उनका कथन 'बादर' की तरह करणीय है। असंज्ञियों में , & पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं, अन्य (प्रतिपद्यमान) नहीं। (19) 'भव' द्वार से निरूपण किया जा रहा है- भवसिद्धिक (भव्य) जीवों का : कथन संज्ञी जीवों की तरह करणीय है। अभवसिद्धिक (अभव्य) जीवों में दोनों (पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान) का अभाव है। (20) अब ‘चरम' द्वार से निरूपण किया जा रहा हैं। यहां भव / आ और भव वाले -इन दोनों में अभेदोपचार किया गया है (और 'भव' से भवयुक्त का ग्रहण , ब है), अतः चरम पद से 'जिसका चरम भव होगा' वह ग्राह्य है। ऐसे 'चरम' जीवों में नियमतः व पूर्व-प्रतिपन्न होते हैं, प्रतिपद्यमान तो भजना से कथनीय हैं। अचरम जीव तो (न पूर्वप्रतिपन्न - व होते हैं और न ही प्रतिपद्यमान, अतः) दोनों से रहित होते हैं। इस प्रकार, (15वीं) गाथा के उत्तरार्ध की व्याख्या पूरी हुई। सत्पद-प्ररूपणा (भी) पूरी हुई। & विशेषार्थर सूक्ष्म व बादर-एकेन्द्रिय के सूक्ष्म और बादर यह दो भेद माने गये हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर " & पंचेन्द्रिय तक के जीव तो बादर (स्थूल) शरीर वाले ही होते हैं और वे आंखों से भी दिखाई देते हैं, . लेकिन एकेन्द्रिय जीवों के सूक्ष्म और बादर यह दो भेद मानने का कारण यह है कि सूक्ष्म शरीर वाले , एकेन्द्रिय जीव तो आंखों से नहीं देखे जा सकते हैं लेकिन उनका अस्तित्व ज्ञानगम्य है और बादर , शरीर वाले एकेन्द्रिय जीव ज्ञानगम्य होने के साथ-साथ आंखों से भी दिखलाई देते हैं। एकेन्द्रियों के सूक्ष्म और बादर शरीर की प्राप्ति सूक्ष्म और बादर नामकर्म के उदय से होती है है। सूक्ष्म नामकर्म स्थावर दशक और बादर नामकर्म त्रसदशक में मानी गई कर्म प्रकृति है। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जो सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है वह स्वयं न किसी से रुकता है / और न अन्य किसी को रोकता है। अर्थात् सूक्ष्म नामकर्म से प्राप्त शरीर परस्पर व्याघात से रहित है। यह शरीर अन्य जीवों के अनुग्रह या उपघात के अयोग्य होता है। यह अनुभवसिद्ध भी है। जिस प्रकार सूक्ष्म होने से अग्नि लोहे के गोले में प्रविष्ट हो जाती है, उसी प्रकार से सूक्ष्म नामकर्म से प्राप्त ca शरीर भी लोक के किसी भी प्रदेश में प्रविष्ट हो सकता है। &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce90090@@@ ____125 . 125 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 333333333322222222222222222222222222233333333 -accacaca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 00900202 जिस कर्म के उदय से जीव बादर काय की प्राप्ति करता है उसको बादर नामकर्म कहते हैं। ca अन्य को बाधा पहुंचाने वाले शरीर का निर्वर्तक (निर्माण-कर्ता) बादर नामकर्म है। आंखों से दिखलाई दे, आंखों से देखा जा सके, चक्षुइन्द्रिय का विषय हो- यही बादर का अर्थ नहीं है। क्योंकि एक-एक बादर काय वाले पृथ्वीकाय आदि का शरीर बादर शरीर को प्राप्त करने पर भी आंखों से , & देखा नहीं जा सकता है। किन्तु बादर नामकर्म पृथ्वीकाय आदि जीवों में एक प्रकार के बादर परिणाम , 4 को उत्पन्न करता है जिससे बादर पृथ्वीकाय आदि के जीवों के शरीर समुदाय में एक प्रकार की अभिव्यक्ति प्रगट हो जाती है और उससे वे शरीर दृष्टिगोचर होते हैं। बादर नामकर्म के कारण ही बादर जीवों का मूर्त द्रव्यों के साथ घात-प्रतिघात आदि होता है। सूक्ष्म शरीर से असंख्यात गुणी अधिक अवगाहना वाले शरीर को बादर और उस शरीर से 4 युक्त जीवों को उपचार से बादर जीव अथवा बादर शरीर से असंख्यात गुणी हीन अवंगाहना वाले , & शरीर को सूक्ष्म और उस शरीर से युक्त जीवों को उपचार से सूक्ष्म जीव कहते हैं तो इस प्रकार की . & कल्पना करना भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि सूक्ष्म शरीर से भी असंख्यात गुण हीन अवगाहना वाले और बादर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए बादर शरीर की उपलब्धि होती है। अतः अवगाहना ce की अपेक्षा सूक्ष्म और बादर का भेद नहीं किया जा सकता है। ca इसी प्रकार प्रदेशों की अल्पाधिकता की अपेक्षा भी सूक्ष्म और बादर भेद नहीं हैं क्योंकि 4 तैजस और कार्मण शरीर अनन्त प्रदेशी हैं किन्तु उनका अति सघन और सूक्ष्म परिणमन होने से - & इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होता है। यह भी नियम नहीं है कि स्थूल (बादर) बहुत प्रदेश संख्या वाला , होना चाहिये, क्योंकि स्थूल एरण्ड वृक्ष से सूक्ष्म लोहे के गोले की एकरूपता नहीं बन सकती है। . एरण्ड का वृक्ष, रुई का ढेर स्थूल दृष्टि से अधिक स्थान को घेरता है और लोहे का पिण्ड कम स्थान, ce को, लेकिन उनके परमाणुओं की गिनती की जाये तो सम्भव है लोहे के पिण्ड मैं एरन्ड के वृक्ष या " रुई के ढेर से भी संख्यात, असंख्यात गुने अधिक परमाणु हों। अतः प्रदेशापेक्षया भी संसारी जीवों के . शरीर के लिये सूक्ष्म और बादर का विचार नहीं किया जा सकता है। अतः निष्कर्ष यह है कि समस्त / संसारी जीवों के शरीर में जो बादरत्व और सूक्ष्मत्व भेद माना जाता है, वह बादर और सूक्ष्म , & नामकर्म जन्य है। एकेन्द्रिय जीवों के सूक्ष्म और बादर, यह दो भेद मानने के पूर्वोक्त कथन का सारांश यह है ? a कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव वे हैं जिन्में सूक्ष्म नामकर्म का उदय है। इनका शरीर इतना सूक्ष्मतम होता . * है कि यदि वे असंख्यात, अनन्त भी एकत्रित हो जायें तब भी दृष्टिगोचर नहीं हो पाते हैं। ऐसे जीव सम्पूर्ण लोके में व्याप्त हैं। ज्ञान के द्वारा जानने योग्य होने पर भी वाचनिक व्यवहार के वे अयोग्य है। (r)(r)cr@@@@ce(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 126 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -eeeeeeence 0000000000 नियुक्ति-गाथा-13-15 किन्तु बादर एकेन्द्रिय जीवों में बादर नामकर्म का उदय होता है। ये जीव लोक के प्रतिनियत ca देश में रहते हैं, सर्वत्र नहीं / यद्यपि बादर एकेन्द्रिय जीव भी ऐसे हैं कि प्रत्येक का पृथक्-पृथक् शरीर . दृष्टि-गोचर नहीं होता है किन्तु उनके शारीरिक परिणमन में बादर रूप से परिणमित होने की, 4 अभिव्यक्त होने की विशेष क्षमता होने से वे समुदाय रूप में दिखलाई दे सकते हैं। इसलिए उन्हें " ce ज्ञानगम्य होने के साथ-साथ व्यवहारयोग्य कहा गया है। सूक्ष्म और बादर सभी प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों के संज्ञी और असंज्ञी मानने का कारण संज्ञा शब्द के कई अर्थ हैं- (1) आहार, भय, मैथुन, परिग्रह की इच्छा। (2) धारणात्मक या ऊहापोह रूप विचारात्मक ज्ञान विशेष / जीवों के संज्ञित्व और असंज्ञित्व के विचार करने के प्रसंग में संज्ञा का आशय नाम-निक्षेपात्मक न लेकर मानसिक क्रिया विशेष लिया जाता है। यह मानसिक क्रिया दो प्रकार की होती है- ज्ञानात्मक और अनुभवात्मक (आहारादि की इच्छा रूप)। इसीलिये , संज्ञा के दो भेद हैं- ज्ञान और अनुभव / मति, श्रुत आदि पांच प्रकार के ज्ञान ज्ञानसंज्ञा हैं और (1) 8 आहार, (2) भय, (3) मैथुन, (4) परिग्रह, (5) क्रोध, (6) मान, (7) माया (8) लोभ (9) ओघ, (10) 20 < लोक, (11) मोह, (12) धर्म, (13) सुख, (14) दुःख (15) जुगुप्सा, (16) शोक, यह अनुभव संज्ञा के 16 भेद हैं। ये अनुभव संज्ञायें सभी जीवों में न्यूनाधिक प्रमाण में पाई जाती हैं। इसलिए ये-संज्ञी- असंज्ञी व्यवहार की नियामक नहीं है। शास्त्रों में संज्ञी और असंज्ञी का जो भेद माना जाता है वह 8 अन्य संज्ञाओं की अपेक्षा से है। नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम या तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते cm हैं। नोइन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर जीव मन के अवलम्बन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और & आलाप को ग्रहण करता है। < संज्ञा के चार भेद हैं- ओघसंज्ञा, हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा, दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा, और दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा / एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त के जीवों में चैतन्य का विकास, क्रमशः * अधिकाधिक है और इस विकास के तरतम भाव को समझाने के लिए निम्नलिखित चार विभाग ca किये गये हैंR (1) ओघसंज्ञी- अत्यन्त अल्प विकास वाले जीव -यह विकास इतना अल्प होता है कि इस c. विकास वाले जीव मूर्छित की तरह चेष्टारहित होते हैं। इस प्रकार की अव्यक्त चेतना को ओघसंज्ञा . कहते हैं। एकेन्द्रिय जीव ओघसंज्ञा वाले होते हैं। a (2) हेतुवादोपदेशिकी संज्ञी- इस विभाग में विकास की इतनी मात्रा विवक्षित है कि जिससे कुछ भूतकाल का स्मरण किया जा सके / यद्यपि इस विकास में भूतकाल का स्मरण किया जाता है | लेकिन सुदीर्घ भूतकाल का नहीं। इससे इष्ट विषयों में प्रवृत्ति और अनिष्ट विषयों में निवृत्ति भी होती / - (r)(r)ce@@RO 908 ROOR@@@@08 1270 333333333333333333333333333333333333333333333 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 -caca ca ca cace c& श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) nnnnnnn है। इस प्रवृत्ति-निवृत्तिकारी ज्ञान को हेतुवादोपदेशकी संज्ञा कहते हैं। इस दृष्टिकोण से द्वीन्द्रिय आदि ce चार त्रस संज्ञी है और पांच स्थावर असंज्ञी। (3) दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा- इस विभाग में इतना विकास विवक्षित है कि जिससे सुदीर्घ भूतकाल में अनुभव किये हुए विषयों का स्मरण और उस स्मरण द्वारा वर्तमान काल के कर्तव्यों का . निश्चय किया जाता है। यह कार्य विशिष्ट मन की सहायता से होता है। इस ज्ञान को दीर्घकालोपदेशकी 2 a संज्ञा कहते हैं। दीर्घकालोपदेशकी संज्ञा के फलस्वरूप सदर्थ को विचारने की बुद्धि, निश्चयात्मक & विचारणा, अन्वय धर्म का अन्वेषण, व्यतिरेक धर्म स्वरूप का पर्यालोचन तथा यह कार्य कैसे हुआ, , वर्तमान में कैसे हो रहा है और भविष्य में कैसे होगा? इस प्रकार के विचार-विमर्श से वस्तु के / व स्वरूप को अधिगत करने की क्षमता प्राप्त होती है।देव; नारक और गर्भज मनुष्य ये दीर्घकालोपदेशकी & संज्ञा वाले हैं। (4) दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञी- इस विभाग में विशिष्ट श्रुतज्ञान विवक्षित है। यह ज्ञान इतना " & शुद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टि जीवों के सिवाय अन्य जीवों में यह सम्भव नहीं है। इस विशिष्ट विशुद्ध ज्ञान को दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा कहते हैं। उक्त चार विभागों में जीवों का वर्गीकरण करके शास्त्रों में जहां कहीं भी संज्ञी और असंज्ञी का उल्लेख किया है, वहां ओघ और हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले जीवों को असंज्ञी तथा दीर्घकालोपदेशिकी स और दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा वालों को संज्ञी कहा गया है। इस प्रकार की अपेक्षा से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को असंज्ञी है और पंचेन्द्रिय जीवों को संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार का कहा गया है। श्वेताम्बर ग्रन्थों की तरह " संज्ञी-असंज्ञी का विचार दिगम्बर ग्रन्थों में भी किया गया है। लेकिन उसमें कुछ अन्तर है। उसमें गर्भज तिर्यंचों को संज्ञी मात्र न मानकर संज्ञी-असंज्ञी उभय रूप माना है। .. श्वेताम्बर ग्रन्थों में जो हेतुवादोपदेशिकी, दीर्घकालिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी -ये तीन संज्ञा के भेद माने गये हैं, उनका विचार दिगम्बर ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं होता है। भव्य-वे जीव होते हैं जो मोक्ष प्राप्त करते हैं या पाने की योग्यता रखते हैं, अथवा जिनमें सम्यग्दर्शनादि भाव प्रकट होने की योग्यता होती है। अभव्य वे हैं जो अनादि तथाविध पारिणामिक ca भाव के कारण किसी भी समय मोक्ष पाने की योग्यता नहीं रखते। भव्य जीवों के कई प्रकार हैंa आसन्नभव्य, दूरभव्य और जाति भव्य / जो निकट भविष्य में मोक्ष प्राप्त करेंगे, वे हैं- आसन्न भव्य। 1 जो बहुत काल के बाद मोक्षप्राप्त करेंगे, वे हैं- दूर भव्य। किन्तु मोक्ष की योग्यता रखते हुए भी, -333333333333333333888888888888888888888888883 128 (r)(r)(r)(r)(r)Recen@cR900000000 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRR 000000000 नियुक्ति-गाथा-13-15 अनुकूल सामग्री न मिलने के कारण मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते, वे हैं- जातिभव्य / (दिगम्बर साहित्य ca में जातिभव्य को अभव्यसमभव्य कहा गया है।) यहां चरम द्वार में 'भव्य' से तात्पर्य है- जातिभव्य को छोड़ कर आसन्न भव्य एवं दूरभव्य / a (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___साम्प्रतम् आभिनिबोधिकजीवद्रव्यप्रमाणमुच्यते-तत्र प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य विवक्षितकाले , कदाचिद् भवन्ति कदाचिन्नेति। यदि भवन्ति जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा / उत्कृष्टतस्तु 1 क्षेत्रपल्योपमासंख्ये यभागप्रदेशराशितुल्या इति / पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यतः // & क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागप्रदेशराशिपरिमाणा एव, उत्कृष्टतस्तु एभ्यो विशेषाधिका इति।उक्तं , द्रव्यप्रमाणम्। इदानीं क्षेत्रद्वारम्'।तत्र नानाजीवान् एकजीवं चाङ्गीकृत्य क्षेत्रमुच्यते। तत्र सर्व एवाभिनिबोधिकज्ञानिनोलोकस्य असंख्येयभागे वर्तन्ते।एकजीवस्तुईलिकागत्या गच्छन्नूर्ध्वम् / अनुत्तरसुरेषु सप्तसु चतुर्दशभागेषु वर्तते, तेभ्यो वाऽऽगच्छन्निति।अधस्तु षष्ठीं पृथ्वी गच्छंस्ततो , ca वा प्रत्यागच्छन् पञ्चसु सप्तभागेषु इति, नातः परमधः क्षेत्रमस्ति, यस्मात् सम्यग्दृष्टेः अधः / सप्तमनरकगमनं प्रतिषिद्धमिति। . (वृत्ति-हिन्दी-) अब (1) आभिनिबोधिक (ज्ञान वाले) जीव द्रव्यों का प्रमाण (परिमाण) , & बताया जा रहा है- प्रतिपत्ति (प्राप्ति) की दृष्टि से (प्रतिपद्यमान जीवों की अपेक्षा करके कहा जाय तो) विवक्षित समय में कभी वे होते हैं और कभी नहीं होते हैं। यदि होते हैं (अर्थात् , 9 प्रतिपद्यमान होकर आभिनिबोधिक ज्ञान प्राप्त करने वाले जो हैं, उनको दृष्टि में रख कर कहें) तो जघन्यतया (कम से कम) एक, दो या तीन तक हो सकते हैं। उत्कृष्टतया उनका , < सद्भाव (द्रव्य राशि प्रमाण) क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय भाग रूप प्रदेश-राशि के समान , & होता है। पूर्वप्रतिपन्न तो जघन्यतया क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय भाग रूप प्रदेशराशि के 2 समान (परिमाण वाले) होते हैं, और उत्कृष्टतया (अधिक से अधिक) इन (जघन्य पूर्वप्रतिपन्नों) , से विशेष अधिक (परिमाण वाले) होते हैं। इस प्रकार 'द्रव्यप्रमाण' का निरूपण पूरा हुआ। ___अब (2) क्षेत्र द्वार का निरूपण किया जा रहा है। इसमें क्षेत्र का कथन नाना जीवों .. 6 और एक जीव -दोनों की (पृथक्-पृथक्) अपेक्षा से किया जाता है। (भव्यजीवों की अपेक्षा से) सभी आभिनिबोधिकज्ञानी लोक के असंख्येय भाग में हैं (अर्थात् वे सभी पिण्ड रूप में " / हो तो लोक के असंख्येय भाग को ही व्याप्त करते हैं), किन्तु एक जीव (मरकर) ईलिका-1 - @ @cr@908RSecr@ne@ @ @ @ @ 129 333333333333333333333333333333333333333333333 333333333333333333333333333333333333333333333 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Raacaacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0900909009 333333332222222222222222222222222222222333322 गति (अर्थात् लोक के अगल-बगल के अन्तःप्रदेशों को न छूते हुए, सीधे दण्ड की जैसी गति) ca से अनुत्तर वैमानिक देवों में जाए या वहां से लौटे तो वह लोक के 14 भागों में से सात भागों , a में रहता है (अर्थात् 14 राजू प्रमाण लोक के सात राजू प्रमाण क्षेत्र उस जीव का रहता है)। नीचे छठी पृथ्वी (छठे नरक) तक जाए या वहां से लौटे तो उसका क्षेत्र (अधो लोक के) सात भागों में से पांच भाग तक रहता है, इससे (छठी पृथ्वी से) नीचे उसका क्षेत्र नहीं होता है a क्योंकि सम्यग्दृष्टि का नीचे सातवें नरक में जाने का निषेध है। विशेषार्थ पल्योपम शब्द एक विशेष, अति दीर्घ काल का सूचक है।जैन वाङ्मय में इसका बहुलता से प्रयोग हुआ है। पल्य या पल्ल का अर्थ कुंआ या अनाज का बहुत बड़ा कोठा होता है। उसके आधार , cm पर या उसकी उपमा से काल-गणना की जाने के कारण यह कालावधि ‘पल्योपम' कही जाती है। पल्योपम के तीन भेद हैं- 1. उद्धार-पल्योपम, 2. अद्धा-पल्योपम, 3. क्षेत्र-पल्योपम। उद्धार-पल्योपम- कल्पना करें, एक ऐसा अनाज का कोठा या कुंआ हो, जो एक योजन , ca (चार कोस) लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा हो / एक दिन से सात दिन की आयु वाले " 4 नवजात यौगलिक शिशु के बालों के अत्यन्त छोटे टुकड़े किए जाएं, उनसे ढूंस-टूंस कर उस कोठे या , कुंए को अच्छी तरह दबा-दबा कर भरा जाय / भराव इतना सघन हो कि अग्नि उन्हें जला न सके, चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाय तो एक भी कण इधर उधर न हो सके, गंगा का प्रवाह बह " ca जाय तो उन पर कुछ असर न हो सके।यों भरे हुए कुंए में से एक-एक समय में एक-एक बाल-खंड . निकाला जाय / यों निकालते-निकालते जितने काल में वह कुंआ खाली हो, उस काल-परिमाण को , उद्धार पल्योपम कहा जाता है। उद्धार का अर्थ निकालना है। बालों के उद्धार ना निकाले जाने के आधार पर इसकी संज्ञा उद्धार-पल्योलम है। यह संख्यात समय-प्रमाण माना जाता है। उद्धार-पल्योपम के दो भेद हैं- सूक्ष्म एवं व्यावहारिक / उपर्युक्त वर्णन व्यावहारिक उद्धारca पल्योलम का है। सूक्ष्म उद्धार-पल्योलम इस प्रकार है व्यावहारिक उद्धार पल्योलम में कुंए को भरने में यौगलिक शिशु के बालों के टुकड़ों की जो , & चर्चा आई है, उनमें से प्रत्येक टुकड़े के असंख्यात अदृश्य खंड किए जाएं। उन सूक्ष्म खंडों से " पूर्ववर्णित कुंआ ढूंस-ढूंस कर भरा जाय। वैसा कर लिए जाने पर प्रतिसमय एक-एक खंड कुंए में से / * निकाला जाय।यों करते-करते जितने काल में वह कुंआ, बिल्कुल खाली हो जाय, उस काल-अवधि को सूक्ष्म उद्धार-पल्योपम कहा जाता है। इसमें संख्यात वर्ष-कोटि परिमाण-काल माना जाता है। - 130 82@ce@ @@@@@@90898808 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Recenecece 000000000 22333822222233232322322233233333333333333333 नियुक्ति-गाथा-13-15 अद्धा-पल्योपम- अद्धा देशी शब्द है, जिसका अर्थ काल या समय है। आगम के प्रस्तुत प्रसंग में जो पल्योपम का जिक्र आया है, उसका आशय इसी पल्योपम से है। इसकी गणना का क्रम / 4 इस प्रकार है- यौगलिक के बालों के टुकड़ों से भरे हुए कुंए में से सौ-सौ वर्ष में एक-एक टुकड़ा , व निकाला जाय / इस प्रकार निकालते-निकालते जितने काल में वह कुंआ बिल्कुल खाली हो जाय, उस , कालावधि को अद्धा-पल्योपम कहा जाता है। इसका परिमाण संख्यात वर्ष कोटि है। . अद्धा-पल्योपम भी दो प्रकार का होता है- सूक्ष्म और व्यावहारिक। यहां जो वर्णन किया / आ गया है, वह व्यावहारिक अद्धा-पल्योपम का है। जिस प्रकार सूक्ष्म उद्धार-पल्योपम में यौगलिक & शिशु के बालों के टुकड़ों के असंख्यात अदृश्य खंड किए जाने की बात है, तत्सदृश यहां भी वैसे ही असंख्यात अदृश्य केश-खण्डों से वह कुआं भरा जाय। प्रति सौ वर्ष में एक खंड निकाला जाय। यों निकालते-निकालते जब कुंआ पूर्णतः खाली हो जाय, वैसा होने में जितना काल लगे, वह सूक्ष्म & अद्धा-पल्योपम कोटि में आता है। इसका काल-परिमाण असंख्यात वर्ष कोटि माना गया है। " व क्षेत्र-पल्योपम-ऊपर जिस कूप या धान के विशाल कोठे की चर्चा है, यौगलिक के बाल . खंडों से उपर्युक्त रूप में दबा-दबा कर भर दिये जाने पर भी उन खंडों के बीच में आकाश प्रदेश-रिक्त . स्थान रह जाते हैं। वे खंड चाहे कितने ही छोटे हों, आखिर वे रूपी या मूर्त हैं, आकश अरूपी या , a अमूर्त है। स्थूल रूप में उन खंडों के बीच रहे आकाश-प्रदेशों की कल्पना नहीं की जा सकती, पर 7 सूक्ष्मता के एक बहुत बड़े कोठे को कूष्मांडों-कुम्हड़ों से भर दिया गया। सामान्यतः देखने में लगता है, वह कोठा भरा हुआ है, उसमें कोई सटे हुए कुम्हड़ों के बीच में स्थान खाली जो है। यों नीबुओं से व भरे जाने पर भी सूक्ष्म रूप में और खाली स्थान रह जाता है, बाहर से वैसा लगता नहीं। यदि उस , कोठे में सरसों भरना चाहें तो वे भी समा जायेंगे। सरसों भरने पर भी सूक्ष्म रूप में और स्थान, खाली रहता है। यदि नदी के रजःकण उसमें भरे जाएं, तो वे भी समा सकते हैं। दूसरा उदाहरण दीवाल का है। चुनी हुई दीवाल में हमें कोई खाली स्थान प्रतीत नहीं होता, ca पर, उसमें हम अनेक खूटियां, कीलें गाड़ सकते हैं। यदि वस्तुतः दीवार में स्थान खाली नहीं होता तो . यह कभी संभव नहीं था। दीवाल में स्थान खाली है, मोटे रूप में हमें मालूम नहीं पड़ता। अस्तु। 3 क्षेत्र-पल्योपम की चर्चा के अन्तर्गत यौगलिक के बालों के खंडों के बीच-बीच में जो आकाश-प्रदेश होने की बात है, उसे भी इसी दृष्टि से समझा जा सकता है। यौगलिक के बालों के खंडों / ca को संस्पृष्ट करने वाले आकाश-प्रदेशों में से प्रत्येक को प्रति समय निकालने की कल्पना की जाय। - a यों निकालते-निकालते जब सभी आकाश-प्रदेश निकाल लिए जाएं, कुंआ बिल्कुल खाली हो जाय, , वैसा होने में जितना काल लगे, उसे क्षेत्र-पल्योपम कहा जाता है। इसका काल-परिमाण असंख्यात " उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी है। (r)(r)(r)(r)(r)cR@@R800000000000000 131 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 222222222222222222222222222222222222222222222 cacacacacacea श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 क्षेत्र-पल्योपम दो प्रकार का है- व्यावहारिक एवं सूक्ष्म / उपर्युक्त विवेचन व्यावहारिक क्षेत्र& पल्योपम का है। सूक्ष्म क्षेत्र-पल्योपम इस प्रकार है- कुंए में भरे यौगलिक के केश-खंडों से स्पृष्ट तथा " & अस्पृष्ट सभी आकाश-प्रदेशों में से एक-एक समय में एक-एक प्रदेश निकालने की यदि कल्पना की / & जाय तथा यों निकालते-निकालते जितने काल में वह कुंआ समग्र आकाश-प्रदेशों से रिक्त हो जाय, , a वह काल परिमाण सूक्ष्म-क्षेत्र-पल्योपम है। इसका भी काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी है। व्यावहारिक क्षेत्र-पल्योपम की अपेक्षा इसका काल असंख्यात गुना अधिक होता है। नरकों में सम्यग्दृष्टि- सम्यक्त्व-लाभ करने से पूर्व नरकायु बांध ली गई हो तभी सम्यक्त्वी नरक में जाता है। सम्यक्त्व का विराधक जीव छठी पृथ्वी (के छठे नरक) तक सम्यक्त्व के साथ जाता है है- यह सैद्धान्तिक (आगमिक) मत है, किन्तु कर्मग्रन्थ के अनुसार तिर्यञ्च व मनुष्य क्षायोपशमिक , 4 सम्यक्त्व को छोड़कर ही नरक में जाता है। जहां तक सप्तम पृथ्वी (के सप्तम नरक) में जाने की बात ल है, आगमिक व कर्मग्रन्थ -दोनों के अनुसार, सम्यक्त्व से च्युत होकर ही जाना सम्भव है, सम्यक्त्व सहित का नहीं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-अधः सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यग्दर्शनलाभस्य प्रतिपादितत्वात् आगच्छतः a पञ्चसप्तभागाधिकक्षेत्रसंभव इति। अत्रोच्यते, एतदप्ययुक्तम् , सप्तमनरकात् व सम्यग्दृष्टरागमनस्याप्यभावात्।कथम्?,यस्मात् तत उद्धृतास्तिर्यक्ष्वेवागच्छन्तीति प्रतिपादितम्, ca अमरनारकाश्च सम्यग्दृष्टयो मनुष्येष्वेव, इत्यलं प्रसङ्गेन।प्रकृतं प्रस्तुमः। ___(शंका-) नीचे सप्तमं पृथ्वी के नरक में भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति प्रतिपादित की गई " 4 है, अतः वहां से आते हुए (जीव का कथन करें तो लोक के) सात भागों में से पांच भागों से - भी अधिक क्षेत्र का होना सम्भव है (अर्थात् अधिक क्षेत्र का होना सम्भव क्यों नहीं माना , गया?) इसका समाधान यह है -आपका उक्त मत युक्तियुक्त (आगमसम्मत) नहीं है। , क्योंकि वहां (सप्तम पृथ्वी) से निकल कर जीव तिर्यंचों में ही जाते हैं- यह प्रतिपादित किया , गया है जबकि सम्यग्दृष्टि देव या नारकी मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं (अर्थात् यदि सप्तम , & पृथ्वी में सम्यग्दृष्टि का आगमन होता तो तिर्यंचों में उसका जाना क्यों कहा जाता?), अतः " अधिक कहना अब अपेक्षित नहीं है। अब प्रकृत विषय पर आ रहे हैं। - 132 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ca@@@ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARRRRRRRRRce 99999999999 232323222222222222222223333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-13-15 विशेषार्थ सम्यक्त्वी जीव की गति-आगति के नियमों के अनुरूप क्षेत्र द्वार-सम्बन्धी निरूपण को यहां स्पष्ट किया गया है। सामान्यतः नारकीय जीव मनुष्यों व तिर्यंचों में जाते हैं, पुनः नरक और , 6 देवगति में नहीं। इनमें सम्यग्दृष्टि नारकी मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी सम्यक्त्व-वमन करने के बाद ही नेरक गति में जाता है (किन्तु सम्यक्त्व मोहनीय की उद्धवेलना करने वाला सम्यग्दृष्टि चारों गतियों में जा सकता है। उद्वेलना यानी यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों के 4 बिना ही किसी प्रकृति को अन्य प्रकृति में परिणमित करना / सम्यक्त्व मोहनीय की उद्वेलना अर्थात् , & इस प्रकृति के दलिकों को मिथ्यात्व मोहनीय रूप में परिणमाना)। सातवें नरक में आयुष्य का बन्ध >> पहले गुणस्थान में करते हैं, अन्य गुणस्थानों से तद्योग्य अध्यवसाय का अभाव होने से बन्ध नहीं करते हैं। सातवें नरक के जीव में मनुष्य गति प्रायोग्य बन्ध के अनुकूल परिणाम सम्भव नहीं हैं, इसलिए मनुष्यायु नहीं, बंधती, मात्र तिर्यंचायु बांधते हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) _ 'स्पर्शनाद्वारम्' इदानीम् / इह यत्रावगाहरतत् क्षेत्रमुच्यते, स्पर्शना तु ततोऽतिरिक्ता , & अवगन्तव्या, यथेह परमाणोरेकप्रदेश क्षेत्रं सप्तप्रदेशा च स्पर्शनेति।तथा 'कालद्वारम्', तत्रोपयोगमङ्गीकृत्य एकस्यानेकेषां चान्तर्मुहूर्त्तमात्र एव कालो भवति जघन्यत उत्कृष्टतश्च। तथा तल्लब्धिमङ्गीकृत्य एकस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमेव, उत्कृष्टतस्तु षट्षष्टिसागरो पमाण्यधिकानीति।वारद्वयं विजयादिषु गतस्य अच्युते वा वारत्रयमिति, नरभवकालाभ्यधिक व इति।तत ऊर्ध्वमप्रच्युतेनापवर्गप्राप्तिरेव भवतीति भावार्थः। नानाजीवापेक्षया तु सर्वकाल एवेति, a न यस्मादाभिनिबोधिकलब्धिमच्छून्यो लोक इति। (वृत्ति-हिन्दी-) अब (3) स्पर्शना द्वार का निरूपण किया जा रहा है। यहां क्षेत्र' " 4 उसे कहा गया है जहां जीवादि का अवगाह होता है। स्पर्शना तो उस क्षेत्र से कुछ अधिक >> & होती है- ऐसा जानना चाहिए। उदाहरणार्थ- परमाणु का क्षेत्र एक प्रदेश होता है, किन्तु . उसकी स्पर्शना (चार दिशाएं, ऊंचे, नीचे, स्वयं के अवगाह का क्षेत्र -इन सबका समुदित , रूप) 'सप्तप्रदेशात्मक' होती है। (4) अब काल द्वार का निरूपण किया जा रहा है- यहां / a 'उपयोग' को दृष्टि में रखें तो एक जीव के और अनेक जीवों के भी जघन्य या उत्कृष्ट 1 . अन्तर्मुहूर्त समय ही होता है, और उपयोग-लब्धि को दृष्टि में रखें तो एक जीव के जघन्य (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@90090@ce@@ 133 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaacaaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 099999999 333333333333333333333333333333333333333333333 / समय 'अन्तर्मुहूर्त' होता है, और उत्कृष्ट समय साधिक (कुछ अधिक) 66 हजार सागरोपम & काल होता है। विजय (और वैजयन्त, जयन्त व अपराजित) आदि (चार अनुत्तर विमानों में , से किसी एक) देवलोक में दो बार जाकर (जन्म लेकर), (अर्थात् वहां 33 सागरोपम की . & उत्कृष्ट आयु दो बार भोग कर), या अच्युत देवलोक में तीन बार जाकर उत्पन्न होने वाले , 6 (अर्थात् वहां 22 सागरोपम की उत्कृष्ट आयु तीन बार भोग कर मनुष्य भव में आए तो, CM आभिनिबोधिक ज्ञान की उपलब्धि का) उत्कृष्ट काल, उसके (मध्यवर्ती व अंतिम) मनुष्य ल भव की आयु (के काल) को जोड़ने से, साधिक (66 सागरोपम प्रमाण) होता है। उक्त उत्कृष्ट " a काल से अधिक (उपयोग-लब्धि की) अप्रच्युति हो तो अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति होती है -यह " भावार्थ है। नाना जीवों की अपेक्षा से आभिनिबोधिक उपयोगलब्धि का सद्भाव सब काल में " होता है, क्योंकि ऐसा कभी नहीं होता कि लोक में उक्त लब्धिसम्पन्न जीव का अभाव हो। ce विशेषार्थ स्पर्शना व क्षेत्र के स्वरूप के विषय में दिगम्बर परम्परा में एक पृथक् विचार उपलब्ध होता , है। सर्वार्थसिद्धि (1/7) के अनुसार वर्तमान निवास ‘स्पर्शना' है (क्षेत्रं निवासो वर्तमानकालविषयः, - तदेव स्पर्शनं त्रिकाल-गोचरम्)। यहां टीकाकार ने जो मत प्रस्तुत किया है, उसके अनुसार पदार्थ का , & अवगाह-प्रदेश क्षेत्र' है और उस क्षेत्र से जुड़ा (स्पृष्ट) छहों दिशाओं का क्षेत्र ‘स्पर्शना' के अन्तर्गत है। " विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-432-433) में भी इसी मत का निरूपण किया गया है। एक आभिनिबोधिकज्ञानी जीव के जो क्षेत्र व स्पर्शना सम्बन्धी निर्देश हैं, उनकी अपेक्षा नाना आभिनिबोधिकज्ञानी जीवों की क्षेत्र-स्पर्शना असंख्येय गुणित हैं क्योंकि उन जीवों की संख्या असंख्यात होती है। - मतिज्ञान के काल का निरूपण उपयोग व लब्धि के भेदों को ध्यान में रखकर करणीय है। एक जीव का उपयोग-काल जघन्यतः और उत्कृष्टतया अन्तर्मुहूर्त ही होता है, उसके बाद अन्य : उपयोग में जाना निश्चित है। सर्वलोकवर्ती नाना आभिनिबोधिक ज्ञानियों का भी जघन्य व उत्कृष्ट " & काल अन्तर्मुहूर्त ही है, एक जीव की अपेक्षा यह अन्तर्मुहूर्त कुछ बड़ा होता है। अब लब्धि की दृष्टि से . & विचार करें। सम्बद्ध ज्ञानावरण क्षयोपशम रूप सम्यक्त्व को प्राप्त किये हुए जीव की आभिनिबोधिक >> | ज्ञान-लब्धि का जघन्य काल (एक जीव की दृष्टि से) अन्तर्मुहूर्त ही है, क्योंकि उसके बाद या तो वह | -3333333333888888888888888888888888888888888880 - 134 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rececementce න න න න න න න න න න N 22322222333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-13-15 मिथ्यात्व में जाएगा या केवल ज्ञान प्राप्त करेगा। किन्तु उत्कृष्ट काल सातिरेक (कुछ अधिक) छासठ सागरोपम प्रमाण होता है। उदाहरणार्थ- कोई मतिज्ञानसम्पन्न मुनि कुछ कम ‘पूर्व कोटि' काल तक . * प्रव्रज्या में रहकर, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित -इन विमानों में से किसी भी एक वैमानिक देवों में उत्कृष्ट आयु-काल -सैंतीस सागरोपम को भोग कर पुनः मत्यादिज्ञान से अप्रच्युत होता हुआ मनुष्य में जन्म लेता है और पूर्वकोटि वर्ष तक जीवित होकर पुनः उक्त वैमानिक देवों में उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम प्रमाण आयु भोग कर पुनः मनुष्य बनता है, और पूर्व कोटि की आयु भोगकर सिद्ध-मुक्त , . होता है। इस प्रकार छासठ सागरोपम प्रमाण आयु का उत्कृष्ट काल पूर्ण होने का दृष्टान्त समझ लेना , & चाहिए। इसी तरह अन्य भी संगतिपरक घटित किये जा सकते हैं। जैसे, अच्युत देवलोक में 22 6 सागरोपम की उत्कृष्ट आयु तीन वार (मध्य में मनुष्य-जन्म प्राप्त करते हुए) भोग कर अन्त में a मनुष्यायु प्राप्त कर सिद्ध-मुक्त होने वाले के भी छासठ सागरोपम आयु का उत्कृष्ट काल संगत हो जाता है। आदि में, मध्य में और अंत में प्राप्त मनुष्य-आयु को जा काल भोगा जाता है, उतना काल अधिक जोड़ने से, साधिक छासठ सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट आयु-काल संगत होता है। नाना जीवों की दृष्टि से तो सभी कालों में मति ज्ञान की स्थिति रहती है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीम् ‘अन्तरद्वारम्'। तत्रैकजीवमङ्गीकृत्य आभिनिबोधिकस्यान्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तम् / कथम्?, इह कस्यचित् सम्यक्त्वं प्रतिपन्नस्य पुनस्तत्परित्यागे सति पुनस्तदावरणकर्मक्षयोपशमाद् अन्तर्मुहूर्त्तमात्रेणैव प्रतिपद्यमानस्येति। उत्कृष्टतस्तु 4 आशातनाप्रचुरस्य परित्यागे सति अपार्धपुद्गलपरावर्त्त इति।उक्तं च तित्थगरपवयणसुर्य, आयरियं गणहरं महिहीयं ।आसादितो बहुसो, अणंतसंसारिओ होइ। तीर्थकरं प्रवचनं श्रुतम् आचार्य गणधरं महर्द्धिकम् ।आशातयन् बहुशः अनन्तसंसारिको भवति।] तथा नानाजीवानपेक्ष्य अन्तराऽभाव इति। (वृत्ति-हिन्दी-) (5) अब ‘अन्तर' (प्राप्ति-विरह का काल, च्युति एवं पुनः प्राप्ति के .. मध्य का काल) द्वार का निरूपण किया जा रहा है। यहां एक जीव को लेकर निरूपण करें तो आभिनिबोधिक ज्ञान का अन्तर-काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त होता है। (प्रश्न-) ऐसा क्यों? a (उत्तर-) सम्यक्त्व को प्राप्त हुए व्यक्ति का सम्यक्त्व जब च्युत हो जाए तो वह सम्बन्धित - आवरण कर्म के क्षयोपमशम के कारण अन्तर्मुहूर्त में ही पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता 8086880038000000000000 135 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cacacacacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 090090900 -323233333333333333333333333333333333333333333 / है (इस प्रकार, जघन्य अन्तर काल-अन्तर्मुहूर्त है)। यदि (तीर्थंकरादि के प्रति की गई) | c. आशातना की अधिकता हो तो उसके कारण सम्यक्त्व-च्युति होगी तो 'अपार्द्धचुद्गलपरावर्त' a (कुछ कम अर्घपुद्गलपरावर्त-काल) उत्कृष्ट अन्तर काल होता है। कहा भी है "तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर एवं महर्द्धिक (आमडैषधिलब्धि आदि के . धारक) की बहुलतया (अधिकाधिक) आशातना करने से अनन्त संसार की स्थिति (सुदृढ़), होती है।" a नाना जीवों की अपेक्षा से 'अन्तर' काल होता ही नहीं (अर्थात् सर्वदा किसी न किसी जीव में आभिनिबोधिक ज्ञान होता ही है)। a विशेषार्थ कोई जीव सम्यक्त्व सहित मतिज्ञाज को प्राप्त कर, बाद में उससे च्युत होकर मिथ्यात्व में रहे, और पुनः सम्यक्त्वसहित मतिज्ञान को प्राप्त करे तो मध्य का समय 'प्राप्ति-विरह-काल' या 64 'अन्तर' कहा जाता है, वह समय जघन्यतया (कम से कम) अन्तर्मुहूर्त होता है। सम्यक्त्व का प्रतिपतन हुआ और अन्तर्मुहूर्त के बाद फिर सम्यक्त्व प्राप्त हो गया, इस अपेक्षा से उसकी जघन्य a स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है। सम्यक्त्व का प्रतिपतन होने पर जीव वनस्पति आदि में चला जाता है। & वहां अनन्त अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी तक रहकर वहां से बाहर आकर पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करता है& इसकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति अपार्द्ध पुद्गल परावर्त कही गई है। यह उत्कृष्ट काल जो होता है, वह 6 प्रायः तीर्थंकर, गुरु, जिनवाणी आदि की 'आशातना' (अपमान, अवज्ञा, तिरस्कार आदि) के कारण & होता है। उक्त उत्कृष्ट काल के बाद नियत रूप में पुनः सम्यक्त्वयुक्त आभिनिबोधिक ज्ञान का लाभ होगा ही। यह कथन एक जीव की अपेक्षा से है। नाना जीवों की अपेक्षा से तो कोई अन्तर (विरह , काल) होता ही नहीं, क्योंकि सम्यक्त्वयुक्त आभिनिबोधिकज्ञानी तो सर्वदा होते ही हैं। अपार्द्ध-पुद्गलपरावर्त-अपार्द्धपुद्गलपरावर्त (या देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त) का काल 8 अनन्त उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी के समान होता है। पुद्गल परावर्त के चार भेद हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल ca व भाव -इस प्रकार चार प्रकार का कहा है। यहां क्षेत्र पुद्गल परावर्त अभीष्ट है। __ जितने काल में एक जीव समस्त लोक में रहने वाले समस्त परमाणुओं को औदारिक शरीर & आदि सात वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है, उतने काल को 'बादर द्रव्य-पुद्गल परावर्त' कहते " हैं और जितने काल में समस्त परमाणुओं को औदारिक शरीर आदि सात वर्गणाओं में से किसी एक | वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है, उतने काल को 'सूक्ष्म द्रव्यपुद्गल परावर्त' कहते हैं। - 136(r) (r)(r)08 Rep@R(r)08 R@9828CR(r)908 -88888888888888888888888888888888888888888888 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GRRRRRRRRR नियुक्ति-गाथा-13-15 929999999999990 223222333333333333333333333333333333333323222 एक जीव अपने मरण के द्वारा लोकाकाश के समस्त प्रदेशों, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल के & समय तथा अनुभाग बंध के स्थानों को जिस किसी भी प्रकार (बिना क्रम के) से और अनुक्रम से , 4 स्पर्श कर लेता है तब क्रमशः बादर और सूक्ष्म क्षेत्रादि पुद्गल परावर्त होते हैं। / व क्षेत्रपुद्गल परावर्त-कोई एक जीव भ्रमण करता हुआ आकाश के किसी एक प्रदेश में मरा और वही जीव पुनः आकाश के किसी दूसरे प्रदेश में मरा, तीसरे, चौथे आदि प्रदेशों में मरा / इस * प्रकार जब वह लोकाकाश के समस्त प्रदेशों में मर चुकता है तो उतने काल को बादर क्षेत्रपुद्गल परावर्त कहते है। बादर क्षेत्रपुदगल परावर्त में क्रम-अक्रम आदि किसी भी प्रकार से समस्त आकाश ce प्रदेशों को स्पर्श कर लेना ही पर्याप्त माना जाता है। सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गल परावर्त में भी आकाश प्रदेशों को स्पर्श किया जाता है, लेकिन उसकी विशेषता इस प्रकार है कि कोई जीव भ्रमण करता-करता आकाश के किसी एक प्रदेश में मरण करके , ce पुनः उस प्रदेश के समीपवर्ती दूसरे प्रदेश में मरण करता है, पुनः उसके निकटवर्ती तीसरे प्रदेश में 2 ca मरण करता है। इस प्रकार अनन्तर-अनन्तर क्रम से प्रदेश में मरण करते-करते जब समस्त " & लोकाकाश के प्रदेशों में मरण कर लेता है, तब वह सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गल परावर्त कहलाता है। ... उक्त कथन का सारांश और बादर व सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गल परावर्त में अन्तर यह है कि बादर में , ca तो क्रम का विचार नहीं किया जाता है, उसमें व्यवहित प्रदेश में मरण करने पर यदि वह प्रदेश पूर्व से & स्पृष्ट नहीं है तो उसका ग्रहण होता है, यानी वहां क्रम से या बिना क्रम से समस्त प्रदेशों में मरण कर . लेना ही पर्याप्त समझा जाता है किन्तु सूक्ष्म में समस्त प्रदेशों में क्रम से ही मरण करना चाहिए और . अक्रम से जिन प्रदेशों में मरण किया जाता है अथवा पूर्व मरणस्थान में पुनः जन्म लेकर मरण किया जाता है तो उनकी गणना नहीं की जाती है। इससे यह स्पष्ट है कि बादर की अपेक्षा सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गल परावर्त में समय अधिक लगता है। बादर का समय कम और सूक्ष्म का समय अधिक है। सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गल परावर्त के संबन्ध में एक बात और जानना चाहिए कि एक जीव की & जघन्य अवगाहना लोक के असंख्यातवें भाग बतलाई है, जिससे एक जीव यद्यपि लोकाकाश के एक " & प्रदेश में नहीं रह सकता, तथापि किसी एक देश में मरण करने पर उस देश का कोई एक प्रदेश 7 ca आधार मान लिया जाता है, जिससे यदि उस विवक्षित प्रदेश से दूरवर्ती किन्हीं प्रदेशों में मरण होता " है तो वे गणना में नहीं लिये जाते हैं किन्तु अनन्तकाल बीत जाने पर जब कभी विवक्षित प्रदेश के अनन्तर का जो प्रदेश है, उसमें मरण करता है तो वह गणना में लिया जाता है। - @ @ @ @ @@@ @ @ @ @ @@ne 137 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 8 8 8 8 8 8 3333333333333 33333333333333333333333333333333 -ce caca ca cace ca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) Omnman प्रदेशों को ग्रहण करने के बारे में किन्हीं-किन्हीं आचार्यों का मत है कि लोकाकाश के जिन & प्रदेशों में मरण करता है, वे सभी प्रदेश ग्रहण किये जाते हैं, उनका मध्यवर्ती कोई विवक्षित प्रदेश 1 ca ग्रहण नहीं किया जाता है। c(हरिभद्रीय वृत्तिः) ___'भागः' इति द्वारम्।तत्र मतिज्ञानिनःशेषज्ञानिनामज्ञानिनांचानन्तभागे वर्तन्ते इति। र 'भावद्वारम्' इदानीम् / तत्र मतिज्ञानिनःक्षायोपशमिके भावे वर्तन्ते, मत्यादिज्ञानचतुष्टयस्य क्षायोपशमिकत्वात् / तथा 'अल्पबहुत्वद्वारम्'।तत्राभिनिबोधिकज्ञानिनां प्रतिपद्यमानव पूर्वप्रतिपन्नापेक्षया अल्पबहुत्वविभागोऽयमिति।तत्र सद्भावे सति सर्वस्तोकाः प्रतिपद्यमानकाः, पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यपदिनस्तेभ्योऽसंख्येयगुणाः, तथोत्कृष्टपदिनस्तु एतेभ्योऽपि विशेषाधिका : & इति गाथावयवार्थः // 13-15 // (वृत्ति-हिन्दी-) (6) 'भाग' द्वार का निरूपण इस प्रकार है- मतिज्ञानी शेष ज्ञानियों , व अज्ञानी जीवों के अनन्तवें भाग में होते हैं। (7) अब 'भाव' द्वार का निरूपण कर रहे हैंC. मतिज्ञानी क्षायोपशमिक भाव में स्थित होते हैं, क्योंकि मति आदि चारों ज्ञान क्षायोपशमिक ल हैं। (8) अल्पबहुत्व द्वार का निरूपण इस प्रकार है- आभिनिबोधिक ज्ञानियों में 'प्रतिपद्यमान' व 'पूर्वप्रतिपन्न' को दृष्टि में रखकर उनका अल्पबहुत्व-विभाग यहां निरूपित किया जाता है। ca वहां सद्भाव की दृष्टि से सबसे कम ‘प्रतिपद्यमान' होते हैं। जघन्य पूर्वप्रतिपन्न उन & (प्रतिपद्यमानों) की तुलना में असंख्येय गुने हैं, उत्कृष्टपदी पूर्वप्रतिपन्न तो उनसे भी विशेष & रूप से अधिक हैं। यह गाथा का अवयवार्थ (प्रत्येक पद के अनुसार अर्थ) हुआ ||13-15 // विशेषार्थ२ मतिज्ञान क्षायोपशममिक भाव है। चूंकि मतिज्ञानावरण कर्म के उदीर्ण, क्षीण होने पर, या ca अनुदीर्ण हो तो उपशान्त होने पर मतिज्ञान की उत्पत्ति होती है, इसलिए क्षायोपशमिक भाव में ही वह मतिज्ञान है, औदयिक व क्षायिक आदि भावों में नहीं होता है। मतिज्ञानी अन्य ज्ञानियों की CM तुलना में थोड़े हैं क्योंकि सिद्ध, केवली आदि जीवों की संख्या अनन्त होती है। अल्पबहुत्व द्वार में चूंकि 'प्रतिपद्यमान' का सद्भाव विवक्षित एक समय मात्र से सम्बन्धित * होता है, अतः वे सबसे कम हैं। उनसे 'पूर्वप्रतिपन्न' अपेक्षाकृत असंख्यात गुने होते हैं, क्योंकि वे चिरकाल से (दीर्घकालपरम्परा से) जुड़े होते हैं। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) . / 138 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRE 209099999999999 222222222222222222222233333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-16 / (हरिभद्रीय वृत्तिः) साम्प्रतं यथाव्यावर्णितमतिभेदसंख्याप्रदर्शनद्वारेणोपसंहारमाह (नियुक्तिः) आभिणिबोहियनाणे, अट्ठावीसइ हवन्ति पयडीओ // 15 // 2 // [संस्कृतच्छायाः-आभिनिबोधिकन्ज्ञाने अष्टाविंशतिः प्रकृतयो भवन्ति।] (वृत्ति-हिन्दी-) अब, पूर्व-प्रतिपादित मतिज्ञान के भेदों की संख्या बता कर उपसंहार , के रूप में (आचार्य नियुक्तिकार) कह रहे हैं (152) (नियुक्ति-अर्थ-) आभिनिबोधिक ज्ञान की (कुल) प्रकृतियां अट्ठाईस हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) अस्य गमनिका- 'आभिनिबोधिकज्ञाने अष्टाविंशतिः भवन्ति प्रकृतयः' ।प्रकृतयो भेदा & इत्यनन्तरम् / कथम्?, इह व्यञ्जनावग्रहः चतुर्विधः, तस्य मनोनयनवर्जेन्द्रियसंभवात्। & अर्थावग्रहस्तु षोढा, तस्य सर्वेन्द्रियेषु संभवात्। एवं ईहावायधारणा अपि प्रत्येकं षड्भेदा एव . मन्तव्या इति। एवं संकलिता अष्टाविंशतिर्भेदा भवन्ति। व आह-प्राग् अवग्रहादिनिरूपणायाम् 'अत्थाणं ऊगहणं' इत्यादावेताः प्रकृतयः प्रदर्शिता & एव, किमिति पुनः प्रदर्श्यन्ते?, उच्यते, तत्र सूत्रे संख्यानियमेन नोक्ताः, इह तु संख्यानियमेन प्रतिपादनादविरोध इति। (वृत्ति-हिन्दी-) इस (उपसंहार रूप गाथार्द्धभाग) का अर्थ है- आभिनिबोधिक >> ca ज्ञान में अट्ठाईस प्रकृतियां होती हैं। प्रकृति कहें या भेद कहें- एक ही अर्थ (तात्पर्य) है। " a (प्रश्न-) कैसे? (अर्थात् इनके भेदों की संख्या अट्ठाईस ही क्यों हैं?) (उत्तर : वह इस प्रकार से है-) इस मतिज्ञान में व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का होता है, क्योंकि यह मन व नेत्र -इन दो को छोड़कर अन्य इन्द्रियों से (शेष चार इन्द्रियों-श्रोत्र, रसना, घ्राण, स्पर्शनेन्द्रिय -द्वारा) : होता है। अर्थावग्रह छः प्रकार का होता है, क्योंकि सभी इन्द्रियों (पांच इन्द्रियों व छठे // अनिन्द्रिय मन) से होता है। इसी प्रकार, ईहा, अवाय, धारणा -इनमें भी प्रत्येक के छः छः / / भेद होते ही हैं। अतः सबको जोड़ने पर कुल अट्ठाईस भेद हो जाते हैं। 80@ca@ @ @ @ce@ @ce@ @ @ @ @ 139 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ca cace ca ca ca ca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) n n n n n n n - (शंका-) पहले अवग्रह आदि के निरूपण में 'अर्थानामवग्रहः' इत्यादि (तीसरी / & नियुक्ति गाथा आदि के) रूप में इन प्रकृतियों का प्रदर्शन (स्पष्टीकरण) कर ही दिया गया है, . फिर यहां पुनः उनका निरूपण क्यों किया जा रहा है? उत्तर दे रहे हैं- पहले सूत्र में इन प्रकृतियों का कथन तो किया गया है, किन्तु संख्या-नियम के साथ नहीं कहा गया है, यहां . संख्या-नियम के साथ (अर्थात् उनकी संख्या अट्ठाईस है, सत्ताईस नहीं, उनतीस भी नहीं है ce है- इस दृष्टि से) प्रतिपादन किया गया है, इसलिए कोई विरोध वाली बात नहीं है। ca (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदं च मतिज्ञानं चतुर्विधम्-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च।तत्र द्रव्यतः सामान्यादेशेन CA मतिज्ञानी सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानीते, न विशेषादेशत इति।एवं क्षेत्रतो लोकालोकम्, & कालतः सर्वकालम्, भावतस्तु औदयिकादीन् पञ्च भावानिति, सर्वभावानां चानन्तभागमिति।। (वृत्ति-हिन्दी-) यह मतिज्ञान चार प्रकार है- द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः।। 8 इनमें द्रव्यतः (द्रव्य-दृष्टि से), अर्थात् द्रव्य-सामान्य-अपेक्षा से मतिज्ञानी धर्मास्तिकाय आदि. & समस्त द्रव्यों को जानता है, न कि 'विशेष' (पर्याय) की दृष्टि से (अर्थात् वह सभी पर्यायों को ce नहीं जानता, कुछ ही पर्यायों को जानता है, अन्यथा सर्वज्ञ से अन्तर क्या रह जाएगा?)। << इसी प्रकार, क्षेत्र की दृष्टि से (धर्मास्तिकायादि के आधार) लोक और अलोक (मात्र आकाश) को जानता है। काल की दृष्टि से सभी (अतीत, वर्तमान व भावी -इन तीन) कालों को जानता है। भाव की दृष्टि से औदयिक आदि पांच भावों को जानता है, अथवा सभी पर्यायों के / 0 अनन्तवें भाग को जानता है ||13-15 // BBBBBBBBB 33 333333333333333333333333333333333333333333333 a विशेषार्थ मतिज्ञान की ज्ञेय वस्तु का प्रतिपादन जो यहां किया गया है, वह भगवती सूत्र (8/2/184) के अनुसार ही है। वहां ज्ञेय वस्तु के चार प्रकार बताए गये हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव / इन चतुर्विध ज्ञेय के आधार पर मतिज्ञान के विषय को स्पष्ट किया गया है। __ आभिनिबोधिकज्ञानी सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभाव को जानता है।आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं। परोक्ष ज्ञान के द्वारा सूक्ष्म, दूरस्थ और व्यवहित विषय को नहीं जाना जा सकता, इसीलिए 'सामान्यादेश' से जानने का निरूपण किया गया है। 140 (r)(r)(r)(r)(r)cR990888888@0090880808. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRce 927 नियुक्ति गाथा-16 जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार आभिनिबोधिकज्ञानी ओघादेस (सामान्य आदेश) से ca सब द्रव्यों को जानता है, किन्तु वह सब विशेषों की दृष्टि से सब द्रव्यों को नहीं जानता। तात्पर्य की " & भाषा में यह आभिनिबोधिक ज्ञान के ज्ञेय की सीमा का निर्देश है। अर्थात् वह सामान्यतः कुछेक , पर्यायों से विशिष्ट द्रव्य को जानता है (द्र. विशेषा. भाष्य, 404-404) / आभिनिबोधिकज्ञानी सब भावों को जानता है। जिनभद्रगणि ने इसका अर्थ किया है-: आभिनिबोधिकज्ञानी औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक -इन पांच भावों को सामान्य या जाति के रूप में जानता है। तत्त्वेत्ता, दार्शनिक और वैज्ञानिक अपनी मति से संपूर्ण विश्व रचना और विश्ववर्ती पदार्थों के बारे में चिंतन करते हैं, शोध करते हैं, और नई-नई स्थापना करते हैं। उनमें औत्पत्तिकी बुद्धि का विकास भी होता है। उसके द्वारा वे अदृष्ट और अश्रुत तत्त्वों को जान लेते हैं। किसी पूर्व परंपरा और शास्त्र का * अनुसरण किए बिना अनेक नए तत्त्वों का प्रतिपादन करते हैं। इसलिए आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान की ca केवलज्ञान से सापेक्ष दृष्टि से तुलना की जाती है। मतिज्ञान की अन्य ज्ञान (श्रुतज्ञान व केवलज्ञान) से & तुलना करते हुए उसके ज्ञेय की सीमा को स्पष्ट करने हेतु निम्नलिखित चार्ट प्रस्तुत है - 222222222222222222222222222222222222222333333 आभिनिबोधिक श्रुतज्ञान केवलज्ञान द्रव्य-आदेशतः सर्व द्रव्यों को| श्रुतोपयोगअवस्था में सर्वद्रव्यों को | | सर्व द्रव्यों को जानता-देखता जानता-देखता है। जानता-देखता है। है। क्षेत्र-आदेशतः सर्व क्षेत्रों को| श्रुतोपयोग अवस्था में सर्व क्षेत्रों| सर्व क्षेत्रों को जानता-देखता जानता-देखता है। को जानता-देखता है। है। | काल-आदेशतः सर्व काल| श्रृतोपयोग अवस्था में सर्व काल सर्व काल को जानता-देखता को जानता-देखता है। को जानता-देखता है। भाव- आदेशतः सर्व भाव| श्रुतपयोग अवस्था में सर्व भावों| सर्व भावों को जानता-देखता को जानता-देखता है। को जानता-देखता है। @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ 141 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - RECRcaca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 909200000 / (हरिभद्रीय वृत्तिः) उक्तं मतिज्ञानम्, इदानीं अवसरप्राप्तं श्रुतज्ञानं प्रतिपिपादयिषुराह (नियुक्तिः) सुयणाणे पयडीओ, वित्थरओ आवि वोच्छामि // 16 // [संस्कृतच्छायाः- श्रुतज्ञाने प्रकृतीः विस्तरतः चापि वक्ष्ये // ] (व्याख्या-) श्रुतज्ञानं पूर्वं व्युत्पादितम् ।तस्मिन्, प्रकृतयो भेदा अंशा इति पर्यायाः। ce ताः, 'विस्तरतः' प्रपञ्चेन, चशब्दात् संक्षेपतश्च, अपिशब्दः संभावने, अवधिप्रकृतीश्च 'वक्ष्ये' 4 अभिधास्ये॥१६॥ (वृत्ति-हिन्दी-) मतिज्ञान का निरूपण सम्पन्न हुआ। अब क्रम-प्राप्तं श्रुतज्ञान का " प्रतिपादन कर रहे हैं [16] (नियुक्ति-अर्थ-) (अब) श्रुत ज्ञान की प्रकृतियों (भेदों) को विस्तार से कहूंगा। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) श्रुतज्ञान का पूर्व में निरूपण किया जा चुका है, उसकी " प्रकृतियों अर्थात् भेदों या पर्यायों को विस्तार से कहूंगा। यहां 'च' ('और') से संक्षेप से भी , ca (कहीं कहीं) कथन करने का संकेत किया गया है। अपि (भी) यह पद 'संभावना' अर्थ को & व्यक्त कर रहा है, अर्थात् संभवतः अवधिज्ञान की प्रकृतियों का कथन करूंगा -यह अर्थ भी * यहां व्यक्त किया जा रहा है 16 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___ इदानीं ता एव श्रुतप्रकृतीः प्रदर्शयन्नाह (नियुक्तिः) पत्तेयमक्खराइं, अक्खरसंजोग जत्तिआ लोए। __एवइया पयडीओ, सुयनाणे हुंति णायव्वा // 17 // 388888888888888883333333333333333333333333 [संस्कृतच्छायाः-प्रत्येकमक्षराणि अक्षरसंयोगा यावन्तो लोके।एतावत्यः प्रकृतयः श्रुतज्ञाने भवन्ति ज्ञातव्याः // ] (वृत्ति-हिन्दी-) अब श्रुतज्ञान की उन्हीं प्रकृतियों का निरूपण कर रहे हैं142 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cacaaReacence नियुक्ति-गाथा-17 90000000900 2222222233333333333333333323 _ [17] (नियुक्ति-अर्थ-) लोक में प्रत्येक अक्षर (के जितने भेद) हैं, और जितने (प्रकार के) " ca अक्षर-संयोग हैं, श्रुतज्ञान की उतनी ही प्रकृतियां हैं- ऐसा जानना चाहिए। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) एकमेकं प्रति प्रत्येकम्, अक्षराण्यकारादीनि अनेकभेदानि।यथा अकारः // * सानुनासिको निरनुनासिकश्च।पुनरेकैकस्त्रिधा-हस्वः दीर्घः प्लुतश्च ।पुनरेकैकस्त्रिधैव-उदात्तः, . & अनुदात्तः, स्वरितश्च।इत्येवमकारः अष्टादशभेदः इत्येवमन्येष्वपि कारादिषु यथासंभवं भेदजालं , वक्तव्यमिति।तथा अक्षराणां संयोगा अक्षरसंयोगाः, संयोगाश्च यादयः यावन्तो लोके यथा 'घटपट' इति, 'व्याघ्रहस्ती' इत्येवमादयः एते चानन्ता इति।तत्रापि एकैकः अनन्तपर्यायः, स्वपरपर्यायापेक्षया इति। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) 'प्रत्येक' का अर्थ है- एक-एक अक्षर, अक्षर अकार : 4 आदि हैं, उन (में से प्रत्येक) के अनेक भेद हैं। जैसे, अकार सानुनासिक और निरनुनासिक 1 रूप (से दो प्रकार का) है। फिर उनमें से भी प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं- ह्रस्व, दीर्घ और " a प्लुत। फिर इनमें से भी प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं- उदात्त, अनुदात्त और स्वरित / इस " प्रकार (एक) अकार के अठारह भेद होते हैं। इसी तरह, अन्य (अक्षरों, स्वरों, जैसे) इकार , आदि के भी यथासम्भव भेद-प्रभेदों का कथन करना चाहिए। अक्षरों के संयोग (अक्षरसंयोग) भी दो अक्षरों के (एवं तीन अक्षरों के) आदि-आदि जितने भी लोक में (व्यवहृत) हैं, जैसे घट-पट, व्याघ्र-हस्ती इत्यादि, वे भी अनन्त (संख्या में) हैं। उनमें भी स्व-पर पर्यायों की अपेक्षा से प्रत्येक के पर्याय अनन्त होते हैं। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-संख्येयानाम् अकारादीनां कथं पुनरनन्ताः संयोगा इति।अत्रोच्यते।अभिधेयस्य : पुद्गलास्तिकायादेरनन्तत्वात् भिन्नत्वाच्च, अभिधेयभेदे च अभिधानभेदसिद्ध्या / अनन्तसंयोगसिद्धिरिति। अभिधेयभेदानन्त्यं च यथा- परमाणुः, द्विप्रदेशिको, यावद् , . अनन्तप्रदेशिक इत्यादि।तथैकत्रापि च अनेकाभिधानप्रवृत्तेः अभिधेयधर्मभेदाः यथा-परमाणुः, . निरंशः, निष्प्रदेशः, निर्भेदः, निरवयव इत्यादि।न चैते सर्वथैकाभिधेयवाचका ध्वनय इति, . सर्वशब्दानां भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् / इत्येवं सर्वद्रव्यपर्यायेषु आयोजनीयमिति। तथा च - 80@ce@ @ce@ @ce@ @ce@9890@ca@908 143 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 -cace cRcecacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 सूत्रेऽप्युक्तम्- "अणंता गमा अणंता पज्जवा" (अनन्ताः गमाः, अनन्ताः पर्यायाः)।अमुमेवार्थ / ce चेतसि आरोप्य आह- 'एतावत्यः' ।इयत्परिमाणाः प्रवृत्तिनिमित्तत्वात् / इत्येवं सर्वप्रकृतयः / & श्रुतज्ञाने भवन्ति ज्ञातव्या इति गाथार्थः // 17 // (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) अकार आदि तो संख्येय (ही) हैं, फिर उनके संयोग , 8 अनन्त कैसे (सम्भव) हैं? इसका समाधान कह रहे हैं- उन अक्षरों (एवं अक्षर-संयोगों) के , CM जो अभिधेय (वाच्य) अर्थ (पदार्थ) पुद्गलास्तिकाय आदि हैं, वे भिन्न-भिन्न हैं और अनन्त हैं, . और अपने अभिधेय पदार्थ की भिन्नता के कारण उनके वाचक शब्दों (पद आदि) में भी भेद 8 सिद्ध होता है, अतः अनन्त संयोग की सिद्धि हो जाती है। अभिधेय सम्बन्धी भेदों की 8 अनन्तता का स्पष्टीकरण इस प्रकार है। जैसे, (एक ही) परमाणु द्विप्रदेशी (त्रिप्रदेशी आदि) a से लेकर अनन्तप्रदेशी भी होता है, आदि-आदि। इसके अतिरिक्त, एक ही वस्तु में अनेक * अभिधानों (वाचक शब्दों) की प्रवृत्ति होती देखी जाती है, और एक ही अभिधेय के भिन्न भिन्न धर्म होते हैं। जैसे- परमाणु (को) निरंश, निर्भेद, निरवयव आदि (रूप में कहना)। , 6 उक्त सभी ध्वनियां सर्वथा एक ही अभिधेय की वाचक नहीं होतीं, क्योंकि सभी शब्दों की , प्रवृत्ति में (व्यवहार-योग्य होने में) भिन्न-भिन्न निमित्त होते हैं। इसी प्रकार, सभी द्रव्यों, और उनके पर्यायों के विषय में समझ लेना चाहिए। सूत्र (आगम) (नन्दीवृत्ति) में भी कहा गया है- "अनन्त 'गम'(अर्थगम, अर्थ-परिच्छेद) और अनन्त पर्याय होते हैं'। इसी अर्थ a (तात्पर्य) को मन में रखकर (गाथा में) कहा गया है कि प्रवृत्ति-निमित्त रूप में इतने (एतावत्यः) परिमाण (संख्या) वाली प्रकृतियां होती हैं। इस तरह श्रुतज्ञान के अन्तर्गत समस्त प्रकृतियों का आकलन, ज्ञान करना चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 17 // व विशेषार्थ अ, इ, उ, ऋ -इनमें से प्रत्येक के 18-18 भेद इस प्रकार हैं (अ) ह्रस्व दीर्घ प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित - 144 @c@mecRBOOR@Recr(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000 2233333333322322238233233 22222222222 नियुक्ति-गाथा-17 इस प्रकार 'अ' के नौ भेद हुए। इन नौ भेदों में से प्रत्येक के सानुनासिक व निरनुनासिक ca -इस प्रकार 2-2 भेद होते हैं और कुल अठारह भेद हो जाते हैं। इसी तरह 'इ', 'उ', 'ऋ' के भी 18-0 018 भेद समझने चाहिएं। अन्यों स्वरों की स्थिति इस प्रकार है- 'लु' के 12 भेद ही होते हैं, क्योंकि उसमें दीर्घ भेद, ce नहीं होता, अतः ह्रस्व लु के छः, प्लुत 'लु' के छः भेद, कुल बारह भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार, ए, ऐ, ca ओ, औ-इन चारों में भी प्रत्येक के 12-12 भेद होते हैं, क्योंकि इनमें 'ह्रस्व' नहीं होता, दीर्घ व प्लुत से -ये दो भेद ही होते हैं। व्यञ्जनों में ह्रस्व आदि भेद नहीं होते। व्यञ्जनों का प्रायः स्वर के साथ उच्चारण होता है। अतः , स्वरों के भेद यहां बताए गए हैं। . दो अक्षरों के संयोग से बने पद घट-पट (आदि) हैं, तीन अक्षरों के संयोग से बने पद भुवन, जीवन आदि हैं, इसी प्रकार चार-पांच आदि अक्षरों के संयोग से बने पद हो सकते हैं। इन संयोगों में & भी भिन्नता देखी जा सकती है, जैसे-घट और व्याघ्र / घट (या पट) में स्वरान्तरित संयोग है, अर्थात् वह 'घ्' और 'ट्' के संयोग के बीच स्वर (अ) है। इसी प्रकार ‘पट' में भी समझना चाहिए। किन्तु , व्याघ्र' में घ व र् का संयोग स्वरानन्तरित है, दोनों के मध्य कोई स्वर नहीं है। इसी प्रकार 'हस्ती', 4 में भी समझना चाहिए / उक्त प्रकार 'संयोग' की भिन्नता के आधार पर द्वि-अक्षर, त्रि-अक्षर वाले पदों : & में भी (प्रत्येक के) दो-दो भेद हो जाएंगे। इसके अतिरिक्त, एक-एक अक्षर या अक्षर-संयोग स्व-. पर्यायों व परपर्यायों की अपेक्षा अनन्तरूपता लिए हुए है। (विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 478 व 4800 के अनुसार) किसी अन्य वर्ण से संयुक्त हुए बिना ही एक अक्षर के जो उदात्तादि आत्मगत पर्याय हैं, , ca वे अनन्त हैं क्योंकि उनके वाच्य द्रव्य अनन्त हैं, उन वाच्य अनन्त द्रव्यों में प्रत्येक को कथन करने की " व पृथक्-पृथक् शक्ति है। इसी तरह उनके पर पर्याय' भी हैं, अर्थात् अन्य वर्गों के पर्याय जो उसे अन्य वर्णों , से पृथक् करते हैं, वे भी अनन्त हो जाते हैं। अर्थात् वर्णविशेष के अस्तित्व से जुड़े स्वपर्याय' हैं और , नास्तित्व से जुड़े पर्याय 'परपर्याय' हैं, और अस्तित्व-नास्तित्व, 'भावाभावात्मक' पदार्थ के ही अंश हैं। 1 यहां शंका उठाई गई है कि अक्षर तो सारे बावन ही हैं, तो उसके संयोग अनन्त कैसे हो / गए? उत्तर दिया कि उनके अभिधेय पदार्थों की संख्या अनन्त है। एक ही परमाणु को द्वि-प्रदेशी, " & त्रिप्रदेशी आदि रूपों में देखें तो एक 'परमाणु' शब्द के अनेकानेक भिन्न-भिन्न अभिधेय होते हैं। अतः // अभिधेय की भिन्नता के कारण अभिधान (वाचक) की भिन्नता हो.जाती है, (अर्थात् भिन्न अभिधेय , धर्मों को कहने के लिए भिन्न-भिन्न वाचक शब्द होते हैं) इस प्रकार, अक्षर संयोग (रूप वाचक पदों) " की अनन्तता सिद्ध होती है। (r)(r)(r)(r)(r)Reneck@@ce@00000000 - 08. 145 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -333333333333333333333333333333333333333333333 -acaca cace cece श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 000 0000 इतना ही नहीं, एकप्रदेशी परमाणु को भी अनेक वाचक शब्दों द्वारा अभिहित किया जा & सकता है, जैसे- परमाणु निरंश, अवयवरहित है, प्रदेशरहित है, अविभागी है, आदि-आदि। इसीलिए " a आगम में कहा गया है कि वस्तु के अनन्त पर्याय और उनके परिच्छेद (ज्ञान) भी अनन्त हैं। इस प्रकार, श्रुत ज्ञान की प्रकृति (भेदों) में उक्त सारी अनन्तरूपता समाहित है जिससे परिचित होना श्रुतज्ञान को समझने की दृष्टि से अपेक्षित है- यह नियुक्तिकार का अभिप्राय है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीं सामान्यतयोपदर्शितानाम् अनन्तानां श्रुतज्ञानप्रकृतीनां यथावद्भेदेन प्रतिपादनसामर्थ्यम् आत्मनः खलु अपश्यन्नाह (नियुक्तिः) कत्तो मे वण्णे, सत्ती सुयणाणसव्वपयडीओ?। चउदसविहनिक्खेवं, सुयनाणे आवि वोच्छामि // 18 // [संस्कृतच्छायाः-कुतो मे वर्णयितुं शक्ति श्रुतज्ञानसर्वप्रकृतीः।चतुर्दशविधनिक्षेपं श्रुतनाने चापि वक्ष्ये // (वृत्ति-हिन्दी-) अब सामान्यतया प्रदर्शित श्रुतज्ञान की अनन्त प्रकृतियों के सभी भेदों को प्रतिपादित करने की अपनी सामर्थ्य को जानते-समझते हुए आचार्य कह रहे हैं (18) (नियुक्ति-अर्थ-) श्रुतज्ञान की समस्त प्रकृतियों को वर्णित करने की शक्ति मेरी कहां ca है? (अतः) श्रुतज्ञान से सम्बन्धित चौदह प्रकार के निक्षेपों का निरूपण करूंगा। ca (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___(व्याख्या-) कुतः?, नैव प्रतिपादयितुम्, 'मे' मम 'वर्णयितुं' प्रतिपादयितुं 'शक्तिः' - & सामर्थ्यम्।काः? -प्रकृतीः।तत्र प्रकृतयो भेदाः, सर्वाश्च ताः प्रकृतयश्च सर्वप्रकृतयः, श्रुतज्ञानस्य >> & सर्वप्रकृतयः श्रुतज्ञानसर्वप्रकृतय इति समासः।ताः कुतो मे वर्णयितुं शक्तिः? (वृत्ति-हिन्दी-) (कुतः मे वर्णयितुं शक्तिः) अर्थात् वर्णन करने की मेरी शक्ति कहां - & है? किसे वर्णन करने की? (श्रुतज्ञानसर्वप्रकृतीः) प्रकृति यानी भेद / श्रुतज्ञान' तथा 'सर्वप्रकृति' , & -इनका (षष्ठी तत्पुरुष) समास है, अर्थात् श्रुतज्ञान की समस्त प्रकृतियों के (निरूपण करने से की)। 88888888888888888888888888888888888888888888 / - 146 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | RRRRRRRRo... नियुक्ति-गाथा-18 .000000000 33333333333333333333333333333333333333333 (हरिभद्रीय वृत्तिः) कथं न शक्तिः?, इह ये श्रुतग्रन्थानुसारिणो मतिविशेषास्तेऽपि श्रुतमिति प्रतिपादिताः। " उक्तंच-"तेऽविय मईविसेसे, सुयणाणभंतरे जाण" (तानपिच मतिविशेषान् श्रुतज्ञानाभ्यन्तरे " जानीहि)।ताँश्चोत्कृष्टतः श्रुतधरोऽपि अभिलाप्यानपि सर्वान् न भाषते, तेषामनन्तत्वात् आयुषः / a परिमितत्वात् वाचः क्रमवृत्तित्वाच्चेति, अतोऽशक्तिः। ततः चतुर्दशविधनिक्षेपम्' ।निक्षेपणं निक्षेपो-नामादिविन्यासः।चतुर्दशविधश्चासौ , र निक्षेपश्चेति विग्रहस्तं 'श्रुतज्ञाने' श्रुतज्ञानविषयम्, चशब्दात् श्रुताज्ञानविषयं च।अपिशब्दात् / उभयविषयं च। तत्र श्रुतज्ञानं सम्यक्श्रुते, श्रुताज्ञाने असंज्ञिमिथ्याश्रुते, उभयश्रुते " व दर्शनविशेषपरिग्रहात् अक्षरानक्षरश्रुते इति, वक्ष्ये' अभिधास्ये इति गाथार्थः // 18 // (वृत्ति-हिन्दी-) (उक्त) सामर्थ्य क्यों नहीं है? (उत्तर-) यहां श्रुत-ग्रन्थ के अनुसारी , : (अर्थात् इस ग्रन्थ में प्रतिपादित श्रुत-सम्बन्धी) जो मति-विशेष (मति-भेद) हैं, उन्हें भी 'श्रुत' / * कहा गया है। कहा भी है- उन मति-विशेषों को भी श्रुतज्ञान के अन्तर्गत जानें। उन " << मतिविशेषों में जो भी उत्कृष्टतः अभिलाप्य हैं, उन सभी को श्रुतधर भी नहीं कह पाता है, . व क्योंकि वे अनन्त होते हैं और (वक्ता की) आयु परिमित होती है, और वाणी क्रमशः ही प्रवृत्त " ल होती है (अर्थात् प्रत्येक को क्रमशः ही कह पाती है), इसलिए (मेरी) सामर्थ्य नहीं है। " अतः चतुर्दशविध निक्षेपों को कहूंगा / निक्षेप यानी निक्षेपक अर्थात् 'नाम' (स्थापना, , द्रव्य, भाव) आदि रूप से न्यास करना / चतुर्दशविध और (वही) निक्षेप -इस प्रकार , ca (कर्मधारय) समास है। उन श्रुत-ज्ञान विषयक चौदह निक्षेपों को कहूंगा। 'च' शब्द से यह " ca संकेतित है कि श्रुत-अज्ञान विषयक निक्षेपों को भी कहूंगा। 'अपि' (भी) शब्द से यह सूचित " a किया गया है कि दोनों (श्रुत ज्ञान व श्रुत-अज्ञान) के निक्षेपों का कथन करूंगा। इनमें - & श्रुतज्ञान से 'सम्यक्श्रुत', श्रुत-अज्ञान से असंज्ञी मिथ्याश्रुत, और उभय से दर्शन-विशेष व अर्थात् अक्षरश्रुत व अनक्षरश्रुत का ग्रहण होता है। 'वक्ष्ये' अर्थात् कहूंगा / यह गाथा का अर्थ " << पूर्ण हुआ 18 // (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)00000000 147 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaaaacaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) Monommo(हरिभद्रीय वृत्तिः) साम्प्रतं चतुर्दशविधश्रुतनिक्षेपस्वरूपोपदर्शनायाह 222222222222222222222222222222222222222222223 अक्खरसण्णी सम्मं,साईयं खलु सपज्जवसिअंच। गमियं अंगपविलु, सत्तवि एएसपडिवक्खा // 19 // [संस्कृतछायाः-अक्षर संल्लि सम्यक् सादिकं खानु सपर्यवसितं चाममिकमजप्रविष्टं सप्ताप्यते सप्रतिपक्षाः1] (वृत्ति-हिन्दी-) अब चौदह भेदों वाले श्रुत-निक्षेप का स्वरूप प्रदर्शित कर रहे हैं __ (19) (नियुक्ति-अर्थ-) (1) अक्षर (श्रुत), (2) संन्नि (श्रुत), (3) सम्यक् (श्रुत), (4)सादि / a (श्रुत), (5) सपर्यवसित (श्रुत), (6) गमिक (श्रुत), (7) अंगप्रविष्ट (श्रुत) -ये सात, तथा , & इनके प्रतिपक्षी (विरुद्ध), (8) अनक्षर (श्रुत), (7) असंनि (श्रुत), (10) असम्यक् (श्रुत), , 14 (11) अनादि (श्रुत), (12) अपर्यवसित (श्रुत), (13) अगमिक (श्रुत), (14) अनंग प्रविष्ट / 4 (अंगबाह्य श्रुत) -ये सात (तथा कुल मिला कर श्रुत ज्ञान के चौदह) भेद होते हैं। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र अक्षरशुतद्वारम् ।इह सूचनात्सूत्रम्' झतिकृत्वा सर्वद्वारेषु श्रुतशब्दो , द्रष्टव्य इति।तत्र अक्षरमिति किमुक्तं भवति? -'कर संचलने' न भरतीत्यक्षरम्, तच्च ज्ञानं , चेतनेत्यर्थः, न यस्मादिदमनुपयोगेऽपि प्रच्यवत इति भावार्थः। इत्थंभूतभावाक्षरकारणत्वाद् / 4 अकारादिकमप्यक्षरमभिधीयते।अथवा अर्थान् करति बच क्षीयते इत्यक्षारम्। तच्च समासतस्त्रिविधम्।तद्यथा-संज्ञाकारं व्यानाकरं लब्यक्षरं चेति।संज्ञाक्षरं तत्र , 4 अक्षराकारविशेषः, यथा घटिकासंस्थानो पकारः,कुरुण्टिकासंस्थानश्चकार इत्यादि, तच्च , ब्राह्मयादिलिपीविधानादनेकविधम्। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) (इन चौदह निक्षपों में प्रथम) 'अक्षरश्रुत' द्वार है। सूत्र 1 ca (रूप ग्रन्थ) सूचन करता है (सूचन करने के कारण ही 'सूत्र' कहा जाता है, अर्थात् सूत्र " कुछ तो कहता है और कुछ का संकेत मात्र करता है) इसलिए सभी (सम्भावित) द्वारों में . - - 148 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)9890(r)(r)(r) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -anenance 000000000 222222222222222333333333333333333333333333333 नियुक्ति-माथा-19 'श्रुत' शब्द का निदर्शन करणीय है (-ऐसा समझना चाहिए)। इनमें 'अक्षर' से क्या तात्पर्य * अभिहित है? संचलन (क्षरण क्षति, नाश) अर्थ में 'क्षर' धातु है। जो क्षरित नहीं होता, वह 4 'अक्षर' होता है, वह ज्ञान या चेतना (ही 'अक्षर') है- यह 'अक्षर' शब्द का वाच्य अर्थ है। , 6 चूंकि वह अनुपयोग (उपयोगरहित अवस्था) में भी प्रच्युत नहीं होता, इसलिए वह (चेतना या , ज्ञान) 'अक्षर' है, अथवा जो पदार्थों का क्षरण नहीं करता और न ही क्षीण होता है, वह 1 ce 'अक्षर' है। वह संक्षेप में तीन प्रकार का होता है-संज्ञाक्षर, व्यञ्जनाक्षर और लब्ध्यक्षर। इनमें संज्ञाक्षर (से तात्पर्य) है- अक्षर सम्बन्धी विशेष आकार, जैसे घटिका (छोटा घड़ा) के है & आकार वाला धकार, और कुरुण्टिका (पीला सदाबहार या कटसरैया फूल) के आकार ? वाला चकार, आदि-आदि। वह संज्ञाक्षर (भी) ब्राह्मी आदि (विविध) लिपियों के अनुरूप & अनेक प्रकार का होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तथा व्यानाक्षरम्, व्यज्यतेऽनेनार्यः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनम्, व्यञ्जनम् च तदक्षरं ca चेति व्यञ्जनाक्षरम्, तच्चेह सर्वमेव भाष्यमाणं अकारादि हकारान्तम्, अर्थाभिव्यजकत्वाच्छब्दस्य। तथा योऽक्षरोपलम्भः तत् लब्यक्षरम्, तच्च ज्ञानम् इन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतग्रन्थानुसारि , तदावरणक्षयोपशमो वा। अत्र संज्ञाक्षरं व्यानाक्षरं च द्रव्याक्षरमुक्तम् , , श्रुतज्ञानाख्यभावाक्षरकारणत्वात्।लब्यक्षरं तु भावाक्षरम्, विज्ञानात्मकत्वादिति। तत्र, अक्षरशुतमिति अक्षरात्मकं श्रुतं अकारचुतम्, द्रव्याकराण्यधिकृत्य, अथवा अक्षरंच तत् श्रुतं च / अक्षारश्रुतम्, भावाक्षरमजीकृत्य९॥ . (वृत्ति-हिन्दी-) व्यअनाक्षर में दो पद हैं- व्यञ्जन और अक्षर। जिस प्रकार प्रदीप द्वारा घट अभिव्यक्त होता है, उसी प्रकार जिसके द्वारा पदार्थ व्यक्त होता है। वह 'व्यञ्जन' होता है, व्यञ्जन (स्वरूप वाला) जो अक्षर, वह 'व्यञ्जनाक्षर' है। अकार से लेकर हकार तक , & भाषित होने वाले समग्र शब्दादि व्यञ्जनाक्षर हैं, क्योंकि शब्द अर्थों के अभिव्यञ्जक माने जाते " व हैं। जो अक्षर की उपलब्धि है, वह लब्ध्यक्षर है। वह इन्द्रिय व मन के निमित्त से होने वाला , ज्ञान या श्रुत ग्रन्थ का अनुसरण करने वाला श्रुतज्ञानावरण-क्षयोपशम (ही लब्ध्यक्षर) है। , इन (तीनों) में संज्ञाक्षर और व्यञ्जनाक्षर -ये द्रव्याक्षर कहे गये हैं, क्योंकि ये श्रुतज्ञान रूप - @nce@78c98c0000000000000 149 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222233333232323323222222222323232223322222 -acacacecacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 भावाक्षर के कारण होते हैं। किन्तु लब्ध्यक्षर भावाक्षर रूप है, क्योंकि वह विज्ञान-रूप है। यहां अक्षरश्रुत का (द्विविध) अर्थ है- (1) द्रव्याक्षरों की दृष्टि से अक्षरात्मक श्रुत और (2) , G भावाक्षर की दृष्टि से अक्षर श्रुत (अर्थात् वह श्रुत जो अक्षर है)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 19 // विशेषार्थ श्रुतज्ञान के 14 भेद (निक्षेप) यहां निरूपित किये गये हैं। यहां अक्षरश्रुत व अनक्षर श्रुत का ca भेद जो किया गया है, वह अक्षर व संकेत के आधार पर होने वाले द्विविध ज्ञानों की अपेक्षा से है। वर्ण, पद, वाक्य आदि बोल कर भी ज्ञान कराया जा सकता है और अनक्षरात्मक यानी संकेतात्मक 4 (निरर्थक) ध्वनियों द्वारा भी कराया जा सकता है। भावश्रुत ज्ञान के कारण होने से द्रव्यश्रुत इन्हें कहा है जा सकता है। इसी प्रकार, संज्ञिश्रुत व असंज्ञि श्रुत का भेद जो किया गया है, वह मानसिक विकास ca या समनस्क-अमनस्क (वस्तुतः संज्ञी या असंज्ञी) व्यक्तियों के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से है। ज्ञाता सम्यक् दृष्टि है या मिथ्यादृष्टि है, उसके ज्ञान के आधार पर सम्यक्श्रुत व असम्यक्श्रुत -ये दो भेद किये गये हैं। कालावधि के आधार पर सादि-अनादि श्रुत भेद हैं। ज्ञान सामान्य की दृष्टि & से 'श्रुत' अनादि है तो व्यक्ति-विशेष की दृष्टि से अनादि है। इसी तरह, प्रवर्तनमान असवर्पिणी के . भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रुत 'सादि' है तो अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल-चक्र की दृष्टि से / & 'श्रुत' भी अनादि है। रचना-शैली की अपेक्षा से गमिक व अगमिक -ये श्रुत भेद किये गये है। जो है रचना भंग-गणित प्रधान या सदृश पाठ प्रधान होती है, उसकी संज्ञा गमिक श्रुत है। विसदृश पाठ ca प्रधान रचना अगमिक है। दृष्टिवाद को गमिक तथा आचारांग आदि कालिक़ श्रुत को आगमिक कहा a गया है (वस्तुतः यह कथन बहुलता की अपेक्षा से समझना चाहिए)। कालिक श्रुत एवं दृष्टिवाद में जो चतुर्भंग आदि विकल्प कहे गये हैं, तथा संकलन (जोड़ करना) आदि गणित का वर्णन है और क्रियाविशाल 'पूर्व' में जो छन्द प्रकरण हैं, ये सभी गमिक हैं। प्रयोजनवश अगमिक श्रुत में भी कहीं कहीं सदृश पाठ की रचना शैली अपनाई गई है, उदाहरणार्थ- निशीथ सूत्र का बीसवां उद्देशक, शेष व गाथा, श्लोक आदि विसदृश पाठ होने से अगमिक हैं। अंग-अनंग श्रुत का भेद जो है, वह ग्रन्थकर्ता या c. प्रवचनकार की अपेक्षा से है। गणधरों द्वारा रचित आगम अंग (अंगप्रविष्ट) श्रुत हैं, और उन आगमों , / के आधार पर स्थविरों द्वारा निर्मूढ आगम अनंग (अंगबाह्य) श्रुत हैं। अथवा गणधर-कृत त्रिपृच्छा के " प्रत्युत्तर में तीर्थंकर का उत्पाद व्यय ध्रौव्यत्मक जो आदेश-प्रतिवचन है, उससे निष्पन्न है-अंगप्रविष्ट / - 150 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)920 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RecemRecence හ හ හ හ හ හ හ හ හ नियुक्ति गाथा-19 प्रश्न पूछे बिना, तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित अर्थ, मुक्त व्याकरण (व्याख्यान) से निष्पन्न अंगबाह्य आगम c& है। आ. पूज्यपाद के अनुसार (उत्तरवर्ती) आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थ अंगबाह्य (अनंग) आगम हैं। a श्रुतज्ञान के भेदों की संख्या-नन्दीसूत्र (चतुर्थ प्रकरण, परोक्ष श्रुत ज्ञान) में इन्हीं चौदह भेदों से & का निरूपण किया गया है। किन्तु परवर्ती ग्रन्थों-जैसे तत्त्वार्थसूत्र में श्रुतज्ञान के दो, अनेक व बारह . & भेद किये गये हैं। (द्र. तत्त्वार्थसूत्र, 1/2, श्रुतं मतिपूर्वं व्यनेकद्वादशभेदम्)। कर्मग्रन्थ में श्रुतज्ञान के . चौदह भेदों के साथ-साथ बीस प्रकार का भी निरूपण किया है (कर्मग्रन्थ, भाग-1, गाथा-6-7)। इसी बीस भेदों की परम्परा का दर्शन षट्खण्डागम व गोम्मटसार (दिगम्बर ग्रन्थों) में भी होता है। अक्षरश्रुत- जिसका कभी क्षरण नहीं होता वह अक्षर है। चूंकि ज्ञान अनुपयोग अवस्था में , CM (विषय के प्रति दत्तचित्तता न होने पर) भी प्रच्युत नहीं होता, इसलिए वह अक्षर है। जिनभद्रगणि ने नयदृष्टि से ज्ञान के क्षर और अक्षर इस उभयात्मक स्वरूप की चर्चा की है। नैगम आदि अविशुद्ध & नयों की दृष्टि में ज्ञान अक्षर है, उसका प्रच्यवन नहीं होता। ऋजुसूत्र आदि नयों की दृष्टि में ज्ञान क्षर , & है। अनुपयोग अवस्था में उसका प्रच्यवन होता है। घट आदि अभिलाप्य पदार्थ द्रव्यार्थिक दृष्टि से नित्य हैं. अक्षर यार्थिक दृष्टि से अनित्य हैं,क्षर हैं। यद्यपि सकल ज्ञान अक्षर है फिर भी रूढ़िवशात् वर्ण को अक्षर कहा जाता है। कार ने यहां अक्षर के तीन भेद किए हैं- 1. संज्ञाक्षर 2. व्यअनाक्षर 3. लब्ब्यक्षर। & नन्दी-चूर्णिकार ने अक्षर के तीन प्रकार भिन्न रूप से बतलाए है- 1. ज्ञानाक्षर, 2. अभिलाषाक्षर, 3. 2 वर्णाक्षर / भाषा विज्ञान सम्मत शब्द की तीन प्रकृतियों से इनकी तुलना की जा सकती है 1. चक्षुराह्य प्रकृति- लिपिशास्त्रगत रेखाएं। 2. श्रोत्र ग्राह्य प्रकृति- उच्चारणशारत्रगत है ध्वनियां / 3. बुद्धि ग्राह्य प्रकृति- वस्तु का अवधारक अर्थ। संज्ञाक्षर-संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यहां संज्ञा का अर्थ संकेत है। अक्षर के जिस संस्थान अथवा आकृति मे जिस अर्थ का संकेत स्थापित किया जाता है, वह अक्षर संकेत के अनुसार, ही अर्थ बोध कराता है। इस संज्ञाक्षर के आधार पर ब्राह्मी आदि सभी लिपियों का विकास हुआ है। 8 नन्दी-चूर्णिकार ने इसे उदाहरण के द्वारा समझाया है। वृत्त और घट की आकृति वाले वर्ण को देखने , स पर 'ठ' की संज्ञा उत्पन्न हो जाती है। मलयगिरि ने णकार और ढकार की आकृति का निदर्शन , & प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार णकार चूल्हे की आकृति वाला और ढकार कुत्ते की वक्रीभूत पूंछ की " | आकृति वाला होता है। मलधारी हेमचंद्र के अनुसार टकार अर्द्धचंद्र की आकृति वाला होता है। 333333333333333333333333333333333333333333333 / 88cIO0BR@neck@BROn@@ce@@ 151 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -acacacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 00000000 222222222222222222222222222222222222222222222 / व्यञ्जनाक्षर- अकारादि का उच्चारण व्यञ्जनाक्षर है। इससे अर्थ की अभिव्यञ्जना होती है।। ca इसलिए इसका नाम व्यञ्जनाक्षर है। लब्ध्यक्षर- इन्द्रिय और मन इस उभयात्मक विज्ञान से अक्षर का लाभ होता है, उसकी / संज्ञा लब्धि अक्षर है। हरिभद्र और मलयगिरि ने श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम और श्रुतज्ञान का . उपयोग-इन दोनों को लब्धि अक्षर बतलाया है। मलयगिरि ने प्रश्न उपस्थित किया है कि लब्धि अक्षर अक्षरानुविद्ध ज्ञान है, इसलिए वह समनस्क जीवों के ही हो सकता है। अमनस्क जीव अक्षर को पढ़ नहीं सकते और उसके उच्चारण को समझ नहीं सकते। उनके लब्धि अक्षर संभव नहीं है। इस प्रश्न पर समाधान प्रस्तुत किया हैca आ. जिनभद्र गणी ने / उन्होंने विशेषावश्यक भाष्य में पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों में भावश्रुत स्वीकार किया जो शब्द और अर्थ की पर्यालोचना से होने वाला विज्ञान है। शब्दार्थ का पर्यालोचन अक्षर के बिना नहीं हो सकता। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि अमनस्क जीवों के अव्यक्त अक्षर लाभ होता है। उससे अमनस्क जीवों में अक्षरानुषक्त श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इस तथ्य की पुष्टि के लिए आहार आदि की अभिलाषा की चर्चा की गई है। अभिलाषा का अर्थ है 'मुझे वह वस्तु मिले' यह अभिलाषा अक्षरानुविद्ध होती है इसलिए एकेन्द्रिय आदि अमनस्क जीवों में अव्यक्त अक्षर लब्धि , अवश्य स्वीकार्य है। प्रज्ञापना (पद-11) में प्रतिपादित भाषा विज्ञान और आधुनिक विज्ञान के प्रकंपन की दृष्टि से " a 'लब्धि अक्षर' पर नयी दृष्टि से विचार किया जा सकता है। एकेन्द्रिय आदि अमनस्क जीव ध्वनि के , प्रकंपनों को पकड़ लेते हैं और उन्हें अव्यक्त अक्षर के रूप में बदल देते है। इसे फेक्स मशीन की : प्रक्रिया से भी समझा जा सकता है। एकेन्द्रिय जीवों में भाषा नहीं होती। वे अपनी बात दूसरों तक, प्रकंपनों के माध्यम से पहुंचाते हैं। द्वीन्द्रिय जीवों से भाषा का प्रारम्भ होता है। त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय " और पञ्चेन्द्रिय सब भाषा का प्रयोग करते हैं। इनकी भाषा अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक, दोनों " प्रकार की होती है। अक्षर और लिपि की व्यवस्था मनुष्य ने की। कीट, पतंगों और पशु पक्षियों के . पास अक्षर और लिपि की व्यवस्था नहीं है।] धवला में अक्षर के तीन भेद इस प्रकार हैं-1.लब्धि अक्षर-ज्ञानावरण का क्षायोपशमिक भाव। 2. निवृत्ति अक्षर- अक्षर का उच्चारण-इसकी तुलना व्यञ्जनाक्षर से होती है। निर्वृत्ति अक्षर के , दो प्रकार है- व्यक्त और अव्यक्त। समनस्क पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय का अक्षर व्यक्त होता है। अव्यक्त अक्षर " द्वीन्द्रिय से लेकर अमनस्क पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तक होता है। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 152 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRR ග ග ග ග ග ග ග ග ග - ** - && 222222222223333333332223323 नियुक्ति गाथा-20 (हरिभद्रीय वृत्तिः) उक्तमक्षरश्रुतम्, इदानीमनक्षरश्रुतस्वरूपाभिधित्सयाह (नियुक्तिः) ऊससिनीससिअं, निच्छूढं खासिअंच छीअंच। णीसिंघियमणुसारं, अणक्खरं छेलियाईअं॥२०॥ [संस्कृतच्छायाः-उच्छ्वसितं निःश्वसितं निष्ठयूतं कासितं च श्रुतं च / निःसिङ्घितमनुस्वारमनक्षरं & सेण्टितादिकम् // (वृत्ति-हिन्दी-) अक्षरश्रुत का निरूपण हुआ। अब अनक्षर श्रुत के स्वरूप के निरूपण की इच्छा से (आगे की गाथा) कह रहे हैं (20) (नियुक्ति-अर्थ-) उच्छ्वास, निःश्वास, थूकना, खांसना, छींकना, नाक साफ करना, . अनुस्वार (अनुस्वार तुल्य-सानुनासिक ध्वनि, या नासिकाप्रधान ध्वनि), सीटी बजाना -ये अनक्षर (श्रुत के अन्तर्गत) हैं। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) उच्छ्वसनम् उच्छ्वसितम्, भावे निष्ठाप्रत्ययः।तथा निःश्वसनं निःश्वसितम्, निष्ठीवनं निष्ठ्यूतम्, काशनं काशितम्, चशब्दः समुच्चयार्थः, क्षवणं क्षुतम्, चशब्दः समुच्चयार्थ व एव, अस्य च व्यवहितः संबन्धः। कथम्! सेण्टितं चानक्षरश्रुतमिति वक्ष्यामः। निःसिङ्घनं ca निःसिवितम्। अनुस्वारवदनुस्वारम्, अनक्षरमपि यदनुस्वारवदुच्चार्यते हुङ्कारकरणादिवत् तत् // & 'अनक्षरमिति'। एतदुच्छ्वसितादि अनक्षरश्रुतमिति। सेण्टनं सेण्टितं तत्सेण्टितं च . अनक्षरश्रुतमिति। इह चोच्छ्वसितादि द्रव्यश्रुतमात्रम्, ध्वनिमात्रत्वात्, अथवा , श्रुतविज्ञानोपयुक्तस्य जन्तोः सर्व एव व्यापारः श्रुतम्, तस्य तद्भावेन परिणतत्वात्। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) उच्छ्वसित यानी उच्छ्वसन (ऊंची सांस लेना), यहां - & उद् उपसर्ग-पूर्वक 'श्वसक्' धातु से 'भाव' अर्थ में निष्ठासंज्ञक (क्त) प्रत्यय हुआ है। इसी , तरह निःश्वसित यानी निःश्वसन (सांस छोड़ना), निष्ठ्यूत यानी निष्ठीवन (थूकना), काशित : * यानी काशन (खांसना)। 'च' यहां समुच्चयार्थक है (अर्थात् 'और' इस अर्थ को अभिव्यक्त कर रहा है)।क्षुत (छींकना) यानी क्षवण / इसके आगे आये 'च' का भी समुच्चय अर्थ है, और - 808c98c98c98c&(r)(r)(r)(r)(r)(r) 153 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& 22222222222 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cace cecace cece श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 90099 90 90 900| इसका सम्बन्ध व्यवहित है (अर्थात इसका सम्बन्ध बीच के पदों को छोड कर आगे से है।।। ce किस प्रकार (सम्बन्ध है)? (उत्तर-) 'च' का सम्बन्ध 'सेण्टितादि' के साथ है। (अर्थात् , हमारी विवक्षा यह है कि और सेण्टितादि (सीटी बजाना आदि) अनक्षर श्रुत हैं' / निःसिधित . CM यानी निःसिङ्घन। (नाक का मल निकालना)। अनुस्वार यानी अनुस्वार तुल्य, अर्थात् / CM अनक्षर भी यदि हुंकार आदि तरह अनुस्वार की तरह (या सानुनासिक) बोला जाय तो वह 1 cm अनक्षर श्रुत है। ये उच्छ्वसित आदि भी अनक्षरश्रुत हैं। सेण्टन यानी मुख से सीटी की / ce आवाज निकालना, वह भी अनक्षर श्रुत है। उच्छ्वसित (श्वास खींचना, निकालना) आदि " द्रव्यश्रुत मात्र हैं, क्योंकि ये ध्वनि रूप है। अथवा श्रुत-विज्ञान से उपयुक्त (श्रुतज्ञान में प्रवृत्त) " a प्राणी का सारा ही (संकेतपरक) व्यापार 'श्रुत' है, क्योंकि वह शारीरिक संकेत रूप व्यापार) उस (श्रुत) रूप में परिणत हो जाता है। ca (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-यद्येवं किमित्युपयुक्तस्य चेष्टापि श्रुतं नोच्यते? येनोच्छ्वसिताद्येवोच्यते इति। " ca अत्रोच्यते, रूढ्या, अथवा श्रूयत इति श्रुतम्, अन्वर्थसंज्ञामधिकृत्य उच्छ्वसिताद्येव श्रुतमुच्यते, . न चेष्टा, तदभावादिति।अनुस्वारादयस्तु अर्थगमकत्वादेव श्रुतमिति गाथार्थः। . (शंका-) यदि ऐसी (उपर्युक्त) बात है तो (श्रुतज्ञान) उपयोग-युक्त व्यक्ति की चेष्टा को , & ही श्रुत क्यों नहीं कह देते, क्योंकि चेष्टा से ही तो उच्छ्वसित आदि उच्चरित होते हैं? यहां . CM उत्तर दे रहे हैं- रूढ़ि से या जो सुना जाता है, वह श्रुत है -इस अन्वर्थसंज्ञा के आधार पर 4 उच्छ्वास आदि को ही श्रुत कहा जाता है, चेष्टा को नहीं, क्योंकि उसमें श्रवणयोग्यता का 8 अभाव है। अनुस्वार आदि में तो अर्थप्रतिपादक होने से 'श्रुत' रूपता है ही। यह गाथा का 4 (शाब्दिक) अर्थ हुआ। विशेषार्थ यह गाथा नन्दी सूत्र (चतुर्थ प्रकरण, परोक्षश्रुतज्ञान, सू. 60) में भी निर्दिष्ट है। जीव की जो " & चेष्टाएं घ्वन्यात्मक हैं और जो सांकेतिक अर्थ को व्यक्त करने की क्षमता भी रखती हैं, वे ही यहां - & अनक्षर श्रुत मानी गयी हैं- ऐसा नियुक्तिकार का अभिमत प्रतीत होता है। यदि कोई जमीन में डंडा ce मार कर ध्वनि करे तो उसका यहां ग्रहण नहीं है, हालांकि ध्वन्यात्मक कोई न कोई संकेत उससे हो / ही सकता है। (उक्त ध्वनि जो होती है, वह डंडे के भूमि पर होने वाले आघात से है, न कि मात्र कायिक चेष्टा से) - 154 -888888888888888888888888888888888888888.8 (r)(r)(r)(r)(r)(r)8890@cR98080888909 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RecemRRRRR 20902090209000 नियुक्ति-गाथा-20 (हरिभद्रीय वृत्तिः) उक्तमनक्षरश्रुतद्वारम्, इदानीं 'संज्ञिद्वारम्'।तत्र संज्ञीति कः शब्दार्थः?, संज्ञानं संज्ञा, . संज्ञाऽस्यास्तीति संज्ञी।सच त्रिविधः-दीर्घकालिकहेतुवाददृष्टिवादोपदेशाद्, यथा नन्यध्ययने : & तथैव द्रष्टव्यः। ततश्च संज्ञिनः श्रुतं संज्ञिश्रुतम्, तथा असंज्ञिनः श्रुतम् असंज्ञिश्रुतमिति।तथा 'सम्यश्रुतम्' अङ्गानङ्गप्रविष्ठम् आचारावश्यकादि।तथा मिथ्याश्रुतम्' पुराणरामायणभारतादि, ल सर्वमेव वा दर्शनपरिग्रहविशेषात् सम्यक्श्रुतमितरद्वा इति। तथा 'साद्यमनाचं सपर्यवसितमपर्यवसितं च' नयानुसारतोऽवसेयम् / तत्र " द्रव्यास्तिकनयादेशाद् अनाद्यपर्यवसितंच, नित्यत्वात्, अस्तिकायवत्।पर्यायास्तिकनयादेशात् सादि सपर्यवसितंच, अनित्यत्वात्, नारकादिपर्यायवत् / अथवा द्रव्यादिचतुष्टयात् साधनाद्यादि अवगन्तव्यम्, यथा नन्द्यध्ययने इति। (वृत्ति-हिन्दी-) अनक्षर श्रुत का निरूपण हुआ। अब ‘संज्ञी' द्वार का कथन करना , है। यहां 'संज्ञी' का शब्दिक अर्थ क्या है? संज्ञा यानी संज्ञान (विकसित ज्ञान)। 'संज्ञा' से सम्पन्न व्यक्ति संज्ञी' होता है। वह तीन प्रकार का है- दीर्घकालिक, हेतुवाद और दृष्टिवादोपदेश, 8 जैसा कि नन्दी अध्ययन में निरूपित है, वैसा ही (इनके स्वरूपादि को) समझ लेना चाहिए। तदनुसार संज्ञी का श्रुत ‘संज्ञीश्रुत' है और असंज्ञी का श्रुत 'असंज्ञी श्रुत' है। इसी तरह, 1 a अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट (अंगबाह्य) आचारांग व आवश्यक सूत्र आदि 'सम्यक्श्रुत' हैं। " * पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ मिथ्याश्रुत हैं। अथवा (चाहे सम्यक् श्रुत हो या " मिथ्याश्रुत हो) सभी दर्शन-परिग्रह विशेष (दृष्टि की समीचीनता या असमीचीनता) के आधार , पर सम्यक्श्रुत या इतर (मिथ्याश्रुत) हो जाते हैं। 4 और सादि श्रुत, अनादिश्रुत, सपर्यवसित श्रुत, अपर्यवसित श्रुत -इन्हें नयों के , अनुसार समझ लेना चाहिए। (जैसे-) द्रव्यास्तिक नय की अपेक्षा से जिस प्रकार 'अस्तिकाय' नित्य है, उसी प्रकार श्रुत भी अनादि व अपर्यवसित (अनन्त) है। किन्तु पर्यायास्तिक नय की अपेक्षा से नरकादि पर्याय की तरह अनित्य होने से श्रुत सादि व सपर्यवसित (सान्त) है। ca अथवा द्रव्यादिचतुष्टय (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव -इन) के आधार पर (भी) श्रुत को, जैसा कि नन्दी अध्ययन में प्रतिपादित है, सादि या अनादि समझना चाहिए। -222222322323222333333333333333333333333333333 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 155 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 cace caca cacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000(हरिभद्रीय वृत्तिः) खलुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, तस्य च व्यवहितः संबन्धः। सप्तैव एते' श्रुतपक्षाः सप्रतिपक्षाः, न पक्षान्तरमस्ति, सतोऽत्रैवान्तर्भावात्।तथा गमा अस्य विद्यन्ते इति गमिकम्, & तच्च प्रायोवृत्त्या दृष्टिवादः।तथा गाथाद्यसमानग्रन्थम् अगमिकम्, तच्च प्रायःकालिकम्।तथा : व अङ्गप्रविष्टं गणधरकृतम् आचारादि, अनङ्गप्रविष्टं तु स्थविरकृतम् आवश्यकादि। गाथाशेषमवधारणप्रयोगं दर्शयता व्याख्यातमेवेति गाथार्यःRO॥ (वृत्ति-हिन्दी-) 'खलु' शब्द का 'एव' ('ही') अर्थ है। (अर्थात्) वह अवधारण अर्थ ce को व्यक्त करता है और उसका व्यवहित (आगे किसी पद के साथ) सम्बन्ध है, अर्थात् (यहां से ca सावधारण अर्थ इस प्रकार व्यक्त हुआ समझें-) ये सात ही श्रुतनिक्षेप हैं और इनके सात ही , प्रतिपक्ष भी हैं, कोई अन्य पक्ष (निक्षेप, भेद) नहीं है (अर्थात् छः भेद या आठ भेद, अथवा .. समग्रतया बारह भेद या सोलह भेद आदि नहीं हो सकते)। यदि कोई दूसरा पक्ष हो भी तो , वह इन्हीं (सातों या चौदह) भेदों में अन्तर्भूत है। और गमिक यानी जिसका ‘गम' हो / (सदृशता से बोधनीय) हो। जैसे- दृष्टिवाद 'गमिक' है, यह कथन प्रायोवृत्ति (बहुलता) के आधार पर है। गाथा आदि जो असमान (असदृश पाठ वाले) ग्रन्थ हैं, वे अगमिक हैं, यह कथन भी प्रायःकालिक (बहुलता के आधार पर) है। अंगप्रविष्ट वे श्रुत हैं जिनकी गणधरों ने & (शाब्दिक) रचना की है। स्थविरों द्वारा रचित आवश्यक आदि अनंगप्रविष्ट हैं। इस प्रकार ca अवधारण-प्रयोग (एवकार, 'ही' के साथ) को स्पष्ट करते हुए गाथा के शेष भाग की भी & व्याख्या हो गई। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 20 // ce विशेषार्थ नन्दी सूत्र (चतुर्थ प्रकरण, परोक्ष श्रुतज्ञान) में संज्ञा के स्वरूप व भेदों का, सम्यक्श्रुत- " & मिथ्याश्रुत के भेदगत आधार का, और अंगप्रविष्ट व अनंग प्रविष्ट का प्रतिपादन किया गया है। 'संज्ञी' से यहां तात्पर्य है- जिनमें संज्ञान हो, जिनमें इष्ट की प्राप्ति हेतु प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्त होने की क्रिया हो, वे 'संज्ञी' है। संज्ञा के तीन प्रकार हैं- दीर्घकालिकी, हेतूपदेशिकी और . दृष्टिवादोपदेशिकी। (1) कालिकी संज्ञाः यह संज्ञा का विकसित रूप है, इसका अधिकारी गर्भज पंचेन्द्रिय होता . है। देव व नारकी भी इसके अधिकारी होते हैं। आगमों में जहां कहीं भी 'संज्ञी' का प्रयोग मिलता है, 7777773333333333333333333333333333333333338 - 156 80 @980@ @ @ @ @ @ @caen. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -tececacaceence 299999999999 2.333333333333333333333333322 नियुक्ति गाथा-20 वहां यह समझना चाहिए कि वहां इसी 'कालिकी' संज्ञा को आधार माना गया है (द्र. नंदी चूर्णि, ca पृ.46, जस्स सण्णा भवति सो आदिपदलोवतो कालिओवदेसेणं सण्णीत्यर्थः)। चूर्णिकार के अनुसार, " कालिकी लब्धि से सम्पन्न प्राणी मनोवर्गणा के अनन्त परमाणुओं का ग्रहण कर मनन करता है। ce कालिकी संज्ञा के द्वारा अतीत की स्मृति, वर्तमान का चिन्तन तथा भविष्य की कल्पना -इन तीनों " ca कालखण्डों का ज्ञान होता है। तत्त्वार्थ भाष्य में इसे संप्रधारण संज्ञा से अभिहित किया गया है (द्र. त. " भाष्य-2/25)। इस संज्ञा के छः कार्य हैं- (1) ईहा- शब्द आदि अर्थ के विषय में अन्वय व व्यतिरेक, धर्मों का विचार, जैसे यह क्या है? (2) अपोह- व्यतिरेक धर्म का परित्याग कर अन्वयी धर्म का ca अवधारण, निश्चय, जैसे- यह खम्भा है। (खम्भे में ही पाए जाने वाले धर्म- अन्वय धर्म हैं, और " & उसमें नहीं पाये जाने वाले धर्म व्यतिरेक धर्म हैं।) (3) मार्गणा- विशेष धर्म का अन्वेषण करना। " मधुर व गम्भीर ध्वनि के कारण 'यह शब्द शेख का है' -यह जानना (4) गवेषणा- ध्वनि के सम्बन्ध में स्वभावजन्य-प्रयोगजन्य, नित्य-अनित्य आदि का विचार करना / (5) चिन्ता- यह कार्य किस . प्रकार किया जाय -यह चिन्तन / (6) विमर्श- त्याज्य धर्म का परित्याग तथा उपादेय धर्म को ग्रहण 1 ca करने के प्रति अभिमुख होना। इन्हीं ईहा आदि को महर्षि चरक ने मन के पांच कार्यों के रूप में 5 & अभिव्यक्त किया है- (1) चिन्त्य (2) विचार्य (3) ऊह्य (4) ध्येय, (5) संकल्प (द्र. वरकसंहिता, 1/3 820) / 2. हेतूपदेशिकी संज्ञा- यह मानसिक चेतना से या कालिकी संज्ञा से निम्नस्तर की वेतना का विकास है, कालिकी संज्ञा त्रैकालिक होती है। हेतूपदेशिकी संज्ञा प्रायः वर्तमान कालिक होती है। कहीं-कहीं अतीत और अनागत का चिन्तन भी होता है किन्तु दीर्घकालिक चिन्तन नहीं होता। हेतूपदेशिकी संज्ञा के विकास में अभिसंधारण -अव्यक्त चिन्तन होता है, इसलिए इस संज्ञा 0 a वाले जीव अपनी क्रियात्मक शक्ति में अव्यक्त चिन्तन का प्रयोग करते हैं। वे चिंतनपूर्वक आहार आदि " इष्ट विषयों में प्रवृत्त होते हैं और अनिष्ट विषयों से निवृत्त होते हैं। हेतूपदेशिकी संज्ञा के आधार पर जीवों के संज्ञी और असंज्ञी -ये दो विभाग किए गए हैंजिस जीव में अभिसंधारणपूर्वक क्रिया शक्ति होती है, वह हेतूपदेशिकी संज्ञा की दृष्टि से संज्ञी है, . जैसे- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और संपूर्छिम पञ्चेन्द्रिय जीव / जिस जीव में अभिसंधारणपूर्वक ca क्रिया शक्ति नहीं होती, वह हेतूपदेशिकी संज्ञा की दृष्टि से असंज्ञी है। पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय " / जीवों की चेतना मत्त, मूर्छित और विष-परिणत चेतना तुल्य होती है। वे इष्ट के लिए प्रवृत्त और अनिष्ट , से निवृत्त होने में समर्थ नहीं होते। 2323222333333 (r) (r)cR@ @ @ @Ren@R@ @ RO908 157 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 - RECR caca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9090099 90 900 3. दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा-संज्ञी और असंज्ञी का तीसरा वर्गीकरण दृष्टि अथवा दर्शन के * आधार पर किया गया है। इसके अनुसार सम्यक्दृष्टि जीव संज्ञी और मिथ्यादृष्टि जीव असंज्ञी होते ल हैं। मिथ्यात्व मोहनीय और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से संज्ञीश्रुत की प्राप्ति होती है। मिथ्यात्व मोहनीय के उदय और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से असंज्ञीश्रुत की प्राप्ति होती है व है। संज्ञी का श्रुत संज्ञीश्रुत, और असंज्ञी का श्रुत असंज्ञीश्रुत कहलाता है। जैसे कुत्सित शील को अशील कहा जाता है वैसे ही मिथ्यात्व से कुत्सित होने के कारण संज्ञी को असंज्ञी कहा गया है। मिथ्यात्व के कारण उसका ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है। उक्त तीनों संज्ञाओं के आधार पर संज्ञी-असंज्ञी का विभाग इस प्रकार होता हैसंज्ञा संज्ञी असंज्ञी कालिक्युपदेशिकी समनस्क पंचेन्द्रिय सम्मूर्छिम प्राणी हेतुवादोपदेशिकी द्वीन्द्रिय से सम्मूर्छिम पञ्चेन्द्रिय . एकेन्द्रिय द्रष्टिवादोपदेशिकी सम्यकदृष्टि मिथ्यादृष्टि सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत के विभाग के दो आधार हैं- 1. ग्रंथकार, 2. स्वामित्व। केवली द्वारा प्रणीत श्रुत सम्यक्श्रुत है। मिथ्यादृष्टि द्वारा रचित श्रुत मिथ्याश्रुत है। स्वामित्व की अपेक्षा द्वादशांग श्रुत चतुर्दशपूर्वी के लिए सम्यक्श्रुत है। नन्दी चूर्णिकार और . & टीकाकार मलयगिरि ने त्रयोदशपूर्वी, द्वादशपूर्वी, एकादशपूर्वी -इन अन्तरालवर्ती पूर्वधरों का भी , उल्लेख किया है। जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यक भाष्य में अङ्गबाह्य श्रुत को भी सम्यक्श्रुत बतलाया & है।नब्दीचूर्णिकार के मत में अभिन्न दशपूर्वधर से नीचे आचारांग तक के सभी श्रुतस्थान सम्यक्दृष्टि स्वामी के लिए सम्यक्श्रुत हैं, मिथ्यादृष्टि स्वामी के लिए मिथ्याश्रुत हैं। श्रुत सम्यक् है, उसका अध्येता सम्यकदृष्टि है। वह अपने सम्यक्त्व गुण के कारण सम्यक्श्रुत को सम्यक् रूप में ग्रहण करता है। शर्करा युक्त दूध पित्त ज्वर वाले व्यक्ति के लिए अनुकूल नहीं होता, है वैसे ही मिथ्यादृष्टि सम्यक्श्रुत को मिथ्यात्व के कारण मिथ्या रूप में परिणत कर लेता है। इसलिए . सम्यक्श्रुत उसके लिए मिथ्या हो जाता है। सम्यक्दृष्टि मनुष्य मिथ्याश्रुत का सम्यक् रूप में ग्रहण ca करता है, अतः उसके लिए मिथ्याश्रुत सम्यक्श्रुत बन जाता है। मिथ्या अभिनिवेश के कारण, ce मिथ्याश्रुत मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्या ही रहता है। श्रुत की सादिता-अनादिता- टीकाकार ने द्रव्यचतुष्टय से श्रुत की सादिता-अनादिता का 2 विवेचन किया है। उसका सार इस प्रकार है - 158 @ @ @ @ @Rece@ @cR@ @ @ @ @ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRR 9000000000 काल 333333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-20 द्रव्य की दृष्टि से- एक पुरुष की अपेक्षा श्रुत के सादि-सपर्यवसित होने के अनेक हेतु हो ca सकते हैं। जिनभद्रगणि ने इसके पांच हेतु बतलाए हैं, नंदी चूर्णिकार और टीकाकारों ने भी उनका , M अनुसरण किया है 1. मिथ्यादर्शन में गमन, 2. भवान्तर में गमन, 3. केवलज्ञान की उत्पत्ति, 4. रोग, 5... प्रमाद अथवा विस्मृति। क्षेत्र की दृष्टि से- महाविदेह में श्रुत की निरंतरता रहती है, उसकी अपेक्षा द्वादशाङ्ग अनादि ca अपर्यवसित हैं। - काल की अपेक्षा महाविदेह में उत्सर्पिणी अवसर्पिणी का विभाग नहीं ce होता। इस अपेक्षा से नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी में द्वादशाङ्ग अनादि अपर्यवसित है। 4 भाव की दृष्टि से- भाव की अपेक्षा भगवान् महावीर ने द्वादशाङ्ग के अर्थ का प्रज्ञापन जिस " & काल- पूर्वाह्न, अपराह्न, दिन, रात में किया, वह द्वादशाङ्ग का आदि है। और प्रवचन की सम्पन्नता , का काल उसका पर्यवसान है। प्रज्ञापनीय भाव की अपेक्षा से भी द्वादशाङ्ग सादि सपर्यवसित होता है। प्रज्ञापक की अपेक्षा द्वादशाङ्ग सादि सपर्यवसित होता है। जिनभद्रगणि ने उसके चार हेतु बतलाए हैं- 1. श्रुत का उपयोग, 2. स्वर, ध्वनि, 3... प्रयत्न- तालु आदि का व्यापार, 4. आसन / ये प्रज्ञापक के भाव- पर्याय बदलते रहते हैं। इस व परिवर्तन की अपेक्षा द्वादशाङ्ग को सादि-सपर्यवसित कहा जा सकता है। व्याख्या ग्रन्थों में इनका ही " & अनुसरण किया गया है। इसी तरह, क्षायोपशमिक भाव नित्य है। उसकी अपेक्षा द्वादशाङ्ग अनादि अपर्यवसित है। अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट-जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यक भाष्य में अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य के भेदकारक हेतु बतलाए हैं-. अङ्गप्रविष्ट अङ्गबाह्य 1. अङ्गप्रविष्ट आगम गणधर के द्वारा रचित है। 1. अङ्गबाह्य आगम स्थविर के द्वारा रचित है। 2. गणधर द्वारा प्रश्न किए जाने पर तीर्थङ्कर 2. प्रश्न पूछे बिना तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित . द्वारा प्रतिपादित होता है। होता है। 3. शाश्वत सत्यों से संबंधित होता है और 3. चल होता है- तात्कालिक या सामयिक " सुदीर्घकालीन होता है। होता है। (r)90@ @ @cr@ @cr@ @ @ @ @ @ @ 159 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -cace ce ca cacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 नन्दी चूर्णिकार ने एक गाथा उद्धृत की है। उसका तात्पर्य भी यही है गणहरकतमंगगतं जं कतं थेरेहिं बाहिरं तं च / णियतं वंगपविजें अणियतसुत बाहिरं भणितं // उमास्वाति ने अङ्गबाह्य के कर्ता और उद्देश्य दोनों का निरूपण किया है। उनके अनुसार, M अङ्गबाह्य के रचनाकार आचार्य गणधर की परम्परा में होते हैं उनका आगम ज्ञान अत्यन्त विशुद्ध, ल होता है। वे परम प्रकृष्ट वाक्, मति, बुद्धि और शक्ति से अन्वित होते हैं। वे काल, संहनन, आयु की & दृष्टि से अल्पशक्ति वाले शिष्यों पर अनुग्रह कर जो रचना करते हैं वह अङ्गबाह्य है। आगम रचना के विषय में पूज्यपाद, अकलंक, वीरसेन और जिनसेन जैसे दिगम्बर 1 & आचार्यों का अभिमत भी ज्ञातव्य है। पूज्यपाद के अनुसार आगम के वक्ता तीन होते हैं- 1. सर्वज्ञ- 1 & तीर्थंकर अथवा अन्यकेवली, 2. श्रुतकेवली, 3. आरातीय (उत्तरवर्ती) आचार्य। सर्वज्ञतीर्थंकर ने , 8 अर्थागम का प्रतिपादन किया। आरातीय आचार्यों ने कालदोष से प्रभावित आयु, मति, बल को ध्यान / में रखकर अङ्गबाह्य आगमों की रचना की -ऐसा सर्वार्थसिद्धिकार (आ. पूज्यपाद) का मत है। " R अङ्गबाह्य आगम की रचना के विषय में अकलंक का अभिमत पूज्यपाद जैसा ही है। वीरसेन ने " षट्खण्डागम में अङ्गबाह्य के रचनाकार के रूप में इन्द्रभूति गौतम का उल्लेख किया है। , हरिवंशपुराणकार जिनसेन के अनुसार अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य का अर्थ महावीर ने बतलाया और म उन दोनों की रचना गौतम गणधर ने की। अतः अङ्गबाह्य आगम की रचना के विषय में प्रमुख मत तीन हैं 1. भगवान् महावीर के द्वारा अर्थ रूप में प्रतिपादन और गणधरों द्वारा उनकी रचना।। 2. इन्द्रभूति गौतम द्वारा अङ्गबाह्य की रचना। 3. आरातीय आचार्यों द्वारा अङ्गबाह्य की रचना / दशवैकालिक आदि अङ्गबाह्य आगम के c& रचनाकार श्रुतकेवली हैं, गणधर हैं। प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार आदि अङ्गबाह्य आगम रचना की भी यही स्थिति है। गमिक-अगमिक श्रुत-पाठ रचना शैली के आधार पर आगम श्रुत के दो विभाग किए गए 1 & हैं- 1. गमिक, 2. अगमिक। गम के दो अर्थ होते हैं- 1. भङ्ग, गणित, 2. सदृश पाठ। जो रचना 'भङ्ग प्रधान' अथवा , 'सदृश पाठ प्रधान' होती है, उसकी संज्ञा गमिक है। इसका प्रतिपक्ष अगमिक है। नन्दी चूर्णिकार | और नन्दी वृत्तिकारों ने गमिक का अर्थ 'सदृश पाठ प्रधान रचना-शैली' किया है। उनके अनुसार - 160 888890(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 333333333333333333333322333333333333333333333 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Racetance 9090902090900900 222333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-21 आदि, मध्य और अवसान में कुछ विशिष्ट पाठ होता है और शेष पाठ की पुनरावृत्ति अनेक बार होती cm है। इस शैली का प्रयोग प्रायः दृष्टिवाद में होता है। अगमिक की रचना शैली विसदृश होती है। " * आचारांग आदि कालिक सूत्र में इसी शैली का प्रयोग किया गया है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) सत्पदप्ररूपणादि मतिज्ञानवद् आयोज्यम् / प्रतिपादितं श्रुतज्ञानमर्थतः।साम्प्रतं , विषयद्वारेण निरूप्यते।तच्चतुर्विधम्-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो भावतश्च।तत्र द्रव्यतः श्रुतज्ञानी , सर्वद्रव्याणि जानीते, न तु पश्यति। एवं क्षेत्रादिष्वपि द्रष्टव्यम् / इदं पुनः श्रुतज्ञानं : सर्वातिशयरत्नसमुद्रकल्पम्, तथा प्रायो गुर्वायत्तत्वात् पराधीनं यतः, अतः विनेयानुग्रहार्थं यो यथा चास्य लाभः, तं तथा दर्शयन्नाह ___ (नियुक्तिः) आगमसत्यग्गहणं, जं बुद्धिगुणेहि अहिं दिढं। बिंति सुयनाणलंभं, तं पुलविसारया धीरा // 21 // [संस्कृतच्छायाः-आगमशास्त्रग्रहणं यद् बुद्धिगुणैः अष्टभिः निर्दिष्टम् ।बुवते श्रुतज्ञानलाभं तत् पूर्वविशारदाः धीराः।] ___(वृत्ति-हिन्दी-) श्रुत ज्ञान की सत्पदप्ररूपणा आदि का कथन मतिज्ञान की तरह कर c लेना चाहिए। इस प्रकार, अर्थतः श्रुतज्ञान की प्ररूपणा सम्पन्न हुई। अब श्रुत ज्ञान का c& विषय-द्वार (दृष्टि) से निरूपण किया जा रहा है। वह (श्रुत ज्ञान ग्राह्य विषय की दृष्टि से) चार क प्रकार का है- द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। इनमें श्रुतज्ञानी समस्त द्रव्यों को जानता है किन्तु देखता नहीं। इसी प्रकार क्षेत्रतः आदि में भी समझ लेना चाहिए। यह र & श्रुतज्ञान तो सर्वोत्कृष्ट रत्नसमुद्र जैसा है, और चूंकि यह प्रायः गुरुजनों के अधीन होने से पर-आश्रित होता है, अतः जिस रीति से और जो इसका लाभ है, उसे विनेय (शिष्य) जनों पर अनुग्रह करने की दृष्टि से स्पष्ट कर रहा हूं (21) a (नियुक्ति-अर्थ-) बुद्धि के आठ गुणों द्वारा जो आगम-शास्त्र का (अर्थतः) ग्रहण , ' होना बताया जाता है, उस (आगम-शास्त्र-ग्रहण) को ही 'पूर्व' ज्ञान-विशारद धीर (मुनि) : जनों ने 'श्रुतज्ञान की उपलब्धि' (रूप में) बताया है। 80@ca(r)(r)(r)(r)ce@@ce8082(r)ce@98 161 - Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222222222223333333333322222222222222222222 cacacacacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) आगमनं आगमः।आङ अभिविधिमर्यादार्यत्वाद् अभिविधिना मर्यादया . * वा गमः- परिच्छेद आगमः। स च केवलमत्यवधिमनःपर्यायलक्षणोऽपि भवति, . व अतस्तद्व्यवच्छित्त्यर्थमाह- शिष्यतेऽनेनेति शास्त्रं-श्रुतम्, आगमग्रहणं तु >> a षष्टितन्त्रादिकुशास्त्रव्यवच्छेदार्थ, तेषामनागमत्वात्, सम्यकपरिच्छेदात्मकत्वाभावादित्यर्थः, शास्त्रतया च रूढत्वात्।ततश्च आगमश्चासौ शास्त्रंच आगमशास्त्रं तस्य ग्रहणमिति समासः। गृहीतिम्रहणम्, यद्बुद्धिगुणैः वक्ष्यमाणलक्षणैः करणभूतैः अष्टभिः, दृष्टं, बुवते, श्रुतज्ञानस्य / लाभः श्रुतज्ञानलाभस्तम्, तदेव ग्रहणम्।बुवते, के?, पूर्वेषु विशारदाः पूर्वविशारदाः, विशारदा विपश्चितः, धीरा व्रतानुपालने स्थिराः, इत्ययं गाथार्थःR१॥ (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) आगम यानी आगमन / 'गम' का अर्थ है- परिच्छेद, . & आगम (ज्ञान)। 'आ' यह उपसर्ग है जिसका अभिविधि-मर्यादा (आरम्भिक सीमा) को अभिव्यक्त करता है। उक्त मर्यादा के साथ जो 'गम' (ज्ञान) होता है, वह 'आगम' है। उक्त , 'आगम' में अन्तर्गत केवल ज्ञान, मतिज्ञान, अवधिज्ञान व मनःपर्याय लक्षण भी घटित होते . हैं, अतः निराकरण हेतु (आगम के साथ-साथ) 'शास्त्र' कहा। शास्त्र यानी 'श्रुत' ज्ञान, . क्योंकि शास्त्र वह होता है जिससे शासित, शिक्षित किया जा सके। 'शास्त्र' के साथ-साथ 'आगम' के ग्रहण का प्रयोजन यह है कि षष्टितन्त्र (सांख्य) आदि जो कुशास्त्र हैं, उनका यहां ग्रहण न हो, क्योंकि वे अनागम हैं, आगम नहीं हैं, अर्थात् वे सम्यक्-ज्ञान रूप नहीं हैं / किन्तु शास्त्र रूप से (लोक में) रूढ़ (व्यवहृत) हैं। जो 'आगम' हो और वही 'शास्त्र' (भी) हो, (इस अर्थ में आगम व शास्त्र का कर्मधारय समास है), उसका ग्रहण यानी गृहीति।। व इस प्रकार (आगम शास्त्र का ग्रहण के साथ षष्ठी तत्पुरुष) समास है। जो आगे कहे जाने , वाले शास्त्र ग्रहण में करण (प्रमुख कारण) रूप बुद्धि-सम्बन्धी आठ गुणों द्वारा होना बताया है। ca गया है। उसे (ही) श्रुतज्ञान का लाभ होना कहते हैं। कौन कहते हैं? (उत्तर-) 'पूर्व' शास्त्रों से 4 में जो विशारद (पारंगत) विद्वान् हैं, और 'धीर' अर्थात् व्रत-पालन में स्थिरचित्त हैं (वे कहते . a हैं)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 21 || 162 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)cR@@@cR9900 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ReaRREnce नियुक्ति गाथा-22 9000000000 (हरिभद्रीय वृत्तिः) बुद्धिगुणैरष्टभिरित्युक्तम्, ते चामी (नियुक्तिः) सुस्सूसइ पडिपुच्छइ, सुणेइ गिण्हइयईहए वावि। तत्तो अपोहए या, धारेइ करेइ वा सम्मं // 22 // [संस्कृतच्छाया:-शुश्रूषते प्रतिपृच्छति शृणोति गृह्णाति चेहते चापि।ततोऽपोहते वा धारयति करोति & वा सम्यक् / (वृत्ति-हिन्दी-) बुद्धि के आठ गुणों का निर्देश किया गया था। वे बुद्धि-गुण इस " & प्रकार है (22) 23333333333333 33333333 (नियुक्ति-अर्थ-) (बुद्धि के आठ गुण इस प्रकार हैं-) (1) शुश्रूषा (श्रवण-इच्छा), . 4 (2) प्रतिपृच्छा. (पुनः पूछना), (3) सुनना, (4) ग्रहण करना, (5) ईहा (पर्यालोचन), (6) , अपोह (निश्चय तक पहुंचना), (7) धारणा, और (8) सम्यक्करण (सम्यक् अनुष्ठान)। , व (हरिभद्रीय वृत्तिः) &.. (व्याख्या-) विनययुक्तो गुरुमुखात् श्रोतुमिच्छति शुश्रूषति।पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति, तच्छुतमशङ्कितं करोतीति भावार्थः। पुनः कथितं तच्छृणोति, श्रुत्वा गृह्णाति, गृहीत्वा चेहते, . पर्यालोचयति-किमिदमित्यं उत अन्यथेति।चशब्दः समुच्चयार्थः, अपिशब्दात् पर्यालोचयन् , किञ्चित् स्वबुद्ध्याऽपि उत्प्रेक्षते। ततः' तदनन्तरम् 'अपोहते च' एवमेतत् यदादिष्टमाचार्येणेति पुनस्तमर्थमागृहीतं धारयति, करोति च सम्यक् तदुक्तमनुष्ठानमिति, तदुक्तानुष्ठानमपि च . 4 श्रुतप्राप्तिहेतुर्भवत्येव, तदावरणकर्मक्षयोपशमादिनिमित्तत्वात्तस्येति।अथवा यद्यदाज्ञापयतिगुरु * तत् सम्यगनुग्रहं मन्यमानः श्रोतुमिच्छति शुश्रूषति, पूर्वसंदिष्टश्च सर्वकार्याणि कुर्वन् पुनः पृच्छति // के प्रतिपृच्छति, पुनरादिष्टः तत् सम्यक् शृणोति, शेषं पूर्ववद् -इति गाथार्थःR२॥ (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) विनययुक्त (शिष्य) गुरु-मुख से (तत्त्वज्ञान का) श्रवण " a करना चाहता है, प्रतिपृच्छा (पुनः प्रश्न) करता है- अर्थात् जो (गुरु से) सुना, उसमें होने वाली शंकाओं का निराकरण करता है। पुनः, गुरु जो कहता है, उसे सुनता है, सुन कर ग्रहण करता है, ग्रहण कर ईहा- पर्यालोचना करता है- कि यह ऐसा ही है या अन्य रूप से - 80ck@ @ @ @ @@@9890880900 163 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333232322222222333 888888 -cacacacacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 00000000 है। 'च' शब्द 'समुच्चय' ('और' -इस) अर्थ का बोध कराता है। 'अपि' (भी) शब्द यह | सूचित करता है कि पर्यालोचना करते हुए अपनी बुद्धि से भी कुछ उत्प्रेक्षा (चिन्तन या " & अवधारणा का निर्माण) करता है। उसके बाद 'अपोह' करता है, (अर्थात्) आचार्य ने जा, बताया, वह इस प्रकार है, फिर उस गृहीत-निश्चित अर्थ की धारणा करता है, तदनन्तर कहे . हुए का सम्यक् अनुष्ठान करता है। वह अनुष्ठान भी (शिष्य के लिए) श्रुत-उपलब्धि का व साधन होता ही है, क्योंकि वह (अनुष्ठान) श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम में निमित्त होता है ca है। अथवा- गुरु जो आज्ञा देता है, उसे अपने ऊपर (गुरु का) अनुग्रह मानता हुआ सुनना , a चाहता है (अर्थात् गुरु मुख से कुछ कहें- यह उनका मुझ पर अनुग्रह होगा)। पूर्व में जैसा " a गुरु ने कहा था, तदनुसार सभी कार्यों को करता हुआ, पुनः प्रतिप्रश्न (विज्ञासा) करता है, . उसे सम्यक् श्रवण करता है, शेष पूर्ववत् (ग्रहण, ईहा आदि करता है- ऐसा) समझना चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 22 // विशेषार्थ - महाभारत (5/35/52) की विदुरनीति (3/52) में भी बुद्धि के आठ गुणों का निरूपण इस : प्रकार किया गया है- अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति, प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च / पराक्रमश्चाबहुभाषिता / ca च, दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥ -अर्थात् कुलीनता, इन्द्रिय-निग्रह, शास्त्राभ्यास, पराक्रम, कम " बोलना, यथाशक्ति दान, कृतहाता -ये बुद्धि के आठ गुण व्यक्ति को प्रकाशमान (ख्याति प्राप्त) करते , 54 हैं। किन्तु नियुक्तिकार ने जो आठ गुण बताए हैं, वे विनीत शिष्य के लिए गुरु से शास्त्रीय तत्त्वज्ञान / * प्राप्त करने की दिशा में सहायक हैं। अभिधानचिन्तामणि (2/224-225) में भी बुद्धि के आठ गुणों के , नाम इस प्रकार हैं- शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारणा, ऊहा, अपोह, अर्थविज्ञान, और तत्त्वज्ञान। " a भारतीय संस्कृति में तत्त्वज्ञान में श्रवण-मनन-निदिध्यासन को प्रमुखता प्राप्त है, तदनुरुप यहां / ca 'श्रवण' की महत्ता के साथ-साथ तदनुकूल सम्यक् आचरण की भी महत्ता प्रतिपादित हुई है। शुश्रूषा आदि आठ गुणों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है- शुश्रूषा- अर्थात् ध्यान लगा कर , - गुरु-मुख से सुनने का भाव / प्रतिपृच्छा-उपदिष्ट श्रुत में संभावित शंकाओं के निवारण हेतु पुनः प्रश्न - करना। श्रवण-सूत्र के अर्थ को सुनना। ग्रहण-सूत्र व अर्थ का अध्ययन कर श्रुत का सम्यक्तया / ग्रहण। ईहा-सूत्र व अर्थपदों की मार्गणा, अन्वेषणा। अवाय- यह ऐसा ही है, अन्य प्रकार से नहीं , a -इस तरह निर्णय तक पहुंचना / धारण- परिवर्तना व अनुप्रेक्षा के द्वारा सूत्रार्थ का स्थिरीकरण। " करण-श्रुत में प्रतिपादित ज्ञान को आचरण में उतारना। शुश्रूषा आदि -ये आठ गुण श्रुत-ग्रहण | (श्रुत-ज्ञान) की दृष्टि से तो उपयोगी हैं ही, गुरु-आराधना (गुरु-सेवा) की दृष्टि से भी उपयोगी हैं। | 09081890c0000000000000000 222222 164 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Raceceectance 333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-23 គ គ គ គ គ គ គ គ >> मलधारी हेमचन्द्र ने इसकी व्याख्या प्रकारान्तर से भी की है और इन गुणों को गुरु-सेवा से भी जोड़ा ce है। उनके मत में गुरु कुछ कार्य करने को कहे तो उसे शिष्य ठीक से सुनें, उस कार्य के विषय में प्रतिपृच्छा (पुनः प्रश्न) करें और फिर जो गुरु द्वारा कहा जाय, उसे सम्यक्तया श्रवण करें, उसे ग्रहण & करें, आदि आदि। ये गुण गुरु-सेवा में कार्यकारी (प्रभावक) होते हैं और उसका फल श्रुतज्ञान की ca प्राप्ति है। (द्र. विशेषा. भाष्य, गा. 561, शिष्यहिता टीका)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) बुद्धिगुणा व्याख्याताः, तत्र शुश्रूषतीत्युक्तम्, इदानीं श्रवणविधिप्रतिपादनायाहमें नियुक्तिः) . मूअं हुंकारं वा, बाढकारपडिपुच्छवीमंसा। तत्तो पसंगपारायणं च परिणिट्ठ सत्तमए / 23 // [संस्कृतच्छायाः- मूकं हुंकारं वा बाढङ्कार-प्रतिपृच्छा-मीमांसाः। ततः प्रसङ्गपारायणं च परिनिष्ठा c& सप्तमके] . (वृत्ति-हिन्दी-) बुद्धि के गुणों का निरूपण हुआ। वहां श्रवण-इच्छा का उल्लेख है, . a अब उसी श्रवण की विधियों का प्रतिपादन (नियुक्तिकार) करने जा रहे हैं (23) a (नियुक्ति-अर्थ-) (1) मूक होकर सुनना, (2) हुंकार देना, (3) बाढंकार (यह ऐसा ही है, ऐसा कहना), (4) प्रतिपृच्छा (पुनः पूछना), (5) मीमांसा करना, उसके बाद, (6), प्रसंग-पारायण (सुने हुए विषय में पारंगत होना), और सातवां (7) परिनिष्ठा (कहे हुए को / पुनः कहने की भी क्षमता) (ये श्रवण-विधि के सात अंग हैं)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) R (व्याख्या-) 'मूकमिति', मूकं शृणुयात्। एतदुक्तं भवति-प्रथमश्रवणे संयतगात्रः तूष्णीं खल्वासीत, तथा द्वितीये हुङ्कारं च दद्यात्, वन्दनं कुर्यादित्यर्थः।तृतीये बाढत्कारं (बालंकार), कुर्यात्, बाटमेवमेतत् नान्यथेति।चतुर्थश्रवणे तुगृहीतपूर्वापरसूत्राभिप्रायो मनाक् प्रतिपृच्छां, a कुर्यात् कथमेतदिति।पञ्चमे तुमीमांसां कुर्यात्, मातुमिच्छा मीमांसा प्रमाणजिज्ञासेतियावत्। ततः षष्ठे श्रवणे तदुत्तरोत्तरगुणप्रसङ्गः पारगमनं चास्य भवति।परिनिष्ठा सप्तमे श्रवणे भवति। एतदुक्तं भवति-गुरुवदनुभाषत एव सप्तमश्रवणे इत्ययं गाथार्थःR३॥ (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 165 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cacacacacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 222222222233333333333333333333333333333333333 (वृत्ति-हिन्दी-) मूक, अर्थात् मूक होकर श्रवण करे। तात्पर्य यह है कि प्रथमतः a श्रवण के समय संयत रूप से मूक यानी विना बोले (बैठे या खड़ा) रहे। दूसरी विधि यह है . कि (श्रवण के मध्य, या अन्त में, जहां अपेक्षित हो) हुंकारा भी भरे अर्थात् गुरु-वन्दन करे / (हुंकारे के रूप में गुरु के प्रति वन्दनीय भाव व्यक्त करना चाहिए)। तीसरी विधि यह है कि , 4 बाढंकार अर्थात् (जैसा आपने कहा,) ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है (अर्थात् यही यथार्थ है मुझे & अच्छी तरह समझ में आ गया है-) ऐसा कथन करे। चौथी विधि यह है कि जब पढे हुए पहले व बाद के सूत्र का अभिप्राय ज्ञात हो जाय, तब धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा प्रतिप्रश्न भी करे " कि यह कैसे है? पांचवी विधि में मीमांसा (श्रद्धा के साथ विचार, चिन्तन, मनन) करे। , मीमांसा का (व्युत्पत्ति-लभ्य) अर्थ है- मान-सम्बन्धी जिज्ञासा, अर्थात् 'प्रमाणता' की जिज्ञासा / इसके बाद, छठी विधि यह है कि जो श्रवण किया है, उसमें उत्तरोत्तर गुण-वृद्धि, पारंगत होने की स्थिति प्राप्त की जाय / सातवीं विधि में इस (ज्ञान) की सम्पन्नता होती है। ca तात्पर्य यह है कि सातवें क्रम में वह स्थिति प्राप्त होती है कि विनीत श्रवणकर्ता शिष्य गुरु के . ca जैसा अनुभाषण (अनुसारी कथन) करने योग्य हो ही जाता है। यह गाथा अर्थ पूर्ण हुआ 23 | " विशेषार्थ बुद्धि के आठ गुणों के निरूपण तथा श्रवण-विधि के निरूपण की प्रस्तुत गाथाएं नन्दी सूत्र " ca में भी प्राप्त हैं। यहां शास्त्रकार द्वारा प्रतिपादित श्रवणविधि का सार यह है कि शिष्य मौन रहकर सुने, फिर हुंकार- 'जी हां' ऐसा कहे। उसके बाद बाढंकार अर्थात् 'यह ऐसे ही है जैसा गुरुदेव 4 फरमाते हैं। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक माने। इस अभिव्यक्ति के पीछे भारतीय संस्कृति छिपी हुई है। ca भारतीय संस्कृति विनम्रता की संस्कृति है। उसके आधार पर गुरु और शिष्य के सम्बन्धों की परम्परा स्थापित हुई है। उसमें एक सम्बन्ध है- जिज्ञासा और समाधान / शिष्य जिज्ञासा करता है और गुरु उसका समाधान देता है। समाधान के समय गुरु के मन में शिष्य के ज्ञान-वृद्धि की भावना 4 रहती है। समाधान के पश्चात् शिष्य का मन आनन्द-पुलकित और भाव-विभोर हो उठता है। वह " सहज ही कृतज्ञता के स्वर में बोल उठता है- "भंते! आपने मुझे नया आलोक दिया है, नई दृष्टि दी है है। आपने जो कहा, वह बिल्कुल सही है।" यह कृतज्ञता की अभिव्यक्ति एक नई प्रेरणा को संजीवित 1 ce करती है। गुरु के मन में शिष्य को और अधिक ज्ञान देने की भावना पल्लवित हो जाती है। इस " प्रकार यह अहोभाव ज्ञान की परम्परा के चिरजीवी होने का सूत्र बन जाता है। उक्त बाढंकार के बाद, 27 अगर शंका हो तो पूछे कि- “यह किस प्रकार है?" फिर मीमांसा करे अर्थात् विचार-विमर्श करे।तब " उत्तरोत्तर गुण-प्रसंग से शिष्य पारगामी हो जाता है। तत्पश्चात् वह चिन्तन-मनन आदि के बाद - 166(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IReceneRece नियुक्ति-गाथा-24 000000000 गुरुवत् भाषण और शास्त्र की प्ररूपणा करे (ऐसा गुरु के समक्ष किया जाय तो सम्भावित त्रुटि दूर & हो सकती है।)। शास्त्र-श्रवण की दृष्टि से बुद्धि के इन आठ गुणों की उपयोगिता को समझना चाहिए। 333333333333333333333333333333333333333333333 c (हरिभद्रीय वृत्तिः) एवं तावच्छ्रवणविधिरुक्तः, इदानीं व्याख्यानविधिमभिधित्सुराह (नियुक्तिः) सुत्तत्यो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसओ भणिओ। तइओ य निरवसेसो, एस विही भणिअ अणुओगे R4 // [संस्कृतच्छायाः-सूत्रायः खलु प्रथमः, द्वितीयो नियुक्तिमिश्रको भणितः।तृतीयश्च निरवशेषः एष , विधिः भणितः अनुयोगे॥] (वृत्ति-हिन्दी-) अभी श्रवण-सम्बन्धी विधि का कथन हुआ। अब व्याख्या(अनुयोग) सम्बन्धी विधि का (नियुक्तिकार) कथन करने जा रहे हैं (24) (नियुक्ति-अर्थ-) अनुयोग (व्याख्या) से सम्बन्धित विधि इस प्रकार कही गई हैca प्रथमतः सूत्र का अर्थ-बोध, दूसरा नियुक्ति के साथ अर्थबोध, तथा तीसरा समग्रता के साथ अर्थबोध। (हरिभद्रीय वृत्तिः) a (व्याख्या-) सूत्रस्यार्थः सूत्रार्थः। सूत्रार्थ एव केवलः प्रतिपाद्यते यस्मिन्ननुयोगे असौ व सूत्रार्थ इत्युच्यते।सूत्रार्थमात्रप्रतिपादनप्रधानो वा सूत्रार्थः। खलुशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चावधारणे। " एतदुक्तं भवति-गुरुणा सूत्रार्थमात्राभिधानलक्षण एव प्रथमोऽनुयोगः कार्यः, मा भूत् प्राथमिकविनेयानां मतिसंमोहः। द्वितीयः' अनुयोगः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमित्रक कार्य इत्येवंभूतो : भणितो जिनैश्चतुर्दशपूर्वधरैश्च। तृतीयश्च निरवशेषः' प्रसक्तानुप्रसक्तमप्युच्यते यस्मिन् स एवंलक्षणो निरवशेषः, कार्य इति।स 'एष' उक्तलक्षणो विधानं विधिः प्रकार इत्यर्थः। भणितः & प्रतिपादितः जिनादिभिः, क्व?, सूत्रस्य निजेन अभिधेयेन सार्धम् अनुकूलो योगः अनुयोगः। & सूत्रव्याख्यानमित्यर्थः।तस्मिन्ननुयोगेऽनुयोगविषय इति, अयं गाथार्थः // 24 // __|समाप्तं श्रुतज्ञानम्॥ -3333333388888888888888888888888888888888883 - 80CRORBRBRece@@cRB00000000 167 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222222233333333322222222222222223333333322 -aaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000 (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) सूत्र का जो अर्थ होता है, वह सूत्रार्थ है। जिस अनुयोग ca (व्याख्यान) में मात्र सूत्रार्थ का ही प्रतिपादन होता है, वह 'सूत्रार्थ' अनुयोग कहा जाता है। " & अथवा मात्र सूत्रार्थ के प्रतिपादन की प्रधानता वाला अनुयोग 'सूत्रार्थ' है। 'खलु' यह शब्द : CM 'एव' (ही) अर्थ को व्यक्त कर रहा है, वह यहां 'अवधारण' करता है। तात्पर्य यह है कि गुरु, द्वारा प्रथम जो अनुयोग (व्याख्यान) करना चाहिए, वह मात्र सूत्रार्थ का कथन (अर्थात् यहीं , c तक सीमित) हो, प्राथमिक स्तर के शिष्यों को मतिसंमोह (अस्पष्टता, व्यामोह) न हो , ca (इसलिए सबसे पहले मात्र सूत्रार्थ कथन ही किया जाता है, पहले ही प्रासंगिक या शिष्य के 7 के लिए पूर्णतः अज्ञात विषय पर आधारित व्याख्यान प्रारम्भ कर देने पर शिष्य को व्यामोह होने से की संभावना है)। सूत्रस्पर्शी नियुक्ति के साथ सूत्रार्थ का कथन करना चाहिए -इस प्रकार : के द्वितीय अनुयोग का कथन जिनेन्द्र तथा चतुर्दशपूर्वधारी आचार्यों ने किया है। तीसरा & अनुयोग- 'निरवशेष' (सूत्रार्थरूप श्रुत से सम्बद्ध) होना चाहिए, अर्थात् सूत्रार्थ से जुड़े / प्रासंगिक या आनुषंगिक (परम्परा से सम्बद्ध) विषयों का भी कथन हो, इस प्रकार कुछ ल और कहना शेष न रह जाय (-इस रूप में 'निरवशेष' व्याख्यान हो)। यह जो पूर्वोक्त , a विधियां या प्रकार (अनुयोग के) बताए गये हैं, उन्हें जिनेन्द्र आदि ने कहा है। किस विषय में " a (ये विधियां बताई गई हैं)? (उत्तर-) 'अनुयोग' में, अर्थात् 'अनुयोग' के विषय में। अनुयोग , & का अर्थ है- अभिधेय (वाच्य अर्थ) के साथ अनुकूल योजना, अर्थात् सूत्रार्थ की (सम्यक्) , & व्याख्या / यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 24 // विशेषार्थ प्रथम वाचना में सूत्र और अर्थ कहे। दूसरी में सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति का कथन करे। तीसरी " वाचना में सर्व प्रकार नय-निक्षेप आदि से पूर्ण व्याख्या करे। इस तरह अनुयोग की विधि शास्त्रकारों , ने प्रतिपादित की है। ___आचार्य, उपाध्याय या बहुश्रुत गुरु के लिए भी आवश्यक है कि वह शिष्य को सर्वप्रथम सूत्र , का शुद्ध उच्चारण और अर्थ सिखाए। तत्पश्चात् उस आगम के शब्दों की सूत्रस्पर्शी नियुक्ति बताए। तीसरी बार पुनः उसी सूत्र को वृत्ति-भाष्य, उत्सर्ग-अपवाद, और निश्चय-व्यवहार, इन सबके आशय : CR का नय, निक्षेप, प्रमाण और अनुयोगद्वार आदि विधि से व्याख्या सहित समझाए। इस क्रम से, अध्यापन करने पर गुरु शिष्य को श्रुतपारंगत बना सकता है। -833333333333333333333333333. - 168 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बबRRRRR नियुक्ति-गाथा- 2599999999999 उक्त व्याख्यान-विधि गुरु को लक्ष्य कर बताई गई है। विनेय शिष्यों की योग्यता को देख कर उक्त विधियों का निर्धारण किया गया है। अनुयोग-विधि के ही ये विधियां विविध प्रकार हैं। ca प्राथमिक स्तर के शिष्य मूल विषय को ही नहीं जानते हैं, ऐसी स्थिति में पहले ही प्रौढ व्याख्यान देना 2 a उचित नहीं होता। अतः पहले उन्हें मूल सूत्र और उसका सीधा-सादा अर्थ बताना चाहिए। कभी-कभी , CM उपोद्घात (नियुक्ति) तथा निक्षेप (नियुक्ति) की भी प्रारम्भ में करणीयता बताई गई है, किन्तु वह / ca शिष्य की योग्यता के आधार पर है। मूल सूत्र से जोड़ने के लिए कभी-कभी भूमिका के रूप में कुछ " बताया जा सकता है. किन्त वह उसी सीमा तक कि शिष्य 'कन्फ्यूज्ड' (व्यामोह युक्त) न हो जाय। उसके बाद नियुक्ति का आश्रय लेकर सूत्रार्थ को स्पष्ट किया जाय। और उसके बाद ही प्रासंगिक व व विषय से परम्परया सम्बन्धित बातों को बताया जाय, ताकि शिष्य का ज्ञान क्रम से पूर्णता की ओर " & अग्रसर हो। निष्कर्ष यह है कि नियुक्तिकार ने इस गाथा में जो विधि बताई है, वह व्याख्याता, 2 प्रवचनकार व अध्यापक, सभी के लिए उपादेय है, क्योंकि इसका निर्धारण सर्वज्ञों के द्वारा, विशिष्ट ca ज्ञानियों द्वारा किया गया है और अधिक मनोवैज्ञानिक सिद्ध भी हुआ है। ||श्रुतज्ञान का निरूपण समाप्त हुआ। 223322222222222333333333333333333333333333333 - (हरिभद्रीय वृत्तिः) उक्तप्रकारेण श्रुतज्ञानस्वरूपमभिहितम् / साम्प्रतं प्रागभिहितप्रस्तावमवधिज्ञानमुपदर्शयन्नाह (नियुक्तिः) संखाईआओ खलु, ओहीनाणस्स सव्वपयडीओ। काओ भवपच्चइया, खओवसमिआओकाओऽविIR५॥ a. [संस्कृतच्छायाः- संख्यातीताः खलु अवधिज्ञानस्य सर्वप्रकृतयः। काश्चिद् भवप्रत्ययिताः, aक्षायोपशमिक्यः काश्चिद् अपि॥] (वृत्ति-हिन्दी-) उक्त रीति से श्रुतज्ञान का स्वरूप बता दिया गया। अब पहले कहे " गए प्रस्तुति-क्रम के अनुरूप अवधि ज्ञान के निरूपण हेतु (शास्त्रकार आगे की गाथा) कह , रहे हैं (25) ...(नियुक्ति-अर्थ-) अवधिज्ञान की समस्त प्रकृतियां (भेद) असंख्यात हैं। इनमें कुछ " (प्रकृतियां) 'भवप्रत्यय' होती हैं और कुछ क्षायोपशमिक' (गुणप्रत्यय)। (r) (r)cr@ @@0808080809000cr@90(r) 169 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3333333333333333333333322 RaaaaaR श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 / (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) संख्यानं संख्या तामतीताः संख्यातीता असंख्येया इत्यर्थः। तथा संख्यातीतमनन्तमपि भवति, ततश्चानंन्ता अपि।तथा च खलुशब्दो विशेषणार्थः। किं विशिनष्टि? -क्षेत्रकालाख्यप्रमेयापेक्षयैवं संख्यातीताः, द्रव्यभावाख्यज्ञेयापेक्षया चानन्ता इति। अवधिज्ञानस्य' प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य, सर्वाश्च ताः प्रकृतयश्च सर्वप्रकृतयः, प्रकृतयो भेदा अंशा इति पर्यायाः। एतदुक्तं भवति- यस्मादवधेः लोकक्षेत्रासंख्येयभागादारभ्य प्रदेशवृद्धया असंख्येयलोकपरिमाणम् उत्कृष्टम् आलम्बनतया क्षेत्रमुक्तम् / कालश्चावलिकाऽसंख्येयभागादारभ्य समयवृद्धया खल्वसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाण उक्तः ।ज्ञेयभेदाच्च ज्ञानभेद & इत्यतः संख्यातीताः तत्प्रकृतयः इति। तथा तैजसवारद्रव्यापान्तरालवय॑नन्तप्रदेशकाद् / द्रव्यादारभ्य विचित्रवृद्धया सर्वमूर्त्तद्रव्याणि उत्कृष्टं विषयपरिमाणमुक्तम्, प्रतिवस्तुगतासंख्येय पर्यायविषयमानंच इति।अतः पुद्गलास्तिकायंतत्पर्यायांश्चाङ्गीकृत्य ज्ञेयभेदेन ज्ञानभेदादनन्ताः & प्रकृतय इति। (वृत्ति-हिन्दी-) संख्या का अर्थ है-- संख्यान (जिसकी गिनती की जा सके), उससे " जो अतीत हैं, वे संख्यातीत होते हैं, अर्थात् असंख्येय होते हैं। संख्यातीत अनन्त भी होते हैं, .. इसलिए वे (प्रकृतियां) अनन्त भी हो सकती) हैं। 'खलु' यह (अव्यय पद) विशेषण-अर्थ को 4 व्यक्त करता है। यह विशेषण रूप में क्या विशेष (अन्तर) बता रहा है? (वह यह अन्तर बता ल रहा है कि) क्षेत्र व काल रूप ज्ञेय की अपेक्षा से ही वे प्रकृतियां संख्यातीत हैं, द्रव्य व भाव , & रूप ज्ञेय की अपेक्षा से तो वे अनन्त हैं। (कौन संख्यातीत व अनन्त हैं?) अवधिज्ञान की, 2 जिसका शब्दार्थ पहले बता दिया गया है, वे सभी प्रकृतियां (असंख्यात व अनन्त हैं)। प्रकृति, & भेद, अंश -ये परस्पर पर्याय हैं। तात्पर्य यह है- चूंकि लोक-क्षेत्र के असंख्यात भाग से लेकर प्रदेश-वृद्धि करते हुए . असंख्यात लोक-परिमित क्षेत्र को अवधिज्ञान का उत्कृष्ट आलम्बन (विषय) बताया गया है। " अवधि का काल भी आवलिका के असंख्येय भाग से लेकर (क्रमशः) 'समय' की वृद्धि, & करते हुए असंख्यात उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल प्रमाण बताया गया है। ज्ञेय के भेद से ज्ञान का भी भेद होता है, इसलिए उस (अवधि ज्ञान) की प्रकृतियां संख्यातीत (असंख्यात) होती हैं। इसी प्रकार, अवधि ज्ञान के (द्रव्यात्मक) विषय का उत्कृष्ट परिमाण बताया गया 3333333333333 33 __ 170 @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRece. निर्यक्ति-गाथा-25 &&&&&&&&&&&&&& & 222222323222333333333333333333333333333333333 है- तैजस वर्गणा एवं भाषा द्रव्य के वर्गणा के अपान्तरालवर्ती अनन्त प्रदेशी द्रव्य से लेकर विचित्र (एकप्रदेशी, द्विप्रदेशी आदि रूप में विविधतापूर्ण) वृद्धि करते हुए समस्त मूर्त द्रव्यों >> तक। और अवधि ज्ञान के (भावात्मक) विषय का (उत्कृष्ट) परिमाण है- प्रत्येक वस्तु के . असंख्यात पर्याय / इसलिए पुद्गलास्तिकाय और उसके पर्यायों को ध्यान में रखें तो ज्ञेय- 1 भेद से ज्ञान-भेद होने के कारण (अवधि ज्ञान की) अनन्त प्रकृतियां हो जाती हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) आसां च मध्ये 'काश्चन' अन्यतमाः भवप्रत्यया' भवन्ति।अस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः, स च नारकादिलक्षणः, स एव प्रत्ययः-कारणं यासां ताः भवप्रत्ययाः।। पक्षिणां गगनगमनवत्, ताश्च नारकामराणामेवातथा गुणपरिणामप्रत्ययाः क्षयोपशमनिर्वृत्ताः क्षायोपशमिकाः काश्चन, ताश्च तिर्यनराणामिति। आह-क्षायोपशमिके भावेऽवधिज्ञानं प्रतिपादितम् / नारकादिभवश्च औदयिकः, स, * कथं तासांप्रत्ययो भवतीति।अत्रोच्यते, ता अपि क्षयोपशमनिबन्धना एव, किंतु असावेव " क्षयोपशमः तस्मिन्नारकामरभवे सति अवश्यं भवतीतिकृत्वा भवप्रत्ययास्ता इति गाथार्थः // 25 // a. (वृत्ति-हिन्दी-) इन (समस्त प्रकृतियों) के मध्य में कुछ प्रकृतियां भवप्रत्यय " (जन्मजात) होती हैं। जहां कर्म के वशीभूत प्राणी रहते हैं, वह नारक आदि रूप ‘भव' होता है, वही भव जिसमें प्रत्यय या कारण है, वह 'भवप्रत्यय' (अवधिज्ञान की प्रकृति कही जाती है है।) जैसे पक्षियों के आकाश-गमन की सामर्थ्य जन्मजात होती है, वैसे ही मात्र नारकी व देवों को (जन्मजात) अवधिज्ञान प्राप्त होता है (जिसे भवप्रत्यय कहा जाता है)। इसी तरह, गुण-परिणाम प्रत्यय (आत्मीय परिणामशुद्धता-विशेष जिसमें कारण हैं, ऐसी) कुछ प्रकृतियां ल होती हैं जो (अवधि-ज्ञानावरणीय कर्म के) क्षयोपशम से उत्पन्न होने के कारण क्षायोपशमिक ca कही जाती हैं, जो तिर्यंचों व मनुष्यों में ही होती हैं। (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) क्षायोपशमिक भाव में ही अवधिज्ञान का प्रतिपादन किया है आ गया है। किन्तु नरकादि जन्म तो औदयिक हैं, अतः उनमें भवप्रत्यय अवधिज्ञान कैसे कहा " a जाता है? समाधान यह है- भवप्रत्यय अवधि ज्ञान की वे प्रकृतियां भी क्षयोपशमजात ही हैं, " किन्तु चूंकि वह क्षयोपशम उन नारकी व देवों में अवश्य होता ही है, इस दृष्टि से उन्हें , 'भवप्रत्यय' कह दिया जाता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 25 // &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 171 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22222222222222333333333322222223333333333333 -caca caca cace ce श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 विशेषार्थ अवधि ज्ञान का विस्तार से वर्णन नन्दीसूत्र तथा प्रज्ञापना (पद-33) में है। वहां देवों, नारकों, . a मनुष्यों, तिर्यञ्चों के अवधिज्ञान के कारण तथा अवधिज्ञान की जघन्य व उत्कृष्ट क्षेत्र-मर्यादा का , पृथक्-पृथक् निरूपण भी है। अवधि ज्ञान के छः मुख्य प्रकारों के स्वरूप को भी वहां स्पष्ट किया गया / है। इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी उन-उन ग्रन्थों से प्राप्त की जा सकती है। प्रस्तुत गाथा में , अवधिज्ञान की द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की दृष्टि से जघन्य व उत्कृष्ट क्षेत्र-सीमा का निर्देश किया गया है। " (1) क्षेत्र की दृष्टि से- लोक-क्षेत्र के असंख्यातवें भाग से लेकर, एक-एक प्रदेश बढ़ाते हुए, उत्कृष्टतया असंख्यात लोक परिमाण क्षेत्र तक अवधि-ज्ञान की क्षेत्र-मर्यादा बताई गई है। यहां यह " & जानना चाहिए कि 'असंख्यात लोक प्रमाण' क्षेत्र का वस्तुतः सद्भाव नहीं है, किन्तु उत्कृष्ट अवधिज्ञान 2 a (परमावधि ज्ञान) की सामर्थ्य को बताने के लिए 'असंख्यात लोक' का कथन है। आचार्य अकलंक ने (राजवार्तिक-1/22/4) में अवधिज्ञान के तीन भेद किये हैं- देशावधि, . ca परमावधि और सर्वावधि / देशावधि ज्ञान जघन्यतया उत्सेधांगुल के असंख्यात भाग मात्र क्षेत्र को " ca जानता है और उत्कृष्टतया सम्पूर्ण लोक को जानता है। परमावधि ज्ञान जघन्यतया एक प्रदेश अधिक >> & लोक प्रमाण विषय को जानता है और उत्कृष्टतया असंख्यात लोकों को जानता है। सर्वावधि ज्ञान , उत्कृष्टतया परमावधि के क्षेत्र से बाहर असंख्यात लोक प्रमाण क्षेत्रों को जानता है। इस ज्ञान के जघन्य आदि भेद नहीं होते। (2) काल की दृष्टि से- अवधिज्ञानी जघन्यतया अंगुल के असंख्यातवें भाग काल को : जानता-देखता है और उत्कृष्टतया असंख्यात उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी परिमाण काल को जानता-.. देखता है। यहां काल को जानने से तात्पर्य है- उस काल में वर्तमान 'रूपी' द्रव्य, क्योंकि अवधि ज्ञान, ca अरूपी द्रव्य को विषय नहीं करता। अंगुल' से तात्पर्य प्रमाणांगुल से है- यह आचार्य मलयगिरि का , / मत है। एक अन्य मत के अनुसार 'उत्सेधांगुल' भी यहां ग्राह्य है। ce (3) द्रव्य की दृष्टि से-अवधिज्ञानी जघन्यतया अनन्तप्रदेशी पुद्गल-स्कन्ध से लेकर एकप्रदेशी, cद्विप्रदेशी आदि तक के सभी मूर्त द्रव्यों को जानता-देखता है। यहां व्याख्याकार ने अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के लिए एक विशेषण दिया है- तैजस व भाषा 0 c& द्रव्यों का मध्यवर्ती। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- उक्त विशेषण प्राथमिक (प्रतिपाती ज्ञान के " धारक) अवधिज्ञानी को ध्यान में रखकर किया गया है। आवश्यक-नियुक्ति की आगे 38वीं गाथा में | 172 (r)90@cRODece@ SAROOR@@@@ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -333333333333333333332222222333333333333333333 Reacecacecacee नियुक्ति गाथा-25 000000000 | कहा गया है कि अवधिज्ञानी प्रारम्भ में तैजस वर्गणा व भाषावर्गणा के अन्तरालवर्ती-गुरुलघु व | ca अगुरुलघु पर्याय वाले द्रव्य-पुद्गलों को जानता है। उनमें तैजसद्रव्यासन्न पुद्गल गुरुलघु होते हैं, जबकि भाषाद्रव्यासन्न पुद्गल अगुरुलघु होते हैं। मलधारी हेमचन्द्र ने यहां स्पष्टीकरण देते हुए कहा ce है कि उस अवधिज्ञानी के लिए अतिसूक्ष्म होने से तैजस शरीर के द्रव्य ग्रहण-योग्य नहीं होते और " ca अतिसूक्ष्म होने के कारण भाषा-द्रव्य भी ग्रहण-योग्य नहीं होते। किन्तु तैजस व भाषा के अन्तरालवर्ती द्रव्य गुरुलघु और अगुरुलघु-दोनों प्रकार के होते हैं, अतः वे ही अवधिज्ञान द्वारा ग्राह्य होते हैं (द्र. 3 विशेषा. भा. गा. 628-29) / (4) भाव की दृष्टि से- अवधिज्ञानी जघन्यतया प्रत्येक द्रव्य के संख्यात या असंख्यात पर्यायों , ca को तथा उत्कृष्टतया असंख्यात पर्यायों को जानता-देखता है। किन्तु नन्दी सूत्र में कहा गया है कि अवधिज्ञानी जघन्यतया व उत्कृष्टतया, दोनों रूपों में, अनन्त भावों को जानता-देखता है (द्र. सू. 25) / " किन्तु चूर्णिकार आदि व्याख्याताओं ने यह स्पष्ट किया है कि अनन्त भावों को जानता हुआ भी n & अवधिज्ञानी समस्त पर्यायों को नहीं जान पाता, क्योंकि वैसी शक्ति केवलज्ञानी में ही है। जिनभद्रगणी ने (द्र. विशेषा. भा. गाथा-623) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सूक्ष्मता का गणित की भाषा में प्रतिपादन किया है। काल सूक्ष्म है। क्षेत्र काल से भी असंख्येय गुण सूक्ष्म है। द्रव्य क्षेत्र से भी अनन्त गुण सूक्ष्म है। पर्याय द्रव्य से भी असंख्येय गुण अथवा संख्येय गुण सूक्ष्म है। काल , सूक्ष्म होता है। इसका हेतु यह है कि कमल के सौ पत्तों का भेदन करने में प्रतिपत्र के भेदन में - असंख्येय समय लगते हैं। इस दृष्टान्त के द्वारा हरिभद्र ने काल की सूक्ष्मता का निरूपण किया है। " काल की अपेक्षा क्षेत्र सूक्ष्मतर है। एक अंगुल की श्रेणी मात्र क्षेत्र में जो प्रदेश का परिमाण है उसके / प्रति प्रदेश में समय गणना की दृष्टि से असंख्येय अवसर्पिणी हो जाती हैं। एक अंगुल के श्रेणी मात्र 1 व क्षेत्र के प्रदेशों का परिमाण असंख्येय अवसर्पिणी के समयों के परिमाण जितना है। अवधिज्ञान के दो भेद हैं- (1) भवप्रत्यय, और (2) गुणप्रत्यय / भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान " ca जन्म लेते ही प्रकट होता है, जिसके लिए संयम, तप अथवा अनुष्ठानादि की आवश्यकता नहीं होती। 2 किन्तु क्षायोपशमिक अवधिज्ञान इन सभी की सहायता से उत्पन्न होता है। जो कर्म अवधिज्ञान में , रुकावट उत्पन्न करने वाले (अवधिज्ञानावरणीय) हैं, उनमें से उदयगत का क्षय होने से तथा अनुदित , c. कर्मों का उपशम होने से जो उत्पन्न होता है, वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है। ca अवधिज्ञान के स्वामी चारों गति के जीव होते हैं। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों और नारकों " को तथा क्षायोपशमिक अवधिज्ञान मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों को होता है। उसे 'गुणप्रत्यय' भी कहते हैं। - (r) (r)ce80@cr@ @ce@ @cR@ @ @ @ @ 173 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 | ca ca ca ca ca ca ca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) nrna mom अवधिज्ञान क्षायोपशमिक है क्योंकि वह क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। इस प्रसंग में क्षय और उपशम की प्रक्रिया इस प्रकार है- उदयावलिका में प्रविष्ट ज्ञानावरण का क्षय और अनुदीर्ण ca ज्ञानावरण कर्म का उपशम, जिसका तात्पर्य हैca 1. उदयावलिका में आने योग्य कर्मपुद्गलों को विपाक के अयोग्य बना देना, प्रदेशोदय में , बदल देना। 2. विपाक को मंद कर देना, तीव्र रस का मंद रस में परिणमन कर देना। आ. हरिभद्रसूरि ने उपशम का अर्थ 'उदय का निरोध' किया है और आ. मलयगिरि ने & उसका अर्थ 'विपाकोदय का विष्कम्भ' किया है। चूर्णिकार ने क्षयोपशम के दो प्रकारों का निरूपण किया है1. गुण के बिना होने वाला क्षयोपशम / 2. गुण की प्रतिपत्ति से होने वाला क्षयोपशम / गुण के बिना होने वाले अवधिज्ञान को समझाने के लिए चूर्णिकार ने एक रूपक का प्रयोग ch किया है। आकाश बादलों से आच्छन्न है। बीच में कोई छिद्र रह गया।उस छिद्र में से स्वाभाविक रूप & से सूर्य की कोई किरण निकलती है और वह द्रव्य को प्रकाशित करती है, वैसे ही अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर यथाप्रवृत्त अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है, वह गुण के बिना होने वाला क्षयोपशम है। र क्षयोपशम का दूसरा हेतु है- गुण की प्रतिपत्ति। यहां गुण शब्द से चारित्र विवक्षित है। & चारित्र गुण की विशुद्धि से अवधिज्ञान की उत्पत्ति के योग्य क्षयोपशम होता है, वह गुणप्रतिपत्ति से होने वाला क्षयोपशम है। इस प्रकार कदाचित विशिष्ट गण की प्रतिपत्ति के बिना और कदाचित ca विशिष्ट गुण की प्रतिपत्ति से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। & शंका की गई है- अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में परिगणित है तो फिर नारकों और देवों , ca को होने वाले अवधि ज्ञान को भवप्रत्ययिक कैसे कहा गया? & उत्तर यह है कि वस्तुतः अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में ही है। नारकों और देवों को भी , क्षयोपशम से ही अवधिज्ञान होता है, किन्तु उस क्षयोपशम में नारकभव और देवभव प्रधान कारण & होता है, अर्थात् इन भवों के निमित्त से नारकों और देवों को अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हो ही जाता है। इस कारण उनका अवधिज्ञान, भवप्रत्यय कहलाता है। यथा- पक्षियों की उड़ान-शक्ति , जन्म-सिद्ध है, किन्तु मनुष्य बिना वायुयान, जंघाचरण अथवा विद्याचरण लब्धि के गगन में गति " नहीं कर सकता। - 174 8 0@ @ @ @ @ @ @@@ @ @ @ @ 7777777777777777777777777 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRR 9999999999900 नियुक्ति गाथा-26 (हरिभद्रीय वृत्तिः) साम्प्रतं सामान्यरूपतया उद्दिष्टानां अवधिप्रकृतीनां वाचः क्रमवर्त्तित्वाद् आयुषश्चाल्पत्वात & यथावभेदेन प्रतिपादनसामर्थ्यमात्मनोऽपश्यन्नाह सूत्रकारः (नियुक्तिः) कत्तो मे वण्णेउं, सत्ती ओहिस्स सव्वपयडीओ?। चउदसविहनिक्खेवं, इड्डीपत्ते य वोच्छामि // 26 // [संस्कृतच्छायाः-कुतो मे वर्णयितुं शक्तिः, अवधेः सर्वप्रकृतीः। चतुर्दशविघनिक्षेपम् ऋद्धिप्राप्तांश्च वक्ष्ये // ] . (वृत्ति-हिन्दी-) अब, चूंकि अवधि की सामान्य रूप से नाम-निर्दिष्ट प्रकृतियों का , कथन वाणी से क्रमपूर्वक ही सम्भव है और आयु अल्प है, इसलिए सभी भेदों के साथ उसे , C प्रतिपादित करने की अपनी सामर्थ्य को नहीं देखते हुए सूत्रकार आगे कह रहे हैं (26) (नियुक्ति-अर्थ-) अवधिज्ञान की समस्त प्रकृतियों (भेदों) को वर्णन करने की शक्ति / मुझ में कहां है? (तथापि) अवधिज्ञान के चौदह निक्षेपों तथा ऋद्धिसम्पन्न (व्यक्तियों) का , निरूपण करूंगा। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) कुतो? 'मे' मम, वर्णयितुंशक्तिः अवधेः सर्वप्रकृतीः?,आयुषः परिमितत्वाद् , वाचः क्रमवृत्तित्वाच्च, तथापि विनेयगणानुग्रहार्थम्, चतुर्दशविघश्चासौ निक्षेपश्चेति समासः, . व तम् अवधेः संबन्धिनम्, आमदैषध्यादिलक्षणा प्राप्ता ऋद्धियैस्ते प्राप्तर्द्धयः तांश्च इह . गाथाभङ्गभयाद् व्यत्ययः, अन्यथा निष्ठान्तस्य पूर्वनिपात एव भवति बहुव्रीहाविति।चशब्दः / समुच्चयार्थः। वक्ष्ये' अभिधास्ये, इति गाथार्थः // 26 // (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) (कुतो मे) अवधिज्ञान की समस्त प्रकृतियों (भेदों) का व वर्णन करने की सामर्थ्य मेरी कहां? क्योंकि आयु परिमित काल की होती है, वाणी भी क्रम * से ही प्रवृत्त होती है। फिर भी शिष्य-गणों पर अनुग्रह करने की दृष्टि से / चौदह प्रकार का जो 7 निक्षेप, वह है- चतुर्दशविधनिक्षेप। यहां चतुर्दशविध और निक्षेप -इन दोनों शब्दों का समास 333333333333333333333333333333333333333333333 @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ 175 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ canaana श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 99000000 333333333333333333333333333333333333333333333 / है। वह अवधिज्ञान से सम्बन्धित है। (उसका निरूपण करूंगा।) तथा आमखैषधि- आदि. & रूप में प्रसिद्ध) ऋद्धियों को जिन्होंने प्राप्त किया है, उनका (वक्ष्ये) वर्णन करूंगा। गाथा में " & ऋद्धिप्राप्त शब्द है। व्याकरण की दृष्टि से यह शब्द होना चाहिए- प्राप्त-ऋद्धि (प्राप्तर्द्धि), a क्योंकि बहुव्रीहिसमास में निष्ठान्त (निष्ठा प्रत्यय, जैसे 'क्त') 'प्राप्त' पद का पूर्वनिपात ही होता है, तथापि यह प्रयोग इसलिए किया गया है ताकि गाथा का भंग न हो, (अर्थात् गाथा , & का सौष्ठव सौन्दर्य बना रहे)। 'च' यहां समुच्चय ('और' -इस) अर्थ का वाचक है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 26 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) यदुक्तं चतुर्दशविधनिक्षेपं वक्ष्ये' इति, तं प्रतिपादयंस्तावद् द्वारगाथाद्वयमाह (नियुक्तिः) ओही 1 खित्तपरिमाणे, 2 संठाणे 3 आणुगामिए 4 / अवट्ठिए 5 चले 6 तिब्बमन्द 7 पडिवाउप्पयाई 8 अ॥२७॥ नाण ९दंसण 10 विब्भंगे 11, देसे 12 खित्ते 13 गई 14 इअ। इडीपत्ताणुओगे य, एमे आ पडि वत्तिओ // 28 // [संस्कृतच्छायाः- अवधिः क्षेत्रपरिमाणं संस्थानमानुगामिकः। अवस्थितः चलः तीव्रमन्दप्रतिपातोत्पादादिश्च ज्ञानदर्शनविभङ्गाः देशः क्षेत्रंगतिरिति ऋद्धिप्राप्तानुयोगश्च एवमेताः प्रतिपत्तयः।] (वृत्ति-हिन्दी-) चौदह प्रकार के निक्षेप को कहूंगा -ऐसा पहले कहा था। अब, उसी का प्रतिपादन करने हेतु (निक्षेप के चौदह) द्वारों को (शास्त्रकार) दो गाथाओं द्वारा ca कह रहे हैं (27-28) (नियुक्ति-अर्थ-) अवधि, क्षेत्र-परिमाण, संस्थान, आनुगामिक, अवस्थित, चल, तीव्र-मन्द, प्रतिपात-उत्पाद, ज्ञान, दर्शन, विभङ्ग, देश (व सर्व), क्षेत्र, गति इत्यादि (चौदह a द्वार) तथा (पन्द्रहवां) ऋद्धिप्राप्त का कथन -ये (अवधिज्ञान की) प्रतिपत्तियां हैं। 888888888888888888888888888888888888833333333 176 8888888888888890090@RO900 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ As cecececace cence नियुक्ति-गाथा-21-28 000000000 23223232 2222222222222222222233 32333333 (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र अवध्यादीनि गतिपर्यन्तानि चतुर्दश द्वाराणि, ऋद्धिस्तु चसमुच्चितत्वात् . & पञ्चदशम् / अन्ये त्वाचार्या अवधिरित्येतत्पदं परित्यज्य आनुगामुकमनानुगामुकसहितम् , & अर्थतोऽभिगृह्य चतुर्दश द्वाराणि व्याचक्षते।यस्मात् नावधिः प्रकृतिः, किंतर्हिः, अवधेरेव प्रकृतयः चिन्त्यन्ते, यतश्च प्रकृतीनामेव चतुर्दशधा निक्षेप उक्त इति।पक्षद्वयेऽपि अविरोध इति। तत्र 'अवधिरिति' |अवधेर्नामादिभेदभिन्नस्य स्वरूपमभिधातव्यम्, तथा अवधिशब्दो द्विरावर्त्यते इति व्याख्यातमिति तथा क्षेत्रपरिमाण' इति क्षेत्रपरिमाणविषयोऽवधिर्वक्तव्यः। एवं संस्थानविषय इति। अथवा 'अर्थाद्विभक्तिपरिणाम' इति द्वितीयैवेयम्, ततश्च व अवधेर्जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्न क्षेत्रप्रमाणं वक्तव्यम्।तथा संस्थानमवधेर्वक्तव्यम्। आनुगामुक ca इति द्वारम्'।अनुगमनशील आनुगामुकः, सविपक्षोऽवधिर्वक्तव्यः।एकारान्तः शब्दः प्रथमान्त व इतिकृत्वा, यथा कयरे आगच्छइ' (उत्तरा. अ. 12 गा. 6) इत्यादि।तथा अवस्थितोऽवधिर्वक्तव्यः, द्रव्यादिषु कियन्तं कालम् अप्रतिपतितः सन्नुपयोगतो लब्धितश्चावस्थितो भवति। तथा चलोऽवधिर्वक्तव्यः, चलोऽनवस्थितः, सच वर्धमानः क्षीयमाणो वा भवति।तथा 'तीव्रमन्दाविति / द्वारम्'। तीव्रो मन्दो मध्यमश्चावधिर्वक्तव्यः, तत्र तीव्रो विशुद्धः, मन्दश्चाविशुद्धः, तीव्रमन्दस्तूभयप्रकृतिरिति। 'प्रतिपातोत्पादाविति द्वारम् / एककाले द्रव्याद्यपेक्षया , ca प्रतिपातोत्पादाववधेर्वक्तव्यौ // 27 // (वृत्ति-हिन्दी-) इनमें अवधि से लेकर गति पर्यन्त चौदह द्वार हैं। ऋद्धि (से सम्पन्न a के कथन) को जोड़ने से पन्द्रह (द्वार) हो जाते हैं। अन्य आचार्य 'अवधि' इस को छोड़ कर, . * आनुगामुक के साथ अनानुगामुक को अर्थ रूप में जोड़ कर, चौदह द्वारों का व्याख्यान - & करते हैं। (अवधि को वे क्यों छोड़ते हैं, क्योंकि) अवधि (स्वयं अपनी) प्रकृति नहीं है। तो क्या है? अवधि की ही प्रकृतियों का यहां विचार चल रहा है, और चूंकि (अवधि की) प्रकृतियों के : ही चौदह रूपों में निक्षेप का कथन यहां किया गया है। (अवधि को छोड़ें, या मिला।) दोनों , पक्षों में कोई विरोध नहीं है (दोनों ही अपनी-अपनी दृष्टि के आधार पर मान्य हैं)। इनमें 'अवधि' (द्वार) से तात्पर्य है कि अवधि के नाम आदि-भेदों के साथ इसका : स्वरूप बताना चाहिए। यहां 'अवधि' शब्द की दो बार आवृत्ति करनी चाहिए (तो अर्थ होगा-१ अवधि के अवधि आदि भेद)। इस प्रकार अवधि शब्द की व्याख्या हुई। और क्षेत्रपरिमाण - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 177 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222222222222222222222222222 -cacacacaca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000 / अर्थात् अवधि के विषयभूत क्षेत्र का परिमाण (कितना है- इसे) बताना चाहिए। इसी प्रकार | ca संस्थान- (अर्थात् अवधि के आकार) का कथन करना चाहिए। अथवा 'अर्थ के कारण है a (अर्थात् अर्थ की संगति बैठाने के लिए) विभक्ति परिणमित होती है' इस नियम के अनुरूप, क्षेत्रपरिमाण व संस्थान में द्वितीया ही है, ऐसा मानें। फलस्वरूप अर्थ होगा- अवधि के / जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेदों से युक्त क्षेत्रप्रमाण को कहें, इसी प्रकार संस्थान के विषय को ? 1 कहें। अब ‘आनुगामुक' यह द्वार है। अनुगमनशील को आनुगामुक कहते हैं। इसका विपक्ष (अननुगामक) के कथन के साथ निरूपण करना चाहिए। जिस प्रकार (उत्तराध्ययन-12/0 a 6 में प्रयुक्त') 'कयरे आगच्छइ' (कतरः आगच्छति) यहां 'कयरे' शब्द प्रथमान्त है, उसी . * प्रकार 'आणुगामिए' यह (प्राकृत पद सप्तमी का नहीं, अपितु) प्रथमान्त पद है, इत्यादि। और 'अवस्थित' अवधि का कथन करना चाहिए, अर्थात् द्रव्य आदि में अप्रतिपाती रहता : a हुआ यह अवधिज्ञान उपयोग व लब्धि की अपेक्षा से कितने समय तक स्थित रहता है (यह / बताना चाहिए)।और 'चल' अवधि का कथन करना चाहिए। 'चल' से तात्पर्य है- अनवस्थित, वह या तो वर्द्धमान (बढ़ता हुआ) होगा या क्षीयमाण (घटता हुआ) होगा। इसके अतिरिक्त, , a 'तीव्र-मन्द' द्वार है, अर्थात् अवधि के तीव्र, मन्द व मध्यम भेदों का निरूपण करना चाहिए। a इनमें तीव्र विशुद्ध होता है, मन्द विशुद्ध होता है और मध्यम उभयात्मक (तीव्र-मन्दात्मक) होता है। अब प्रतिपात-उत्पाद द्वार है, अर्थात् एक समय में द्रव्य आदि की अपेक्षा से अवधि, के प्रतिपात व उत्पत्ति (-इन दोनों) का कथन करना चाहिए // 27 // a (हरिभद्रीय वृत्तिः) द्वितीयगाथाव्याख्या-तथा 'ज्ञानदर्शनविभङ्गा' वक्तव्याः।किमत्र ज्ञानम्? किं वा " दर्शनम्? को वा विभङ्गः? परस्परतश्चामीषाम् अल्पबहुत्वं चिन्त्यमिति।तथा 'देशद्वारम्', , कस्य देशविषयः सर्वविषयो वाऽवधिर्भवतीति वक्तव्यम्। क्षेत्रद्वारम्', क्षेत्रविषयोऽवधिर्वक्तव्यः, . संबद्धासंबद्धसंख्येया संख्येयापान्तराललक्षणक्षेत्रावधिद्वारेणेत्यर्थः। गतिरिति च' अत्र इतिशब्द : आद्यर्थे द्रष्टव्यः, ततश्च गत्यादि च द्वारजालमवधौ वक्तव्यमिति तथा प्राप्तीनुयोगच कर्तव्यः, . * अनुयोगोऽन्वाख्यानम् / एवमनेन प्रकारेण एता' अनन्तरोक्ताः 'प्रतिपत्तयः' प्रतिपादनानि, . व प्रतिपत्तयः परिछित्तय इत्यर्थः। ततश्चावधिप्रकृतय एव प्रतिपत्तिहेतुत्वात् प्रतिपत्तय इत्युच्यन्ते- " इति गाथाद्वयसमुदायार्थः RCI 223200 - 178 178 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)CRO900 .. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Recaceecececece नियुक्ति-गाथा-29 OOOOOOOON 222222222222222222222222222222222222223232322 (वृत्ति-हिन्दी-) दूसरी (28वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है-ज्ञान-दर्शन-विभा c. -इनका कथन करें। अर्थात् यह बताना चाहिए कि यहां ज्ञान कितना है, दर्शन कितना है, . विभङ्ग (अवधि-अज्ञान) कितना है? इनके परस्पर अल्प-बहुत्व का विचार करना चाहिए। अब 'देश' द्वार है, अर्थात् किसके देशावधि और किसके सर्वावधि ज्ञान होता है -यह बताना चाहिए। क्षेत्र' द्वार- क्षेत्रविषय की दृष्टि से अवधि का निरूपण करना चाहिए, अर्थात् : सम्बद्ध, असम्बद्ध, अन्तरालवर्ती -इत्यादि क्षेत्र की अपेक्षा से अवधि का निरूपण करना , ca चाहिए। 'गति' इत्यादि द्वार- यहां इति पद 'आदि' अर्थ का वाचक है, अर्थात् अवधि के गति a आदि द्वारों के जाल (अनेक द्वारों) का कथन करना चाहिए। इसके साथ ही, ऋद्धि प्राप्त का . भी अनुयोग (कथन) करना चाहिए, यहां अनुयोग का अर्थ है- अनुकथन (अनुकूल, . अनुरूप कथन)। इस तरह, इस प्रकार से, ये पूर्वोक्त 'प्रतिपत्तियां' हैं। प्रतिपत्ति यानी, प्रतिपादन, परिच्छेद (विश्लेषणात्मक ज्ञान)। अवधि की उक्त प्रकृतियां (प्रकार, भेद) ही प्रतिपत्ति की हेतु (आधार) हैं, इस दृष्टि से इन्हें ही 'प्रतिपत्ति' कह दिया जाता है। यह दोनों , ca गाथाओं का समुदित अर्थ पूर्ण हुआ // 28 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) साम्प्रतमनन्तरोक्तद्वारगाथाद्वयाद्यद्वारव्याचिख्यासयेदमाह (नियुक्तिः) नामं ठवणा दविए, खित्ते काले भवे य भावे य। एसो खलु निक्खेवो ओहिस्सा होइ सत्तविहो R9 // [संस्कृतच्छायाः- नाम स्थापना द्रव्यं क्षेत्रं कालो भवच भावश्च / एष खलु निक्षेपोऽवधेः भवति. सप्तविधः। (वृत्ति-हिन्दी-) अबं, पीछे अवधि-द्वारों से सम्बन्धित दो गाथाएं कही गई हैं, उनमें : कहे गए प्रथम द्वार का व्याख्यान करने की इच्छा से (आगे) यह कथन कर रहे हैं (29) (नियुक्ति-अर्थ-) नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव -ये ही अवधि के , सप्त प्रकार के निक्षेप हैं। 89&c.090@c@necreneca@@neces@ 179 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222222222222222222222222222222222222222322 - -aaaaaaa श्रीआवश्यकनियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) PRODomme (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र नाम पूर्व निरूपितम्, नाम च तदवधिध नामावधिः, यस्थावधिरिति >> नाम क्रियते, यथा मर्यादायाः।तथा स्थापना चासाववधिश्च स्थापनावधिः, अक्षादिविन्यासः। अथवा अवधिरेव च यदभिधानं वचनपर्यायःसनामावधिः स्थापनावधिर्यः खलु आकारविशेषः / तत्तद्व्यक्षेत्रस्वामिनामिति।तथा द्रव्येऽवधिव्यावधिः, द्रव्यालम्बन इत्यर्थः। अथवाऽयम् / एकारान्तः शब्दः प्रथमान्त इतिकृत्वा द्रव्यमेवावधिव्यावधिः, भावाधिकारणं द्रव्यमित्यर्थः।। a यद्वोत्पद्यमानस्योपकारकं शरीरादि, तदवधिकारणत्वाद् द्रव्यावधिः।तथा क्षेत्रेऽवधिः क्षेत्रावधिः, a अथवा यत्र क्षेत्रेऽवधिरुत्पद्यते तदेवावधेः कारणत्वात् क्षेत्रावधिः प्रतिपाद्यते वा तथा कालेऽवधिः, कालावधिः अथवा यस्मिन् काले अवधिरुत्पद्यते कथ्यते वा स कालावधिः। भवनं भवः, सच , * बारकादिलक्षणः, तस्मिन् भवेऽवधिर्भवावधिः।भावः बायोपशमिकादिः द्रव्यपर्यायो वा, , तस्मिन्नवधिःभावावधिः चशब्दौसमुच्चयार्थो। एषः' अनन्तरव्यावर्णितः खलुशब्दः एक्कारार्थः, बस चावधारणे, एष एव, नान्यः।निक्षेपणं निक्षेपः, अवधेर्भवति सप्तविधः सप्तप्रकार इति गाथार्थR९॥ a (वृत्ति-हिन्दी-) 'अवधि' यह नाम पहले बता दिया है, नाम जो अवधि, वह 'नामावधि' है। किसी का नाम, जैसे 'मर्यादा' का नाम अवधि रख दिया जाता है तो वह 'नामावधि' है। और स्थापना रूप अवधि है- 'अक्ष' (चौसर के पासों) आदि में विन्यास (किसी पदार्थ के क सद्भाव का आरोप) किया जाना / अथवा 'अवधि' यह जो वचन-पर्याय रूप कथन है, वह a 'नाम-अवधि' है और जो द्रव्यावधि या क्षेत्रावधि के स्वामियों का आकार-विशेष स्थापित किया जाय वह स्थापना-अवधि है। द्रव्य-विषयक अर्थात् द्रव्य-आधारित अवधि 'द्रव्य अवधि' है। अथवा 'दविए' यह एकारान्त प्रथमान्त (द्रव्यम्) पद है, ऐसा मान कर द्रव्य ही जो अवधि, वह 'द्रव्यावधि' है, अर्थात् जो भाव-अवधि का कारणभूत द्रव्य है, या उत्पन्न होने वाले अवधिज्ञान का उपकारक शरीर आदि है, वह अवधि का कारण होने से 'द्रव्यावधि' है। " * इसी तरह क्षेत्र-विषयक अवधि क्षेत्रावधि' है, अथवा जिस क्षेत्र में अवधिज्ञान उत्पन्न होता है - है, वह क्षेत्र अवधिज्ञान का कारण होने से क्षेत्रावधि' है या उस रूप क्षेत्रावधि में प्रतिपादित . होता है। इसी तरह काल-विषयक अवधि (ही) कालावधि है, या जिस समय में अवधिज्ञान , * उत्पन्न होता है या कहा जाता है, वह कालावधि है। भव यानी होना, जैसे 'नारक' आदि होना, उस भव से सम्बन्धित जो अवधिज्ञान है, वह 'भवावधि' है।भाव यानी क्षायोपशमिकादि - 180 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Ramaee नियुक्ति-माथा- 30002020poor 12233333333333333333333333333333333333333 || भाव या द्रव्य-पर्याय, उससे सम्बन्धित जो अवधिज्ञान है, वह 'भावावधि' है। 'च' शब्द | 4 समुच्चयार्थक है। (एषः) -यह यानी अभी-अभी जिसका निरूपण किया गया है (वह निक्षेप सात प्रकार का है)। 'खलु' यह पद 'एवकार' (ही, निश्चय से) अर्थ को अभिव्यक्त कर रहा है , और वह 'अवधारण' करता है कि निक्षेप यानी निक्षेपण, अर्थात् अवधि के सप्तविध प्रकार बस ये ही हैं, अन्य कोई नहीं हैं। (यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ) // 29 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानी क्षेत्रपरिमाणाख्यद्वितीयद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह नियुक्तिः) - जावझ्या तिसमयाहारगस्स सुहमस्स पणगजीवस्स। ओगाहणा जहण्णा, ओहीखित्तं जहण्णं तु // 30 // [संस्कृतायाः-यावती त्रिसमयाहारकस्य सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य।अवगाहना जघन्या अवधिक्षेत्र & जघन्यं तु] (वृत्ति-हिन्दी-) अब, क्षेत्र-परिमाण नामक द्वितीय निक्षेप-द्वार का अवयवार्थ बताने , के लिए (शास्त्रकार) कह रहे हैं (30) ___(नियुक्ति-अर्व-) तीन समय के आहारक (किसी) सूक्ष्म पनकजीव (वनस्पतिविशेष) की जितनी कम से कम अवगाहना होती है, उतना ही (क्षेत्र) अवधि-ज्ञान का क्षेत्रपरिमाण होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र क्षेत्रपरिमाणं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नं भवति। यतश्च प्रायो जघन्यमादौ, अतस्तदेव तावत्प्रतिपालते-'यावती यत्परिमाणा, त्रीन्समयाव आहारयतीति : त्रिसमयाहारकस्तस्य, सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्मः तस्य, पनकश्वासौ जीवश्च पनकजीवः वनस्पतिविशेष इत्यर्थः, तस्याअवगाहन्ति यस्यां प्राणिनःसा अवगाहना तबुरित्यर्थः, 'जघन्या' सर्वस्तोका, अवधेः क्षेत्रं अवधिक्षेत्रम्, 'जघन्यं सर्वस्तोकम, तुशब्द एवकारावः, स चावधारणे, . तस्य चैवं प्रयोगः-अवधेः क्षेत्रं जघन्यमेतावदेवेति गाथाक्षरार्थः। (r)(r)(r)(r)(r)000000000000000 181 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333330232222222222222222222222232322 -acacacacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0202000902 (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) क्षेत्र परिमाण के जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेद होते हैं। . इनमें प्रायः जघन्य परिमाण का कथन पहले होता है, इसलिए उसे ही प्रतिपादित कर रहे . हैं- (यावती) जितने परिमाण वाली। 'त्रिसमयाहारक' वह है जो तीन समयों में आहार : ग्रहण करता है, सूक्ष्म यानी सूक्ष्म नाम कर्म के उदय से जो सूक्ष्म हो, पनक जो जीव, वह . पनक जीव जो वनस्पति-विशेष है, उसकी, अवगाहना यानी जिसमें प्राणी अवगाहित होते हैं / 4 अर्थात् शरीर। जघन्य यानी सब से कम अवधि का क्षेत्र है। 'तु' यह शब्द 'एवकार' अर्थ को है a व्यक्त कर रहा है, अत: वह अवधारण करता है, वह (अवधारण) इस प्रकार है- अवधि का " a जघन्य क्षेत्र इतना ही है- यह गाथा का अक्षरार्थ हुआ। (हरिभद्रीव वृत्तिः) अत्रच संप्रदायसमधिगम्योऽयमर्थः योजनसहसमानो मत्स्यो मृत्वा स्वकायदेशे यः। / उत्पद्यते हि सूक्ष्मः, पनकत्वेनेह स ग्राह्यः // 1 // संहृत्य चाद्यसमये, स ह्यायामं करोति च प्रतरम्। संख्यातीताख्याङ्गुलविभागबाहुल्यमानं तु॥२॥ स्वकतनुपृथुत्वमात्र, दीर्घत्वेनापि जीवसामर्थ्यात्। ' तमपि द्वितीयसमये, संहृत्य करोत्यसौ सूचिम्॥३॥ संख्यातीताख्यालविभागविष्कम्भमाननिर्दिष्याम्। निजतनुपृथुत्वदैया, तृतीयसमये तु संहृत्य // 4 // उत्पद्यते च पनकः, स्वदेहदेशे स सूक्ष्मपरिणामः। समयत्रयेण तस्यावगाहना यावती भवति // 5 // a (वृत्ति-हिन्दी-) संप्रदाय (परम्परा-विशेष) द्वारा समझा गया अर्थ यहां इस प्रकार 33.33 333333333333333333333333333333333333333 .. हजार योजन प्रमाण वाला मत्स्य मर कर अपने ही शरीर के एक (बाह्य) भाग में , सूक्ष्म पनक (विशेष वनस्पति) के रूप में उत्पन्न होता है, वही पनक जीव यहां ग्राह्य है। // 182 (r)(r)(r)(r)(r)n@RO9000000000000 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3-0amRamance 000000000 22222222222222222222222222 नियुक्ति गाथा-30 वह प्रथम समय में अपने शरीर में व्याप्त समस्त आत्म-प्रदेशों की मोटाई को a संकुचित कर 'प्रतर' बनाता है। उस प्रतर की मोटाई अङ्गुल के असंख्येय भाग प्रमाण होती है | // 2 // उस प्रतर की लम्बाई-चौड़ाई भी अपने देह-प्रमाण के अनुरूप होती है। दूसरे समय में वह अपने ही सामर्थ्य से उस प्रतर को संकुचित कर मत्स्यदेह प्रमाण लम्बाई-चौड़ाई , वाले आलमप्रदेशों की सूची बनाता है॥3॥ उस सूची की मोटाई-चौड़ाई अंगुल के असंख्येय भाग प्रमाण होती है। तीसरे समय में उस सूची को वह संकुचित करता है ||4|| और अंगुल के असंख्येय भाग प्रमाण वाले अपने शरीर के बाहरी प्रदेश में सूक्ष्म : परिणति वाले ‘पनक' के रूप में उत्पन्न होता है। उत्पत्ति के तीसरे समय में पनक के शरीर 4 का जितना प्रमाण होता है (उतने प्रमाण वाला क्षेत्र अवधि ज्ञान का जघन्य क्षेत्र होता है) 15 // a (हरिभद्रीय वृत्तिः) अत्र कश्चिदाह- किमिति महामत्स्यः? किं वा तस्य तृतीयसमये निजदेहदेशे , समुत्पादः? त्रिसमयाहारकत्वं वा कल्प्यत इति?, अत्रोच्यते, स एव हि महामत्स्यः त्रिभिः / समयैरात्मानं संक्षिपन् प्रयत्नविशेषात् सूक्ष्मावगाहनो भवति, नान्यः, प्रथमद्वितीयसमययोश्च * अतिसूक्ष्मः चतुर्थादिषु चातिस्थूरः त्रिसमयाहारक एव च तद्योग्य इत्यतस्तद्ग्रहणमिति।। 'अन्ये तु व्याचक्षते- त्रिसमयाहारक इति। आयामविष्कम्भसंहारसमयद्वयं सूचिसंहरणोत्पादसमयश्चेत्येते त्रयः समयाः, विग्रहाभावाच्चाहारक एतेषु, इत्यत उत्पादसमय a एव त्रिसमयाहारकः सूक्ष्मः पनकजीवो जघन्यावगाहनश्च, अतस्तत्प्रमाणं जघन्यमवधिक्षेत्रमिति। " 4 एतच्चायुक्तम् , त्रिसमयाहारकत्वस्य पनकजीवविशेषणत्वात्, मत्स्यायामविष्कम्भसंहरण समयद्वयस्य च पनकसमयायोगात्, त्रिसमयाहारकत्वाख्यविशेषणानुपपत्तिप्रसङ्गात् इति, अलं प्रसभेनेति गाथार्थः // 30 // - (वृत्ति-हिन्दी-) यहां किसी ने आशंका प्रस्तुत की -यह महामत्स्य कौन है? क्या उसकी अपने शरीर के एक भाग में उत्पत्ति सम्भव है? क्या तीन समय तक आहारक होना। संगत होता है? समाधान इस प्रकार है- महामत्स्य ही ऐसा होता है कि वह तीन समयों में संकुचित करते हुए प्रयत्न विशेष से सूक्ष्म अवगाहना वाला हो जाता है, अन्य कोई (जीव) ___(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 183 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -aaaacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 200mmनहीं। वह प्रथम व द्वितीय समय में अत्यन्त सूक्ष्म होता है, किन्तु चौथे समय में वह ce अतिस्थूल हो जाता है, इसलिए तीसरे समय तक के आहारक (स्वरूप) को ही (अतिसूक्ष्म , होने की) वैसी योग्यता प्राप्त होती है, इसलिए उसका यहां उसका यहां ग्रहण किया गया है। " अन्य लोग 'तीन समय के आहारक' की व्याख्या इस प्रकार करते हैं- आयाम व , विष्कम्भ (लम्बाई व चौड़ाई) को संकुचित करने के दो समय, और सूची रूप में उत्पत्ति (का , एक समय, कुल) मिला कर तीन समय होते हैं, इनमें चूंकि विग्रह गति नहीं होती (क्योंकि : उत्पत्ति किसी अन्य देश में जाकर नहीं होती), इसलिए इन समयों में जीव 'आहारक' रहता, है, इसलिए उत्पत्ति के समय में ही 'तीन समय का आहारक' सूक्ष्म पनक जीव जघन्य , a अवगाहना वाला होता है, इसलिए वह जघन्य अवगाहना प्रमाण ही अवधि क्षेत्र का जघन्य " व क्षेत्र होता है। किन्तु यह व्याख्यान युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि 'तीन समयों में आहारक' होने से का विशेषण पनक जीव का है (न कि महामत्स्य का), मत्स्य के आयाम व विष्कम्भ : a (लम्बाई-चौड़ाई) को संकुचित करने के समयों में 'पनक' का समय नहीं जुड़ने से, (पनक, जीव के साथ) 'तीन समय के आहारक' इस विशेषण की असंगति हो जाएगी। अब और . अधिक विस्तार से कहना अपेक्षित नहीं रह गया है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 30 // विशेषार्थ गाथा में 'पणग' अर्थात् पनक शब्द नीलम-फूलन (निगोद) के लिए आया है। सूत्रकार ने बताया है कि सूक्ष्म पनक जीव का शरीर तीन समय आहार लेने पर जितना क्षेत्र अवगाढ़ करता है, . ca उतना जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र होता है। निगोद के दो प्रकार होते हैं- (1) सूक्ष्म (2) बादर। प्रस्तुत सूत्र में 'सूक्ष्म निगोद' को ग्रहण , a किया गया है- 'सुहमस्स पणगजीवस्स' / सूक्ष्म निगोद उसे कहते हैं जहां एक शरीर में अनन्त जीव - होते हैं। ये जीव चर्म-चक्षुओं से दिखाई नहीं देते, किसी के भी मारने से मर नहीं सकते तथा सूक्ष्म / निगोद के एक शरीर में रहते हुए वे अनन्त जीव अन्तर्मुहूर्त से अधिक आयु नहीं पाते। कुछ तो है ca अपर्याप्त अवस्था में ही मर जाते हैं तथा कुछ पर्याप्त होने पर। ____ एक आवलिका असंख्यात समय की होती है तथा दो सौ छप्पन आवलिकाओं का एक . & 'खुड्डाग भव' (क्षुल्लक-क्षुद्र भव) होता है। यदि निगोद के जीव अपर्याप्त अवस्था में निरन्तर मरण , करते रहें तो एक मुहूर्त में वे 65536 बार जन्म-मरण करते हैं। इस अवस्था में उन्हें वहां असंख्यातकाल , बीत जाता है। - 18480@c(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 222222222222222233333333333333333333333333333 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aanemance नियुक्ति गाया-31 900909009999 222222222222222222222222222222222222 कल्पना करें कि निगोद के अनन्त जीव पहले समय में ही सूक्ष्म शरीर के योग्य पुद्गलों a का सर्वबंध करें, दूसरे में देशबंध करें, तीसरे समय में शरीरपरिमाण क्षेत्र रोके, ठीक उतने ही क्षेत्र में स्थित पुद्गल जघन्य अवधिज्ञान का विषय हो सकते हैं। पहले और दूसरे समय का बना हुआ शरीर " a अतिसूक्ष्म होने के कारण अवधिज्ञान का जघन्य विषय नहीं कहा गया है तथा चौथे समय में वह शरीर अपेक्षाकृत स्थूल हो जाता है, इसीलिए शास्त्रकार ने तीसरे समय के आहारक निगोदीय शरीर का ही उल्लेख किया है। यहां यह ज्ञातव्य है कि प्रथम, द्वितीय व तृतीय समय में आहारक रूप में जो जीव है, वह पनक का ही है, महामत्स्य का नहीं। अतः जो अन्य व्याख्याता तीसरे समय में ही पनक जीव की उत्पत्ति मानते हैं, उनका यहां खण्डन किया गया है। - आत्मा असंख्यात प्रदेशी है। उन प्रदेशों का संकोच एवं विस्तार कार्मणयोग से होता है। ये / प्रदेश इतने संकुचित हो जाते है कि वे सूक्ष्म निगोदीय जीव के शरीर में रह सकते हैं तथा जब विस्तार 4 को प्राप्त होते हैं तो पूरे लोकाकाश को व्याप्त कर सकते हैं। जब आत्मा कार्मण शरीर छोड़कर सिद्धत्व को प्राप्त कर लेती है, तब उन प्रदेशों में संकोच & या विस्तार नहीं होता, क्योंकि कार्मण शरीर के अभाव में कार्मण-योग नहीं हो सकता है। आत्म प्रदेशों में संकोच तथा विस्तार सशरीर जीवों में ही होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) एवं तावत् जघन्यमवधिक्षेत्रमुक्तम्, इदानीं उत्कृष्टमभिधातुकाम आह (नियुक्तिः) सवबहुअगणिजीवा, निरन्तरं जत्तियं भरिज्जासु। खित्तं सवदिसागं, परमोही खित्त निद्दिट्ठो // 31 // [संस्कृतच्ययाः-सर्वबहुअग्निजीवाः निरन्तरं यावद् अभाषुः ।क्षेत्रं सर्वदिक्कं परमावधिः क्षेत्रनिर्दिष्टः // ] (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, अब तक जघन्य अविध-क्षेत्र का कथन हुआ, अब, उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्र का करने की इच्छा से (आगे की गाथा) कह रहे हैं __(31) (नियुक्ति-अर्थ-) सर्वाधिक अग्निकायिक जीव निरन्तरता के साथ सब दिशाओं में " जितने क्षेत्र को भर दें (व्याप्त करें), उतना परमावधि का क्षेत्र कहा गया है। -77777778888888888888888888888888888888888888 @ @ @ @cR@ @cR@ @R@ @ @cR@ @ 185 / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2333333333333333333333 222222 -acace ce ca caca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) Ronawane / (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) सर्वेभ्यो विवक्षितकालावस्थायिभ्योऽनलजीवेभ्य एव बहवः सर्वबहवः, , न भूतभविष्यद्भ्यः, नापि शेषजीवेभ्यः।कुतः?, असंभवात्।अग्नयश्च ते जीवाश्च अग्निजीवाः, . सर्वबहवश्च तेऽग्निजीवाश्च सर्वबहग्निजीवाः। निरन्तरम्' इति क्रियाविशेषणम्। यावत्' / यावत्परिमाणम् ‘भृतवन्तो' व्याप्तवन्तः, 'क्षेत्रम्' आकाशम् / एतदुक्तं भवति-नैरन्तर्येण , विशिष्टसूचीरचनया यावत् भृतवन्त इति।भूतकालनिर्देशश्च अजितस्वामिकाल एव प्रायः / & सर्वबहवोऽनलजीवा भवन्ति अस्यामवसर्पिण्यां इत्यस्यार्थस्य ख्यापनार्थः। इदं . ca चानन्तरोदितविशेषणं क्षेत्रमेकदिक्कमपि भवति, अत आह- 'सर्वदिक्कम्'। अनेन " & सूचीपरिचमणप्रमितमेवाह / परमश्चासाववधिश्च परमावधिः, 'क्षेत्रम्' अनन्तरव्यावर्णितं , प्रभूतानलजीवमितमङ्गीकृत्य निर्दिष्ट क्षेत्रनिर्दिष्टः, प्रतिपादितो गणधरादिभिरिति, ततश्चपर्यायेण , परमावधेरेतावत्क्षेत्रमित्युक्तं भवति।अथवा सर्वबहग्निजीवा निरन्तरं यावद् भृतवन्तः क्षेत्रं : सर्वदिक्कम् / एतावति क्षेत्रे यान्यवस्थितानि द्रव्याणि तत्परिच्छेदसामर्थ्ययुक्तः परमावधिः / cक्षेत्रमङ्गीकृत्य निर्दिष्टो, भावार्थस्तु पूर्ववदेव, अयमक्षरार्थः। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) सर्वाधिक यानी विवक्षित समयों में होने वाले सभी / 8 अग्निकायिक जीवों से अधिक। अतीत व भावी अग्नि-कायिक जीवों से अधिक या अन्य , सभी जीवों से अधिक -यह अर्थ यहां करना उचित नहीं, क्योंकि ऐसा होना सम्भव नहीं है। " ca अग्नि जीव यानी जो अग्नि भी है और जीव भी है। सर्वाधिक जो अग्नि जीव हैं, उन्होंने। 'निरन्तर' यह क्रिया-विशेषण है, (अर्थात् निरन्तरता से) जितने क्षेत्र यानी आकाश को भर दिया था, व्याप्त किया था। भूतकाल की क्रिया का निर्देश यह बताने के लिए है कि इस : अवसर्पिणी में सर्वाधिक अग्निकायिक जीवों का सद्भाव श्री अजितनाथ (द्वितीय) तीर्थंकर : 4 के समय हुआ था। निरन्तर भरा गया' इस पूर्वोक्त विशेषण से युक्त क्षेत्र एक दिशा में भी हो . c सकता है, इसलिए कहा- सर्वदिक्क। यहां यह बताया गया है कि सूई की तरह घुमाने से , & जितना क्षेत्र परिधि में आये, उतना क्षेत्र / परमावधि यानी परम (उत्कृष्ट) जो अवधि ज्ञान। " क्षेत्र -सर्वाधिक अग्नि-जीवों द्वारा व्याप्त जिस क्षेत्र का अभी-अभी निरूपण किया गया है, . वही यहां क्षेत्र के रूप में निर्दिष्ट है। इस तरह परमावधि का ज्ञान-पर्याय की दृष्टि से इतना : * क्षेत्र होता है -यह (निष्कर्ष रूप में) निरूपित किया गया है। अथवा सर्वाधिक अग्नि जीवों " I ने निरन्तर सभी दिशाओं से जितने क्षेत्र को भरा था, उतने क्षेत्र में जो जो द्रव्य स्थित है, उन्हें - 186 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Racecaceaence හ හ හ හ හ හ හ හ ණ : - 223333333333333333333333333232322332223222222 नियुक्ति-गाथा-31 जानने की सामर्थ्य परमावधि में है, इस दृष्टि से उसका क्षेत्र-आधारित निर्देश किया गया है। ca इस व्याख्यान का भाव तो पूर्व व्याख्यान जैसा ही है। इस प्रकार यह गाथा का अक्षरार्थ , हुआ। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___ इदानीं साम्प्रदायिकः प्रतिपाद्यते- तत्र सर्वबह ग्निजीवा बादराः - & प्रायोऽजितस्वामितीर्थकरकाले भवन्ति, तदारम्भकपुरुषबाहुल्यात्, सूक्ष्माश्चोत्कृष्टपदिनस्तत्रैवावरुध्यन्ते, ततश्च सर्वबहवो भवन्ति। तेषां च स्वबुद्धया षोढाऽवस्थानं कल्प्यते- एकैकक्षेत्रप्रदेश एकैकजीवावगाहनया " सर्वतश्चतुरस्रो घनः प्रथमम्, स एव जीवः स्वावगाहनया द्वितीयम्, एवं प्रतरोऽपि द्विभेदः, श्रेण्यपि द्विभेदा।तत्र आद्याः पञ्च प्रकारा अनादेशाः, क्षेत्रस्याल्पत्वात् क्वचित्समयविरोधाच्च / षष्ठः प्रकारस्तु सूत्रादेश इति।ततश्चासौ श्रेणी अवधिनानिनः सर्वासु दिक्षु शरीरपर्यन्तेन भ्राम्यते, साच असंख्येयान् अलोके लोकमात्रान् क्षेत्रविभागान् व्याप्नोति, एतावदवधिक्षेत्रम् उत्कृष्टमिति। सामर्थ्यमङ्गीकृत्यैवं प्ररूप्यते, एतावति क्षेत्रे यदि द्रष्टव्यं भवति तदा पश्यति, न त्वलोके // द्रष्टव्यमस्ति, इति गाथार्थः // 31 // . (वृत्ति-हिन्दी-) अब सम्प्रदाय-गत व्याख्यान का प्रतिपादन कर रहे हैं- (द्वितीय) व तीर्थंकर अजितनाथ स्वामी के काल में ही प्रायः सर्वाधिक बादर (स्थूल) अग्नि-जीव होते हैं, " : क्योंकि उस समय अग्नि-आरम्भ (जलाना-बुझाना आदि) करने वाले पुरुषों की अधिकता है होती है। सूक्ष्म अग्नि-जीव भी उस समय उत्कृष्टपदी (उत्कृष्ट संख्या में विमान) होते हैं, इसलिए उनकी संख्या (अन्य समय के अग्नि-जीवों की तुलना में) सर्वाधिक होती है। इन अग्नि-जीवों के अवस्थान की कल्पना अपनी बुद्धि से करें तो वह अवस्थिति छ: - प्रकार से सम्भव है। एक-एक क्षेत्र-प्रदेश में एक-एक जीव की अवगाहना हो तो एक 'चतुरस्र घन' की रचना हो -यह एक स्थिति हुई। वही एक जीव अपनी अवगाहना के साथ स्थित हो- यह दूसरी स्थिति हुई। इसी प्रकार, इन जीवों की ‘प्रतर' रचना की जाए। वह , प्रतर भी दो प्रकार का होगा। इसी प्रकार 'श्रेणी' (एक-एक प्रदेश पर एक-एक जीव ca अवगाहित कर एक दिशा में विस्तार करते हुए) का निर्माण किया जाय / वह श्रेणी भी दो - प्रकार की होगी। इन (छः प्रकारों) में प्रथम पांच प्रकार अग्रहणीय (अस्वीकार्य) हैं, क्योंकि - @pecrenceDEOSO988@@ 187 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 232223333333333333333333333333333333333333333 -acaca cace caca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) POOOOOइन स्थितियों में अग्नि जीवों द्वारा व्याप्त क्षेत्र अल्प होगा और कहीं-कहीं स्वसिद्धान्त का | & विरोध भी सम्भावित है। किन्तु छठा प्रकार सूत्र-अनुरूप (अविरुद्ध) होता है। इस प्रकार, . 4 (छठे प्रकार के रूप में) जो श्रेणी का निर्माण होगा, (अर्थात् निजी अवगाहनायुक्त समस्त : & अग्नि-जीवों की जो श्रेणीबद्ध स्थिति बनेगी) उसे अवधिज्ञानी के सभी दिशाओं में शरीर-: पर्यन्त घुमाया जाये, तो वह श्रेणी असंख्येय लोक-प्रमाण क्षेत्रों को अलोक में भी व्याप्त कर ल लेगी। वह व्याप्त क्षेत्र (ही) अवधि ज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र है। यह कथन सामर्थ्य की दृष्टि से ही , किया गया है, क्योंकि इतने क्षेत्र में द्रष्टव्य को ही तो देखा जा सकता है, किन्तु अलोक में तो . कोई द्रष्टव्य होता ही नहीं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ।31 विशेषार्थ नन्दीसूत्र (सू. 15) में भी इसी उदाहरण द्वारा परमावधि ज्ञान की उत्कृष्ट क्षेत्र-मर्यादा का & निरूपण इस प्रकार किया है- समस्त सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त अग्निकाय के सर्वाधिक >> जीव सर्वदिशाओं में निरन्तर जितना क्षेत्र परिपूर्ण करें, उतना ही उत्कृष्ट क्षेत्र परमावधिज्ञान का : & निर्दिष्ट है। तात्पर्य यह है कि पांच स्थावरों में सबसे कम तेजस्काय के जीव हैं, क्योंकि अग्नि के जीव / सीमित क्षेत्र में ही पाये जाते हैं। सूक्ष्म जीव सम्पूर्ण लोक में, तथा बादर अढ़ाई द्वीप (मनुष्यलोक) में , होते हैं। तेजस्काय के जीव चार प्रकार के होते हैं। (1) पर्याप्त तथा अपर्याप्त सूक्ष्म तथा (2) पर्याप्त एवं 8 अपर्याप्त बादर। इन चारों में से प्रत्येक में असंख्यात जीव होते हैं। इन जीवों की उत्कृष्ट संख्या तीर्थकर 1 & भगवान् अजितनाथ के समय में हुई थी। चूर्णिकार के अनुसार जब पांच भरत और पांच ऐरावत में - 8 मनुष्यों की संख्या पराकाष्ठा पर होती है, तब सर्वाधिक संख्या में अग्नि-जीव होते हैं, क्योंकि लोगों 4 की बहुलता होने से पचन-पाचन क्रियाएं प्रचुर होती हैं। द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ के समय में , ca अग्नि के जीव पराकाष्ठा पर थे, क्योंकि उस समय मनुष्यों की संख्या भी अपनी पराकाष्ठा पर थी। . उस समय अग्नि-जीवों की उत्पत्ति भी निराबाध थी, क्योंकि महावृष्टि आदि का व्याघात नहीं था। अग्नि-जीवों से व्याप्त क्षेत्र को परमावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र बताया गया है। इस सन्दर्भ में जीवों की आकाश-प्रदेशों में अवगाहना किस प्रकार मानी जाय -यह विचारणा होती है। अतः ca कल्पना का सहारा लेना पड़ता है। असंख्यात-प्रदेशी लोकाकाश में अग्नि-जीवों के व्याप्त होने की . तीन प्रमुख स्थितियां सम्भावित हैं- घन, प्रतर व श्रेणी। इन तीनों में भी प्रत्येक के 2-2 भेद हैं। इस // प्रकार उन जीवों की भी अवस्थिति के कुल छः भेद हो जाते हैं। इन छहों प्रकारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है- 188 89c98cence(r)(r)(r)(r)(r)cene Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Icecacaceenacace 900000000001 2222222222222222222222222222222222222222222221 नियुक्ति-गाथा-31 पहली व दूसरी (चतुरस घन-विन्यास) स्थिति- आकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक ca अग्नि जीव रखे जाएं और एक चतुरस (चतुष्कोण, चौकोर) जैसी आकृति हो। मान लें कि तीन & आकाश-प्रदेशों की, एक के ऊपर एक, तीन पंक्तियां हों, इनके नौ प्रदेशों में प्रत्येक पर एक-एक जीव क हों तो कुल जीवों की संख्या नौ हुई। अब प्रत्येक जीव के ऊपर की ओर, और नीचे की ओर 1-1 जीव 4 और बैठाएं जायें, इस तरह एक-एक प्रदेश पर 3-3 जीव, और कुल मिलाकर 27 जीव अवस्थित हुए। " इस प्रकार, ऊपर नीचे जीवों के स्थित होने से, अर्थात् छहों दिशाओं में जीवों की अवगाहना के कारण, एक 'चतुरस घन' का स्वरूप बन गया। इसी तरह, समस्त अग्नि-जीवों को अवस्थित किया जाय। यह एक स्थिति हुई। दूसरी स्थिति इस प्रकार है- पहले विन्यास में आकाश के एक प्रदेश में एक ही जीव रखा a गया था। किन्तु इस दूसरी स्थिति में एक जीव को उतने आकाश-प्रदेशों में रखा जाएगा, जितनों में " ce उसकी अवगाहना सम्भव है। अग्नि-जीव की अवगाहना असंख्य प्रदेशात्मक मानी गई है। निश्चित " ही पहली स्थिति की तुलना में इस दूसरी स्थिति में जीवों द्वारा व्याप्त क्षेत्र अधिक होगा, वस्तुतः असंख्यात गुना होगा। तीसरी व चौथी स्थिति 'प्रतर' की है। एक-एक आकाश-प्रदेश पर एक-एक जीव रखे जाएं। (उनके ऊपर-नीचे जीव नहीं रखे जाएंगें)। इस प्रकार, पंक्तिबद्ध अनेक श्रेणी बनती जाएंगी। यह a तिरछा फैला हुआ विन्यास 'प्रतर' है। चौथी स्थिति में एक जीव को उसकी अवगाहना-योग्य आकाश-प्रदेशों पर रखा जाएगा। निश्चय ही 'चतुरस्र घन' की तुलना में 'प्रतर' की दोनों स्थितियों में , जीवों द्वारा व्याप्त क्षेत्र असंख्यातगुना अधिक होगा। - पांचवी व छठी स्थिति 'श्रेणी की है। श्रेणी एक ही पंक्ति की बनाई जाएगी, क्योंकि अनेक श्रेणियों से तो 'प्रतर' विन्यास बनाया जा चुका है। इसमें एक-एक आकाश-प्रदेश पर एक-एक ही जीव अवस्थित होंगे और 'सूई' के आकार की यह पंक्ति दीर्घ, दीर्घतर रूप से बढ़ती जाएगी। छठी " * स्थिति में अवगाहना-योग्य प्रदेशों में जीवों को अवस्थित किया जाएगा। निश्चय ही इस अंतिम प्रकार में जो सूई-तुल्य श्रेणी निर्मित होगी, वह प्रतर की तुलना में असंख्यातगुनी होगी। a पूर्वोक्त छहों स्थितियों में पहली पांच स्थितियां आगम-अनुमोदित न होने से मान्य नहीं है। क्योंकि इन पांचों में व्याप्त जीव-क्षेत्र उतना अधिक नहीं हो पाता, जितना शास्त्रकार को या . a आगमानुमोदित परमावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र के रूप में अभीष्ट हो। दूसरा कारण यह भी है कि इन " स्थितियों में आकाश के एक प्रदेश पर एक जीव को अवगाहित कराया जाता है, जो आगमानुमोदित 888888888888888888888888888888888888888888888 . (r)necessconce0c000000908 189 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 232223333333333333333333333333332322222222222 cacacecacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) OOOOOOO नहीं है, क्योंकि एक आकाश-प्रदेश पर एक जीव की अवगाहना नहीं हो सकती, अतः यह असत् ca कल्पना है। फिर भी घन व प्रतर की तुलना में श्रेणी (सूची) की रचना में बहुत अधिक क्षेत्र स्पृष्ट होता , है, इस दृष्टि से छठे विकल्प की स्थिति को ग्राह्य माना गया है। इस सूई रूप श्रेणी को अवधिज्ञानी , 4 की देह के पर्यन्तवर्ती भाग से सब दिशाओं में घुमाया जाय, वह सूची इतनी बड़ी होगी कि अलोक में , a भी लोकप्रमाण असंख्य खण्डों को स्पर्श करेगी। वह जितने क्षेत्र को अर्थात् (अर्थात् असंख्यात , a लोकप्रमाण क्षेत्र को) स्पृष्ट करेगी, वह परमावधि ज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र है। - यहां यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि समस्त अग्निकाय के जीवों की श्रेणी-सूची कभी किसी ने बनाई नहीं है और न उसका बनना संभव ही है। अलोकाकाश में कोई मूर्त पदार्थ भी नहीं है जिसे अवधिज्ञानी जाने / किन्तु परमावधिज्ञान का सामर्थ्य प्रदर्शित करने के लिए यह मात्र कल्पना की गई है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) एवं तावज्जघन्यमुत्कृष्टं चावधिक्षेत्रमभिहितम्, इदानीं विमध्यमप्रतिपिपादयिषया , एतावत्क्षेत्रोपलम्भे चैतावत्कालोपलम्भः, तथा एतावत्कालोपलम्भे चैतावत्ोत्रोपलम्भ इत्यस्यार्थस्य प्रदर्शनाय चेदं गाथाचतुष्टयं जगाद शास्त्रकारः नियुक्तिः) अंगुलमावलियाणं, भागमसंखिज्ज दोसुसंखिज्जा। अंगुलमावलिअंतो, आवलिआ अंगुलपुहुत्तं // 32 // हत्थंमि मुहुत्तन्तो, दिवसंतो गाउयंमि बोद्धव्यो। जोयण दिवसपुहुत्तं, पक्खन्तो पण्णवीसाओ // 33 // भरहंमि अद्धमासो, जंबूदीवंमि साहिओ मासो। वासं च मणुअलोए, वासपुहुत्तं च रुयगंमि // 34 // संखिज्जंमि उकाले, दीवसमुद्दा वि हुंति संखिज्जा। कालंमि असंखिज्जे, दीवसमुद्दा उ भइयव्वा // 35 // [संस्कृतच्छायाः-अलि-आवलिकयोः भागमसंख्येयं द्वयोः संख्येयौ / अङ्गुलमावलिकान्तरावलिकाa अङ्गुलपृथक्त्वम् // हस्ते मुहूर्तान्तर्दिवसान्तर्गव्यूते बोद्वव्यः। योजने दिवस-पृथक्त्वं पक्षान्तः पञ्चविंशतिम् / भरतेऽर्द्धमासः, जम्बूद्वीपे साधिको मासः।वर्ष च मनुजलोके वर्षपृथक्त्वं च रुचके।संख्येये तु काले द्वीपसमुद्रा अपि भवन्ति संख्येयाः ।काले असंख्येये द्वीपसमुद्रास्तु भक्तव्याः॥ - 190 (r)(r)cr(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 8 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Raacancececace नियुक्ति-गाथा-32-35 32900000000 2222222222222222222222222322 (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार जघन्य व उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्र का.कथन किया गया। अब ca मध्यम अवधि-क्षेत्र के प्रतिपादन की इच्छा से 'इतने क्षेत्र की उपलब्धि (ज्ञान) में इतने काल " की उपलब्धि होती है, और इतने काल की उपलब्धि में इतने क्षेत्र की उपलब्धि होती है'4 इस तरह विषय को स्पष्ट करने की दृष्टि से भी शास्त्रकार आगे की चार गाथाएं कह रहे हैं (32-35) (नियुक्ति-अर्थ-) अङ्गुलि के असंख्यात भाग को देखने वाला (अवधिज्ञानी) आवलिका " के असंख्यात भाग तक देखता है। अङ्गुल के संख्यात भाग क्षेत्र को देखने वाला (अवधिज्ञानी) 0 आवलिका के संख्यात भाग तक देखता है। अङ्गुल जितने क्षेत्र को देखने वाला भिन्न (अपूर्ण) , a आवलिका तक देखता है। काल की अपेक्षा से एक आवलिका तक देखने वाला क्षेत्र की . a अपेक्षा से अङ्गुल पृथक्त्व (दो अङ्गुलों से लेकर नौ अङ्गुलों तक के) क्षेत्र को देखता है। . एक हाथ जितने क्षेत्र को देखने वाला अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल पर्यन्त देखता है। एक ca गव्यूत (एक चौथाई योजन) क्षेत्र को देखने वाला अन्तर्दिवस काल (एक दिन से कुछ कम) व पर्यन्त देखता है। एक योजन क्षेत्र को देखने वाला दिवसपृथक्त्व काल (दो दिनों से लेकर नौ दिनों) पर्यन्त देखता है। पच्चीस योजन क्षेत्र को देखने वाला अन्तःपक्ष (कुछ काल कम एक . ca पखवाड़े) पर्यन्त देखता है। - भरत क्षेत्र जितने क्षेत्र को देखने वाला अर्द्धमास काल पर्यन्त देखता है। जम्बूद्वीप a प्रमाण क्षेत्र को देखने वाला साधिक मास (एक मास से कुछ अधिक) काल पर्यन्त देखता है। " मनुष्य लोक प्रमाण क्षेत्र को देखने वाला एक वर्ष पर्यन्त काल को देखता है। रुचक द्वीप - प्रमाण क्षेत्र को देखने वाला वर्ष-पृथक्त्व (दो से नौ वर्षों) तक काल को देखता है। संख्यात काल तक देखने वाला (अवधिज्ञानी) संख्यात द्वीप-समुद्र क्षेत्र को देखता है है। असंख्यात काल तक देखने वाला (अवधिज्ञानी) असंख्यात द्वीप-समुद्र जितने क्षेत्र को . देख पाए -इस विषय में भजना है (अर्थात् वह कभी संख्यात द्वीप समुद्रों को ही देख पाता " a है, और कभी असंख्यात द्वीप-समुद्रों को भी देख सकता है)। - 82800200crence@98cronner@@ 191 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Reacecra श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9000000 - (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___प्रथमगाथाव्याख्या- 'अङ्गुलम्' क्षेत्राधिकारात् प्रमाणाङ्गुलं गृह्यते, अवध्यधिकाराच्च . उच्छ्रयाङ्गुलमित्येके / 'आवलिका' असंख्येयसमयसंघातोपलक्षितः कालः। उक्तं च "असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा आवलियत्ति वुच्चति" अङ्गलं व चावलिका च अङ्गुलावलिकेतयोरङ्गुलावलिकयोः। भागम्' अंशम् असंख्येयं पश्यति अवधिज्ञानी।। एतदुक्तं भवति-क्षेत्रमङ्गुलासंख्येयभागमात्रं पश्यन् कालतः आवलिकाया असंख्येयमेव / < भागं पश्यत्यतीतमनागतं चेति।क्षेत्रकालदर्शनं चोपचारेणोच्यते, अन्यथा हि क्षेत्रव्यवस्थितानि , दर्शनयोग्यानि द्रव्याणि, तत्पर्यायांश्च विवक्षितकालान्तरवर्त्तिनः पश्यति, न तु क्षेत्रकालौ, , मूर्त्तद्रव्यालम्बनत्वात्तस्येति।एवं सर्वत्र भावना द्रष्टव्या।क्रिया च गाथाचतुष्टयेऽप्यध्याहार्या।। तथा 'द्वयोः' अङ्गुलावलिकयोः संख्येयौ भागौ पश्यति, अङ्गुलसंख्येयभागमात्रं क्षेत्रं : पश्यन्नावलिकायाः संख्येयमेव भागं पश्यतीत्यर्थः।तथा अङ्गुलं पश्यन् क्षेत्रतः आवलिकान्तः पश्यति, भिन्नामावलिकामित्यर्थः।तथा कालतः आवलिकां पश्यन् क्षेत्रतोऽङ्गुलपृथक्त्वं पश्यति। पृथक्वं हि द्विप्रभृतिरा नवभ्यः इति प्रथमगाथार्थः // 32 // (वृत्ति-हिन्दी-) प्रथम गाथा का व्याख्यान इस प्रकार है- अङ्गुल पद से यहां " & 'प्रमाणांगुल' लेना चाहिए, क्योंकि यहां क्षेत्र का अधिकार (प्रसंग) चल रहा है। कुछ लोग " यहां अंगुल पद से उच्छ्रयांगुल ग्रहण करते हैं, क्योंकि यहां अवधि ज्ञान का अधिकार (प्रकरण) है। असंख्यात समयों के समूह रूप में अभिव्यक्त काल को 'आवलिका' कहते हैं। , कहा भी है- "असंख्यात समयों के समूह को मिला कर एक 'आवलिका' कही जाती है"।" अंगुली व आवलिका -इन दोनों के असंख्यात भाग यानी अंश को अवधिज्ञानी देखता है। " तात्पर्य यह है कि अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण क्षेत्र को देखता हुआ (अवधिज्ञानी) ca काल की अपेक्षा से आवलिका के (वर्तमान), अतीत, भावी रूपों सहित असंख्येय भाग को, देखता है। यहां क्षेत्र व काल को देखना जो कहा गया है, वह उपचार से ही है क्योंकि वह क्षेत्र . में स्थित दर्शन-योग्य द्रव्यों को और विवक्षित काल के अन्तर्वर्ती पर्यायों को देखता है, न कि क्षेत्र व काल को, क्योंकि अवधिज्ञान का आलम्बन मात्र मूर्तद्रव्य ही होता है। इसी प्रकार , & (अन्यत्र, जहां भी क्षेत्र व काल को देखने की बात हो, वहां) सर्वत्र यही भावना (समझ) : रखनी चाहिए। ('देखता है' -इस) क्रिया का चारों गाथाओं में अध्याहार करना चाहिए। . इसी प्रकार जो अंगुल व आवलिका के संख्येय भागों को देखता है, वह अंगुल के मात्र - 19280@cr(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)0898c000 * 333333333333333333333333333333333333333333333 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRece 2299999000 333333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-32-35 / संख्यात भाग को देखता हुआ आवलिका के मात्र संख्यात भाग को देखता है- यह अर्थ है ca और क्षेत्र की दृष्टि से (सम्पूर्ण) अंगुल को देखता हुआ अवधिज्ञानी अन्तःआवलिका को, . & अर्थात् भिन्न या अपूर्ण आवलिका को देखता है। और काल की दृष्टि से आवलिका को देखता : हुआ, क्षेत्र की अपेक्षा से अंगुल-पृथक्त्व को देखता है। यहां पृथक्त्व से तात्पर्य है- दो से नौ : c तक की संख्या / यह प्रथम गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||32 / / (हरिभद्रीय वृत्तिः) द्वितीयगाथाव्याख्या- 'हस्ते' इति हस्तविषयः क्षेत्रतोऽवधिःकालतो मुहूर्तान्तः पश्यति, , भिन्न मुहूर्त्तमित्यर्थः। अवध्यवधिमतोरभेदोपचाराद् अवधिः पश्यतीत्युच्यते।तथा कालतो. दिवसान्तः' भिन्नं दिवसं पश्यन, क्षेत्रतो गव्यूतम् इतिगव्यूतविषयो बोद्धव्यः, तथा योजनविषयः / क्षेत्रतोऽवधिःकालतो दिवसपृथक्त्वं पश्यति, तथा, 'पक्षान्तः भिन्न पक्षं पश्यन् कालतः क्षेत्रतः // & पञ्चविंशतियोजनानि पश्यतीति द्वितीयगाथार्थः // 33 // 4 (वृत्ति-हिन्दी-) दूसरी गाथा की व्याख्या इस प्रकार है- 'हाथ में' इसका तात्पर्य ब है- (अवधि) क्षेत्र की दृष्टि से (एक) हाथ पर्यन्त (देखता है, तो वह) काल की दृष्टि से . 'अन्तर्मुहूर्त' यानी भिन्न (अपूर्ण) मुहूर्त काल को देखता है। अवधि व अवधिज्ञानी -इन दोनों से 4 में अभेद उपचार कर 'अवधि देखता है' -ऐसा कहा गया है। (वास्तव में उसका तात्पर्य है - अवधिज्ञानी देखता है)। और काल की दृष्टि से 'अन्तर्दिवस' यानी भिन्न (अपूर्ण) दिवस को , देखता हुआ (अवधिज्ञानी) क्षेत्र की दृष्टि से 'गव्यूत' (एक चौथाई योजन) को (ज्ञान का) : C विषय करता है- ऐसा समझें। और क्षेत्र की दृष्टि से योजन को विषय करने वाला 'अवधि' / c ज्ञान काल की दृष्टि से दिवस-पृथक्त्व को देखता है, और काल की दृष्टि से 'अन्तःपक्ष' यानी // * भिन्न (अपूर्ण) पक्ष (पखवाड़े) को देखता हुआ क्षेत्र की दृष्टि से पच्चीस योजन पर्यन्त देखता " है- यह द्वितीय गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 33 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) तृतीयगाथा व्याख्यायते- 'भरते' इति भरतक्षेत्रविषये अवधौ कालतोऽर्धमास उक्तः। c एवं जम्बूद्वीपविषये चावधौ साधिको मासः, वर्ष च मनुष्यलोकविषयेऽवधौ इति।मनुष्यलोकः / व खल्वर्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणः, वर्षपृथक्त्वं च चकाख्यबाहाद्वीपविषयेऽवधाववगन्तव्यमिति - तृतीयगाथार्थः॥३४॥ - @986@ @@@ @ @ @ @ @ @ce(r)(r) 193 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 a cace cace cacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 (वृत्ति-हिन्दी-) तीसरी गाथा की व्याख्या की जा रही है- भरत में, अर्थात् (सम्पूर्ण) / ce 'भरत' क्षेत्र जब (क्षेत्र-दृष्टि से) अवधि का विषय हो तो काल की दृष्टि से उसका विषय आधा >> & मास कहा गया है। इसी प्रकार, (क्षेत्र-दृष्टि से) जम्बूद्वीप तक अवधि का विषय हो तो (काल, की दृष्टि से अवधि का विषय) साधिक मास (कुछ अधिक महीना) होता है। (समस्त) मनुष्य लोक अवधि का विषय हो तो (काल की दृष्टि से एक) वर्ष विषय होता है। मनुष्यलोक (अवस्थान) अढ़ाई द्वीप-समुद्रपरिमित (मनुषोत्तर पर्वत तक) माना गया है। क्षेत्र की दृष्टि से . & बाह्य (मनुष्य-लोक से बाहर स्थित) रुचक नामक द्वीप को अवधि जब विषय करता " ca (देखता) है, तब काल की दृष्टि से वर्ष-पृथक्त्व (2 से लेकर नौ वर्ष) पर्यन्त अवधि का विषय होता है- ऐसा समझना चाहिए। यह तृतीय गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 34 // 4 (हरिभद्रीय वृत्तिः) ca चतुर्थगाथा व्याख्यायते-संख्यायत इति संख्येयः, सच संवत्सरलक्षणोऽपि भवति। " तु-शब्दो विशेषणार्थः। किं विशिनष्टि? संख्येयो वर्षसहस्रात्परतोऽभिगृह्यते इति, तस्मिन् // संख्येये। काले' कलनं कालः, तस्मिन् काले अवधिगोचरे सति, क्षेत्रतस्तस्यैव अवधेर्गोचरतया, . 6. द्वीपाश्च समुद्राश्च द्वीपसमुद्रा अपि भवन्ति संख्येयाः।अपिशब्दात् महानेकोऽपि तदेकदेशोऽपि, इति। तथा काले असंख्ये ये पल्योपमादिलक्षणेऽवधिविषये सति, तस्यैव असंख्येयकालपरिच्छेदकस्यावधेः क्षेत्रतः परिच्छेद्यतया द्वीपसमुद्राश्च भक्तव्याः' विकल्पयितव्याः। 1 . कदाचिदसंख्येया एव, यदा इह कस्यचिन्मनुष्यस्य असंख्येयद्वीपसमुद्रविषयोऽवधिरुत्पद्यते / * इति।कदाचिन्महान्तः संख्येयाः, कदाचिद् एकः, कदाचिदेकदेशः स्वयम्भूरमणतिरश्चोऽवधेः / विज्ञेयः, स्वम्भूरमणविषयमनुष्यबाहावधेर्वा योजनापेक्षया च सर्वपक्षेषु असंख्येयमेव क्षेत्रमिति ca गाथार्थः // 35 // __(वृत्ति-हिन्दी-) चतुर्थ गाथा की व्याख्या की जा रही है- (संख्येयकाल को जाने . & तो...) यहां संख्येय का अर्थ है- जिसकी गिनती की जा सके। वह संख्येय 'संवत्सर' होता . है। 'तो' यह पद विशेषता व्यक्त कर रहा है। यह क्या (या किसकी) विशेषता बता रहा है? & (वह यह बता रहा है कि) 'संख्येय' से यहां हजार वर्षों से अधिक काल को ग्रहण करना , चाहिए। उस संख्येय काल में। 'कलन' (गिनती) ही काल है। वह काल जब अवधि का विषय : (ज्ञेय) हो तो क्षेत्र की दृष्टि से उसी अवधि के संख्यात द्वीप व समुद्र भी विषय होते हैं। 'भी' , - 194 (r)necken@cr@ @ce@ @cR90090880900 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222223332 22222233 | CORRECER cace ce नियुक्ति गाथा-32-35 00000000m | यह पद यह संकेत कर रहा है कि कभी एक महान् (विशाल) भाग और कहीं उसका & आंशिक भाग भी विषय (ज्ञेय) होता है। और असंख्यात काल यानी पल्योपम आदि काल , & जब अवधि का विषय हो तो उसी यानी असंख्यात काल के ज्ञाता अवधि के क्षेत्र की दृष्टि से , ज्ञेय होने वाले द्वीपों व समुद्रों की भजना कल्पनीय है। कभी उस समय जब किसी मनुष्य , को यहां असंख्यात द्वीप समुद्र को विषय करने वाला अवधि ज्ञान उत्पन्न होता है, तब उसके / ca वे असंख्यात ही द्वीप-समुद्र अवधि-विषय होते हैं। किन्तु कभी (संख्यात द्वीप-समुद्र ही है a अवधि के विषय हो पाते हैं, जैसे कभी) महान् संख्यात द्वीप-समुद्र (अवधि-विषय होते हैं), " तो कभी एक ही द्वीप या समुद्र, और कभी स्वयम्भूरमण पर्वत का एकदेश (आंशिक) , तिर्यक्-भाग ही अवधि का विषय हो पाता है। योजनों की दृष्टि से तो उक्त सभी विकल्पों में , (अर्थात् संख्यात द्वीप-समुद्रों को, एक द्वीप या समुद्र को या एकदेश भाग को जानने की , स्थिति में भी, योजनों को दृष्टि में रखें तो) क्षेत्र असंख्यात ही है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण : a हुआ॥ 35 // .. विशेषार्थ . प्रस्तुत चार गाथाओं में अवधि ज्ञान के विषय का, क्षेत्र व काल की अपेक्षा रख कर, विचार, किया गया है। अवधि ज्ञान के क्षेत्र व काल की दृष्टि से विषय-भेदों को समझने हेतु एक तालिका नीचे . प्रस्तुत की जा रही हैक्षेत्र-अपेक्षा काल-अपेक्षा a 1. एक अंगुल का असंख्यातवां भाग देखे। 1. एक आवलिका का असंख्यातवां भाग देखे। ca 2. अंगुल का संख्यातवां भाग देखे। 2. आवलिका का संख्यातवां भाग देखे। ca 3. एक अंगुल 3. आवलिका से कुछ न्यून। 4. पृथक्त्व अंगुल (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) 4. एक आवलिका।। 5. एक हस्त 5. एक मुहूर्त से कुछ न्यून। 6. एक कोस 6. एक दिवस से कुछ न्यून। 4 7. एक योजन 7. पृथक्त्व दिवस (दो से नौ दिवस तक) 8. पच्चीस योजन 8. एक पक्ष से कुछ न्यून। - (r)(r)R@RO98ck@@@98088000 195 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cacacacacacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 200000 9. भरतक्षेत्र 9. अर्द्ध मास। 232223232223333333333333333333322222222222222 10. जम्बूद्वीप 10. एक मास से कुछ अधिक। 68 11. अढ़ाई द्वीप 11. एक वर्ष। 12. रुचक द्वीप 12. पृथक्त्व वर्ष (दो से नौ वर्ष तक) 13. संख्यात द्वीप 13. संख्यात काल। & 14. संख्यात व असंख्यात द्वीप एवं समुद्रों की भजना 14. पल्योपमादि असंख्यात काल। a (अर्थात् संख्यात भी असंख्यात भी, एकदेश भी) दिगम्बर परम्परा में भी षट्खण्डागम (पुस्तक-13) में अवधिज्ञान के क्षेत्र को लेकर विचार , किया गया है, जो कुछ अंशों में श्वेताम्बर परम्परा से भिन्नता रखता है। तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने वालों के लाभार्थ एक तालिका नीचे दी जा रही हैक्षेत्र-अपेक्षा काल-अपेक्षा उत्सेधांगुल का असंख्यातवां भाग आवलिका का असंख्यातवां भाग उत्सेधांगुल का संख्यातवां भाग आवलिका का संख्यातवां भाग अंगुलमात्र अन्तरावलिका . .. अंगुलपृथक्त्व आवलिका हस्तप्रमाण आवलिका पृथक्त्व 1 गव्यूत साधिक उच्छ्वास 1योजन अन्तर्मुहूर्त . 25 योजन अन्तर्दिवस भरतक्षेत्र अर्धमास जम्बूद्वीप साधिक मास मनुष्यक्षेत्र एक वर्ष रुचक द्वीप वर्षपृथक्त्व संख्येय द्वीपसमुद्र संख्येय वर्ष असंख्येय द्वीपसमुद्र असंख्येय वर्ष 196 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@900 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ acecacecaceaect 000000000 नियुक्ति गाथा-36 (हरिभंद्रीय वृत्तिः) एवं तावत् परिस्थूरन्यायमङ्गीकृत्य क्षेत्रवृद्धया कालवृद्धिरनियता, कालवृद्धया च क्षेत्रवृद्धिः प्रतिपादिता।साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया यवृद्धौ यस्य वृद्धिर्भवति, यस्य वा न भवति-अमुमर्थमभिधित्सुराह (नियुक्तिः) काले चउण्ड वुड्डी, कालो भइयव्बु खित्तवुडीए। वुड्डीए दव्दपज्जव, भइयव्वा खित्तकाला उ॥३६॥ [संस्कृतच्छायाः-काले चतुर्णा वृद्धिः, कालो भक्तव्यः क्षेत्रवृद्धौ।वृद्धौ द्रव्यपर्याययोः भक्तव्यौ क्षेत्रकालौ।] ___ (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, ‘परिस्थूल न्याय' (अर्थात् किसी सूक्ष्मता में न जाकर, . & मोटे तौर पर निरूपण करना -इस नीति) को स्वीकार कर, क्षेत्र-वृद्धि से अनियत कालगत : 8 वृद्धि, और काल-वृद्धि से क्षेत्र-गत वृद्धि का होना बताया गया। अब द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव : की अपेक्षा से किसी की वृद्धि से किसी (अन्य) की वृद्धि होती है या किसी की वृद्धि नहीं है ce होती -इस अर्थ को बताने हेतु (आगे की गाथा) कह रहे हैं (36) __ (नियुक्ति-अर्थ-) काल की वृद्धि होने पर चारों (द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव) की वृद्धि, होती (ही) है। क्षेत्र की वृद्धि में काल-वृद्धि भजनीय (विकल्प-योग्य) है। द्रव्य व पर्याय की " a वृद्धि होने पर क्षेत्र और काल की वृद्धि भजनीय (विकल्प-योग्य) होती है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) काले' अवधिज्ञानगोचरे, वर्धमान इति गम्यते। चतुर्णाम्' द्रव्यादीनां c वृद्धिर्भवति, सामान्याभिधानात्।कालस्तु 'भक्तव्यः' विकल्पयितव्यः क्षेत्रस्य वृद्धिः क्षेत्रवृद्धिः, तस्यां क्षेत्रवृद्धौ सत्याम, कदाचिद्वर्धते कदाचिन्नेति।कुतः? क्षेत्रस्य सूक्ष्मत्वात् कालस्य च // परिस्थूरत्वादिति।द्रव्यपर्यायौ तु वर्धेते।सप्तम्यन्तता चास्य “ऐ होति अयारन्ते, पर्यमि बिइयाए . बहुसु पुलिस। तइयाइछट्ठीसत्तमीण एगमि महिलत्ये 1r [एत् भवति अकारान्ते पदे, द्वितीयायां बहुषु / & पुंलिजेतृतीयादिषु षष्ठीसप्तम्योः एकस्मिन् महिलायें // ] अस्माल्लक्षणात् सिद्ध्यति।एवमन्यत्रापि , प्राकृतशैल्या इष्टविभक्त्यन्तता पदानामवगन्तव्येति।तथा वृद्धौ च, द्रव्यं च पर्यायश्च द्रव्यपर्यायौ " तयोः वृद्धौ सत्यां 'भक्तव्यौ' विकल्पनीयौ क्षेत्रकालावेव। तुशब्दस्य एवकारार्थत्वात्, - 828ce@pc@ @ @ @ @ @ @ @ 197 222233333333333333333333333333333333333333333 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333222333222222222 -caca caca cacea श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2000020कदाचिदनयोवृद्धिर्भवति कदाचिन्नेति, द्रव्यपर्याययोः सकाशात् परिस्थूरत्वात् क्षेत्रकालयोरिति ca भावार्थः। द्रव्यवृद्धौ तु पर्याया वर्द्धन्त एव, पर्यायवृद्धौ च द्रव्यं भाज्यम् / द्रव्यात् पर्यायाणां सूक्ष्मतरत्वात् अक्रमवर्तिनामपि च वृद्धिसंभवात् कालवृद्धयभावो भावनीय इति गाथार्थः // 36 // . a (वृत्ति-हिन्दी-) काल जब अवधिज्ञान का विषय हो, यहां 'काल' पद से (प्रकरण वश) काल-वृद्धि अर्थ गम्य होता है (अर्थात् जब काल की वृद्धि को अवधि ज्ञान अपना विषय : बनाए तो), चारों की, अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव -इनकी वृद्धि होती है। यहां चारों का / सामान्य रूप से ग्रहण किया गया है (चारों को अलग-अलग नाम से नहीं कहा गया है)। काल की भजना है, अर्थात् विकल्प से कथनीय है। अर्थात् क्षेत्र की वृद्धि होने पर, कभी तो " ca काल की वृद्धि होती है और कभी नहीं भी होती। ऐसा कैसे? (उत्तर है-) क्योंकि क्षेत्र " a (अपेक्षाकृत) सूक्ष्म होता है और काल (अपेक्षाकृत) स्थूल होता है। जब द्रव्य व पर्याय . & वृद्धिगत हों। “अकारान्त पद में द्वितीया बहुवचन में 'ए' होता है, स्त्रीलिंग में तृतीया आदि, G (अर्थात्) सप्तमी व षष्ठी विभक्ति के एकवचन में भी एकार होता है" -इस (प्राकृत व्याकरण के) लक्षण के अनुसार, यहां 'वुड्ढीए' (वृद्धौ) इस प्राकृत पद में सप्तमी विभक्ति का सद्भाव : सिद्ध होता है (अतः अर्थ होगा- वृद्धि होने पर)। इसी प्रकार अन्यत्र भी प्राकृत-शैली के .. 1 अनुरूप यह जान लेना चाहिए कि पदों के अन्त में कौन सी विभक्ति प्रयुक्त हुई है। द्रव्य व " पर्याय -इन दोनों की वृद्धि होने पर, क्षेत्र व काल -इन दोनों की ही भजना है। 'तु' यह शब्द ca ‘एवकार' को व्यक्त करता है। तात्पर्य यह है कि (द्रव्य-पर्याय की वृद्धि होने पर), क्षेत्र व 1 & काल की कभी वृद्धि होती है, और कभी नहीं, क्योंकि द्रव्य व पर्याय की तुलना में क्षेत्र व काल स्थूल होते हैं। द्रव्य की वृद्धि होने पर तो पर्यायों में वृद्धि होगी ही, किन्तु पर्यायों की , 8 वृद्धि होने पर द्रव्य में वृद्धि की भजना है, क्योंकि द्रव्य की तुलना में पर्याय अधिक सूक्ष्म होते , & हैं, और चूंकि द्रव्य में अक्रमवर्ती-पर्यायों (स्पर्श रसादि गुणों) की भी वृद्धि संभावित है, . इसलिए (पर्याय-वृद्धि होने पर भी) काल-वृद्धि नहीं (भी) होती -ऐसा समझ लेना चाहिए। < यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 36 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) अत्र कश्चिदाह-जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नयोः अवधिज्ञानसंबन्धिनोः क्षेत्रकालयोः अङ्गुलावलिकाऽसंख्येयभागोपलक्षितयोः परस्परतः प्रदेशसमयसंख्यया परिस्थूरसूक्ष्मत्वे सति -88888888888888888888888888888888888881 - 198 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRece 209020200090 नियुक्ति गाथा-37 कियता भागेन हीनाधिकत्वमिति।अत्रोच्यते, सर्वत्र प्रतियोगिनः खल्वावलिकाऽसंख्येयभागादेः ca कालाद् असंख्येयगुणं क्षेत्रम्।कुत एतत्? अत आह नियुक्तिः) सुहमो य होइ कालो, तत्तो सुहुमयरं हवइ खित्तं। अङ्गलसेढीमित्ते, ओसप्पिणीओ असंखेज्जा // 37 // [संस्कृतच्छायाः- सूक्ष्मश्च भवति कालः, ततः सूक्ष्मतरं भवति क्षेत्रम् / अङ्गुलश्रेणिमात्रे ca अवसर्पिण्योऽसंख्येयाः।] (वृत्ति-हिन्दी-) किसी शंकाकार ने कहा- अवधिज्ञान से सम्बद्ध, एवं जघन्य, : मध्यम व उत्कृष्ट -इन भेदों वाले तथा अंगुल व आवलिका के असंख्यात भाग के रूप में , निर्दिष्ट क्षेत्र व काल की (भी तो) परस्पर प्रदेश-संख्या व समय-संख्या के आधार पर अपेक्षाकृत स्थूलता व सूक्ष्मता होती है, (क्षेत्र की अपेक्षा काल की स्थूलता है), ऐसी स्थिति में यह भी बताएं कि कितने अंशों में हीनता है या अधिकता है? इसका उत्तर यह हैca आवलिका के असंख्येय भाग आदि प्रतियोगी (विधेय, ज्ञेय) काल की तुलना में क्षेत्र सर्वत्र ca असंख्येय गुना (स्थूल) होता है। ऐसा कैसे? इसका उत्तर दे रहे हैं (37) (नियुक्ति-अर्थ-) काल सूक्ष्म होता है, (किन्तु) उससे भी अधिक सूक्ष्म क्षेत्र होता है। " a (क्योंकि) अंगुलश्रेणी मात्र आकाशप्रदेश का परिमाण असंख्यात अवसर्पिणी की समय-राशि के समान होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) 'सूक्ष्मः' श्लक्ष्णश्च, भवति कालः, यस्माद् उत्पलपत्रशतभेदे समयाः * प्रतिपत्रमसंख्येयाः प्रतिपादिताः, तथापि ततः' कालात्, सूक्ष्मतरं भवति क्षेत्रम्।कुतः?, यस्मात् " * अङ्गुलश्रेणिमात्रे क्षेत्रे प्रदेशपरिमाणं प्रतिप्रदेशं समयगणनया अवसर्पिण्यः असंख्येयाः, तीर्थकृद्भिः / प्रतिपादिताः। एतदुक्तं भवति- अङ्गुलश्रेणिमात्रे क्षेत्रे प्रदेशाग्रम् असंख्येयावसर्पिणीसमयराशिपरिमाणमिति गाथार्थः॥३७॥ . (वृत्ति-हिन्दी-) काल सूक्ष्म व श्लक्ष्ण (अल्प, बारीक) होता है, क्योंकि सौ कमल के / पत्रों के भेदने में प्रत्येक पत्र के भिन्न होने का काल असंख्येय समय बताया गया है, फिर | - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce(r)(r) 199 - - 232223333333333333333333333333333333333333332 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2233 33333333333333333333333333333333333333 scecaca caca caca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 20 20 20 20 909097 भी उस काल की तुलना में (भी) क्षेत्र अधिक सूक्ष्म होता है। कैसे? चूंकि मात्र अंगुलि-श्रेणी 4 के क्षेत्र में ही प्रत्येक प्रदेश के आधार पर समय की गणना करें तो असंख्येय अवसर्पिणी " काल हो जाता है -ऐसा तीर्थंकरों ने बताया है। तात्पर्य यह है कि अंगुल-श्रेणी मात्र क्षेत्र में , प्रदेश के अग्रभाग- आकाशप्रदेश का ही परिमाण असंख्यात अवसर्पिणी काल की समयराशि जितना होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||37 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) उक्तमवधेर्जघन्यादिभेदभिन्न क्षेत्रपरिमाणम्।क्षेत्रं चावधिगोचरद्रव्याधारद्वारेणैवावधेरिति / 1 व्यपदिश्यते, अतः क्षेत्रस्य द्रव्यावधिकत्वात् तदभिधानानन्तरमेव अवधिपरिच्छेदयोग्यद्रव्याभिघित्सयाऽऽह (नियुक्तिः) तेआभासादव्वाण, अन्तरा इत्थ लहइ पट्ठवओ। गुरुलहुअ-अगुरुलहुअं, तंपि अतेणेव निट्ठाइ // 38 // [संस्कृतच्छायाः-तैजस-भाषाद्रव्याणाम् अन्तरा अत्र लभते प्रस्थापकः।गुरुलघु अगुरुलघुकं तदपि से च तेनैव नितिष्ठति। (वृत्ति-हिन्दी-) अवधिज्ञान के जघन्य आदि भेदों के अनुरूप क्षेत्र-परिमाण का निरुपण कर दिया गया। अवधिज्ञान के विषय होने वाले द्रव्य के आधार पर ही अवधि का क्षेत्र बताया जाता है। चूंकि क्षेत्र द्रव्य-मर्यादित होता है, इसलिए द्रव्य-मर्यादा के निरूपण के बाद ही अवधिज्ञान से जाने जा सकने योग्य द्रव्य का कथन उचित है- इस दृष्टि से a (शास्त्रकार आगे) कह रहे हैं 333333333333333333333333333388888888888888888 / (38) (नियुक्ति-अर्थ-) प्रस्थापक (प्राथमिक स्थिति वाला, प्रतिपाती ज्ञान वाला) अवधिज्ञानी तैजस वर्गणा व भाषा वर्गणा के मध्यवर्ती गुरुलघु व अगुरुलघु पर्याय वाले (द्रव्यों) को ग्रहण , न करता है। बस, उसे ग्रहण करते-करते ही प्रतिपतित (समाप्त) हो जाता है। 200 (r)(r)(r)(r)ce(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) - Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IRecenecescece ពពពពព ពពពព 333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-8 | (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) अवधिश्च जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नः, तत्र तावज्जघन्यावधिपरिच्छेद-2 योग्यमेवादावभिधीयते-तैजसं च भाषा च तैजसभाषे, तयोर्द्रव्याणि तैजसभाषाद्रव्याणि, . 4 तेषामिति समासः। अन्तरात्' इति 'अर्थाद्विभक्तिपरिणामः' अन्तरे, अथवा 'अन्तरे' इति / & पाठान्तरमेव। एतदुक्तं भवति-तैजसवारद्रव्याणामन्तर इत्यन्तराले।अत्र तदयोग्यमन्यदेव द्रव्यं & 'लभते' पश्यति।कोऽसावित्यत आह- 'प्रस्थापकः' ।प्रस्थापको नाम अवधिज्ञानप्रारम्भकः। किंविशिष्टं तदिति, अत आह- 'गुरुलध्वगुरुलघु' |गुरु च लघु च गुरुलघु तथा न गुरुलघु, अगुरुलघु। (वृत्ति-हिन्दी-) अवधि के जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेद होते हैं। इनमें जघन्य ca अवधिज्ञान के योग्य द्रव्य का ही पहले निरूपण किया जा रहा है। तैजस और भाषा, इन , a (दोनों) के द्रव्य, इस अर्थ का वाचक समासयुक्त पद है- 'तैजस भाषा द्रव्य', उनका अन्तर। यहां 'अन्तर' पद में अर्थ-वश (अर्थसंगति के निमित्त) विभक्ति-परिणाम (सप्तमी विभक्ति से , युक्त) करणीय है, तब अर्थ होगा -अन्तर में (मध्य में, अन्तराल में)। अथवा 'अन्तरे' यह / (सप्तम्यन्त पद) पाठान्तर ही उपलब्ध होता है (तब विभक्ति-परिणाम, विभक्तिपरिवर्तन की ce आवश्यकता नहीं होगी)। तात्पर्य यह है कि तैजस द्रव्य और भाषा द्रव्य के बीच में, जो तैजस व भाषा के ca अयोग्य अन्य द्रव्य होते हैं, उन्हें ही यह अवधिज्ञान ग्रहण करता है। कौन ग्रहण करता है? & प्रस्थापक (ग्रहण करता है)। प्रस्थापक का अर्थ है- अवधिज्ञान का प्रारम्भक (प्रारम्भिक अवधिज्ञानी)। वह (ग्रहणयोग्य) द्रव्य किस प्रकार का का होता है? इसके उत्तर में बताया - 1 4 गुरुलघु-अगुरुलघु / गुरु हो और लघु भी हो वह गुरुलघु, और जो ऐसा न हो, वह अगुरुलघु। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) एतदुक्तं भवति-गुरुलघुपर्यायोपेतं गुरुलघु, अगुरुलघुपर्यायोपेतं चागुरुलघु इति।। ल तत्र यत्तैजसद्रव्यासन्नं तद्गुठलघु, यत्पुनर्भाषाद्रव्यासन्नं तदगुरुलघु। तदपि च' अवधिज्ञानं . व प्रच्यवमानं सत्पुनः तेनैव द्रव्येणोपलब्धेन सता निष्ठां याति, प्रच्यवतीत्यर्थः। तत्र अपिशब्दात् . यत्प्रतिपाति तत्रायंक्रमः, न पुनरवधिज्ञानं प्रतिपात्येव भवतीत्यर्थः।चशब्दस्त्वेवकारार्थः।स, चावधारणे, तस्य चैवं प्रयोगः- तदेवावधिज्ञानमेवं प्रच्यवते, न शेषज्ञानानीति गाथार्थः // 38 // 333333 333333333333333 80@cr(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 201 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ce cR CR ca ca ca R श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 7mon nnnn (वृत्ति-हिन्दी-) तात्पर्य यह है- गुरुलघु पर्याय को प्राप्त गुरुलघु होता है और / & अगुरुलघु पर्याय को प्राप्त अगुरुलघु / जो तैजस द्रव्य के निकट होता है, वह गुरुलघु होता है है, और जो भाषा द्रव्य के निकट होता है, वह अगुरुलघु होता है। और वह अवधिज्ञान , प्रच्यवमान ही (प्रतिपाती, विनाशशील) होता हुआ, उस द्रव्य को उपलब्ध करते हुए ही, & सम्पन्न अर्थात् प्रच्यावित (नष्ट) हो जाता है। 'भी' पद से यह सूचित है कि जो प्रतिपाती & अवधिज्ञान है, उसी में यह स्थिति होती है, किन्तु अवधिज्ञान मात्र प्रतिपाती ही नहीं होता है a (वह अप्रतिपाती भी होता है)। 'च' पद का यहां 'एव' (ही) अर्थ है। वह 'अवधारण' व्यक्त , & करता है, इसलिए उसके प्रयोग से यह अर्थ व्यक्त होता है कि वही अवधिज्ञान उक्त प्रकार से प्रच्यवित होता है, शेष अवधि ज्ञान नहीं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ | 38 // विशेषार्थ अवधिज्ञान के अनेक भेद शास्त्रों में प्रतिपादित हैं, जिनमें अप्रतिपाती व प्रतिपाती-ये 222222222222222323233333333333333333333333333 भेद यहां प्रासंगिक हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है प्रतिपाती- प्रतिपात का अर्थ पतन होना, गिरना या समाप्त हो जाना है। जगमगाते दीपक ca के वायु के झोंके से एकाएक बुझ जाने के समान जो अवधिज्ञान सहसा लुप्त हो जाता है, उसे प्रतिपाती कहते हैं। यह अवधिज्ञान जीवन के किसी भी क्षण में उत्पन्न और लुप्त भी हो सकता है। . हीयमान और प्रतिपाती में अन्तर यह है कि हीयमान का तो पूर्वापेक्षया धीरे-धीरे ह्रास हो जाता है, . ca जबकि प्रतिपाती दीपक की तरह एक क्षण में नष्ट हो जाता है। अप्रतिपाती- जिस अवधिज्ञान का स्वभाव पतनशील नहीं है, उसे अप्रेतिपाती कहते हैं। केवलज्ञान होने पर भी अप्रतिपाती अवधिज्ञान नहीं जाता, अपितु वह केवलज्ञान में समाविष्ट हो : जाता है। केवलज्ञान के समक्ष उसकी सत्ता उसी तरह अकिंचित्कर है, जैसे कि सूर्य के समक्ष दीपक CR का प्रकाश। यह अप्रतिपाती अवधिज्ञान बारहवें गुणस्थानवी जीवों के अन्तिम समय में होता है / और उसके बाद तेरहवें गुणस्थान प्राप्त होने के प्रथम समय के साथ केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। ca इस अप्रतिपाती अवधिज्ञान को परमावधिज्ञान भी कहते हैं। -8888888888888888888888888888888888888 - 202 202 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)000RO900 (r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A RRRRRRRRR හ හ හ හ හ හ හ ග ග >> >> >> >> नियुक्ति-गाथा-39-40 (हरिभद्रीय वृत्तिः) & आह- कियत्प्रदेशं तद् द्रव्यम्, यत् तैजसभाषाद्रव्याणामपान्तरालवर्ति जघन्यावधिप्रमेयमित्याशय तद्धि परमाण्वादिक्रमोपचयाद् औदारिकादिवर्गणानुक्रमतः प्रतिपाद्यमिति।अतस्तत्स्वरूपाभिधित्सया गाथाद्वयमाह (नियुक्तिः) ओरालविउव्वाहारतेअभासाणपाणमणकम्मे / अह दव्ववग्गणाणं, कमो विवज्जासओ खित्ते // 39 // कम्मोवरिं धुवेयर-सुण्णेयरवग्गणा अणंताओ। चउधुवणंतर-तणुवग्गणा य मीसो तहाऽचित्तो // 40 // [संस्कृतच्छायाः- औदारिक-वैक्रियाऽऽहार-तैजस-भाषाऽऽनपान-मनःकर्मषु / अथ द्रव्यवर्गणानां क्रमो विपर्यासतः क्षेत्रे ॥कर्मोपरि धुवेतर-शूब्येतरवर्गणा अनन्ताः / चतुर्युवानन्तर-तनुवर्गणाश्च मिश्रस्तथाऽचित्तः॥] (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) तैजस व भाषा द्रव्यों के अन्तराल में स्थित द्रव्य जघन्य CC अवधिज्ञान का विषय होता है। वह कितने प्रदेशों के परिमाण वाला होता है? इस आशंका का उत्तर है- ‘परमाणु आदि क्रम के उपचय के आधार पर और औदारिक आदि वर्गणाओं के CM अनुक्रम से उस द्रव्य का प्रतिपादन होता है'। इसलिए इनके स्वरूप को कहने की इच्छा से (आगे) दो गाथाएं कह रहे हैं (39-40) . (नियुक्ति-हिन्दी) द्रव्य वर्गणाओं का क्रम इस प्रकार है:- औदारिक, वैक्रिय, आहार, तैजस, भाषा, आनपान, मन व कार्मण / क्षेत्र-विषयक वर्गणाओं का क्रम (ग्रहण-अयोग्य, & ग्रहण-योग्य, ग्रहण-अयोग्य -इस प्रकार) विपरीत (अर्थात् परस्पर विपरीतता लिये हुए, है)। कर्मवर्गणा के (ही) रूप में (ग्रहण-अयोग्य) ध्रुववर्गणा, अध्रुव वर्गणा, शून्यान्तर वर्गणा, अशून्यान्तर वर्गणा, चार ध्रुवानन्तर वर्गणा, चार तनु वर्गणाएं- (औदारिक, वैक्रिय, आहारक व तैजस), मिश्रस्कन्ध वर्गणा, और अचित्त (महा)स्कन्ध वर्गणा। 333333333333 (r)(r)(r)(r)(r)(r)c&000000000000 203 bu Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -333333333333333333333333333333333333333333333 aca caca ca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9000 9000(हरिभद्रीय वृत्तिः) प्रथमगाथाव्याख्या-आह-औदारिकादिशरीरप्रायोग्यद्रव्यवर्गणाः किमर्थ प्ररुप्यन्ते / & इति? उच्यते, विनेयानामव्यामोहार्थम् / तथा चोदाहरणमत्र-इह भरतक्षेत्रे मगधजनपदे , & प्रभूतगोमण्डलस्वामी कुचिकर्णो (कुविकर्णो) नाम धनपतिरभूत्। स च तासां गवामतिबाहुल्यात् सहस्रादिसंख्यामितानां पृथक् पृथगनुपालनार्थ प्रभूतान् गोपांश्चक्रेतेऽपि च परस्परसंमिलितासु 6 तासु गोष्वात्मीयाः सम्यगजानानाः सन्तोऽकलहयन्।तांश्च परस्परतो विवदमानानुपलभ्य ca असौ तेषामव्यामोहार्थम् अधिकरणव्यवछित्तये च रक्तशुक्लकृष्णकर्बुरादिभेदभिन्नानां गवां // & प्रतिगोपं विभिन्ना वर्गणाः खल्ववस्थापितवान् -इत्येष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयः- इह " गोपपतिकल्पस्तीर्थकृत् गोपकल्पेभ्यः शिष्येभ्यो गोरूपसदृशं पुद्गलास्तिकायं , परमाण्वादिवर्गणाविभागेन निरूपितवानिति अलं प्रसङ्गेन। (वृत्ति-हिन्दी-) प्रथम गाथा की व्याख्या- (शंका-) इस प्रकार है कि औदारिक & आदि शरीरों के योग्य द्रव्य वर्गणाओं की प्ररूपणा क्यों की गई है? समाधान यह हैशिष्यजनों को भ्रम न हो -इस के लिए (वर्गणाओं का निरूपण किया गया है)। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण (दृष्टान्त) भी इस प्रकार है- इस भरत क्षेत्र के मगध नामक , जनपद में प्रचुर गो-मण्डलों (गोओं के झुण्डों) का स्वामी धनाढ्य व्यक्ति था, जिसका नाम है ca कुचिकर्ण (या कुविकर्ण) था। गोओं की अत्यधिक संख्या को देखते हुए, हजारों की संख्या - & वाली उन गोओं की पृथक्-पृथक् रक्षा हेतु उस धनपति ने अनेक ग्वालों को तैनात किया, 7 किन्तु वे भी, जब वे गाएं परस्पर मिल जाती थीं, तो अपनी गायों को ठीक से पहचान न पाने , & के कारण आपस में झगड़ते थे। उन्हें परस्पर बहस (व झगड़ा) करते हुए देख कर उन , 6 (ग्वालों) को कभी कोई भ्रम नहीं हो और उनमें झगड़ा भी न हो -इसके लिए उस (धनपति) ने गायों को लाल, सफेद, काली, चितकबरी आदि भेदों में बांटकर प्रत्येक ग्वाले है के जिम्मे गोओं की पृथक्-पृथक् वर्गणाएं (झुण्ड) नियत कर दी -यह दृष्टान्त है। इस ca दृष्टान्त का अर्थ-उपनय (उसकी संगति) इस प्रकार है- यहां ग्वालों के स्वामी के समान " & तीर्थंकर हैं, जिन्होंने ग्वाले जैसे शिष्यों के लिए गोओं के जैसे विविध रूपों वाले पुद्गलास्तिकाय . को परमाणु आदि विविध वर्गणाओं में विभक्त कर उसका निरूपण किया। अब और कुछ * अधिक कहने की जरूरत नहीं। -777777777777777777777777 204 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)8808880888888 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Commecentenance 9000000000 नियुक्ति-गाथा-39-40 / (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___पदार्थः प्रतिपाद्यते-तत्र औदारिकग्रहणाद् औदारिकशरीरग्रहणयोग्या वर्गणाः >> परिगृहीताः।ताश्चैवमवगन्तव्याः- इह वर्गणाः सामान्यतश्चतुर्विधा भवन्ति।तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतश्च। तत्र द्रव्यत एकप्रदेशिकानां यावदनन्तप्रदेशिकानाम्, क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढानाम् यावदसंख्येयप्रदेशावगाढानाम्, कालत एकसमयस्थितीनां CM यावदसंख्येयसमयस्थितीनाम्, भावतस्तावत् परिस्थूरन्यायमङ्गीकृत्य कृष्णानां यावत् शुक्लानाम् , व सुरभिगन्धानां दुरभिगन्धानां च। तिक्तरसानां यावन्मधुररसानाम्, मृदूनां यावद्रूक्षाणां , a गुरुलघूनामगुरुलघूनां च, एवमेता द्रव्यवर्गणाद्या वर्गणाश्चतुर्विधा भवन्ति। a (वृत्ति-हिन्दी-) (अब गाथा के) पदों का अर्थ बताया जा रहा है- औदारिक पद से यहां 'औदारिक शरीर द्वारा ग्रहण-योग्य वर्गणा' अर्थ ग्राह्य है। उन (के स्वरूप) को इस " ca प्रकार समझें- यहां वर्गणा के चार प्रकार हैं। जैसे- द्रव्य (की दृष्टि) से, क्षेत्र से, काल से - और भाव से। इनमें एकप्रदेशी से लेकर अनन्तप्रदेशी तक (द्रव्यों) की वर्गणाएं द्रव्य-दृष्टि से , & हैं। एक प्रदेश में अवगाढ़ (स्थित) से लेकर असंख्येय प्रदेशों पर अवगाढ़ द्रव्यों की वर्गणाएं, क्षेत्र-दृष्टि से हैं। एक समय से लेकर असंख्येय समय तक स्थिति वाले द्रव्यों की वर्गणाएं। काल की दृष्टि से है। और ‘परिस्थूल' न्याय को स्वीकार कर (मोटे रूप से निरूपण करें तो) ce कृष्ण वर्ण से लेकर शुक्ल वर्ण वाले, सुरभि गंध से लेकर दूषित गंध वाले, तिक्त रस से लेकर " ca मधुर रस वाले, मृदु स्पर्श से लेकर रूक्ष स्पर्श वाले, गुरुलघु व अगुरुलघु (गुणवाले) -इन सभी की द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की दृष्टि से चार-चार वर्गणाएं होती हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) .. प्रकृतोपयोगः प्रदर्श्यते-तत्र परमाणूनामेका वर्गणा, एवं द्विप्रदेशिकानामप्येका, , & एवमेकैकपरमाणुवृद्धया संख्येयप्रदेशिकानां संख्येया वर्गणा, असंख्येयप्रदेशिकानांचासंख्येयाः, . ततोऽनन्तप्रदेशिकानाम् अनन्ताः खल्वग्रहणयोग्या विलंध्य ततश्च विशिष्टपरिणामयुक्ता " औदारिकशरीरग्रहणयोग्याः खल्वनन्ता एवेति। ता अपि चोल्लंघ्य प्रदेशवृद्धया . प्रवर्धमानास्ततस्तस्यैवाग्रहणयोग्या अनन्ता इति, ताश्च प्रभूतद्रव्यनिवृत्तत्वात् , सूक्ष्मपरिणामोपेतत्वाच्च औदारिकस्याग्रहणयोग्या इति।वैक्रियस्यापि चाल्पपरमाणुनिर्वृत्तत्वाद् / बादरपरिणामयुक्तत्वाच्चाग्रहणयोग्या एव ता इति।पुनः प्रदेशवृद्धया प्रवर्धमानाः खल्वनन्ता 333333333333333333333333333333333333333333333 - 808869088890880000000000000 205 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ caca ca ca cace ca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 09929 | एवोल्लंघ्य तथापरिणामयुक्ता वैक्रियग्रहणयोग्या भवन्ति।ता अपि च प्रदेशवृद्ध्या प्रवर्धमाना << अनन्ता एवेति तावद् यावद् एकादिप्रचुरपरमाणुनिर्वृत्तत्वात् सूक्ष्मपरिणामयुक्तत्वाच्च // वैक्रियस्याग्रहणयोग्या भवन्ति। एवं प्रदेशवृद्धया प्रवर्धमानाः खल्वग्रहणयोग्या अप्यनन्ता , एवेति, ताश्चाहारकस्य अल्पपरमाणुनिवृत्तत्वाद् बादरपरिणामोपेतत्वाच्च अग्रहणयोग्या एवेति।। 6 एवमाहारकस्य तैजसस्य भाषायाः आनापानयोर्मनसः कर्मणश्च अयोग्ययोग्यायोग्यानां c वर्गणानां प्रदेशवृद्धयुपेतानामनन्तानां त्रयं त्रयमायोजनीयम्। (वृत्ति-हिन्दी-) (अब) वर्तमान प्रसंग में उनके उपयोग (व्यावहारिक स्थिति) को c स्पष्ट कर रहे हैं -इनमें एक वर्गणा तो (एक प्रदेशी) परमाणुओं की है, इसी प्रकार उसके बाद दो-प्रदेशी (दो-दो परमाणुओं) की एक वर्गणा है, इसी तरह एक-एक परमाणु की वृद्धि, & करते हुए संख्येय प्रदेश वालों की संख्येय वर्गणाएं हैं, इसके बाद अनन्तप्रदेशवालों की * अनन्त वर्गणाएं हैं- (ये सभी) औदारिक शरीर द्वारा ग्रहण-अयोग्य हैं। इन्हें पार करके , a (अनन्त वर्गणाओं के बाद) विशिष्ट परिणाम वाली, औदारिक शरीर द्वारा ग्रहणयोग्य वर्गणाओं की संख्या अनन्त ही है। इन्हें भी पार कर, प्रदेश-वृद्धि के साथ बढ़ने वाली, अनन्त वर्गणाएं हैं जो उसी औदारिक शरीर के ग्रहण-योग्य नहीं होतीं, क्योंकि वे प्रभूत (प्रचुर) द्रव्यों से बनी ल और (अति) सूक्ष्म परिणाम वाली होती हैं, इसलिए औदारिक के लिए अग्राह्य होती हैं। वे ही cवर्गणाएं वैक्रिय शरीर के लिए भी ग्रहण-योग्य नहीं होतीं, क्योंकि उनके लिए वे अल्प & परमाणुओं से बनी और बादर (स्थूल) परिणाम वाली होती हैं। इसके बाद प्रदेश-वृद्धि से " & वृद्धिंगत होती हुई उन अनन्त वर्गणाओं को पार कर विशिष्ट परिणाम वाली और वैक्रिय " शरीर के लिए ग्रहणयोग्य वर्गणाएं विद्यमान होती हैं। वे वर्गणाएं भी प्रदेश-वृद्धि से वृद्धिंगति , होती हुई अनन्त ही होती हैं। किन्तु इनके आगे एकादि प्रचुर परमाणुओं से निर्मित एवं सूक्ष्म परिणामों से युक्त होती हुई वर्गणाएं विद्यमान हैं जो वैक्रिय शरीर के लिए ग्रहणयोग्य नहीं है ca होतीं। इसी प्रकार प्रदेश-वृद्धि से वृद्धिंगत होती हुईं ये अग्राह्य वर्गणाएं भी अनन्त ही होती हैं। " ca वे भी, आहारक शरीर के लिए अग्रहणीय ही होती हैं, क्योंकि वे अल्प परमाणुओं से बनी " & और स्थूल परिणाम से परिणत होती हैं। इसी प्रकार, आहारक, तैजस, भाषा, आनापान " (उच्छ्वास-निःश्वास), मन, व कानण प्य की ब्रहणा अयोग्य, ग्रहणयोग्य और फिर राहण-.. अयोग्य -इस क्रम से स्थित तथा प्रदेशवृद्धि के साथ वृद्धिंगत होने वाली अनन्त वर्गणाओं में प्रत्येक के 'त्रिक' (तीन-तीन वर्ग) बनाने चाहिएं। - 206 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)DecRODO 333333333333 23333333333333333333 33333322 - 188888888888888888888888888 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Recenamance 9999999999999999 - 22.3333333333333333333333333333333333333330 नियुक्ति-गाथा-39-40 (हरिभद्रीय वृत्तिः) आहकथं पुनरिदं एकैकस्यौदारिकादेस्त्रयं त्रयं गम्यत इति। उच्यते, : तैजसभाषाद्रव्यान्तर-वर्युभयायोग्यद्रव्यावधिगोचराभिधानात्। 'अथ' अयं द्रव्यवर्गणानां क्रमः, तत्र वर्गणा वर्गो राशिरिति पर्यायाः।तथा विपर्यासतः', . विपर्यासेन 'क्षेत्रे' इति क्षेत्रविषयो वर्गणाक्रमो वेदितव्यः। एतदुक्तं भवति-एकप्रदेशावगाहिनां / परमाणूनां स्कन्धानां चैका वर्गणा, तथा द्विप्रदेशावगाहिनां स्कन्धानामेव द्वितीया वर्गणा, . एवमेकैकप्रदेशवृद्धया संख्येयप्रदेशावगाहिनां संख्येयाः, असंख्येयप्रदेशावगाहिनां चासंख्येयाः, ca ताश्च प्रदेशप्रदेशोत्तराः खल्वसंख्येया विलंध्य कर्मणो योग्यानामसंख्येया वर्गणा भवन्ति, पुनः ca प्रदेशवृद्धया तस्यैवायोग्यानाम् असंख्येया इति। अयोग्यत्वं चाल्पपरमाणुनिवृत्तत्वात् प्रभूतप्रदेशावगाहित्वाच्च / मनोद्रव्यादीनामप्येवमेवायोग्ययोग्यायोग्यलक्षणं त्रयं त्रयमायोजनीयमिति।एवं सर्वत्र भावना कार्या। परं परं सूक्ष्मम्', 'प्रदेशतोऽसंख्येयगुणम्' (प्राक्तैजसात्) इति (तत्त्वार्थे अ० 2 सूत्रे 38-39) वचनात् / कालतो भावतश्च वर्गणा दिग्मात्रतो दर्शिता एवेति गाथार्थः // 39 // ___ (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) औदारिक आदि में प्रत्येक का तीन-तीन प्रकार किस , आधार पर गम्य (ज्ञात) होते हैं? समाधान इस प्रकार है- तैजस व भाषा द्रव्यों के मध्यवर्ती उभय द्रव्यों के अयोग्य द्रव्य तक को अवधिज्ञान द्वारा ज्ञात किये जाने का जो कथन किया है गया है, उसी के आधार पर (ये गम्य होते हैं)। . द्रव्य-वर्गणाओं का यह (उपर्युक्त) क्रम है। यहां (यह ज्ञातव्य है कि) वर्गणा, वर्ग व राशि -ये परस्पर-पर्याय हैं। क्षेत्र विषयक उक्त द्रव्य-वर्गणा का क्रम-विपर्यास (विपरीतता) a लिए हुए होता है- ऐसा जानना चाहिए। तात्पर्य यह है एक प्रदेश में अवगाढ़ परमाणुओं व " व स्कन्धों की एक वर्गणा हुई, इसी तरह एक-एक प्रदेश की वृद्धि करते हुए संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ स्कन्धों की संख्यात वर्गणाएं, असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ स्कन्धों की असंख्यात & वर्गणाएं, एक-एक प्रदेश की वृद्धि से युक्त होती हुई इन असंख्यात वर्गणाओं को लांघकर, (इनसे परे) 'कर्म' के (ग्रहण-) योग्य असंख्यात वर्गणाएं होती हैं, फिर प्रदेश-वृद्धि से बढ़ती है हुई कर्म के (ग्रहण-) अयोग्य द्रव्यों की असंख्यात वर्गणाएं विद्यमान होती हैं। (ग्रहण-) अयोग्यता का कारण है- उनका अल्पपरमाणु से निर्मित होना और प्रचुर प्रदेशों में अवगाहित 77777777777777777773333333333338888888888888 @90cR90@ @@ @98889080@cR900. 207 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cancecace caca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 99000000 3333333 333333333333333333333322232323223 2222222 | होना / इसी तरह मनोद्रव्य वर्गणाओं के भी (ग्रहण-) अयोग्य, योग्य, अयोग्य -इस प्रकार & तीन-तीन वर्ग नियोजित करने चाहिएं। इसी रीति से सर्वत्र भावना (दृष्टि) रखनी चाहिए। . & इस विषय में 'परं परं सूक्ष्मम्', 'प्रदेशतोऽसंख्येयगुणाः' (अर्थात शरीरों में उत्तरोत्तर सूक्ष्म , % होते हैं, और वे प्रदेश की दृष्टि से असंख्यात गुणे भी हैं) -ये (तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय, में 38-39 वें सूत्र रूप में) शास्त्रीय वचन प्राप्त होते हैं। इस प्रकार, काल व भाव की दृष्टि से वर्गणाओं का नमूने के तौर पर निरूपण कर ही दिया गया है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण ब हुआ॥ 39 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) . द्वितीयगाथाव्याख्या-तत्रानन्तरगाथायां कर्मद्रव्यवर्गणाः प्रतिपादिताः।साम्प्रतं. : प्रदेशोत्तरवृद्धया तदग्रहणप्रायोग्याः प्रदर्श्यन्ते-क्रियत इति कर्म, कर्मण उपरि कर्मोपरि। धुवेति-धुववर्गणा अनन्ता भवन्ति, धुववर्गणा इति धुवा नित्याः सर्वकालावस्थायिन्य इति भावार्थः। इतरा' इति प्रदेशवृद्धया ततोऽनन्ता एवाधुववर्गणा अनन्ता भवन्ति। अधुवा' इति // & अशाश्वत्यः, कदाचिन्न सन्त्यपीत्यर्थः।ततः 'शून्या' इति सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा शून्यान्तरवर्गणाः . परिगृह्यन्ते, शून्यान्यन्तराणि यासां ताः शून्यान्तराः शून्यान्तराश्च ता वर्गणाश्चेति समासः। (वृत्ति-हिन्दी-) द्वितीय (40वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है- पिछली गाथा में , & कर्म-द्रव्यवर्गणा का प्रतिपादन किया गया है। अब, (एक-एक) प्रदेश की उत्तरोत्तर वृद्धि , करते हुए, उसके ग्रहण-अयोग्य वर्गणाओं का निदर्शन किया जा रहा है- कर्म वह है जो किया जाता है, उस 'कर्म' के ऊपर में (उक्त कार्मण वर्गणाओं के बाद कुछ अन्य वर्गणाएं भी हैं जो ग्रहण-अयोग्य हैं)। (ध्रुवेतर...) अनन्त ध्रुव वर्गणाएं होती हैं। ध्रुव यानी नित्य, सर्व ca कालों में जो स्थायी रहती हैं, वे ध्रुव वर्गणाएं होती हैं- यह तात्पर्य है। इसके साथ ही, प्रदेशव वृद्धि के साथ, उस (ध्रुव वर्गणा) से भी अनन्तगुनी अध्रुव वर्गणाएं भी अनन्त होती हैं। " a 'अध्रुव' यानी अशाश्वत, अर्थात् कभी नहीं भी रहतीं। इसके आगे 'शून्य' वर्गणाएं हैं। चूंकि 1 यहां सूत्रात्मक यानी निर्देशमात्र कथन है, इसलिए 'शून्य' से- 'शून्यान्तर वर्गणा' अर्थ ग्राह्य है। जिनमें अन्तर शून्य हों वे 'शून्यान्तर' होती हैं (अतः 'शून्यान्तर' इस पद में बहुव्रीहि . समास है), ऐसी वर्गणाएं -इस अर्थ में (इस प्रकार कर्मधारय समास हो कर तीन पदों : वाला) समास-युक्त पद है- शून्यान्तर वर्गणा। &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& 208 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)99 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Secaceaecence 9000000000 नियुक्ति गाथा-39-40 (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___एतदुक्तं भवति- एकोत्तरवृद्धया व्यवहितान्तरा इति।ता अपि चानन्ता एव।तथा . 'इतरेति'।इतरग्रहणादशून्यान्तराः परिगृह्यन्ते।न शून्यानि अन्तराणि यासांता अशून्यान्तराः, . CM अशून्यान्तराश्च ता वर्गणाश्चेति विग्रहः, अशून्यान्तरवर्गणा अव्यवहितान्तरा इत्यर्थः।ता अपि / च प्रदेशोत्तरवृद्धया खल्वनन्ता एव भवन्ति।ततः 'चतुरिति' / चतसः धुवाश्च ता अनन्तराश्च / धुवानन्तराः प्रदेशोत्तरा एव वर्गणा भवन्ति। ततः 'तनुवर्गणाश्च' तनुवर्गणा इति। किमुक्तं . भवति? भेदाभेदपरिणामाभ्यामौदारिकादियोग्यताऽभिमुखा इति।अथवा मिश्राचित्तस्कब्धद्वययोग्यास्ताश्चतस एव भवन्ति, ततो 'मिश्र' इति मिश्रस्कन्धो भवति। सूक्ष्म . एवेषद्बादरपरिणामाभिमुखो मिश्रः। तथा' इति आनन्तर्ये। अचित्त' इति अचित्तमहास्कन्धः, . सच विससापरिणामविशेषात् केवलिसमुद्घातगत्या लोकमापूरयन्नुपसंहरंश्च भवतीति। (वृत्ति-हिन्दी-) कहने का तात्पर्य यह है कि (शून्यान्तर वर्गणा में) एक-एक प्रदेश की वृद्धि से होने वाले अन्तर में व्यवधान (भी) हो जाता है (उनमें होने वाला उक्त अन्तर , कभी-कभी टूट भी जाता है)। ये भी वर्गणा अनन्त होती हैं। तथा इनसे इतर भी होती हैं। . 5 'इतर' पद से 'अशून्यान्तर' वर्गणा का ग्रहण यहां है। जिनमें अन्तर शून्य नहीं हों, ऐसी जो वर्गणा -इस अर्थ में समस्त पद है- 'अशून्यान्तर वर्गणा', अर्थात् इनमें (उत्तरोत्तर प्रदेशa वृद्धि का) अन्तर अव्यवहित रूप से रहता है। उत्तरोत्तर प्रदेश-वृद्धि वाली ये भी वर्गणाएं - + अनन्त ही होती हैं। इसके बाद, 'ध्रुवानन्तर' (संज्ञक) चार वर्गणाएं होती हैं। ये वर्गणाएं ध्रुव . (सर्वकालस्थायी) होती हैं और 'अनन्तर' (निरन्तर) उत्तरोत्तर एक-एक प्रदेश-वृद्धि वाली ही है होती हैं। इसके बाद (चार) तनु वर्गणाएं (भी) होती हैं। ('तनु' इस नाम से) कहने का क्या , तात्पर्य है? (उत्तर है-) ये अपने भेद या अभेद परिणाम के माध्यम से, औदारिक शरीर, 4 आदि की योग्यता प्राप्त करने की ओर अभिमुख होती हैं, अथवा इन चारों में ही मिश्र स्कन्ध , ce व अचित्त स्कन्ध -इन दोनों के रूप में परिणत होने) की योग्यता होती है। इसके बाद - a ‘मिश्र' स्कन्ध होता है। यह सूक्ष्म ही होता है किन्तु थोड़ा बादर (स्थूल) परिणाम की ओर " ca अभिमुख होता है, इसीलिए उसे 'मिश्र' कहते हैं। और इसी के अनन्तर (विना अन्तर, & व्यवधान के) 'अचित्त' यानी अचित्त महास्कन्ध होता है, जो विससा (स्वभावतः) परिणाम-. * विशेष से, 'केवलीसमुद्घात' की गति से (चार समयों में) लोक को आपूरित करता हुआ (अन्य चार समयों में ही) उपसंहृत पुनः पूर्वरूप को प्राप्त हो जाता है। - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)Recene 209 3333333333333333333333333333333 33333333333 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -222222222222222222222222222222222222222222322 cacancacacara श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 000 0000(हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-अचित्तत्वाव्यभिचारात्तस्याचित्तविशेषणानर्यक्यमिति, न, केवलिसमुद्घातa सचित्तकर्म-पुद्गललोकव्यापिमहास्कन्धव्यवच्छेदपरत्वात् विशेषणस्येति। . अयमेव सर्वोत्कृष्ट प्रदेश इति केचिद् व्याचक्षते, न चैतदुपपत्तिक्षमम् , : यस्मादुत्कृष्टप्रदेशोऽवगाहनास्थितिभ्याम् असंख्येयभागहीनादिभेदाद् चतुःस्थानपतित उक्तः। . तथा चोक्तम्- “उक्कोसपएसिआणं भंते! केवइआ पज्जवा पण्णता?, गोयमा! अणन्ता,से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ?, गोयमा! उक्कोसपएसिए उक्कोसपएसिअस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए वितुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठितीए वि 4, वण्णरसगन्ध अट्ठहि अ. फासेहि छठ्ठाणवडिए"।[उत्कृष्टप्रदेशिकानां भदन्त! कियन्तः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः? गौतम! अनन्ताः, * तत्केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते? गौतम! उत्कृष्टप्रदेशिक उत्कृष्टप्रदेशिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः अवगाहनया चतुःस्थानपतितः स्थित्याऽपि, वर्णरसगन्धैरष्टभिः स्पर्शेश्च षट्स्थानपतितः।] अयं , पुनस्तुल्य एव, अष्टस्पर्शश्वासौ पठ्यते, चतुःस्पर्शश्च अयमिति। अतोऽन्येऽपि सन्तीति प्रतिपत्तव्यम्, इत्यलं प्रसझेनेति गाथार्थः // __ (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) उक्त महास्कन्ध (पौद्गलिक ही तो है अतः) अचित्त ही , होता है (वह कभी) सचित्त तो होता नहीं, इसलिए उसका 'अचित्त' यह विशेषण अनर्थक है। (उत्तर-) वह विशेषण निरर्थक नहीं है, क्योंकि केवलिसमुद्घात के समय लोक में व्याप्त होने वाले सचित्त महास्कन्ध का ग्रहण यहां न हो -इस दृष्टि से यह विशेषण सार्थक है। : कुछ लोगों की व्याख्या के अनुसार, यह 'अचित्त महास्कन्ध' ही सर्वोत्कृष्ट प्रदेशों / वाला है, किन्तु उनका यह मत युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि उत्कृष्टप्रदेशी महास्कन्ध को, 1 उसकी अवगाहना व स्थिति की दृष्टि से उनमें होने वाली असंख्यात भाग हीनता (या " a अधिकता) आदि भेदों के कारण चतुःस्थानपतित कहा गया है। (प्रज्ञापना सूत्र के पांचवें पर्याय ca पद व सू. 554 में) कहा भी गया है- भगवन्! उत्कृष्टप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गये . हैं? (उत्तर-) गौतम! उत्कृष्टप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय होते हैं। (प्रश्न-) किस अपेक्षा , से आप ऐसा कहते हैं? (उत्तर-) गौतम! उत्कृष्टप्रदेशी स्कन्ध दूसरे उत्कृष्टप्रदेशी स्कन्ध से , द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से , / चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से भी चतुःस्थानपतित है, किन्तु वर्णादि तथा आठ 210 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)CRO9002@cr@200. . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3333333333333 23233222222222222333333333333333 -RacecaRacece नियुक्ति गाथा-39-40 202020009 स्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित होता है। इस प्रकार यह (उक्त अचित्त ca महास्कन्ध सर्वोत्कृष्टप्रदेशी स्कन्ध के) समान ही है। (अन्तर यह है कि) सर्वोत्कृष्टप्रदेशी >> स्कन्ध को तो अष्टस्पर्शी कहा गया है, जब कि यह तो चतुःस्पर्शी है। इसलिए इससे पृथक्, 4 अन्य महास्कन्ध भी विद्यमान हैं- ऐसा मानना चाहिए। अब अधिक कुछ कहने की अपेक्षा नहीं रह गई है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 40 // विशेषार्थ प्रस्तुत प्रकरण में विविध द्रव्य-वर्गणाओं की अवस्थिति का निरूपण किया गया है। समान द्रव्यों का वर्ग, या उनकी राशि को 'वर्गणा' कहा जाता है। इन्हें विविध वर्गों में विभाजित करने से 4 तत्त्व-जिज्ञासु के लिए कहीं भ्रम जैसी स्थिति नहीं होती। इस सम्बन्ध में कुविकर्ण (या कुचिकर्ण) " a नामक धनपति का दृष्टान्त प्रस्तुत किया गया है। द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव -इन चार दृष्टियों से , वर्गणाएं चार प्रकार की होती हैं। पहले औदारिकशरीर द्वारा ग्रहणयोग्य न होने वाली वर्गणाएं हैं। जिनमें एकप्रदेशी से लेकर संख्यात-असंख्यात-अनन्तप्रदेशी द्रव्यों की अनन्त वर्गणाएं समाहित हैं। " ce इनके बाद औदारिकशरीर द्वारा ग्रहणयोग्य वर्गणाएं हैं, उनमें भी एकप्रदेशी से लेकर अनन्तप्रदेशी , तक अनन्त हैं। इनके बाद, पुनः औदारिकशरीर द्वारा ग्रहण-योग्य न होने वाली वर्गणाएं हैं, जो ( वैक्रियशरीर द्वारा भी ग्रहणयोग्य नहीं होतीं। इनके बाद, वैक्रियशरीर द्वारा ग्रहणयोग्य वर्गणाएं हैं, " << जो एक-एक प्रदेश-वृद्धि के साथ वृद्धिगत होती हुई अनन्त होती हैं। इनके बाद वैक्रिय शरीर के 4 ग्रहण-अयोग्य वर्गणाएं है, इनके बाद पुनः वैक्रिय शरीर के ग्रहणयोग्य वर्गणाएं हैं। इस प्रकार से , तैजस शरीर तक क्रमशः व भाषा आदि से सम्बन्धित -ग्रहण-अयोग्य, ग्रहणयोग्य, ग्रहण-अयोग्यca इस क्रम से तीन-तीन वर्गणाएं हैं। a दूसरी (40वीं) गाथा के व्याख्यान में कार्मण वर्गणाओं का निरूपण है। इन्हीं कार्मण " 4 वर्गणाओं में ध्रुव, अधुव, शून्यान्तर, अशून्यान्तर, और चार ध्रुवान्तर व चार तनु-वर्गणाओं का निर्देश >> है। इनके बाद मिश्रस्कन्ध, और ठीक उसी के बाद अचित्त महास्कन्ध की स्थिति बताई गई है। यहां यह ज्ञातव्य है कि उत्कृष्ट अवगाहना वाला अनन्तप्रदेशी स्कन्ध सर्वलोकव्यापी होने की क्षमता रखता है। वह या तो अचित महास्कब्ध होता है या केवली समुद्घात की स्थिति में कर्मस्कन्ध ca (सचित्त) हो सकता है। इन दोनों का काल दण्ड, कपाट, प्रतर और अन्तर-पूरण रूप चार समयों का " होता है। इसलिए इनकी स्थिति समान मानी गई है। प्रस्तुत प्रकरण में जो अचित्त महास्कन्ध का , निरूपण है, उसमें 'अचित्त' यह विशेषण दिया गया है, ताकि केवलीसमुद्घात वाले सचित्त कर्मस्कन्ध का ग्रहण नहीं हो सके। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)080808938211 / Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Imacecacaaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अबुवाद सहित) 2200000 उक्त अचित्त महास्कन्ध जैसा कोई अन्य या इससे बड़ा कोई स्कन्ध नहीं है, यही सबसे बड़ा a (उत्कृष्टप्रदेशी) है- ऐसी मान्यता समीचीन नहीं है। इसके लिए प्रज्ञापना (पांचवां पद, सू. 554) में , 60 उत्कृष्टप्रदेशी स्कन्ध का जो निरूपण प्राप्त है, वह उतनीय है। वहां कहा गया है कि उत्कृष्टप्रदेशी स्कन्ध अन्य उत्कृष्टप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य व प्रदेश दृष्टि से समान होता है, अवगाहना व स्थिति की दृष्टि , से 'चतुःस्थानपतित' है, अर्थात् उनमें परस्पर हीनता होगी या अधिकता होगी, यह हीनाधिकता चार " रूपों में सम्भव है (1) असंख्यातभाग हीन या असंख्यातभाग अधिक। (2) संख्यातभाग हीन या संख्यातभाग अधिक। (3) असंख्यातगुण हीन या असंख्यातगुण अधिक। (4) संख्यातगुण हीन या संख्यातगुण अधिक। इसी प्रकार, वर्ण, गन्ध, रस एवं आठ स्पर्शी सम्बन्धी पर्यायों की अपेक्षा से वह षट्स्थानपतित' a है, अर्थात् वह हीनाधिकता छः रूपों में सम्भव है (1) अनन्तभाग हीन या अनन्तभाग अधिक। (2) असंख्यातभाग हीन या असंख्यातभाग अधिक। (3) संख्यातभाग हीन या संख्यातभाग अधिक। (4) अनन्तगुण हीन या अनन्तगुण अधिक। (5) असंख्यातगुण हीन या असंख्यातगुण अधिक। (6) संख्यातगुण हीन या संख्यातगुण अधिक। प्रज्ञापना के उक्त निरूपण को दृष्टि में रखें तो यह स्पष्ट होता है कि जिस उत्कृष्टप्रदेशी , 4 महास्कन्ध का निरूपण है, उससे अन्य भी, उस जैसे महास्कन्ध हैं, क्योंकि तभी परस्पर तुल्यता , : बताना सम्भव होगा। दूसरी बात, प्रज्ञापना-निरूपित अचित्त महास्कन्ध आठ स्पर्शों वाला है, जबकि प्रकृत गाथा में वर्गणा-प्रसंग से जो अचित्त स्कन्ध बताया गया है, वह तो चार स्पर्शों वाला ही है। " इससे भी स्पष्ट है कि चार स्पर्शों वाले महास्कन्ध से पृथक् भी अन्य अनेक स्कन्धों का सद्भाव है। " (हरिभद्रीय वृत्तिः) प्राक् तेजसभाषाद्रव्याणामन्तराले गुरुलध्वगुरुलघु च जघन्यावधिप्रमेयं द्रव्यम्' : इत्युक्तम्, बौदारिकादिद्रव्याणि।साम्प्रतमौदारिकादीनां द्रव्याणां यानि गुरुलघूनि यानि " चागुरुलघूनि, तानि दर्शयन्नाह- 212 @pconcenceenece@2008c008 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ attactact 000000000 नियुक्ति-गाथा-41 (नियुक्तिः) ओरालिअवेउबिअआहारगतेअ गुरुलहू दब्बा। कम्मगमणभासाई, एआइ अगुरुलहुआई॥१॥ [संस्कृतच्छायाः-औदारिक वैक्रिय-आहारक-तैजसावि मुख्लविद्रव्याणि कर्मण अबो-भावाटीवि 4 एतानि अगुरुलघुकानि (वृत्ति-हिन्दी-) पहले यह कहा था कि तैजस व भाषा द्रव्यों के अन्तराल में जो अवधिज्ञान का ज्ञेय भूत द्रव्य है, वह गुरुलघु और अगुरुलघु है। किन्तु औदारिक आदि द्रव्यों : का कथन नहीं किया। अब औदारिक आदि द्रव्यों के जो गुरुलघु व अगुरुलघु रूप हैं, उनका स्पष्टीकरण कर रहे हैं (41) (नियुक्ति-हिन्दी) औदारिक, वैक्रिय, आहारक व तैजस (-इन चार वर्गणाओं) के a द्रव्य गुरुलघु होते हैं और कार्मण, मन, भाषा, व आनापान (इन चार वर्गणाओं) के द्रव्य : 6 अगुरुलघु होते हैं। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) a (व्याख्या-) पदार्थस्तु औदारिकवैक्रियाहारकतैजसद्रव्याणि मुरुलघूबि, तथा ce कार्मणमनोभाषादिद्रव्याणि च अगुरुलघूनि निश्चयनयापेक्षयेति गाथार्थः१० (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) पदों का अर्थ इस प्रकार है कि औदारिक, वैक्रिय, : ce आहारक व तैजस (वर्गणाओं) के द्रव्य गुरुलघु होते हैं, और कार्मण, मन, भाषा आदि (वर्गणाओं) के द्रव्य अगुरुलघु होते हैं, यह कथन निश्चयनय की दृष्टि से है। यह गाथा का . & अर्थ पूर्ण हुआ // 1 // a (हरिभद्रीय वृत्तिः) वक्ष्यमाणगाथाद्वयसम्बन्धः- पूर्व क्षेत्रकालयोरवधिज्ञानसंबन्धिनोः केवलयोः अङ्गलावलिकाऽसंख्येयादिविभागकल्पनया परस्परोपनिबन्ध उक्तः। साम्प्रतं तयोरेवोक्तलकाणेन / द्रव्येण सह परस्परोपनिबन्धमुपदर्शयन्नाह 222233333333333333333333333333333333333333333 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)200@ren 213 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -acacacacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9999999 -232332222222222222222222222222333333333333323 (नियुक्तिः) संखिज्ज मणोदवे, भागो लोगपलियस्स बोद्धब्दो। संखिज्ज कम्मदवे, लोए थोवूणगं पलियं 42 // तेयाकम्मसरीरे, तेआदब्वे अ भासदब्वे अ। बोद्धव्वमसंखिज्जा, दीवसमुद्दा य कालो अ॥४३॥ [संस्कृतच्छायाः-संख्येयो मनोद्रव्ये भागो लोकपल्ययोः बोद्धव्यः / संख्येयाः कर्मद्रव्ये लोके स्तोकोनकं . पल्यम् ।तैजस कर्मशरीरे तैजसद्रव्ये च भाषाद्रव्ये चाबोद्धव्याः असंख्येयाः द्वीपसमुद्राश्च कालश्च // ]. . (वृत्ति-हिन्दी-) आगे कही जाने वाली दो गाथाओं का प्रकरण से सम्बन्ध इस 4 प्रकार है- पहले अवधि ज्ञान से सम्बद्ध मात्र क्षेत्र व काल का, अंगुल व आवलिका के >> a असंख्येय आदि विभागों की कल्पना के माध्यम से, परस्पर-सम्बन्ध (प्रभाव) बताया गया था। अब (शास्त्रकार) उन्हीं दोनों (क्षेत्र व काल) को उक्तलक्षण वाले द्रव्य के साथ (रखकर : उनके) परस्पर सम्बन्ध (प्रभाव) का निदर्शन करने जा रहे हैं (42-43) (नियुक्ति-हिन्दी) मनोद्रव्य का ज्ञाता अवधि ज्ञान हो तो (क्षेत्र की दृष्टि से) लोक का , संख्येय भाग तथा (काल की दृष्टि से) पल्योपम का संख्येय भाग उसका 'ज्ञेय' (विषय होता व है- ऐसा) समझना चाहिए। जब अवधिज्ञान 'कर्म द्रव्य' का ज्ञाता हो तो (क्षेत्र की दृष्टि से) , * लोक का संख्येय भाग, तथा (काल की दृष्टि से) पल्योपम का संख्येय भाग उसका 'ज्ञेय' है- यह समझना चाहिए। समस्त लोक का ज्ञाता अवधि ज्ञान हो तो (काल की दृष्टि से) कुछ कम पल्योपम (काल) उसका 'ज्ञेय' होता है। तैजस शरीर, कार्मण शरीर, तैजस द्रव्य व भाषा द्रव्य का ज्ञाता अवधिज्ञान हो तो (क्षेत्र की दृष्टि से) असंख्येय द्वीप-समुद्र तथा (काल की दृष्टि से) असंख्येय काल उसका 'ज्ञेय' होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (प्रथमगाथाव्याख्या-) संख्यायत इति संख्येयः, मनसः संबन्धि योग्यं वा द्रव्यं मनोद्रव्यं " 'तस्मिन् मनोद्रव्ये इति मनोद्रव्यपरिच्छेदके अवधौ, क्षेत्रतः संख्येयो लोकभागः, कालतोऽपि - संख्येय एव, 'पलियस्स' पल्योपमस्य 'बोद्धव्वो' विज्ञेयः, प्रमेयत्वेनेति। - 214 00BCEOROSCORRE@@@@@ &&&&&&&&&& &&&& Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -cacacacacaca cacece नियुक्ति-गाथा-42-43 000000000 22222223 333333333 3333333333333333 एतदुक्तं भवति-अवधिज्ञानी मनोद्रव्यं पश्यन् क्षेत्रतो लोकस्य संख्येयभागं कालतश्च ca पल्योपमस्य जानीते इति। तथा संख्येया लोकपल्योपमभागाः 'कर्मद्रव्ये' इति , & कर्मद्रव्यपरिच्छेदकेऽवधौ प्रमेयत्वेन बोद्धव्या इति वर्तते ।अयं भावार्थः-कर्मद्रव्यं पश्यन् / लोकपल्योपमयोः पृथक् पृथक् संख्येयान् भागान् जानीते। लोके' इति चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकविषयेऽवधौ, क्षेत्रतः कालतः स्तोकन्यूनं पल्योपमं प्रमेयत्वेन बोद्धव्यम् इति वर्तते। (वृत्ति-हिन्दी-) प्रथम गाथा (42वीं) की व्याख्या इस प्रकार है-संख्येय का अर्थ है C जिसकी गिनती की जा सके। मनोद्रव्य से तात्पर्य है- मन से सम्बन्धित या मन के योग्य , द्रव्य, वह जब अवधिज्ञान का विषय हो, अर्थात् अवधिज्ञान जब मनोद्रव्य को जाने तो क्षेत्र 1 a की दृष्टि से लोक का संख्येय भाग, काल की दृष्टि से भी 'पलिय' यानी 'पल्योपम' का , व संख्येय भाग 'प्रमेय' (जानने योग्य) के रूप में समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञानी मनोद्रव्य को जानता हुआ, क्षेत्र की दृष्टि से लोक के व संख्यात भाग को तथा काल की दृष्टि से पल्योपम के संख्यात भाग को जानता है, अर्थात् " कर्मद्रव्य को जानने वाले अवधिज्ञान के लिए लोक का संख्येय भाग तथा पल्योपम काल का , संख्यात भाग 'प्रमेय' होता है- ऐसा समझें। भावार्थ यह है कि कर्मद्रव्य को देखता हुआ : अवधिज्ञान लोक के तथा पल्योपम के पृथक्-पृथक् संख्येय भागों को जानता है। यहां / 'लोके' से तात्पर्य है- क्षेत्र की दृष्टि से चौदह राजू प्रमाण लोक को विषय करने वाले अवधिज्ञान के होने पर, काल की दृष्टि से कुछ कम ‘पल्योपम' काल को उसके प्रमेय रूप 4. में जानना चाहिए। (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदमत्र हृदयम्-समस्तं लोकं पश्यन् क्षेत्रतः कालतः देशोनं पल्योपमं पश्यति। 4 द्रव्योपनिबन्धनक्षेत्रकालाधिकारे प्रक्रान्ते केवलयोर्लोकपल्योपमक्षेत्रकालयोहणम् अनर्थकमिति 5 चेत्, नाइहापि सामर्थ्यप्रापितत्वाद् द्रव्योपनिबन्धनस्य, अत एव च तदुपर्याप धुववर्गणादि द्रव्यं पश्यतः क्षेत्रकालवृद्धिरनुमेयेति गाथार्थः // 42 // ca (वृत्ति-हिन्दी-) सारांश यह है कि क्षेत्र की अपेक्षा से समस्त लोक को देखता हुआ है काल की दृष्टि से कुछ कम पल्योपम को देखता है। (शंका-) द्रव्य के साथ क्षेत्र व काल का निरूपण करने आप जा रहे थे, किन्तु आप के द्वारा मात्र लोक व पल्योपम को, अर्थात् मात्र - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 215 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232222222333333333333333333333333333333333333 caca cacaacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000. क्षेत्र व काल को ही लेकर यहां निरूपण करना तो निरर्थक (निष्प्रयोजन) है? उत्तरca आपका कहना सही नहीं है, क्योंकि यहां भी (द्रव्य का भले ही साक्षात् निरूपण न हो, तो , भी) सामर्थ्य से द्रव्य के उपनिबन्धन (द्रव्यगत मर्यादा) का निरूपण हो ही जाता है, इसीलिए: कर्म द्रव्य के बाद अवधिज्ञान के लिए (उक्त अनुपात से) क्षेत्र व काल की वृद्धि का अनुमान : ce कर लेना चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ |42 / / (हरिभद्रीय वृत्तिः) (द्वितीयगाथाव्याख्या-) तेजोमयं तैजसम्, शरीरशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। . तैजसशरीरे तैजसशरीरविषयेऽवधौ क्षेत्रतोऽसंख्येया द्वीपसमुद्राः प्रमेयत्वेन बोद्धव्या इति।। कालश्च असंख्येय एव। मिथ्यादर्शनादिभिः क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणीयादि, तेन निर्वृत्तं / तन्मयं वा कार्मणम्, शीर्यते इति शरीरम्, कार्मणं च तच्छरीरं चेति विग्रहः, तस्मिन्नपि तैजसवद्वक्तव्यम् / एवं तैजसद्रव्यविषये चावधौ भाषाद्रव्यविषये च क्षेत्रतो 'बोद्धव्या' विज्ञेयाः। संख्यायन्त इति संख्येयाः, न संख्येया असंख्येयाः, द्वीपाश्च समुद्राश्च द्वीपसमुद्राः, प्रमेयत्वेनेति। . & कालश्चासंख्येय एव, स च पल्योपमासंख्येयभागसमुदायमानो विज्ञेय इति, (ग्रव्याग्रम् 1000) / . अत्र चासंख्येयत्वे सत्यपि यथायोगं द्वीपाद्यल्पबहुत्वं सूक्ष्मेतरद्रव्यद्वारेण विज्ञेयमिति। (वृत्ति-हिन्दी-) दूसरी गाथा (तियालीसवीं) की व्याख्या इस प्रकार है- तेजोमय। . तैजसकर्मशरीर' इस पद में प्रयुक्त 'तेजस' का अर्थ है- तेजोमय। 'शरीर' का सम्बन्ध , 4 तैजस व कर्म -इन दोनों से है। अतः अर्थ होगा- तैजस शरीर और कर्म-शरीर (कार्मण: शरीर), यदि ये अवधि ज्ञान के विषय होते हैं तो क्षेत्र की दृष्टि से असंख्येय द्वीप-समुद्र प्रमेय, होते हैं- यह जानना चाहिए। काल को भी असंख्यात ही जानना चाहिए (अर्थात् काल की : * दृष्टि से पल्योपम का असंख्यात भाग प्रमेय होता है)। 'कर्मशरीर' शब्द में कर्म का अर्थ है जो मिथ्यादर्शन आदि द्वारा किया जाय, वह ज्ञानावरणीयादि कर्म / उस कर्म से बना हुआ या . तन्मय, उसे कार्मण कहा जाता है। शरीर का अर्थ है- जो शीर्ण हो, क्षय को प्राप्त हो / कार्मण . & जो शरीर -यह विग्रह (अर्थ) है (तदनुसार कर्मधारय समास होकर 'कर्मशरीर' यह समस्त पद निष्पन्न हुआ है)। यह जब अवधिज्ञान का विषय हो तो (क्षेत्र व काल की दृष्टि से , * प्रमेय क्या होगा -इसका निरूपण पूर्वोक्त) तैजस शरीर की तरह समझना चाहिए। इसी , , तरह, तैजस द्रव्य व भाषा द्रव्य जब अवधि के विषय हों तो क्षेत्र की दृष्टि से प्रमेय को - 216 8 9@@@ca@@@Rece@9828898 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22222233333333222222223 -caca ca cacacace caca नियुक्ति गाथा-42-43 0 900200099समझना चाहिए, अर्थात् जिनकी गिनती नहीं की जा सके, ऐसे (असंख्यात) द्वीप व समुद्र & प्रमेय होते हैं और काल भी असंख्येय होता है, अर्थात् पल्योपम के असंख्यात भाग का , समुदित रूप प्रमाण काल 'प्रमेय' होता है (यहां तक ग्रन्थ का परिमाण हुआ-1000)। यहां / यद्यपि द्वीप-समुद्र को असंख्यात बताया गया है, फिर भी प्रमेय भूत द्रव्य (तैजस व भाषा) की स्थूलता व सूक्ष्मता के अनुरूप द्वीप-समुद्र की अल्पता-बहुलता समझ लेनी चाहिए। (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह- एवं सति 'तेयाभासादवाण अन्तरा एत्थ लहइ पट्ठवओ' (गाथा-३८) , इत्याधुक्तम्, तस्य च तैजसभाषान्तरालद्रव्यदर्शिनोऽप्यङ्गुलावलिकाऽसंख्येयभागादि / क्षेत्रकालप्रमाणमुक्तं तद्विरुध्यते, तैजसभाषाद्रव्ययोरसंख्येयक्षेत्रकालाभिधानात्, न। प्रारम्भकस्योभयायोग्यद्रव्यग्रहणात्, द्रव्याणां च विचित्रपरिणामत्वाद् यथोक्तं ल क्षेत्रकालप्रमाणमविरुद्धमेव / अल्पद्रव्याणि वाऽधिकृत्य तदुक्तम्, प्रचुरतैजसभाषाद्रव्याणि " ca पुनरङ्गीकृत्येदम्।अलं विस्तरेणेति गाथार्थः // 43 // (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) यदि ऐसी बात है तो (गाथा-38 में) आपने कहा था कि c'तैजस व भाषा द्रव्यों के अन्तराल में स्थित द्रव्यों को अवधि ज्ञान का प्रस्थापक ग्रहण करता है है'। वहां तैजस व भाषा द्रव्य के अन्तराल को देखने वाले अवधि ज्ञान के लिए अंगुल व & आवलिका के असंख्यात भाग आदि क्षेत्र-काल प्रमाण विषय आपने बताया- उससे यह , (प्रस्तुत) कथन विरुद्ध हो जाता है, क्योंकि तैजस व भाषा द्रव्य के ज्ञाता अवधि ज्ञान को / आप यहां असंख्यात क्षेत्र व काल को विषय करने वाला बता रहे हैं। उत्तर- ऐसी बात : 4 (परस्पर विरुद्ध कथन) नहीं है। प्रारम्भक अवधिज्ञानी के लिए वहां यह कहा गया है कि वह दोनों (तैजस व भाषा) के अयोग्य द्रव्य को ग्रहण करता है। (अर्थात् वह जितना ग्रहण , कर पाता है, उसी का निरूपण है।) उन (जैसे अयोग्य) द्रव्यों की परिणतियां भी विचित्र 1 होती हैं। इसलिए क्षेत्र व काल का पूर्वोक्त कथन विरोधी नहीं है। अथवा पहले जो कहा गया, . वह अल्प द्रव्यों को दृष्टि में रख कर कहा गया, किन्तु यहां जो कथन किया गया है, वह , प्रचुर तैजस व भाषा द्रव्यों को दृष्टि में रखकर किया गया है। अब अधिक कहने की अपेक्षा, नहीं रह जाती। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 43 // (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 217 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3333333333333333322222223333333333333 Recace ca ca ca caca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 000 0000 / विशेषार्थ यहां द्रव्य की स्थूलता व सूक्ष्मता के अनुरूप प्रमेयभूत समुद्र-द्वीपादि की अल्पता-बहुलता , C का होना बताया है। उसका तात्पर्य यह है कि तैजस द्रव्य का जानने वाला अवधिज्ञान, और भाषा , ca द्रव्य आदि को जानने वाला अवधिज्ञान -ये सभी क्षेत्र की दृष्टि से असंख्यात द्वीप-समुद्रों को जानते " हैं, फिर भी उनमें विषय की अल्पता-बहुलता का अन्तर होता है। जो जितना सूक्ष्म द्रव्य को विषय , C करेगा, उसका क्षेत्र-विषय भी सूक्ष्मतर होने से अधिकता लिए हुए होगा। तैजस शरीर की तुलना में , c& कार्मण सूक्ष्म है, कार्मण शरीर से भी अबद्ध तैजस वर्गणा द्रव्य अधिक सूक्ष्म है, उससे भी सूक्ष्म " भाषा द्रव्य हैं, अतः तैजस शरीर को जानने वाले अवधि ज्ञान की तुलना में कार्मण शरीर को जानने , वाला अवधिज्ञान असंख्यात द्वीप-समुद्रों को जो जानता है, वह अधिक सूक्ष्मता लिए हुए होता है, . अतः वहां क्षेत्र की अपेक्षाकृत बहुलता होती है। ce तैजस व भाषा के अवधिज्ञान का क्षेत्र व काल तैजस व भाषा द्रव्य को विषय करने वाला अवधिज्ञान क्षेत्र की दृष्टि से असंख्यात द्वीप-समुद्र 1 को जानता है-ऐसा यहां प्रस्तुत व्याख्यान में बताया गया है। यहीं शंकाकार ने प्रश्न किया कि उक्त ca कथन पूर्वकथन से विरुद्ध है। पूर्व में गा. 38 आदि में बताया गया था कि तैजस व भाषा द्रव्य को जानने वाला अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यात भाग को जानता है, और यहां गाथा 43 में कहा जा ल रहा है कि असंख्यात क्षेत्र को जानता है। पहले असंख्यात भाग को जानना और अब असंख्यात क्षेत्र ca को जानना -ये दोनों परस्पर-विरुद्ध कथन हैं। उत्तर में यह बताया गया है कि पूर्व कथन इस बात को समझाने के लिए किया गया है। कि वह प्रारम्भिक (व प्रतिपाती अवधि ज्ञान सम्पन्न) तैजस व भाषा द्रव्य -दोनों के अयोग्य द्रव्य को , ग्रहण करता है, शेष को ग्रहण नहीं कर पाता। दोनों के अयोग्य होने की परिणति द्रव्य की अपनी है, . c& वह विचित्र होती है। अतः पूर्वोक्त क्षेत्र काल के प्रमाण में कोई विरोध वाली बात नहीं है। दूसरा >> a समाधान यह है कि पूर्व का कथन अल्प द्रव्यों के रूप में किया गया है और प्रस्तुत गाथा का कथन है प्रचुर तैजस व भाषा द्रव्यों के रूप में किया गया है। &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-जघन्यावधिप्रमेयं प्रतिपादयता गुरुलघु अगुठलघु वा द्रव्यं पश्यतीत्युक्तम्, न . & सर्वमेव।विमध्यमावधिप्रमेयमपि चाङ्गुलावलिकासंख्येयभागाद्यभिधानात् न सर्वद्रव्यरूपम्, : तत्रस्थानामेव दर्शनात्, अत उत्कृष्टावधेरपि किमसद्रव्यरूपमेवालम्बनम्, आहोस्विन्नेति, , इत्यत्रोच्यते - 218(r)(r)(r)(r)(r)n@cr(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRce 200900900200 822222222222222222223333333333333333333333332 नियुक्ति गाथा-44 (नियुक्तिः) एगपएसोगाढं परमोही लहइ कम्मगसरीरं। लहइय अगुख्यलघुअं, तेयसरीरे भवपुहुत्तं // 4 // [संस्कृतच्छायाः- एकप्रदेशावगाढं परमावधिः लभते कार्मणशरीरम् / लभते च अगुरुकलघुकं , 6 तैजसशरीरे भवपृथक्त्वम् // ] (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) जघन्य अवधिज्ञान के प्रमेय का प्रतिपादन करते हुए यह है 4 कहा गया था कि अवधिज्ञान गुरुलघु व अगुरुलघु द्रव्य को ही जानता-देखता है, समस्त cm द्रव्य को नहीं। इसी प्रकार मध्यम अवधिज्ञान का प्रमेय भी अंगुल व आवलिका के असंख्येय " & भाग रूप बताया गया, अतः वह भी समस्त द्रव्य को नहीं जानता, क्योंकि वह (उक्त) नियत , क्षेत्र में स्थित द्रव्यों का ही दर्शन करता है। इसलिए उत्कृष्ट अवधिज्ञान का आलम्बन (विषय) : असमस्त द्रव्य है या नहीं? इस पर (इसी जिज्ञासा के समाधान हेतु) आगे कह रहे हैं _ (44) (नियुक्ति-अर्थ-) परमावधि (ज्ञान-सम्पन्न) एक प्रदेश में स्थित (परमाणु से लेकर है अनन्त प्रदेशी स्कन्धों तक) द्रव्यों एवं कार्मण शरीर, एवं अगुरुलघु (व गुरुलघु भी) द्रव्यों को . देखता-जानता है। तैजस शरीर को विषय करने पर (वह अवधि) भवपृथक्त्व (दो से लेकर . नौ भवों तक) को देखता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) . (व्याख्या-) प्रकृष्टो देशः प्रदेशः, एकश्चासौ प्रदेशश्चैकप्रदेशः, तस्मिन् अवगाटम्, अवगाटमिति व्यवस्थितम्, एकप्रदेशावगाढं परमाणुद्वयणुकादि द्रव्यम् ।परमश्चासाववधिश्च / परमावधिः उत्कृष्टावधिरित्यर्थः। 'लभते' पश्यति। अवध्यवधिमतोरभेदोपचारादवधिः ca पश्यतीत्युक्तम्।तथा कार्मणशरीरं च लभते। a (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) प्रदेश यानी प्रकृष्ट देश (भाग), एक जो प्रदेश, वह है- 1 एकप्रदेश, उसमें अवगाढ़ यानी व्यवस्थित (व्याप्त)। परमाणु, व्यणुक आदि (से लेकर a अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक) द्रव्य ‘एकप्रदेशावगाढ़' होता है। परमावधि का अर्थ है- परम - यानी उत्कृष्ट अवधि, अर्थात् उत्कृष्ट अवधिज्ञान / लभते यानी देखता है। अवधिज्ञान व ज्ञाता में : अभेद उपचार कर 'अवधिज्ञान देखता है' -यह कथन है (जिसका तात्पर्य है- अवधिज्ञानी " देखता है)। वह कार्मण शरीर को भी देखता है। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) &&&&&&&&&&&&&&&&&&& 219 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222333333333333333333322222222222222233333333 -ca cace ca ca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2 ORDon| (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-परमाणुद्वयणुकादि द्रव्यमनुक्तं कथं गम्यते तदालम्बनत्वेनेति, ततश्चोपात्तमेव . कार्मणमिदं भविष्यति, न।तस्यैकप्रदेशावगाहित्वानुपपत्तेः। लभते चागुरुलघु' ।चशब्दात् , गुरुलघु।जात्यपेक्षं चैकवचनम्, अन्यथा हि सर्वाणि सर्वप्रदेशावगाढानि द्रव्याणि पश्यतीत्युक्तं . भवति। तथा तैजसशरीरद्रव्यविषये अवधौ कालतो भवपृथक्त्वं परिच्छेद्यतयाऽवगन्तव्यमिति। एतदुक्तं भवति-यस्तैजसशरीरं पश्यति, स कालतो भवपृथक्त्वं पश्यति इति।इह च य एव: हि प्राक् तैजसं पश्यतः असंख्येयः काल उक्तः, स एव भवपृथक्त्वेन विशेष्यत इति। (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) 'एकप्रदेशावगाढ़' से परमाणु आदि का अर्थ आपने कैसे ... * लिया? परमाणु आदि का कथन तो गाथा में है नहीं, अतः इसी पद के आगे आए कार्मण, & शरीर का ही विशेषण ‘एकप्रदेशावगाढ़' को मान लें। (उत्तर-) ऐसा उचित नहीं है। कार्मण " c. शरीर की एक प्रदेश में स्थिति संगत नहीं होती। (वह असंख्येयप्रदेशी होता है, अतः कार्मण " & शरीर का एकप्रदेशावगाढ़ विशेषण नहीं हो सकता)। अगुरुलघु द्रव्य को भी वह देखता है। " 'च' पद से यह सूचित होता है कि गुरुलघु द्रव्य को भी वह देखता है। ‘अगुरुलघु' में : एकवचन जातिवाचक है। अर्थात् पुद्गलजातीय ही यहां ग्राह्य है, अन्यथा यह अर्थ निकल 4 जाता कि सर्व-प्रदेशावगाढ़ सभी द्रव्यों को (अर्थात् धर्मास्तिकाय आदि को भी) देखता- 1 जानता है। और जब तैजस शरीर को अवधिज्ञान देखता है तो काल की दृष्टि से भवपृथक्त्व (दो / & से नौ भवों तक के समय) को अवधि के ज्ञेय रूप में जानना चाहिए। तात्पर्य यह है- जो & अवधिज्ञान तैजस शरीर को देखता है, वह काल की दृष्टि से भवपृथक्त्व को देखता है। तैजस , << शरीर को देखने वाले अवधिज्ञान का जो पहले असंख्येय (पल्योपम का असंख्येय) काल कहा गया था, उसे ही यहां 'भवपृथक्त्व' रूपी विशेषण से युक्त कहा गया है (अर्थात् , & पल्योपम का असंख्यात काल यानी भवपृथक्त्व, 2 भवों से लेकर नौ भवों तक)। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-नन्वेकप्रदेशावगाढस्यातिसूक्ष्मत्वात् तस्य च परिच्छेद्यतयाऽभिहितत्वात् कार्मणशरीरादीनामपि दर्शनं गम्यत एवेत्यतः तदुपन्यासवैयर्थ्यम्।तथैकप्रदेशावगाढमित्यपि - 2200(r)c(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ca@28 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90909002020009 28822222222222333 acreecenecace नियुक्ति गाथा-44 नवक्तव्यम्, 'रूवगयं लभइ सलं' इत्यस्य वक्ष्यमाणत्वादिति।अत्रोच्यते, न सूक्ष्मं पश्यतीति नियमतो बादरमपि द्रष्टव्यम्, बादरं वा पश्यता सूक्ष्ममिति, यस्मादुत्पत्तौ अगुरुलघु पश्यन्नपि " न गुरुलघु उपलभते, घटादि वा अतिस्थूरमपि। तथा मनोद्रव्यविदस्तेष्वेव दर्शनं नान्येष्वतिस्थूरेष्वपि, एवं विज्ञानविषयवैचित्र्यसंभवे सति संशयापनोदार्थमेकप्रदेशावगाहिग्रहणे सत्यपिशेषविशेषोपदर्शनमदोषायैवेति। अथवा एकप्रदेशावगाहिग्रहणात् परमाण्वादिग्रहणं कार्मणं यावत्, तदुत्तरेषां चागुरुलघ्वभिधानात् / चशब्दात् गुरुलघूनां चौदारिकादीनामित्येवं सर्वपुद्गलविशेषविषयत्वमाविष्कृतं भवति। तथा चास्यैव नियमार्थं 'रूपगतं लभते सर्वम्' इत्येतद् वक्ष्यमाणलक्षणमदुष्टमेवेति, एतदेव हि सर्वं रूपगतम्, नान्यद् इति, अलं प्रसङ्गेनेति , गाथार्थः // 44 // (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) एकप्रदेशावगाढ़ तो अत्यन्त सूक्ष्म होता है, उसे जब अवधि का ज्ञेय बता दिया गया तो फिर स्वतः कार्मण शरीर का भी देखना बोधगम्य हो ही 4 जाता है, अतः अलग से कार्मण शरीर का कथन व्यर्थ है। दूसरी बात, 'एकप्रदेशावगाढ़' इस ca पद को भी कहने की जरूरत नहीं, क्योंकि आगे (45वीं गाथा में) 'रूपगत सभी (सभी रूपी a द्रव्यों) को देखता है' यह कहा ही जाने वाला है। इस (शंका-) का उत्तर दे रहे हैं- ऐसा कोई 7 नियम नहीं कि जो सूक्ष्म को देखे, वह बादर (स्थूल) को भी देख ले, या जो स्थूल को देखे, , वह सूक्ष्म भी देख ले, क्योंकि उत्पत्ति-समय में अवधिज्ञान अगुरुलघु को देखता हुआ भी , गुरुलघु को नहीं देखता, घट आदि अतिस्थूल (व गुरुलघु) पदार्थों को भी नहीं देखता। इसी तरह मनःपर्यायज्ञानी मनोद्रव्य जैसे सूक्ष्म को ही देखता है, अन्य (घटादि) अतिस्थूल पदार्थों a को नहीं देखता। इस प्रकार, जब ज्ञान के विषय की विचित्रता सम्भव है, तब एक प्रदेशावगाढ़ a रूप में कार्मण शरीर का ग्रहण सम्भव होने पर भी, संशय को दूर करने हेतु (कार्मण शरीर रूपी) अवशिष्ट द्रव्य का यहां जो कथन किया गया है, उसमें भी दोष नहीं है। अथवा 'एकप्रदेशावगाही' पद से परमाणु से लेकर कार्मण वर्गणा के पुद्गलों तक . & का ग्रहण है, कार्मण-वर्गणा की उत्तरवर्ती ध्रुववर्गणा आदि (से लेकर अचित महास्कन्धों , तक) का ग्रहण 'अगुरुलघु' पद से किया गया है। 'च' शब्द से गुरुलघु औदारिक आदि . वर्गणाएं (अर्थात् वैक्रिय, आहारक, तैजस भी) गृहीत हैं, इस प्रकार (परम) अवधिज्ञान का . | विषय समस्त पुद्गल है- यह निरूपित होता है। आगे 'समस्त रूपगत को देखता है' यह - 80screece@@@@cr890090888900 2222222 221 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333332233333333333333333333333333333333333333 | Sacaacaaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9900009जो कथन किया गया है, वह इसी तथ्य को पुनः इस रूप में नियमबद्ध कर रहा है कि इतना ce ही समस्त रूपगत (रूपी द्रव्य) है, अन्य कुछ नहीं, अतः (इस कथन में भी) कोई दोष नहीं . रह जाता। और अधिक कुछ कहने की जरूरत नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||44 // , (हरिभद्रीय वृत्तिः) एवं परमावधेर्द्रव्यमङ्गीकृत्य विषय उक्तः, साम्प्रतं क्षेत्रकालावधिकृत्योपदर्शयन्नाह नियुक्तिः) परमोहि असंखिज्जा, लोगमित्ता समा असंखिज्जा। रूवगयं लहइ सलं, खित्तोवमिअं अगणिजीवा // 45 // [संस्कृतच्छायाः- परमावधिः असंख्येयानि लोकमात्राणि समाः असंख्येयाः। रूपगतं लभते सर्व क्षत्रोपमितम् अग्निजीवाः॥] ___ (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, परमावधि ज्ञान को दृष्टि में रख कर, उसका विषय " व बताया गया। अब, उसके क्षेत्र व काल सम्बन्धी विषयों को बताया जा रहा है (45)(नियुक्ति-अर्थ-) परमावधि (ज्ञान) असंख्यात लोक-परिमित (भागों, खण्डों) को " जानता है, तथा असंख्यात वर्षों (उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी जैसे काल-खण्डों) को जानता है। " वह सभी रूपी द्रव्यों को जानता है। उसके (प्रमेय) क्षेत्र का उपमान है- (पूर्वोक्त सर्वाधिक) : a अग्नि-जीव (उनके द्वारा व्याप्त क्षेत्र)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) परमश्चासाववधिश्च परमावधिः। अवध्यवधिमतोरभेदोपचाराद् असौ परमावधिः क्षेत्रतः 'असंख्येयानि लोकमात्राणि', खण्डानीति गम्यते, लभत इति संबन्धः। & कालतस्तु 'समाः' उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरसंख्येया एव लभते / तथा द्रव्यतो 'रूपगतं' मूर्त्तद्रव्यजातमित्यर्थः। लभते' पश्यति 'सर्व' परमाण्वादिभेदभिन्नं पुद्गलास्तिकायमेवेति।। भावतस्तु वक्ष्यमाणांस्तत्पर्यायान् इति। __ (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) परमावधि का अर्थ है- परम यानी उत्कृष्ट जो अवधि (ज्ञान), वह / अवधिज्ञान व अवधिधारक-इनमें अभेद उपचार (सम्बन्ध) स्थापित करते हुए 222 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)908900999@ - Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A-RRRRRRRRR 1232222232223333333333333333333222323333333333 नियुक्ति-गाथा-45 000000000 यह कथन है कि यह परमावधि ज्ञान क्षेत्र की दृष्टि से असंख्येय लोक-परिमित खण्डों को & देखता है- इस प्रकार पदों का परस्पर सम्बन्ध (ज्ञातव्य) है। काल की दृष्टि से असंख्यात " वर्षों -अर्थात् असंख्य ही उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी (जैसे काल-खण्डों) को जानता है। तथा : द्रव्य की दृष्टि से वह (परमावधिज्ञान) समस्त रूपी, यानी समस्त मूर्त द्रव्य-समूह को, अर्थात् परमाणु आदि भेदों वाले पुद्गलास्तिकाय को ही जान लेता है। भाव की दृष्टि से आगे ca कहे जा रहे पर्यायों को (परमावधिज्ञान) जान लेता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) यदुक्तम् 'असंख्येयानि लोकमात्राणि खण्डानि परमावधिः पश्यतीति' तत्क्षेत्रनियमनायाह-उपमानम् उपमितम्, भावे निष्ठाप्रत्ययः, क्षेत्रस्योपमितम्।क्षेत्रोपमितम्, , एतदुक्तं भवति-उत्कृष्टावधिक्षेत्रोपमानम्, 'अग्निजीवाः' प्रागभिहिता एवेति। __आह- 'रूपगतं लभते सर्वम्' इत्येतदनन्तरगाथायामर्थतोऽभिहितत्वात् किमर्थं पुनरुक्तमित्यत्रोच्यते।उक्तः परिहारः।अथवा अनन्तरगाथायां 'एकप्रदेशावगाढम्' इत्यादि / परमावधेर्द्रव्यपरिमाणमुक्तम्, इह रूपगतं लभते सर्वम्' इति क्षेत्रकालद्वयविशेषणम् / एतदुक्तं भवति-रूपद्रव्यानुगतं लोकमात्रासंख्येयखण्डोत्सर्पिण्यवसर्पिणीलक्षणं क्षेत्रकालद्वयं लभते, . न केवलम्, अरूपित्वात्तस्य, रूपिद्रव्यनिबन्धनत्वाच्चावधिज्ञानस्येति गाथार्थः 45 // (वृत्ति-हिन्दी-) ये यह जो कहा गया था कि लोक-परिमित असंख्येय खण्डों को , a परमावधि जानता है, तो उस क्षेत्र को मर्यादित करने की दृष्टि से कहा-क्षेत्रोपमित। उपमित - यानी उपमान, यहां 'भाव' अर्थ में (उपमा-शब्द से) निष्ठा (इ+त) प्रत्यय हुआ है। अतः , क्षेत्रोपमित का अर्थ हुआ-क्षेत्र का उपमान (सादृश्यबोधक द्रव्य)। तात्पर्य है- उत्कृष्ट अवधि, के क्षेत्र का उपमान है- अग्नि जीव, जिसका कथन पहले (गाथा-31 में) किया जा चुका है। (शंका-) 'समस्त 'रूपी' (मूर्त) पदार्थों को जानता है' -इस बात को भाव (तात्पर्य) रूप में (अन्य शब्दों में) पिछली गाथा (44) में कह ही दिया गया था, अब पुनः उसे क्यों कहा : जा रहा है? उत्तर इस प्रकार है- इसका समाधान पहले दिया चुका है (वह यह कि यह पुनरुक्ति यह बताने के लिए की गई है इन सब प्रमेयों (परमाणु, कार्मण शरीर, अगुरुलघु , a आदि) को छोड़ कर अन्य कोई 'रूपी' द्रव्य नहीं है।अथवा पिछली गाथा (44) में एकप्रदेशावगाढ़ से इत्यादि द्रव्यों को परमावधि का द्रव्यपरिमाण कहा गया है, और यहां 'समस्त रूपी द्रव्यों को @@ca(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@989@@@ 223 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cace ca Caca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 3000200 . जानता है'- यह कथन अवधि के क्षेत्र व काल -इन दोनों का विशेषण है। तात्पर्य यह है कि लोक-परिमित असंख्येय खण्ड एवं उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल खण्ड -ये दोनों क्षेत्र व . काल 'रूपी द्रव्य' होने पर ही अवधि के ज्ञेय होते हैं, न कि मात्र क्षेत्र व काल के रूप में, , क्योंकि वे (क्षेत्र व काल) तो अरूपी होते हैं, और अवधिज्ञान 'रूपी' द्रव्य को ही विषय करता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||45 / / (हरिभद्रीय वृत्तिः) & तावत् पुरुषानधिकृत्य क्षायोपशमिकः खलु अनेकप्रकारोऽवधिमुक्तः। साम्प्रतं C तिरश्चोऽधिकृत्य प्रतिपिपादयिषुराह . (नियुक्तिः) आहारतेयलंभो, उक्कोसेणं तिरिक्खजोणीसु। गाउय जहण्णमोही, नरएसु उ जोयणुक्कोसो॥४६॥ [संस्कृतछायाः- आहारतैजसलम्भः उत्कर्षेण तिर्यग्योनिषु / गव्यूतं जघन्यमवधिः नरकेषु च ca योजनमुत्कृष्टम् // (वृत्ति-हिन्दी-) यहां तक मनुष्यों को दृष्टि में रख कर विविध प्रकार के क्षायोपशमिक a अवधि का निरूपण हुआ। अब तिर्यञ्चों को दृष्टि में रख कर 'अवधि' के प्रतिपादन हेतु (आगे " a गाथा) कह रहे हैं (46) (नियुक्ति-अर्थ-) तिर्यंच योनियों में (होने वाला) अवधिज्ञान उत्कृष्टतया आहारक, . तैजस (व औदारिक, वैक्रिय -इन) को ग्रहण करता है। नरकों में (यह) अवधिज्ञान जघन्यतया , गव्यूत (वस्तुतः अर्धगव्यूत) और उत्कृष्टतया एक योजन तक का हुआ करता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्राहारतेजोग्रहणाद् औदारिकवैक्रियाहारकतेजोद्रव्याणि गृह्यन्ते। . ततश्चाहारश्च तेजश्च आहारतेजसी तयोर्लाभ इति समासः। लाभः प्राप्तिः / a परिच्छित्तिरित्यनन्तरम् / इदमत्र हृदयम्-तिर्यग्योनिषु योनियोनिमतामभेदोपचारात्, तिर्यग्योनिकसत्त्वविषयो योऽवधिः, तस्य द्रव्यतः खलु आहारतेजोद्रव्यपरिच्छेद उत्कृष्टत उक्तः। " इत्थं द्रव्यानुसारेणैव क्षेत्रकालभावाः परिच्छेद्यतया विज्ञेया इति। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)RO900 2222222222222222222 224 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Racecacee नियुक्ति-गाथा-46 PORRORRORE इदानीं भवप्रत्ययावधिस्वरूपमुच्यते।सच सुरवारकाणामेव भवति।तत्र प्रथममल्प << इतिकृत्वा नारकाणां प्रतिपाद्यत इति।अत आह-क्षेत्रतो 'गव्यूतं' परिछिनत्ति जघन्येनावधिः। क्व? नरान् कायन्तीति नरकाः, कै गैरै शब्दे इतिधातुपाठगत् नरान् शब्दयन्तीत्यर्थः। इह च / नरका आश्रयाः, आश्रयायिणोरभेदोपचारात्।नरकेषुतुयोजनमुत्कृष्ट इत्याह।एतदुक्तं भवति नारकाधारो योऽवधिः, असौ उत्कृष्टो योजनं परिछिनत्ति क्षेत्रतः।इत्थं क्षेत्रानुसारेण द्रव्यादयस्तु ce अवसेया इति गाथार्थः // 46 // (वृत्ति-हिन्दी-) यहां आहार व तैजस शरीर के कथन से औदारिक, वैक्रिय, आहारक व तैजस द्रव्यों का भी ग्रहण किया जाता है। आहार व तेज -इनका लाभ, लाभ, प्राप्ति, ca उपलब्धि, परिच्छित्ति -ये एक ही अर्थ के वाचक हैं। तात्पर्य यह है- तिर्यंच योनियों में। यहां , & योनि व योनि वाले -इनमें अभेद का उपचार (सम्बन्ध) मान कर कथन किया गया है। अतः / co: 'तिर्यश्चयोनियों में इसका अर्थ होगा- तिर्यञ्च योनि वाले प्राणियों में रहने वाला जो अवधि ज्ञान है, उसे द्रव्य दृष्टि से उत्कृष्टतया आहारक व तैजस द्रव्य का (साथ ही औदारिक व, 4 वैक्रिय द्रव्य का भी) ज्ञाता कहा गया है। इस प्रकार, द्रव्य के अनुसार ही क्षेत्र, काल व भाव : रूप से ज्ञेय विषयों को जान लेना चाहिए। - अब भवप्रत्ययिक (जन्मजात) अवधिज्ञान के स्वरूप का निरूपण कर रहे हैं। वह 6 (भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान) देवों व नारकों को ही होता है। इनमें पहले नारकों के ही 4 अवधिज्ञान का निरूपण कर रहे हैं, क्योंकि (देवों की तुलना में) वह अल्प होता है। इसलिए व कहा- जघन्य अवधिज्ञान क्षेत्र की दृष्टि से 'गव्यूत' (गाऊ) क्षेत्र प्रमाण को जानता है। यह है व ज्ञान कहां (किनमें) होता है? नरकों में। कै, गै, रै-ये धातुएं शब्द (चिल्लाना, पुकारना) , a अर्थ वाली हैं। जो नरों को (सहायतार्थ) पुकारते हैं, वे नरक यानी नारकी जीव हैं। (नारकी , आश्रयी, निवासी हैं, नरक उनके आश्रय हैं। आश्रय व आश्रयी में अभेद उपचार करते हुए) यहां नरक पद से, उन नारकियों के आश्रयभूत क्षेत्र गृहीत हैं। इन नरक क्षेत्रों में उत्कृष्ट अवधिज्ञान का क्षेत्र है- योजन। तात्पर्य यह है कि नारकों का आधारभूत (उनमें रहने वाला), जो अवधिज्ञान है, वह उत्कृष्टतया क्षेत्र की दृष्टि से योजन (तक क्षेत्र) को देख लेता है। इसी , के प्रकार क्षेत्रानुसार द्रव्य आदि की दृष्टि से भी समझ लेना चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण , हुआ 146 // 1222222222222232223333333333333333333333333333 828808802880000000000000 225 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - / -acacacacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 विशेषार्थ यहां नारकों के अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र 'गव्यूत' (गाऊ) बताया गया है। किन्तु प्रज्ञापना (पद- .. ca 33) का तथा आगे वाली गाथा की व्याख्या का अनुशीलन करें तो यहां 'गव्यूत' का अर्थ 'अर्द्धगव्यूत' ही ग्राह्य " ca है-ऐसा उचित प्रतीत होता है। 'गव्यूत' का व्यावहारिक मान क्या है? संस्कृत कोषकार 'गव्यूत' (या गव्यूत) को एक कोस (या " कहीं-कहीं दो कोस) के बराबर, या दो हजार धनुष प्रमाण मानते हैं। समवायांग में गव्यूत को एक चौथाई " c& योजन प्रमाण वाला माना गया है, वही सर्वत्र ग्राह्य है- ऐसा मानना चाहिए। 6 . 23333333333333333333333222222 22222222222222 (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___ एवं नारकजातिमधिकृत्य जघन्येतरभेदोऽवधिः प्रतिपादितः। साम्प्रतं , रत्नप्रभादिपृथिव्यपेक्षया उत्कृष्टेतरभेदमभिधित्सुराह (नियुक्तिः) चत्तारि गाउयाई, अद्भुट्ठाई तिगाउयं चेव। अड्डाइज्जा दुण्णि य, दिवट्टमेगं च निरएसु // 47 // [संस्कृतच्छायाः-चत्वारि गव्यूतानि, सार्वत्रीणि त्रिगव्यूतं चैव ।अर्घतृतीयानि, द्वेच, अद्ध्यर्धमेकं च a बरकेषु / / (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, नारक जन्म को आधार मान कर, वहां के जघन्य व उत्कृष्ट अवधिज्ञान का प्रतिपादन किया गया। अब रत्नप्रभा आदि (नरक की सात) पृथिवियों - 4 की अपेक्षा से (अवधि के) उत्कृष्ट व जघन्य भेद का कथन करने जा रहे हैं 666666 (47) (नियुक्ति-अर्थ-) नरकावासों में (सातों पृथिवियों में अवधि के क्रमशः) जघन्य व 4 उत्कृष्ट क्षेत्र इस प्रकार हैं- (1) चार गव्यूत व साढ़े तीन गव्यूत। (2) साढ़े तीन गव्यूत व तीन गव्यूत। (3) तीन गव्यूत व ढाई गव्यूत / (4) ढाई गव्यूत व दो गव्यूत / (5) दो गव्यूत व डेढ़ गव्यूत (6) डेढ़ गव्यूत व एक गव्यूत, (7) एक गव्यूत व अर्घ गव्यूत। &&&&&&&&& 1226 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)RO900 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . - RecemRRRRR नियूक्ति-गाथा-470 030002020 (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र बरकाः इति नारकालयाः, तेच सप्तपृथिव्याधारत्वेन सप्तघा भिद्यन्ते। . तत्र रत्नप्रभाद्याधारनरकेषु यथासंख्यमुत्कृष्ठेतरभेदभिन्नावधेः क्षेत्रपरिमाणमिदम् / 'नस्केषु' " & इति सामर्थ्यात् तन्निवासिनो नारकाः परिगृह्यन्ते। तत्र रत्नप्रभाधारबरके उत्कृष्टावधिक्षेत्रं , चत्वारि गव्यूतानि, जघन्यावधेरर्धचतुर्थानि, अर्ध चतुर्थस्य येषु तान्यर्धचतुर्थानि / एवं , शर्कराप्रभाधारनरके परमावधिक्षेत्रमानम् अर्धचतुर्थानि / इतरावधिक्षेत्रमानं तु त्रिगव्यूतम, . त्रीणि गव्यूतानि त्रिगव्यूतम्, एवं सर्वत्र योज्यं यावन्महातमःप्रभाधारनरके उत्कृष्टावधिक्षेत्रं गव्यूतम्, जघन्यावधिक्षेत्रं चार्धगव्यूतमिति।रत्नप्रभाधारनरक इत्यादौ जात्यपेक्षमेकवचनम्, : अनिर्दिष्टस्यापि नवरं पदार्थगमनिका। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) नरक यानी नारकियों के निवास स्थान, वे सात पृथ्वियों के आधार के कारण सात भेदों में विभक्त हैं। इनमें रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में स्थित नरकों में - क्रमशः अवधिज्ञान के उत्कृष्ट व जघन्य क्षेत्र-परिमाण इस प्रकार हैं। नरकों में- यहां , & प्रकरण-सामर्थ्य से नरक पद का अर्थ यहां ग्राह्य होगा- 'नरकवासी' यानी नारकी जीव। . (इनमें प्रथम पृथ्वी) रत्नप्रभा में स्थित नरक में (नारकियों का) उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्र चार गव्यूत है और जघन्य अवधि-क्षेत्र अर्घचतुर्थ गव्यूत है। चौथे का आधा ही भाग हो जिसमें, वह 'अर्धचतुर्थ' (यानी साढ़े तीन) होता है। शर्कराप्रभा में स्थित नरक में अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र अर्धचतुर्थ (साढ़े तीन) गव्यूत है और जघन्य क्षेत्र तो तीन गच्यूत है। इसी प्रकार a (आधा-आधा) गच्यूत कम करते हुए, और ऊपर की पृथ्वी के जघन्य क्षेत्र-मान को आगे की . * पृथ्वी में उत्कृष्ट क्षेत्र मान बनाते हुए आगे भी) सर्वत्र क्षेत्रमान की आयोजना करते जाएं तो सातवीं पृथ्वी महातमःप्रभा में स्थित नरक तक उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्र एक गव्यूत होगा और 4 जघन्य-क्षेत्र आधा गव्यूत। रत्नप्रभा में स्थित नरकों आदि में जाति-अपेक्षा से एकवचन है। (वस्तुतः प्रथम पृथ्वी में कई लाख नरक होते हैं, आगे की पृथ्वियों में भी अनेक नरक हैं, " ca अतः सभी को एकरूपता की दृष्टि से एकवचन द्वारा अभिहित किया गया है।) पदार्थबोध में ca तो जो निर्दिष्ट नहीं होता, उसका भी बोध समाहित होता है। -333333333333333333333333333333333333333333333 -333333333333333333333333333333333333333333388 (r)(r)(r)(r)(r)R@necR9088090090@RO900 227 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaaaaaबीआवश्यकनियाक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 222222222222222222222222222222222000232223223 (हरिभद्रीय वृत्तिः) अर्थ तृतीवस्य अर्धतृतीवानि, देव, अधिकगई यस्मिन् तद् अध्ययम्। आह-कुतः पुबरिदम?, सामान्येव प्रतिपृविव्याधारवरका उत्कृष्टमवधिोत्रमुक्तम् a चत्वारिगव्यूतानि इत्यादि, अर्धगज्यूतोनं जपन्यमित्ववसीवते?, उच्यते, सूत्रात्।तथा चोक्तम् "रयणप्पभापुरविनेरझ्याचं ते केववं वित्तं ओहिना जाणति पासंति?,गोवमा! जहणेणं, a अन्जुमाइंगाउयाई उपकोसेणं चत्तारि, एवं गाव मातमपुरविनेरक्या? जोवमा जहणे अगाउयं / उकोसेणं गाउब"रत्नप्रभापृथिवीनारकाणां भदन्त! कियत् क्षेत्रमवधिना जानाति, पश्यति? गौतम! , a जघन्येन अर्धतृतीयानि गव्यूतानि उत्कर्षण वत्वारि.. एवं यावत् महातम पृथिवीनारकाणाम्? गोतम! a जघन्येन अर्द्धगव्यूतम्, उत्कर्षेण गव्यूतम्।। (वृत्ति-हिन्दी-) अर्थतृतीय यानी तृतीय का आधा अर्थात् ढाई गव्यूत (वह चौथी , पंकप्रभा पृथ्वी में अवधिनान का उत्कृष्ट क्षेत्र है), दो गव्यूत (यह पांचवी धूमप्रभा पृथ्वी में 4. उत्कृष्ट क्षेत्र है), और अध्यर्द्ध यानी जिसमें आधा अधिक हो अर्थात् डेढ़ गव्यूत (यह छठी : तमःप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्र है)। (शंका-) सामान्यतया प्रत्येक पृथ्वी पर स्थित नरक में उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्र 'चार गव्यूत' आदि बताये गये हैं, किन्तु उसमें से आधा गव्यूत कम करके जघन्य अवधि क्षेत्र, a समझा जाय, इत्यादि का क्या आधार है? समाधान इस प्रकार है-सूत्र (आगम) के आधार " पर वैसा जाना जाता है। क्योंकि प्रज्ञापना आगम के 33वें पद में) कहा भी गया है भगवन्! रत्नप्रभा पृथ्वी के मारकी जीव अवधिज्ञान से कितने क्षेत्र को जानते a देखते हैं?" ____ "गौतम! वे जघन्य साढे तीन गव्यूत, और उत्कृष्ट चार गव्यूत क्षेत्र जानते-देखते " "इसी प्रकार महातमःपृथ्वी के बारकी जीव (कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं)?" : "गौतम! वे जघन्य आधा गव्यूत और उत्कृष्टतः एक गव्यूत क्षेत्र को (जानते-देखते व हैं)।" 228 Specrep.opeOper20290920 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaaaaana (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-यवेवं 'गाऊ जहन्नमोठी गरएछु' (8) इत्येतद् ब्याहन्यते / अत्रोच्यते, 4 उत्कृष्टजघन्यापेक्षया तदभिधाबाददोषः। इदमत्र हृदयन- उत्कृष्ठावामेब सप्तानामपि रत्वप्रभाववधीनां गव्यूतक्षेत्रपरिचित्तिकृत अवविर्जधन्यः, इत्यलं प्रसनेनेति गाथा G (वृत्ति-हिन्दी-) (संका-) यदि ऐसी बात है (अर्थात् जघन्य अवधि क्षेत्र आधा गव्यूत है) तो (गाथा-46 में) 'नरकों में जघन्य अवधि-क्षेत्र एक गव्यूत होता है' -यह कथन जो किया गया है, वह खण्डित होता है। इसका समाधान यह है- (सभी) उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्रों में , वह जघन्य (एक गव्यूत) है -इस दृष्टि से (गाथा-46) का कथन है, इसलिए कोई दोष नहीं है & है। सारभूत कथन यह है- सातों रत्नप्रभा आदि से सम्बद्ध उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्रों में एक , a गव्यूत क्षेत्र को जानने वाला अवधिज्ञान (उत्कृष्ट होते हुए भी अपने ऊपर की पृथ्वी की - a तुलना में) जघन्य है। अतः अधिक कहने की अपेक्षा नहीं। यह गाथा का अर्थपूर्ण हुआ 46 || D विशेषाव नरकावासों में उत्कृष्ट व जघन्य अवधि-क्षेत्र की मर्यादा की परिचायक तालिका इस ca प्रकार है उत्कृष्ट अवधि क्षेत्र जघन्य अवधि-पत्र 1. रत्नप्रभा पृथ्वी चार गव्यूत साढ़े तीन गव्यूत 2. शर्कराप्रभा पृथ्वी साढे तीन गव्यूत 3. बालुका प्रभा पृथ्वी तीन गव्यूत ठाई गव्यूत 4. पंकप्रभा पृथ्वी ठाईगव्यूत दो गव्यूत 5. धूमप्रभा पृथ्वी दो गव्यूत डेढ़ गव्यूत 6. तमःप्रभा पृथ्वी डेढ़ गव्यूत एक गव्यूत 7. महातमःप्रभा पृथ्वी एक जव्यूत आधा गव्यूत [गव्यूत= एक चौथाई योजन] 3333333 222222222222222222222222 बरकावास तीन गव्यूत (r)(r)ce@pca@na980000000000 229 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -acacacacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 20000mm 2222222222222222222222222222222222 (हरिभद्रीय वृत्तिः) " एवं नारकसंबन्धिनो भवप्रत्ययावधेः स्वरूपमभिधायेदानीं विबुधसंबन्धिनः / प्रतिपिपादयिषुरिदं गाथात्रयं जगाद- . ... . . नियक्ति) सक्कीसाणा पढम, दुच्चं च सणंकुमारमाहिंदा। तच्वं च बंभलंतग, सुक्कसहस्सार य चउत्थीं // 48 // आणयपाणयकप्पे, देवा पासंति पंचमिं पुढविं। तं चेव आरणच्चुय ओहीनाणेण पासंति // 49 // छट्टि हिटिममज्झिमगेविज्जासत्तमिंच उवरिल्ला। संभिण्णलोगनालिं, पासंति अणुत्तरा देवा // 10 // [संस्कृतच्छायाः-शक्र-ईशानौ प्रथमां द्वितीयां च सनत्कुमार-माहेन्द्रौ।तृतीयां च ब्रह्म-लान्तको शुक्र सहसारौ च चतुर्थीम् ॥आनत-प्राणतकल्पे देवाः पश्यन्ति पञ्चमीं पृथिवीम्।तामेव आरण-अच्युतौ अवधिज्ञानेन पश्यतः॥षष्ठीम् अघस्त्य-मध्यम-अवेयकाः, सप्तमी चोपरितनाः। संभिन्नलोकनाडी पश्यन्त्यनुत्तरा देवाः॥] (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, नारकियों के भवप्रत्यय अवधिज्ञान का स्वरूप बता & कर, अब देवों से सम्बन्धित अवधि ज्ञान का प्रतिपादन करने की दृष्टि से तीन गाथाएं कही है जा रही हैं (48-50) (नियुक्ति-अर्थ-) शक्र (सौधर्मकल्पवासी) तथा ईशान (ऐशान कल्प के) देव अवधिज्ञान , ब से प्रथम पृथ्वी (के नरक) तक, सनत्कुमार व माहेन्द्र (कल्पवासी) देव दूसरी पृथ्वी (के 20 4 नरक) तक, ब्रह्म व लान्तक (कल्पवासी) देव तीसरी पृथ्वी (के नरक) तक, शुक्र व सहस्रार ca (कल्पवासी) देव चौथी पृथ्वी (के नरक) तक, और आनत व प्राणत कल्प (के) देव पांचवीं " व पृथ्वी (के नरक) तक देखते हैं। इसी प्रकार, आरण व अच्युत (देव लोक के) देव भी उसी . G (पांचवी) पृथ्वी (के नरक) तक देखते हैं। अधस्तन व मध्यम अवेयक देव छठी पृथ्वी (के . नरक) तक और उपरितन ग्रैवेयक देव सातवीं पृथ्वी (के नरक) तक देखते हैं। अनुत्तर : (वैमानिक) देव अवधिज्ञान द्वारा संभिन्न (सम्पूर्ण) लोकनाड़ी को देखते हैं। 333 - 230 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) - Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRece 9000000000 (व्याजा नियुक्ति-गाथा-48-50 (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र प्रथमगाथाव्याख्या-शक्रवेशानश्च शळेशानौ तत्र 'शक्रेशानाविति'। . & शक्रेशानोपलक्षिताः सौधर्मेशानकल्पनिवासिनो देवाः सामानिकादयः परिगृह्यन्ते, ते ह्यवधिना : 6 प्रथमां रत्नप्रभाभिधानां पृथिवीम्, 'पश्यन्ति' इति क्रियां द्वितीयगाथायां वक्ष्यति।तथा द्वितीयां च' पृथिवीमित्यनुवर्त्तते। सनत्कुमारमाहेन्द्राविति' -सनत्कुमारमाहेन्द्रदेवाधिपोपलक्षिताः / ca तत्कल्पनिवासिनस्त्रिदशा एव सामानिकादयो गृह्यन्ते, ते हि द्वितीयां पृथिवीमवधिना पश्यन्ति। & तथा तृतीयांच पृथिवीं ब्रह्मलोकलान्तकदेवेशोपलक्षिताः तत्कल्पनिवासिनो विबुधाः सामानिकादयः / पश्यन्ति, तथा शुक्रसहस्रारसुरनायोपलक्षिताः खल्वन्येऽपि तत्कल्पनिवासिनो देवाश्चतुर्वी पृथिवीं . & पश्यन्तीति गाथार्थः // 48 // _ (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) इनमें प्रथम (48वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार हैशक्रेशान यानी शक्र व ईशान / 'शक' पद से सौधर्मकल्प के तथा 'ईशान' पद से ईशान " & कल्प के निवासी सामानिक आदि देवों का ग्रहण होता है। वे देव रत्नप्रभा नामक प्रथम & पृथ्वी को (देखते हैं)। 'देखते हैं' यह क्रिया आगे दूसरी गाथा में आई है। सनत्कुमार व माहेन्द्र कल्प के निवासी देव दूसरी को देखते हैं, 'पृथ्वी को' इस पद की अनुवृत्ति की जाती है c है। (अतः अर्थ होगा- दूसरी पृथ्वी को देखते हैं)। यहां भी सनत्कुमार व माहेन्द्र देव से उस- . ca उस कल्प के निवासी (सभी) सामानिक आदि देवों का ग्रहण होता है, वे सब अपने . ca अवधिज्ञान से दूसरी पृथ्वी को देखते हैं। इसी प्रकार, ब्रह्मलोक व लान्तक देवेन्द्र पद से . गृहीत उस उस कल्प के निवासी सामानिक आदि देव तीसरी पृथ्वी को तथा शक्र व सहस्रार , 4 इन्द्र पद से गृहीत उस उस कल्प के निवासी अन्य देव चतुर्थ पृथ्वी को देखते हैं- यह गाथा ca का अर्थ हुआ ||48 // a (हरिभद्रीय वृत्तिः) द्वितीयगाथा व्याख्यायते-आनतप्राणतयोः कल्पयोः संबन्धिनो देवाः पश्यन्ति पञ्चमी पृथ्वीम्, तामेव आरणाच्युतयोः सम्बन्धिनो देवा अवधिज्ञानेन पश्यन्ति।स्वरूपकथनमेवेदम्, विमलतरां बहुतरां चेति गाथार्थः॥४९॥ (वृत्ति-हिन्दी-) दूसरी (49वीं) गाथा की व्याख्या की जा रही है-आनत व प्राणत - इन दोनों कल्पों से सम्बन्धित (निवासी) देव पांचवीं पृथ्वी तक, और उसी को आरण व 333333 ब - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)00 231 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2222222 &&&&& a -aaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) nnnnnnn . अच्युत कल्प से सम्बन्धित देव भी देखते हैं। यह स्वरुपकथन मात्र ही है, (वस्तुतः) वे ca (आरण-अच्युत वासी देव) अपेक्षाकृत अधिकता (अधिक पर्यायों के साथ) व अधिक निर्मलता- . + स्पष्टता से देखते हैं। यह गाथा का अर्थ हुआ // 49 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) तृतीयगाथा व्याख्यायते-लोकपुरुषग्रीवास्थाने भवानि अवेयकानि (णि) विमानानि। तत्र अधस्त्यमध्यमौवेयकनिवासिनो देवा अधस्त्यमध्यमगवेयकाः, ते हि षष्ठी पृथिवीं , तमोऽभिधानामवधिना पश्यन्तीति योगः।तथा सप्तमी च पृथिवीमुपरितनौवेयकनिवासिन , इति।तथा संभिन्नलोकनाडीम् चतुर्दशरज्ज्वात्मिकां कन्यकाचोलकसंस्थानामवधिना पश्यन्ति, अनुत्तरविमानवासिनोऽनुत्तराः, तत्र एकेन्द्रियादयोऽपि भवन्ति तद् व्यवच्छेदार्थमाह- 'देवाः'। एवं क्षेत्रानुसारतो द्रव्यादयोऽप्यवसेयाः इति गाथार्थः // 10 // (वृत्ति-हिन्दी-) तीसरी (50वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है- लोकपुरुष के . ग्रीवा-स्थान में स्थित होते हैं, इसलिए वे ग्रैवेयक विमान कहलाते हैं। इनमें निचले व मध्यम, स्थानीय अवेयक (विमानों) में रहने वाले देव हुए -अधस्तन व मध्यम अवेयक, वे तमःप्रभा 1 ca नामक छठी पृथ्वी को अवधिज्ञान से देखते हैं। अनुत्तर-वैमानिक देव ही 'अनुत्तर देव' हैं। . उन विमानों में एकेन्द्रिय आदि जीव भी रहते हैं, इसलिए उनके निराकरण हेतु 'देव' . विशेषण लगाया गया है। वे अनुत्तर देव अपने अवधिज्ञान से चौदह राजू ऊंची एवं कन्या की , चोली जैसे विन्यास वाली समस्त लोकनाड़ी को देखते हैं। इसी प्रकार, क्षेत्रानुसार द्रव्य आदि / (प्रमेयों) को भी समझ लेना चाहिए (अर्थात् अवधिज्ञानी जिस पृथ्वी को देखते हैं, वहां के / द्रव्य आदि को भी जानते हैं)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 50 // / (हरिभद्रीय वृत्तिः) एवमधो वैमानिकावधिक्षेत्रप्रमाणं प्रतिपाद्य साम्प्रतं तिर्यगूर्वं च तदेव दर्शयन्नाह (नियुक्तिः) एएसिमसंखिज्जा, तिरियं दीवा य सागरा चेव। बहुअअरं उवरिमगा, उडं सगकप्पथूभाई॥५१॥ [संस्कृतच्छायाः-एतेषामसंख्येयाः तिर्यक् द्वीपाश्च सागराः वैव।बहुकतरम् उपरिमकाः ऊर्ध्व च / स्वकल्प-स्तूपादीन् // ] - 232 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) / 2333333333333 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRece नियुक्ति-गाथा-51 2099 9 9 9 90 9 - (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, वैमानिक देवों के अवधिज्ञान के अधोवर्ती क्षेत्र प्रमाण ce का प्रतिपादन हुआ। अब उसी अवधि के तिर्यक् (तिरछे) व ऊंचे (ऊपर की ओर) क्षेत्र की मर्यादा को स्पष्ट कर रहे हैं 23333333333333 33333333333333333333333332223 (51) (नियुक्ति-अर्थ-) इन (वैमानिक देवों) के (अवधिज्ञान द्वारा) ज्ञेय विषय हैं-तिर्यक् / & लोक में असंख्येय द्वीप व समुद्र, और ऊर्ध्वलोक में अपने अपने कल्प के स्तूप (व ध्वजा) , आदि। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) एतेषाम्' शक्रादीनाम्, संख्यायन्त इति संख्येयाः न संख्येया असंख्येयाः। तिर्यग्, द्वीपाश्च-जम्बूद्वीपादयः, सागराश्च लवणसागरादयः क्षेत्रतोऽवधिपरिच्छेद्यतया अवसेयाः 4 इति वाक्यशेषः।तथा उक्तलक्षणात्-असंख्येयद्वीपोदधिमानात् क्षेत्रात् बहुतरम्, उपरिमा एव 4 उपरिमका उपर्युपरिवासिनो देवाः, खल्ववधिना क्षेत्रं पश्यन्तीति वाक्यशेषः। तथा ऊर्ध्वं स्वकल्पव स्तूपाद्येव यावत् क्षेत्रं पश्यन्ति, आदिशब्दाद् ध्वजादिपरिग्रहः इति गाथार्थः // 11 // . (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) इनका अर्थात् (पूर्वोक्त) शक्र आदि के (अवधिज्ञेय हैं-)। ca असंख्येय यानी जिनकी गिनती न की जा सके, तिर्यक् यानी तिरछी दिशा-तिर्यग्लोक में, द्वीप यानी जम्बूद्वीप आदि, सागर यानी लवणसागर आदि, क्षेत्र की दृष्टि से, ‘अवधिज्ञान " द्वारा ज्ञेय (जान सकने योग्य) हैं' -यह वाक्य का अवशिष्ट (अंतिम) भाग है। तथा पूर्वोक्तfa असंख्येय द्वीप व सागर परिमित क्षेत्र से अधिकतर क्षेत्र को, उपरिवर्ती ही, अर्थात् (क्रमशः) , जो ऊपर-ऊपर रहते हैं, वे (वैमानिक) देव ही निश्चित रूप से, अवधिज्ञान से देख पाते हैं6 इस प्रकार वाक्य पूर्ण करना चाहिए। और, ऊपर की ओर (वे वैमानिक देव) अपने अपने र कल्पों के (विमान के) स्तूप आदि तक के क्षेत्र को देखते हैं, आदि पद से ध्वजा आदि अर्थ है ce लेना चहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||51 || विशेषार्थ_ 'अमुकदेव' अमुक पृथ्वी को देखते हैं- इस कथन का तात्पर्य यह है कि वह देव अपने & शरीर से प्रारम्भ कर उस पृथ्वी के अधस्तवर्ती चरमान्त (भाग) तक जानता-देखता है, उसका ज्ञान " निरन्तर पूर्ण होता है, उसमें पर्वत, दीवार आदि का व्यवधान नहीं होता। - 80@RDSCR@@@@@98088898 233 कर Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपा RCE CROR OR CROR श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 90090mm देवों के अविधज्ञान दिशाओं के अनुरूप अधिक कम भी माना गया है। उदाहरणार्थc& भवनवासी व व्यन्तर देवों का अवधिज्ञान ऊर्ध्वलोक में अधिक होता है, शेष देवों का अधोलोक गत। ज्योतिष्क (व नारकों) का तिर्यग्लोगत अधिक होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) इत्थं वैमानिकानाम् अवधिक्षेत्रमानमभिधाय, इदानीं सामान्यतो देवानां से प्रतिपादयन्नाह (नियुक्तिः) संखेज्जजोयणा खलु, देवाणं अद्धसागरे ऊणे। तेण परमसंखेज्जा, जहण्णयं पंचवीसं तु // 12 // [संस्कृतच्छायाः- संख्येययोजनानि खलु देवानामर्धसागरे ऊने / तेन परमसंख्येयानि जघन्यकं " & पञ्चविंशतिस्तु॥ (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, वैमानिक देवों के अवधिज्ञान की क्षेत्र मर्यादा का कथन " & कर, अब सामान्यतया देवों के अवधिज्ञान की क्षेत्र-मर्यादा का प्रतिपादन करने जा रहे हैं 38888888888888 822333333323333333333333333333333333333333333 (52) (नियुक्ति-अर्थ-) जिन देवों की आयु अर्द्धसागरोपम से कम होती है, उनका : (अवधिज्ञान-क्षेत्र) संख्येय योजन होता है। उससे अधिक आयु वाले देवों का असंख्येय योजन का (अवधि-क्षेत्र) होता है। (दस हजार वर्ष की) जघन्य आयु वाले देवों का (अवधिक्षेत्र) पच्चीस योजन-परिमित होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) संख्येयानि च तानि योजनानि चेति विग्रहः। खलुशब्दस्त्वेवकारार्थः, स, चावधारणे, अस्य चोभयथा संबन्धमुपदर्शयिष्यामः। देवानाम्' 'अर्धसागरे' इति अर्धसागरोपमे न्यूने आयुषि सति संख्येययोजनान्येव अवधिक्षेत्रमिति।अर्धसागरोपमन्यून एव आयुषि सति, CM 'ततः परम्' अर्धसागरोपमादावायुषि सति असंख्येयानि योजनानि अवधिक्षेत्रं 4 वैमानिकवर्जदेवानां सामान्यत इति।विशेषतस्तु ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्च संस्थानविशेषादवसेयमिति। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) जिन्हें गिना जा सके ऐसे योजनों तक। 'खलु' इसका - 234 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) . Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | eeeeeeeect 99 9 9 9 9 9 9ERA 333333333333333333333323232323333333333333333 नियुक्ति गाथा-52 'ही' अर्थ है / वह अवधारण या निर्धारण करता है, जिसका यहां दो तरफ सम्बन्ध है- इसे & स्पष्ट करने जा रहे हैं (अर्थात् 'ही' का सम्बन्ध अवधि क्षेत्र के साथ भी है और आयु के साथ . भी है)। जिन देवों की, अर्धसागरोपम से न्यून यानी कम आयु रहती है, उनके लिए अवधिक्षेत्र संख्येय योजन (मात्र) ही होता है। इसी तरह अर्धसागरोपम से न्यून आयु कम हो ही, . तभी उक्त अवधि-क्षेत्र होता है। उससे परे, अर्थात् अर्धसागरोपम आयु होने पर तो वैमानिक ce देवों को छोड़ कर अन्य देवों का सामान्यतः अवधि-क्षेत्र असंख्यात योजन होता है। ऊर्ध्व, . & नीचे, तिरछे -(इन दिशाओं में) अवधि-क्षेत्र की (हीनाधिकता रूप) विशेषता अवधि-क्षेत्र के 4 (वक्ष्यमाण) संस्थानों की विशेषता के अनुरूप जानना चाहिए। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तथा जघन्यक्रमवधिक्षेत्रं देवानामिति वर्त्तते। पञ्चविंशतिः', तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् ce पञ्चविंशतिरेव योजनानि, एतच्च दशवर्षसहसस्थितीनामवसेयम्, भवनपतिव्यन्तराणामिति। ca ज्योतिष्काणांत्वसंख्येयस्थितित्वात् संख्येययोजनान्येव जघन्येतरभेदमवधिक्षेत्रमवसेयमिति। वैमानिकानां तु जघन्यमङ्गु लासंख्येयभागमात्रमवधिक्षेत्रम्, तच्चोपपातकाले परभवसंबन्धिनमवधिमधिकृत्येति।उत्कृष्टमुक्तमेव 'संभिण्णलोगनालिम्, पासंति अणुत्तरा देवा' / इत्यलमतिविस्तरेणेति गाथार्थः // 12 // - (वृत्ति-हिन्दी-) और, देवों का जघन्य अवधि-क्षेत्र है- पच्चीस योजन। 'तु' शब्द का . 6 अर्थ 'ही' है, अतः पच्चीस योजन ही है (यह अर्थ फलित होगा)। (पच्चीस योजन का) यह कथन दस हजार वर्ष स्थिति (आयु) वाले देवों के, जैसे भवनपति व व्यन्तर देवों के जाननी चाहिए। ज्योतिष्क देवों की स्थिति तो असंख्येय काल (एक पल्य के आठवें भाग-प्रमाण) ब होती है, अतः उनका जघन्य व उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्र संख्येय योजन ही होता है। वैमानिक देवों " & का जघन्य अवधि-क्षेत्र अङ्गुल का असंख्यात भाग ही कहा गया है, वह कथन उपपात 4 (जन्म) के समय, पर-भव से सम्बन्धित 'अवधि' के रूप में जाना जाता है, इसी को दृष्टि में रख कर है। वैमानिक देवों के उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्र का कथन 'अनुत्तर देव पूर्ण लोकनाड़ी को , देखते हैं' इस उक्ति द्वारा (गाथा 50 में) कर ही दिया गया है। अतः अब और अधिक कहने की यहां अपेक्षा नहीं रह जाती। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||52 // &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& &&&&&&&&&&&&&& - @@ce(r)(r)(r)(r)ceen@Ress8988@ 235 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OR OR OR CROR OR OR श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0909000mm (हरिभद्रीय वृत्तिः) साम्प्रतमयमेवावधिः येषां सर्वोत्कृष्टादिभेदभिन्नो भवति, तान्प्रदर्शयन्नाह (नियुक्तिः) उक्कोसो मणुएसुं, मणुस्सतिरिएसुय जहण्णो य। उक्कोस लोगमित्तो, पडिवाइ परं अपडिवाई॥५३॥ [संस्कृतच्छायाः- उत्कृष्टो मनुजेषु मनुष्यतिर्यक्षु च जघन्यः। उत्कृष्टो लोकमात्रः, प्रतिपाती परम् अप्रतिपाती।] __(वृत्ति-हिन्दी-) अब, इसी अवधि के सर्वोत्कृष्ट आदि भेद किन-किन जीवों में होते . cm हैं- उसका निदर्शन कर रहे हैं (53) -222222323222333333333333333333333333333323232 DS (नियुक्ति-अर्थ-) मनुष्यों में (ही) सर्वोत्कृष्ट अवधिज्ञान होता है और मनुष्य व & तिर्यञ्चों में ही जघन्य (भी) होता है। उत्कृष्ट अवधिज्ञान (सम्पूर्ण) लोकप्रमाण होता है और वह व प्रतिपाती होता है, उससे आगे (जानने वाला अवधिज्ञान) अप्रतिपाती होता है। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चोत्कृष्टोऽवधिः मनुष्येषु एव, नामरादिषु।। तथा मनुष्याश्च तिर्यश्चश्च मनुष्यतिर्यश्चः, तेषु मनुष्यतिर्यक्षु च जघन्यः।चशब्द एवकारार्थः, 1 ca तस्य चैवं प्रयोगः- मनुष्यतिर्यक्ष्वेव जघन्यो, न नारकसुरेषु। तत्र उत्कृष्टो लोकमात्र एव. अवधिः / प्रतिपतितुं शीलमस्येति प्रतिपाती।ततः परमप्रतिपात्येव।लोकमात्रादाववधिमाने , प्रतिपादिते प्रसङ्गतः प्रतिपात्यप्रतिपातिस्वरूपाभिधानमदोषायैवेति गाथार्थः // 13 // (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से उत्कृष्ट अवधिज्ञान : ( मनुष्यों में ही होता है, असुर आदि में नहीं। तथा जघन्य (भी) मनुष्य और तिर्यञ्च, इनमें (ही) : होता है। 'च' शब्द का 'ही' अर्थ है। उसका प्रयोग इस प्रकार (वाक्यार्थ में) होगा- मनुष्य व तिर्यञ्चों में ही जघन्य अवधिज्ञान होता है, नारकियों व देवों में नहीं। जो उत्कृष्ट अवधिज्ञान & है, वह लोकमात्र ही होता है और वह प्रतिपाती, यानी पतनशील होता है। उससे आगे (जानने वाला अवधि ज्ञान) अप्रतिपाती ही होता है। यहां अवधि-क्षेत्र को लोक-परिमित आदि / cबताया गया है, उसमें प्रासङ्गिक होने के कारण ही अवधिज्ञान के प्रतिपाती व अप्रतिपाती - स्वरूपों का कथन किया गया है, अतः कोई दोष नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 53|| - 2368 08898@@@@2008. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Ratnance .222222222222222222222232223333333222222222222 नियुक्ति गाथा-54 विशेषार्थ प्रतिपाती का अर्थ है-गिरने वाला अथवा पतित होने वाला। पतन तीन प्रकार से होता है। a (1) सम्यक्त्व से (2) चारित्र से (3) उत्पन्न हुए विशिष्ट ज्ञान से। प्रतिपाती अवधिज्ञान जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्टतया सम्पूर्ण लोक तक को विषय करके पतन को प्राप्त हो जाता है। शेष मध्यम प्रतिपाती के अनेक प्रकार हैं। जैसे तेल एवं वर्तिका के होते हुए भी वायु के झोंके से ca दीपक एकदम बुझ जाता है, इसी प्रकार प्रतिपाती अवधिज्ञान का ह्रास धीरे-धीरे नहीं होता अपितु ca वह किसी भी क्षण एकदम लुप्त हो जाता है। जिस ज्ञान से ज्ञाता अलोक के एक भी आकाश-प्रदेश को जानता है- देखता है, वह ce अप्रतिपाती अर्थात् न गिरनेवाला अवधिज्ञान कहलाता है। यह अप्रतिपाती अवधिज्ञान का स्वरूप है। a जैसे कोई महापराक्रमी पुरुष अपने समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके निष्कंटक राज्य करता है, a ठीक इसी प्रकार अप्रतिपाती अवधिज्ञानी केवलज्ञानरूप राज्य-श्री को अवश्य प्राप्त करके त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ बन जाता है। यह ज्ञान बारहवें गुणस्थान के अन्त तक स्थायी रहता है, क्योंकि तेरहवें गुणस्थान के प्रथम समय में केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। विषयवस्तु के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रतिपाती अवधिज्ञान देशावधि है क्योंकि देशावधि का उत्कृष्ट विषय सम्पूर्ण लोक है। जो अलोक के एक प्रदेश को भी देख लेता है, वह प्रतिपाती नहीं होता। परमावधि अलोक में लोक जितने असंख्य खण्डों को जान सकता है। सर्वावधि उससे भी अधिक जानता है, इसलिए परमावधि और सर्वावधि दोनों अप्रतिपाती हैं। c. धवला के अनुसार प्रतिपाती अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल नष्ट हो जाता है। अप्रतिपाती अवधिज्ञान & केवलज्ञान उत्पन्न होने पर ही विनष्ट होता है। अप्रतिपाती के विषय में हरिभद्रसूरि का यही मत है। C (हरिभद्रीय वृत्तिः) उक्त क्षेत्रपरिमाणद्वारम् / साम्प्रतं संस्थानद्वारं व्याचिख्यासयेदमाह (नियुक्तिः) थिबुयायार जहण्णो, वट्टो उक्कोसमायओ किंची। अजहण्णमणुक्कोसो य खित्तओ णेगसंठाणो // 14 // - [संस्कृतच्छायाः-स्तिबुकाकारो जघन्यः वृत्तः, उत्कृष्ट आयतः किञ्चित् / अजघन्य-अनुत्कृष्टश्च | क्षेत्रतोऽबेकसंस्थानः॥] (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 237 - Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cace Acaca caca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 000000000 (वृत्ति-हिन्दी-) अवधिज्ञान के क्षेत्र से सम्बन्धित प्रमाण द्वार का निरूपण हुआ। ca अब संस्थान-द्वार का व्याख्यान करने हेतु (आगे की गाथा) कह रहे हैं (54) __ (नियुक्ति-अर्थ-) जघन्य अवधिज्ञान 'स्तिबुक' (जलबिन्दु) की आकृति (संस्थान) 7 & का होता है, वह सभी ओर से वृत्ताकार होता है। उत्कृष्ट अवधि का संस्थान कुछ आयताकार होता है। (सर्वथा वृत्त नहीं होता)। अजघन्य-अनुत्कृष्ट (अर्थात् मध्यम अवधिज्ञान) तो क्षेत्र की दृष्टि से अनेक संस्थान वाला होता है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) 'स्तिबुकः' उदकबिन्दुः, तस्येवाकारो यस्यासौ स्तिबुकाकारः, जघन्योऽवधिः। तमेव स्पष्टयन्नाह- 'वृत्तः' सर्वतो वृत्त इत्यर्थः, पनकक्षेत्रस्य वर्तुलत्वात्। तथा उत्कृष्ट आयतः प्रदीर्घः 'किञ्चित्' मनाक् वह्निजीवश्रेणिपरिक्षेपस्य स्वदेहानुवृत्तित्वात्।। तथा 'अजघन्योत्कृष्टश्च' न जघन्यो नाप्युत्कृष्टः, अजघन्योत्कृष्ट इति।चशब्दोऽवधारणे, ca अजघन्योत्कृष्ट एव। क्षेत्रतोऽनेकसंस्थानः' अनेकानि संस्थानानि यस्यासावनेकसंस्थान इति / & गाथार्थः // 14 // (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) स्तिबुक का अर्थ है- जल की बूंद, उसके आकार की 2 तरह आकार वाला जघन्य अवधि होता है। इसी को स्पष्ट करते हुए कहा गया है- वृत्त, 4 & अर्थात् वह सर्वथा गोल है, क्योंकि (उसे गाथा-30 में पनक जीव की अवगाहना वाला बताया , & गया है, और) पनक जीव का क्षेत्र वर्तुल (वृत्ताकार) होता है। और उत्कृष्ट (अवधिज्ञान) कुछ, दीर्ध आयताकार होता है (सर्वथा वृत्त नहीं होता है, क्योंकि गाथा-31 में की गई निरुपणा के . 4 अनुसार) वह्नि जीवों की सूची या श्रेणी को (अवधिधारी के आपादमस्तक शरीर तक) घुमाने , से उसकी अपने देह के जैसी अनुवृत्ति (आकार प्राप्ति) हो जाती है। और अजघन्योत्कृष्ट, 1 << यानी न जघन्य और न ही उत्कृष्ट (अर्थात् मध्यम अवधि)। 'च' शब्द अवधारण ('ही' अर्थ) " & को व्यक्त करता है, अतः अर्थ फलित होगा- मध्यम अवधि ही, क्षेत्र की दृष्टि से 'अनेकसंस्थान' " & होता है, अर्थात् अनेक प्रकार के आकार वाला हुआ करता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण . & हुआ ||54 // 333333333333333333333333333323333333333333333 - 238 (r)(r)(r)(r)RB0BR008cR9082cR@@ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRce 999999999999 && &&& 33333333333322232233333333333333333333 नियुक्ति गाथा-55 विशेषार्थ पहले (गाथा-30 में) अवधिज्ञान के जघन्य क्षेत्र को तीन समय के आहारक सूक्ष्म पनक >> जीव जितना बताया गया है। अब इस गाथा में अवधिज्ञान का संस्थान जलबिन्दु की तरह बताया है गया है। पहला निरूपण क्षेत्र-परिमाण की दृष्टि से है और यह निरूपण संस्थान की दृष्टि से है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) एवं तावज्जघन्येतरावधिसंस्थानमभिहितम् / साम्प्रतं विमध्यमावधिसंस्थानाभिधित्सयाSSह (नियुक्तिः) तप्पागारे 1 पल्लग 2 पडहग 3 झल्लरि 4 मुइंग 5 पुप्फ 6 जवे 7 / तिरियमणुएसु ओही, नाणाविहसंठिओ भणिओ // 55 // [संस्कृतच्छायाः-तप्र-आकारः, पल्लक-पटहक-झल्लरी-मृदा-पुष्प-यवः।तिर्यग्-मनुजेषु अवधिः नानाविध-संस्थितों भणितः॥] _ (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, यहां तक जघन्य व उत्कृष्ट अवधिज्ञान के संस्थानों का कथन हुआ। अब मध्यम अवधिज्ञान के आकार के निरूपण हेतु (आगे की गाथा) कह रहे हैं (55) (नियुक्ति-अर्थ-) अवधिज्ञान के ये आकार होते हैं- तप्र, पल्लक, पटह, झल्लरी, 1 ca मृदंग, पुष्पचंगेरी और यव / (किन्तु) तिर्यञ्चों व मनुष्यों में अवधिज्ञान को नाना प्रकार के ca संस्थानों वाला बताया गया है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) 'तप्रः' उडुपकः, तस्येवाकारो यस्यासौ तप्राकारः।तथा पल्लको नाम " लाटदेशे धान्यालयः, आकारग्रहणमनुवर्तते, तस्येवाकारो यस्यासौ पल्लकाकारः, ce एवमाकारशब्दः प्रत्येकमभिसंबन्धनीयः इति। पटह एव पटहकः -आतोद्यविशेषः। तथा . चर्मावनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा झल्लरी आतोद्यविशेषः एव।तथा ऊर्ध्वायतोऽधो विस्तीर्ण , उपरि च तनुः, मृदङ्गः आतोद्यविशेष एव। 'पुप्फेति' -'सूचनात्सूत्रम्' इतिकृत्वा / * पुष्पशिखावलिरचिता चङ्गेरी पुष्पचङ्गेरी परिगृह्यते। 'यव' इति यवनालकः, स च " कन्याचोलकोऽभिधीयते। - 87@ca@ner@@ @ @ @0890&cRODe 239 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& - 333 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ca ca ca ca ca ca ca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) DOOD MORE (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) तप्र यानी नौका, उसके जैसे आकार वाला- 'तप्राकार' | ca (यह नारकियों का अवधिज्ञान होता है)। पल्लक से तात्पर्य है- लाट देश में धान रखने का . स्थान, 'आकार' पद की अनुवृत्ति की जाती है, इसका सम्बन्ध पल्लक, पटह आदि में , & प्रत्येक के साथ कर लेना चाहिए। अतः पल्लक से 'तात्पर्य है- पल्लक (धान के कोठे) के . 4 आकार जैसे आकार वाला (यह अवधिज्ञान भवनपति देवों का होता है)। पटहक यानी पटह, . र यह एक विशेष 'आतोद्य' वाद्य (मृदंग, ढोल, आदि की तरह आघात से बजाया जाने वाला) , होता है। (और व्यन्तर देवों का अवधिज्ञान इसी तरह का होता है)। झल्लरी -यह चमड़े से " & अवनद्ध एक लम्बा वलयाकार आतोद्य वाद्य ही होता है (और ज्योतिष्क देवों का अवधिज्ञान " & इसी तरह का होता है)। इसी तरह मृदंग भी, जिसका ऊर्ध्वभाग आयताकार तथा नीचे का , M भाग फैला हुआ एवं ऊपर (एक छोर पर) पतला, (संकीर्ण) होता है (एक तरफ मुख संकीर्ण ल होता है और दूसरा मुख विस्तृत होता है), यह भी एक विशेष आतोद्य वाद्य है (और सौधर्म , म आदि कल्पवासी देवों का अवधिज्ञान इसी तरह का होता है)। 'पुष्प' -चूंकि सूत्र में सूचना : ca (निर्देश, संकेत रूप) मात्र होती है, अतः पुष्प से यहां गृहीत है- पुष्पों की शिखाओं की " ca कतार के रूप में बनी हुई चङ्गेरी या पुष्पचङ्गेरी (गवेयक देवों का अवधिज्ञान इस जैसा होता . & है)। यव यानी यव-नालक, इसे 'कन्याचोलक' भी कहा जाता है (अनुत्तर विमानवासी देवों " & का अवधिज्ञान इसी तरह का होता है)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) अयं भावार्थः- तप्राकारादिरवधिर्यवनालकाकारपर्यन्तो यथासंख्यं नारक-भवनपतिcव्यन्तरज्योतिष्क-कल्पोपपन्न-कल्पातीत-अवेयकानुत्तरसुराणां सर्वकालनियतोऽवसेयः। 7 तिर्यग्नराणां भेदेन नानाविधाभिधानाद्। (वृत्ति-हिन्दी-) भावार्थ यह है- तप्र आदि से लेकर यवनालक तक के आकार वाले अवधिज्ञान क्रमशः नारक, भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पोपपन्न देव, कल्पातीत ग्रैवेयक एवं अनुत्तरविमानवासी देवों के होते हैं और सभी कालों में (इसी आकार में) नियत होते हैं, ca क्योंकि तिर्यश्च व मनुष्यों के अवधिज्ञान को भेद की दृष्टि से नाना प्रकार का बताया जा CM रहा है। 333338 77444474444738888888888888888888888 - - 240 89@c@@ @9@ @ @ @ @ ce(r)908 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Rececementce හ හ හ හ හ හ හ හ හ 223222323222222222222222222222223332222222222 नियुक्ति-गाथा-55 (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह च-तिर्यञ्चश्च मनुष्याश्च तिर्यग्मनुष्याः, तेषामवधिः नानाविधसंस्थानसंस्थितोनानाविधसंस्थितः, संस्थानशब्दलोपात्, स्वयंभूरमणजलधिनिवासिमत्स्यगणवत्।अपितु तत्रापि वलयं निषिद्धं मत्स्यसंस्थानतया, अवधिस्तु तदाकारोऽपीति भणितः' उक्तः अर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैरिति। __ अयं च भवनव्यन्तराणाम् ऊर्ध्वं बहुर्भवति, अवशेषाणां तु सुराणामधः, , 4 ज्योतिष्कनारकाणां तु तिर्यक्, विचित्रस्तु बरतिरश्चामिति गाथार्यः // 15 // (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) तिर्यञ्च व मनुष्य -इनका अवधिज्ञान अनेक प्रकारों में : स्थित होता है। यहां संस्थान शब्द लुप्त है, अर्थात् वह अवधिज्ञान अनेक प्रकार के संस्थानों में , 4 स्थित होता है। उदाहरणार्थ- जैसे स्वयम्भूरमण समुद्र में रहने वाले मस्त्य विविध आकारों : में होते हैं, उसी तरह यह अवधिज्ञान होता है। किन्तु अन्तर इतना है कि उक्त समुद्र-मत्स्यों , में वलयाकार के सद्भाव का निषेध किया गया है जब कि अवधिज्ञान का तो वलय (कंगन) 0 जैसा भी आकार होता है- ऐसा 'अर्थ' रूप से तीर्थंकरों द्वारा, तथा 'सूत्र' रूप से गणधरों * द्वारा कहा गया है। उक्त अवधिज्ञान भवनवासी व व्यन्तर देवों का ऊपर की ओर अधिक (सीमा का) " : होता है, शेष देवों का नीचे की ओर, तथा ज्योतिष्क व नारकी जीवों का तिर्यक् दिशा में : : अधिक होता है। मनुष्य व तिर्यञ्चों में तो यह अवधिज्ञान विचित्र (हीनाधिक) होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ |55 // विशेषार्थa यहां अवधिज्ञान के संस्थानों के आकारों का निर्देश किया गया है। प्रज्ञापना (पद-33) में भी यही निरूपण दृष्टिगोचर होता है। अवधि का क्षेत्र-परिमाण एवं संस्थान -इन दोनों में अन्तर यह है कि , क्षेत्रपरिमाण से तात्पर्य है- 'ज्ञेय' का परिमाण, और संस्थान से यहां तात्पर्य है- ज्ञान का आकार। , किन्तु दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम तथा धवला टीका एवं गोम्मटसार आदि में CM 'संस्थान' को शरीरगत बताया गया है। उनके अनुसार, अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से युक्त जीव-प्रदेशों के करण-रूप शरीर -प्रदेश अनेक संस्थान वाले होते हैं (षट्खंडा-13/सू. 47 व 58 पृ. 296-298) / ये संस्थान-श्रीवत्स, कलश, शंख, स्वस्तिक, नन्दद्यावर्त आदि के रूप में होते हैं। (r)(r)(r)(r)ce@90(r)(r)(r)(r)900904000 241 8 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स aacaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 099999000 33333333 333333333333333333333333333333333333333333333 आवश्यक नियुक्ति के व्याख्याकारों ने इन्हें शरीरगत संस्थान न मान कर, ज्ञान के ce आकार-विशेष ही माना है। दिगम्बरीय शरीरगत-संस्थानों के निरूपण से कुछ साम्य श्वेताम्बरीय , M'स्पर्द्धक' के निरूपण में देखा जा सकता है। अवधिज्ञान की रश्मियों का निर्गमन शरीर के माध्यम से होता है। जैसे जालीदार ढक्कन के छिद्रों से दीपक का प्रकाश बाहर फैलता है, वैसे ही अवधिज्ञान, CR का प्रकाश शरीर के स्पर्द्धकों के माध्यम से बाहर फैलता है (देखें- आगे नियुक्ति-सं. 60-61) / " यहां संस्थान के आकारों के विविध उपमानों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है तप्र- नदी के वेग में बहता हुआ, दूर से लाया हुआ लम्बा और तिकोना काष्ठविशेष अथवा 6 लम्बी और तिकोनी नौका / पल्लक- लाढ़देश में प्रसिद्ध धान भरने का एक पात्रविशेष, जो ऊपर , ce और नीचे की ओर लम्बा, ऊपर कुछ सिकुड़ा हुआ, कोठी के आकार का होता है। पटह- ढोल (एक " c प्रकार का बाजा), झल्लरी-झालर, एक प्रकार का बाजा, जो गोलाकार होता है, इसे ढपली भी . & कहते हैं। ऊर्ध्व-मृदंग- ऊपर को उठा हुआ मृदंग जो नीचे विस्तीर्ण और ऊपर संक्षिप्त होता है। " 8 पुष्पचंगेरी-फूलों की चंगेरी, सूत से गूंथे हुए फूलों की शिखायुक्त चंगेरी। चंगेरी टोकरी या छाबड़ी .. & को भी कहते हैं।यवनालक या कन्याचोलक-विशेषावश्यक भाष्य की गाथा T06 की आ. मलधारीकृत ca शिष्यहिता-टीका में इसके स्वरूप के विषय में थोड़ा-सा संकेत किया गया है। तदनुसार, मरुभूमि में " ca प्रायः कन्या के परिधान के साथ ही सिला गया होता है ताकि परिधान खिसकने नहीं पाता। इसके a ऊपरी भाग को 'सरकञ्चक' कहा जाता है। सम्भवतः ओढ़नी के नीचे यह उभारी गई आकृति वाला, एक 'स्तनावरण' होता है, ताकि अंगिया शरीर से सटी हुई रहती है। नारकों का तप्राकार, भवनपतिदेवों का पल्लकाकार, व्यन्तरदेवों का पटहाकार, ज्योतिष्कदेवों * का झालर के आकार का, सौधर्मकल्प से अच्युतकल्प के देवों का ऊर्ध्वमृदंगाकार, ग्रैवेयक देवों का व पुष्पचंगेरी के आकार का और अनुत्तरौपपातिक देवों का यवनालिका के आकार का अवधिज्ञान होता है है। जैसे स्वयम्भूरणसमुद्र में मत्स्य नाना आकार के होते हैं, वैसे ही तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों में , अवधिज्ञान अनियत संस्थान वाला होता है। यह वलयाकार भी होता है, जबकि स्वयम्भूरमण समुद्र , में वलयाकार मत्स्य नहीं होते। इनमें भी मध्यम अवधिज्ञान के अनेक संस्थान बताए गये हैं- (1) : 6 हय संस्थान, (2) गज संस्थान, (3) पर्वत संस्थान (द्र. आवश्यक चूर्णि)। अवधिज्ञान के आकार का फलितार्थ यह है कि भवनपतियों और वाणव्यन्तरदेवों का # अवधिज्ञान ऊपर की ओर अधिक होता है और वैमानिकों का नीचे की ओर अधिक होता है। " | ज्योतिष्कों और नारकों का तिरछा तथा मनुष्यों और तिर्यञ्चों का विविध प्रकार का होता है। / - 242(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) . Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Recenect निर्यक्ति-गाथा-55. 000000002 22333333333333-2332333333333333333333333333333 पटह, झल्लरी व मृदंग -ये वाद्यविशेष हैं। इनमें 'झल्लरी' का निरूपण 'द्रव्यनन्दी' के रूप ca में, नियुक्ति-गाथा -1 की भूमिका में किया जा चुका है। पटह व मृदंग के स्वरूप इस प्रकार होते हैं- " & मृदंग- यह दो मुखवाला अनवद्ध वाद्य है। यह लगभग साठ सेंटीमीटर लंबा होता है। यह " & बीच से फूला होता है, इसका दायां मुख बाएं मुख की अपेक्षा कुछ छोटा होता है। बायां मुख, जिसे - टोपी कहा जाता है, दो पर्तों वाला और अपेक्षाकृत कम जटिल होता है। बाहरी पर्त चमड़े का एक छल्ला होती है और इसके किनारे एक छल्ले से जुड़े होते हैं जिन्हें पिन्नल कहा जाता है। इस पर्व में , अन्दर की ओर एक गोल झिल्ली होती है जो बाहरी पर्त के अनुपात में होती है। यह पूरी रचना बायें ce मुख पर लगी होती है। दाएं मुख में तीन पर्ते होती हैं। दो पर्तों के मध्य में तीसरी पर्त खींच कर लगायी जाती है और दोनों पर्तों के किनारों से चिपका दी जाती है। यह जटिल संरचना जिसे तमिल . में वालन तलई कहते हैं, दाएं मुख पर मढ़ दी जाती है। बायीं ओर का मुख टोपी और दायीं ओर का , वालन चमड़े की डोरियों से कस कर बांध दिए जाते हैं, जो पिन्नल अथवा छेदों से निकलते और अंदर , आते हैं। दाएं मुख पर काले रंग का मिश्रण स्थायी तौर पर चिपका दिया जाता है। दूसरी ओर टोपी / ce एक सादा चमड़ा होता है, जिस पर वादन से पहले तुरन्त आटे की लोई मध्य भाग में लगा दी जाती है ल है, जिसे वादन के उपरान्त हटा दिया जाता है। लकड़ी के टुकड़े और पत्थर से दाएं पिन्नल को ठोक " & बजाकर वाद्य को मिलाया जाता है। & पटह- इसे 'ढोलक' नाम से भी जाना जाता है। पटह दो प्रकार का होता है- देशी तथा & मार्गी / मार्गी पटह की लम्बाई डेढ़ हाथ से ढाई हाथ तक की होती है तथा बीच का भाग कुछ उठा . & हुआ होता है। इसके दाहिने मुख का व्यास साढ़े ग्यारह अंगुल तथा वाम मुख साढ़े दस अंगुल का , होता है। कांठ भीतर से खोखला होता है तथा उसके दोनों मुख गोल होते हैं। दाहिने तथा बाएं मुख, पर लोहे अथवा काठ की हंसुली पहना कर उन्हें चमड़े से लपेट दिया जाता है। दाहिने मुख पर पतला चमड़ा तथा वाम मुख पर मोटा चमड़ा मढ़ा जाता है। इन हंसुलियों में सात-सात छेद कर रेशम की ca डोरी पिरो दी जाती है, जिसमें सोना, पीतल अथवा लोहे के छल्ले डाल दिये जाते हैं, जिन्हें " a आवश्यकतानुसार खींच कर स्वर मिला लिया जाता है। देशी पटह- इसकी लम्बाई डेढ़ हाथ की . होती है तथा इसका दक्षिण और वाम मुख क्रमशः सात तथा साढ़े छह अंगुल व्यास के होते हैं। शेष, बातें मार्गी पटह की भांति ही होती है। पटह के लिए खैर की लकड़ी सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। देशी पटह के आकार में सामान्य अंतर भी हो सकता है। प्रायः सभी मांगलिक अवसरों पर इसका वादन किया to छ / जाता है। (r) (r)ce@ @ @ @ @ @ @200@ce@ @ 243 - Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Racecaca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 | (हरिभद्रीय वृत्तिः) उक्तं संस्थानद्वारम् ।साम्प्रतमानुगामुकद्वारार्थप्रचिकटयिषयेदमाह __ नियुक्तिः) अणुगामिओ उ ओही, नेरइयाणं तहेव देवाणं। अणुगामी अणणुगामी, मीसोय मणुस्सतेरिच्छे॥१६॥ [संस्कृतच्छायाः-अनुगामुकस्तु अवधिः नैरयिकाणां तथैव देवानाम् / अनुगामी अनबुगामी मिश्रश्व मनुष्य-तिर्यक्षु // (वृत्ति-हिन्दी-) संस्थान द्वार का कथन हो गया। अब आनुगामुक द्वार सम्बन्धी & अर्थ को प्रकट करने हेतु यह गाथा कह रहे हैं (56) 33333333333333-8--23333333333333333333333333333 (नियुक्ति-अर्थ-) नारकी और देवों का अवधिज्ञान आनुगामिक होता है। (किन्तु) , मनुष्य व तिर्यञ्चों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अनागामिक व मिश्र भी होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) अनुगमनशील आनुगामुकः, लोचनवद् / तुशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चावधारणे, आनुगामुक एव अवधिः। केषामित्यत आह- नरान् कायन्तीति नरकाःनारकाश्रयाः, तेषु भवा नारका इति, तेषां नारकाणाम् / तथैव' आनुगामुक एव, दीव्यन्तीति देवास्तेषामिति।तथा आनुगामुकः, अननुगमनशीलोऽननुगामुकः स्थितप्रदीपवत् ।तथा एकदेशानुगमनशीलो मिश्रः, देशान्तरगतपुथ्षैकलोचनोपघातवत्।चशब्दः समुच्चयायः, मित्रश्च, मनुष्याश्च तिर्यश्चश्च मनुष्यतिर्यश्चस्तेषु मनुष्यतिर्यक्षु योऽवधिः स एवंविधस्त्रिविध इति / & गाथार्थः // 16 // (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) जो (अपनी) आंख की तरह (ज्ञानी के) साथ-साथ अनुगमन करे, वह आनुगामुक अवधिज्ञान होता है। ‘तु' (तो) शब्द 'ही' अर्थ को व्यक्त / & करता है, वह इस तरह ‘अवधारण' करता है- आनुगामुक ही अवधिज्ञान होता है, किनके? " & उत्तर दिया- नारकियों के / नरों को (सहायतार्थ) पुकारते हैं, वे नरक यानी नरक-भूमियां, 7 " उनमें होने वाले (जीव) हैं- नारकी, उनका (अवधिज्ञान आनुगामुक ही होता है)। उसी - 244 @@@@@@9889@cr@9898cr(r)(r) Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | Maamanner 333333333333333333333333333332222222222222222 नियुक्ति-गाथा-56 तरह, अर्थात् आनुगामुक ही अवधिज्ञान देवों को भी होता है। देव वे होते हैं जो देवनयुक्त होते ca हैं (दिव्य क्रीड़ा आदि करते हैं)। तथा जो स्थिर प्रदीप की तरह (ज्ञाता का) अनुगमन नहीं है a करता, वह अननुगामुक अवधिज्ञान होता है। मिश्र अवधिज्ञान से तात्पर्य है- एकदेश में " * अनुगामी, जैसे देशान्तर जाते हुए व्यक्ति की (मार्ग में) एक आंख फूट जाय, उसी तरह . 4 (कुछ दूर तक), अनुगमन करने वाला अवधिज्ञान 'मिश्र' होता है। 'च' शब्द 'समुच्चय' अर्थ & को व्यक्त कर रहा है। मनुष्यों व तिर्यञ्चों में जो अवधिज्ञान होता है, वह उक्त प्रकार से तीनों प्रकार का (आनुगामुक, अननुगामुक व मिश्र) होता है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ |56 // विशेषार्थ आनुगामिक का शाब्दिक अर्थ है- अनुगमनशील। यह अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न ल होता है, उस क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी विद्यमान रहता है। तत्त्वार्थभाष्य में इसे सूर्य के . प्रकाश और घट की पाकजनित रक्तता से समझाया गया है। इस अवधिज्ञान में आत्मप्रदेशों की विशिष्ट विशुद्धि होती है। चूर्णिकार ने इसे नेत्र के दृष्टांत से समझाया है। जैसे नेत्र मनुष्य के हर क्षेत्र , में साथ रहता है, वैसे ही आनुगामिक अवधिज्ञान हर क्षेत्र में साथ रहता है मी-एक क्षेत्र में उत्पन्न होकर अन्य क्षेत्र में विनष्ट नहीं होता। 2. भवानुगामी- जो अवधिज्ञान वर्तमान भव में उत्पन्न होकर, अन्य भव में जीव के साथ जाता है। ज्ञान परभविक होता है, इसलिए आनुगामिक का भवानुगामी विकल्प बहुत सार्थक है। 3. क्षेत्रभवानुगामी- यह संयोगजनित विकल्प है। अननुगामुक अवधिज्ञान की स्थिति रास्ते में जल रहे लैम्पपोस्ट की तरह होती है। उसके 90 पास में तो प्रकाश की अधिकता रहती है, वहां से आगे बढ़ जाने पर प्रकाश समाप्त हो जाता है। मिश्र अवधिज्ञान उस क्षेत्र की तरह है, जो नियत काल तक उपयोगी होकर नष्ट हो जाता है, CM अर्थात् वह कुछ समय, कुछ क्षेत्र के लिए तो सहायक है, बाद में, आगे के क्षेत्र के लिए अनुगामी नहीं होता, साथ छोड़ देता है। - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ROR@@c@98 245 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3333333333333333333 3333 2333333333333333333 Racecacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000(हरिभद्रीय वृत्तिः) व्याख्यातमानुगामुकद्वारम्। इदानीमवस्थितद्वारावयवार्थप्रतिपादनाय गाथाद्वयमाह (नियुक्तिः) खित्तस्स अवठ्ठाणं, तित्तीसं सागरा उ कालेणं। दव्वे भिण्णमुहुत्तो, पज्जवलंभे य सत्तट्ठ // 17 // अद्धाइ अवट्ठाणं, छावट्ठी सागरा उ कालेणं। उक्कोसगं तु एयं, इक्को समओ जहण्णेणं // 18 // [संस्कृतछायाः-क्षेत्रस्य अवस्थानं त्रयस्त्रिंशत् सागरास्तु कालेनाद्रव्ये भिन्नमुहूर्तः पर्यवलाभेच, सप्ताष्ट // अद्धायामवस्थानं द्वाषष्टिः सागरास्तु कालेन / उत्कृष्टकं तु एतदेकः समयो जघन्येन।].... (वृत्ति-हिन्दी-) आनुगामुक द्वार का कथन पूर्ण हुआ। अब अवस्थित द्वार के अन्तर्गत अवधिज्ञान रूपी पदार्थ का निरूपण करने हेतु दो गाथाएं कह रहे हैं (57-58) (नियुक्ति-अर्थ-) क्षेत्र व काल की अपेक्षा से (अवधिज्ञान की) अवस्थिति तो तैंतीस सागर की हुआ करती है। द्रव्य की अपेक्षा से भिन्न मुहूर्त (अपूर्ण मुहूर्त अर्थात् अन्तर्मुहूर्त), काल तक तथा एक पर्याय की उपलब्धि में सात-आठ समयों तक (अवधिज्ञान की) अवस्थिति , होती है।57॥ (लब्धि की अपेक्षा से) इसकी (कालिक) अवस्थिति (साधिक) छासठ सागरोपम , & की होती है। यह (काल की दृष्टि से) उत्कृष्ट अवस्थिति है, जघन्यतः तो अवस्थिति एक समय : की हुआ करती है 58 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) प्रथमगाथाव्याख्या-अवस्थितिरवस्थानं तद् अवधेराधारोपयोगलब्धितश्चिन्त्यते।तत्र क्षेत्रमस्याधार इतिकृत्वा क्षेत्रस्य संबन्धि तावदवस्थानमुच्यते- तत्राविचलितः सन् , 'त्रयस्त्रिंशत्सागराः' इति त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यवतिष्ठते अनुत्तरसुराणाम्।तुशब्दस्त्वेवकारार्थः, 1 स चावधारणे, त्रयस्त्रिंशदेव। कालेनेति' कालतः कालमधिकृत्य 'अर्थाद्विभक्तिपरिणामः'। " (वृत्ति-हिन्दी-) प्रथमगाथा (सं. 57) की व्याख्या इस प्रकार है- अवस्थान का अर्थ " / है- अवस्थिति / अवधिज्ञान के आधारभूत (क्षेत्र आदि) में उपयोग की लब्धि की दृष्टि से (वह | - 24689&(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) - Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ accaca cacaRaceca नियुक्ति-गाथा-57-58 90900202090 9000कितने समय तक प्रवर्तमान रहता है- इस दृष्टि से) अवस्थिति का विचार यहां किया जा ल रहा है। इसका आधार क्षेत्र' को मान कर क्षेत्र-सम्बन्धी अवस्थिति का निरूपण किया जा , रहा है- वहां अनुत्तर विमानवासी देवों का अवधिज्ञान बिना विचलित हुए (निरन्तर) तैंतीस ca सागर प्रमाण अवस्थित रहता है। 'तो' शब्द 'एव' (ही) अर्थ को व्यक्त करता है। वह यह & निर्धारित कर रहा है कि यह अवस्थिति तैंतीस सागर की ही होती है (अधिक नहीं)। काल की अपेक्षा से, यहां अर्थवश विभक्ति-परिणाम करना चाहिए (तृतीया की जगह द्वितीया करनी चाहिए, अर्थात्) 'काल' को अधिकृत कर, (काल को ध्यान में रख कर)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तथा 'द' इति द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यं तस्मिन् द्रव्ये- द्रव्यविषयम् उपयोगावस्थानमवधेः। भिन्नश्चासौ मुहूर्त्तश्चेति समासः। अवनं अवः, परि अवः पर्यवः, तस्य & लाभः पर्यवलाभः, तस्मिंश्च पर्यवलाभे च-पर्यवप्राप्तौ चावधेरुपयोगावस्थानं सप्ताष्टौ वा " समया इति। व अन्ये तु व्याचक्षते-पर्यायेषु सप्त, गुणेषु अष्टेति।सहवर्त्तिनो गुणाःशुक्लत्वादयः, क्रमवर्तिनः पर्याया नवपुराणादयः, यथोत्तरं च द्रव्यगुणपर्यायाणां सूक्ष्मत्वात् स्तोकोपयोगता 1 इति गाथार्थः // 17 // . (वृत्ति-हिन्दी-) तथा द्रव्य में। जो उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहता है, वह द्रव्य होता है। उस द्रव्य में। 'द्रव्य में' इस कथन का तात्पर्य है- द्रव्यविषयक उपयोग। उसकी 6 स्थिति- भिन्न मुहूर्त (अन्तर्मुहूर्त) की होती है। भिन्न (अपूर्ण) जो मुहूर्त इस अर्थ में समास होकर 'भिन्नमुहूर्त' पद बना है। अव यानी परिणमन, परि अव- अर्थात् परिणमन रूप 'पर्याय', उसका लाभ (ग्रहण) या प्राप्ति- यह ‘पर्यवलाभ' का अर्थ है। उसमें, अर्थात् पर्याय-विषयक ज्ञान की प्रक्रिया में अवधिज्ञान के उपयोग की स्थिति सात-आठ समय की ल होती है। ___अन्य आचार्य इस प्रकार से व्याख्यान करते हैं- पर्यायों में सात, तथा गुणों में आठ 2 समय की उपयोग-अवस्थिति होती है। गुण हैं- शुक्लत्व आदि, जो द्रव्य के सहभावी होते हैं। " पर्याय हैं- नया, पुराना स्वरूप जो द्रव्य में क्रमवर्ती होते हैं / द्रव्य, गुण, पर्याय- इनमें पूर्व से की अपेक्षा उत्तरोत्तर सूक्ष्मता होती है, इसलिए गुण की अपेक्षा पर्यायों में उपयोग अल्पसमय , का होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||57 // 222322233333333333333333332223323232322382332 - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)cene 247 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R acecacaana श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 90000mm 222222323323232 22222322222223333333333223321 (हरिभद्रीय वृत्तिः) (द्वितीयगायाव्याख्या-) इहलब्धितोऽवस्थानं चिन्त्यते।अद्धा-अवधिलब्धिकालः।अत्र .. & अद्धायाः-कालतोऽवस्थानम् / अवधेर्लब्धिमङ्गीकृत्य तत्र चान्यत्र क्षेत्रादौ 'षट्षष्टिसागराः', इति षट्षष्टिसागरोपमाणि।तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् मनागधिकानि। 'कालेनेति'-कालतः / उत्कृष्टमेवेदं कालतोऽवस्थानमिति। जघन्यमवस्थानमाह- तत्र द्रव्यादावप्येकः समयो / जघन्येनावस्थानमिति। तत्र मनुष्यतिरश्चोऽधिकृत्य सप्रतिपातोपयोगतोऽविरुद्धमेव, ce देवनारकाणामपि चरमसमयसम्यक्त्वप्रतिपत्तौ सत्यां विभङ्गस्यैवावधिरूपापत्तेः, तदनन्तरं - च्यवनाच्चाविरोध इति गाथार्थः // 18 // (वृत्ति-हिन्दी-) द्वितीय (58वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है- यहां लब्धि की / a दृष्टि से अवधिज्ञान की अवस्थिति का विचार चल रहा है। 'अद्धा' (यानी लब्धि) का काल की . * अपेक्षा से अवस्थान, वह इस प्रकार है- अवधिज्ञान की लब्धि को ध्यान में रखकर विचार, करें तो, उस (अवधिज्ञान के आधारभूत) क्षेत्र में या अन्यत्र क्षेत्र आदि मे छासठ सागरोपम: की अवस्थिति उसकी होती है। 'तो' शब्द विशेषता अर्थ का वाचक है, इसलिए अर्थ फलित है- कुछ अधिक छासठ सागरोपम। काल की अपेक्षा से यह अवस्थिति उत्कृष्ट है। अब जघन्य अवस्थिति का कथन कर रहे हैं- द्रव्य आदि में उसकी जघन्य अवस्थिति एक समय : व की होती है। मनुष्य व तिर्यञ्चों में विचार करें तो प्रतिपाती उपयोग की अपेक्षा से (उक्त जघन्य " a स्थिति के सद्भाव में) कोई विरोध वाली बात नहीं है। इसी तरह, देवों व नारकों में भी, जब 4 अंतिम समय में सम्यक्त्व से च्युत होने पर, विभंग ज्ञान ही अवधिज्ञान रूप बन जाता है, . उसके बाद च्यवन हो, तो वहां, भी (एक समय वाली अवधिज्ञान की जघन्य स्थिति मानने : में) कोई विरोध की बात नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||58 // ca विशेषार्थ 'अद्धा' से तात्पर्य है-अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम रूप लाभ, लब्धि भी कहा जाता है। द्रव्यों में (अवधिज्ञान का) उपयोग हो या न भी हो, तो भी उक्त लब्धि तो विद्यमान होगी ही। उक्त : क्षयोपशमरूप लब्धि का निरन्तर जितने काल तक उत्कृष्ट अवस्थान रहता है, वह छासठ सागरोपम , काल प्रमाण है। इस काल को 'साधिक' 'कुछ अधिक' भी माना गया है, अर्थात् छासठ सागरोपम से / भी कुछ समय अधिक काल की उक्त अवस्थिति होती है।जो जीव विजय आदि अनुत्तर विमानों में दो 248 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mananect नियुक्ति-गाथा-59 9000000000 | बार उत्पन्न हो, (वहां 33-33 सागर की आयु पूरी करे) उसकी अपेक्षा से अवधि की उत्कृष्ट स्थिति | ca छासठ सागरोपम है।दो जन्मों के मध्य जो मनुष्य जन्म लिया, उसके काल को जोड़ें तो समन काल >> कुछ अधिक छासठ सागरोपम का होगा। उक्त उत्कृष्ट अवस्थिति 'लब्धि-सामान्य' की दृष्टि से है। किन्तु विशेषद्रव्य से जुड़े उपयोग व लब्धि- दोनों की, या उपयोगयुक्त लब्धि की किसी द्रव्य व क्षेत्र में 4 अवस्थिति का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है, और जघन्य काल एक समय का ही है। अन्तर्मुहूर्त से 4 अधिक किसी द्रव्य में उपयोग ठहर ही नहीं पाता और रहे तो कम से एक समय तक तो रहेगा ही। 22222222222222222222222222 222222 एक समय का जघन्य अवस्थिति काल मनुष्यों और तिर्यञ्चों में तब घटित होता है जब उनका अवधिज्ञान एक समय के बाद प्रतिपतित हो जाय या उपयोग हट जाय। देवों व नारकों में जब उनकी आयु के अंतिम समय में सम्यक्त्व प्राप्त हो तो उनका विभंगज्ञान अवधिज्ञान हो जाता है, तब भी एक समय वाला जघन्य काल संगत होता है। (हरिभद्रीय दृत्तिः) एवं तावदवस्थितद्वारमभिधाय इदानीं चलद्वाराभिघित्सयाऽऽह नियुक्तिः) दही वा हाणी वा,चउबिहा होइ खित्तकालाणं / दबेसु होइ दुविहा, छबिह पुण पज्जवे होइ॥५९॥ (संस्कृतच्छायाः-वृद्धि हानिर्वा चतुर्विधा भवति क्षेत्रकालयोः द्रव्येषु भवति द्विविधा षविधा पुनः . पर्यवे भवति। a . (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार अवस्थिति-द्वार का कथन करने के बाद, अब चल द्वार का कथन करने हेतु (आगे की गाथा) कह रहे हैं (नियुक्ति-अर्च-) (अवधिज्ञान का विषय होने वाले) क्षेत्र व काल में जो वृद्धि या : हानि होती है, वह चार प्रकार की होती है। द्रव्यों में होने वाली वृद्धि या हानि दो प्रकार की और पर्यायों में होने वाली वृद्धि या हानि छः प्रकार की होती है। (r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@@ce@20p@cr@@ 249 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222333333333333333333333333333333333333333333 Reaceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 92000000(हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र चलो ह्यवधिः वर्धमानः क्षीयमाणो वा भवति।सा च वृद्धिर्हानिर्वा , & चतुर्विधा भवति क्षेत्रकालयोः। तथा चाभ्यधायि परमगुरुणा- "असंखेज्जभागवुट्टी वा, संखेज्जभागवुढी वा संखेज्जगुणवुट्टी वा असंखेज्जगुणवुड्डी वा," [असंख्येयभागवृद्धिर्वा / संख्येयभागवृद्धिर्वा संख्येयगुणवृद्धिर्वा असंख्येयगुणवृद्धिर्वा] एवं हानिरपि / न तु, अनन्तभागवृद्धिरनन्तगुणवृद्धिर्वा / एवं हानिरपि, क्षेत्रकालयोरनन्तयोरदर्शनात्।तथा द्रव्येषु / भवति द्विधा वृद्धि निर्वा / कथम्? -अनन्तभागवृद्धिर्वा अनन्तगुणवृद्धिर्वा, एवं हानिरपि, , & द्रव्यानन्यादिति भावार्थः। ...तथा षड़िवधा 'पर्याये' इति जात्यपेक्षमेकवचनं पर्यायेषु भवति, वृद्धि हानिर्देति - 8 वर्त्तते, पर्यायानन्त्यात् / कथम्? -अनन्तभागवृद्धिः असंख्येयभागवृद्धिः संख्येयभागवृद्धिः - संख्येयगुणवृद्धिः असंख्येयगुणवृद्धिः अनन्तगुणवृद्धिरिति, एवं हानिरपि। a (वृत्ति-हिन्दी-) चल अवधिज्ञान या तो वर्द्धमान होता है या क्षीयमाण। यह वृद्धि या " व हानि (क्षीणता) क्षेत्र व काल में होती है और उसके चार-चार प्रकार हैं। परमगुरु (तीर्थंकर - देव) का कथन भी इस प्रकार है- 'असंख्येय भाग वृद्धि या संख्येय भागवृद्धि या , & संख्येयगुणवृद्धि या असंख्येय गुण-वृद्धि / ' 'इसी प्रकार हानि भी (असंख्येयभाग-वृद्धि, संख्येय गुणवृद्धि या अनन्त गुण-वृद्धि नहीं होती, और इसी प्रकार अनन्त भागहानि या , CM अनन्तगुण हानि भी नहीं होती, इसका कारण यह है कि क्षेत्र व काल की अनन्तता , ca दृष्टिगोचर नहीं होती (अर्थात् अवधिज्ञानी के लिए अनन्त व काल दृष्टिगम्य नहीं होते)। इसी " & तरह द्रव्यों में (भी) वृद्धि या हानि दो दो प्रकार की होती है। कैसे? (इस प्रकार होती है-) . & अनन्त भागवृद्धि या अनन्त गुण-वृद्धि, इसी प्रकार अनन्त भाग हानि या अनन्त गुण-हानि , & होती है, क्योंकि द्रव्य अनन्त हैं- यह भाव है। और, पर्याय में छः-छः प्रकार की होती है। पर्याय' में एकवचन 'जाति' की अपेक्षा , से है (वस्तुतः पर्याय अनन्त होते हैं, इसलिए 'पर्यायों में कहना चाहिए था, किन्तु एकत्व , बुद्धि से एकवचन है)। वाक्य में ‘हानि या बुद्धि' इन दोनों पदों की भी अनुवृत्ति करणीय है। . 4 (अतः पूर्ण वाक्यार्थ होगा- 'पर्याय में छः छः प्रकार की हानि या बुद्धि होती है')। (पर्यायों में , हानि या वृद्धि के छः छः प्रकारों के होने में) कारण यह है कि (द्रव्य की तरह) पर्याय भी 250 @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ - Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRece හ හ හ හ හ හ හ හ 33333333333333333333 333333 नियुक्ति गाथा-59 अनन्त होते हैं। यह हानि-वृद्धि किस प्रकार से होगी? (इस प्रकार से होगी-) (1) अनन्त & भाग वृद्धि (2) असंख्येय भागवृद्धि, (3) संख्येय भाग वृद्धि, (4) संख्येय गुण-वृद्धि, (5) >> असंख्येय गुण-वृद्धि और (6) अनन्त गुणवृद्धि / इसी प्रकार हानि भी (छः प्रकार की) , होती है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह- क्षेत्रस्यासंख्येयभागादिवृद्धौ तदाधेयद्रव्याणामपि तन्निबन्धनत्वादसंख्येयभागादिवृद्धिरेवास्तु, तथा द्रव्यस्यानन्तभागादिवृद्धौ सत्यां तत्पर्यायाणामपि , अनन्तभागादिवृद्धिरिति षट्स्थानकमनुपपन्नमिति। अत्रोच्यते, सामान्यन्यायमङ्गीकृत्य : इदमित्थमेवायदा क्षेत्रानुवृत्त्या पुद्गलाः परिसंख्यायन्ते, पुद्गलानुवृत्त्या च तत्पर्यायाः, न चात्रैवम् / कथम्? यस्मात्स्वक्षेत्रादनन्तगुणाः पुद्गलाः, तेभ्योऽपि पर्याया इति, अतो यस्य / ल ययैवोक्ता वृद्धिर्हानिर्वा तस्य तथैवाविरुद्धेति, प्रतिनियतविषयत्वात्, विचित्रावधिनिबन्धनाच्चेति // व गाथार्थः॥१९॥ (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) क्षेत्र की असंख्येय भाग आदि की वृद्धि होने पर, उसके , ce रहने वाले (आधेय) द्रव्यों की भी असंख्येय भाग आदि वृद्धि हो ही जाती है (अर्थात् क्षेत्र की . असंख्येय भाग आदि की वृद्धि में ही द्रव्य की वृद्धि अन्तर्निहित है, अतः पृथक् द्रव्य की , & असंख्येय भाग आदि की वृद्धि नहीं मानी जाय), इसी प्रकार द्रव्य की अनन्त भाग आदि की : वृद्धि में उसके पर्यायों की भी अनन्तभागवृद्धि (अन्तर्भूत) है, अतः 'षट्स्थान' (पृथक्-पृथक् , छः छः प्रकारों) का कथन युक्तियुक्त नहीं है। इसका समाधान यह है- सामान्यतया कथन के रूप में तो यह (छः छः प्रकार का पूर्वोक्त कथन) ही यथार्थ है। क्षेत्र (की हानि-वृद्धि) के 22 4 अनुसार पुद्गलों की हानि-वृद्धि का कथन और पुद्गलों (की हानि-वृद्धि) के अनुसार उसके , ca पर्यायों की हानि-वृद्धि का कथन जो किया जा रहा है, वैसा अर्थात् (वैसी दृष्टि) यहां नहीं है। " कैसे? क्योंकि अपने क्षेत्र की अपेक्षा पुद्गल अनन्त होते हैं, और उनसे भी अनन्त उनके " पर्याय होते हैं, अतः जिस प्रकार वृद्धि या हानि (छः छः प्रकार की) बताई गई है, वही , अविरुद्ध है, क्योंकि (प्रत्येक) हानि या वृद्धि का विषय नियत है और उसमें अवधि की , (अवधि ज्ञानावरण-क्षयोपशम-जनित) विचित्रता कारण है। यह माथा का अर्थ पूर्ण हुआ 59 233823.33 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)8000 251 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3333333333333333333 - 33333333333333333333333333 -acecacacacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 200000 विशेषार्थ आगमों में वृद्धि-हानि को छः प्रकार से सम्भावित बताया गया है। छः प्रकार की वृद्धियां , हैं- (1) अनन्त भागवृद्धि, (2) असंख्यात भागवृद्धि, (3) संख्यातभाग वृद्धि, (4) संख्यात गुणवृद्धि, ce (5) असंख्यात गुणवृद्धि, और (6) अनन्त गुणवृद्धि / इसी प्रकार छः प्रकार की हानियां हैं (1) अनन्त , & भाग हानि, (2) असंख्यातभाग हानि, (3) संख्यात भाग हानि, (4) संख्यात गुणहानि, (5) असंख्यात , गुण हानि, और (6) अनन्त गुण हानि। इनमें, अवधिज्ञान के विषयभूत होने वाले क्षेत्र व काल के , 8 आदि व अन्त ये दो भाग नहीं होते, क्योंकि अनन्त भागवृद्धि व अनन्त गुण वृद्धि, और अनन्तभागहानि ? & व अनन्त गुणहानि -ये क्षेत्र व काल की नहीं होतीं। इसका कारण यह है कि अवधि का विषय भूत , क्षेत्र अनन्त नहीं होता (केवल ज्ञान के सिवा अनन्त क्षेत्र का ज्ञाता कोई ज्ञान नहीं होता) और काल: भी अनन्त नहीं होता (क्योंकि सीमित काल का ही वह ज्ञान होता है।) अब जितने क्षेत्र को प्रथमतः किसी अवधिज्ञानी ने देखा, दूसरा अवधिज्ञानी उसे प्रतिसमय, ch असंख्यात भागवृद्धि से युक्त देखता है, तीसरा संख्यात भाग वृद्धि से युक्त देखता है, चौथा संख्यात . गुणवृद्धि से युक्त देखता है, पांचवां असंख्यात गुण-वृद्धि से युक्त देखता है। इसी प्रकार हानि की दृष्टि , से कथन किया जा सकता है। इस प्रकार, क्षेत्रगत व कालगत वृद्धि की हानि चार-चार प्रकार की : & घटित होती हैं। इसी प्रकार द्रव्यगत अवधिज्ञान की भी हानिवृद्धि होती है।जैसे, किसी अवधिज्ञानी ने प्रथम . & जितने द्रव्यों को देखा, कोई दूसरा अवधिज्ञानी उससे अनन्त भाग अधिक द्रव्यों को देखता है, तीसरा , अवधिज्ञानी उन्हीं को अनन्त गुण-वृद्धियुक्त देखता है, चौथा उससे अनन्तगुणहीन इत्यादि क्रम से , 4 उक्त हानि-वृद्धि की आयोजना कर लेनी चाहिए। इसी प्रकार, पर्यायों में छः छः प्रकार की हानि-वृद्धि . सम्भावित हैं। षड्विध गुणहानि-वृद्धि पर शंका उठाई गई है कि क्षेत्र की वृद्धि या हानि के साथ ही द्रव्य , की वृद्धि, या हानि और द्रव्य-वृद्धि या हानि के साथ पर्यायों में भी वृद्धि या हानि निश्चित है, तब क्षेत्र, & से पृथक्, द्रव्यगत व पर्याय गत वृद्धि या हानि का व्यवस्थापन क्यों किया जाता है? दूसरी बात, " a आधार की वृद्धि या हानि होने पर, आधेय में वृद्धि या हानि निश्चित है तो फिर क्षेत्र की चतुर्विधर वृद्धि-हानि, द्रव्य की द्विविध और पर्याय की षड्विध वृद्धि-हानि -यह विचित्रता कैसे? ऐसा कैसे होता। & है कि क्षेत्र के असंख्येय भाग की वृद्धि हो तो उसके आधेय द्रव्यों की भी असंख्येय भाग आदि की " & वृद्धि नहीं होती? और चूंकि उसके आधेय द्रव्यों की अनन्तता है, इसलिए द्रव्य में अनन्त भागवृद्धि र * होने पर कैसे पर्यायों में असंख्येय भाग आदि वृद्धि ही होती है और द्रव्य की अनन्तगुण वृद्धि होने पर पर्यायों में असंख्यात गुण आदि की ही वृद्धि हो -ऐसा कैसे होता है? उत्तर में कहा गया है कि यह ___252 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)n& Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Ratnaana निर्यक्ति-गाथा-60-61 20909200000 सही है कि समस्त लोकाकाश के असंख्येय भाग में समस्त पुद्गलास्तिकाय का असंख्येय भाग ही स्वरूप से स्थित है, और समग्र पुद्गलास्तिकाय के अनन्ततम आदि भाग में समस्त पुद्गल-पर्यायों की राशि भी उसका अनन्ततमवां भाग है, अतः क्षेत्र की असंख्येय आदि भाग की वृद्धि या हानि होने a पर द्रव्य में भी उसी तरह की वृद्धि या हानि होती हैं -इसमें हमारा वैमत्य नहीं है। इसी प्रकार, द्रव्य - के अनन्ततमवें भाग आदि की वृद्धि या हानि होने पर, उसके पर्यायों में भी वैसी ही वृद्धि या हानि , होगी ही। किन्तु यहां जो विचार चल रहा है, वह अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्र आदि की वृद्धि या 1 ca हानि से सम्बन्धित है। सामान्यतया स्वरूपगत वृद्धि-हानि का यहां विचार नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में 2 यह जो विशेषतया वृद्धि-हानि बताई गई है, उसकी विचित्रता (चतुर्विधता, षड्विधता आदि) के पीछे कारण है- अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम / अतः जिस तरह क्षेत्र, द्रव्य व पर्याय की हानि-वृद्धि के ce जो प्रकार बताये गये हैं, वे इसी रूप में युक्तिसंगत हैं, अन्य रूपों में नहीं। वहां अवधिज्ञानावरण की क्षयोपशम की विचित्रता ही ऐसी होती है, उसका उल्लंघन कर वृद्धि-हानि नहीं होती (द्र. विशेषा. भा. गा. 728-734 पर शिष्यहिता टीका)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) एवं तावच्चलद्वारं व्याख्यातम्। इदानीं तीव्रमन्दद्वारावयवार्थं व्याचिख्यासुरिदमाह (नियुक्तिः) फड्डाय असंखिज्जा, संखेज्जा यावि एगजीवस्स। एकप्फड्डुवओगे, नियमा सव्वत्थ उवउत्तो // 60 // फड्डा य आणुगामी, अणाणुगामी य मीसगा चेव। पडिवाइअपडिवाई, मीसोय मणुस्सतेरिच्छे॥६१॥ [संस्कृतच्छायाः-फडकानिच असंख्येयानि संख्येयानि चापि एकजीवस्याएकफडकोपयोगे नियमात् सर्वत्र उपयुक्तः फहकानि च अनुगामीनि अननुगामीनि मिश्राणि चैव ।प्रतिपातीनि अप्रतिपातीनि मिश्राणि च & मनुष्य-तिर्यक्षु॥ ca (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, चल द्वार का व्याख्यान पूरा हुआ। अब तीव्र-मंद द्वार के अन्तर्गत (अवधिज्ञान का) व्याख्यान करने हेतु आगे की गाथा कह रहे हैं (60-61) (नियुक्ति-अर्थ-) एक जीव के 'स्पर्धक' असंख्येय या संख्येय होते हैं। एक स्पर्धक , ce का उपयोग करते समय, वह नियमतः, अन्य सब का भी (युगपत्) उपयोग करता है|60|| 333333333333333333333333333333333333333333333 / -88888888888888888888888888888888888888888888 - can@ce(r)(r)(r)(r)ce@7838@@ 2539 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -222222222222333333333333333333333333333333333 ca caca cace caca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 090920022 / मनुष्य व तिर्यञ्चों में स्पर्धकों के प्रकार इस रूप में है- अनुगामी, अननुगामी, | & मिश्र, और (इन्हीं के तीन-तीन भेद) प्रतिपाती, अप्रतिपाती व मिश्र // 61 // c. (हरिभद्रीय वृत्तिः) (प्रथमगाथाव्याख्या-) इह फड्डकानि अवधिज्ञाननिर्गमद्वाराणि अथवा है गवाक्षजालादिव्यवहितप्रदीपप्रभाफड्डकानीव फड्डकानि, तानि चासंख्येयानि संख्येयानि व चैकजीवस्य / तत्रैकफड्डकोपयोगे सति नियमात् 'सर्वत्र' सर्वैः फड्डकैरुपयुक्ता भवन्ति, . & एकोपयोगत्वाज्जीवस्य, लोचनद्वयोपयोगवद्, प्रकाशमयत्वाद्वा प्रदीपोपयोगवदिति। आह-तीव्रमन्दद्वारं प्रक्रान्तं विहाय फड्डकावधिस्वरूपं प्रतिपादयतः प्रक्रमविरोध - a इति।अत्रोच्यते, प्रायोऽनुगामुकाप्रतिपातिलक्षणौ फड्डको तीव्रौ, तयेतरौ मन्दौ, उभयस्वभावता च मिश्रस्येति गाथार्थः // 60 // (वृत्ति-हिन्दी-) प्रथम (60वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है- फड्ड या फडक (का 0 संस्कृत रूप स्पर्धक है, उस) का अभिधेय अर्थ है- अवधिज्ञान के (शरीर स्थित) निर्गम , द्वार, अथवा जाली से ढके दीपक से बाहर निकलती हुई ज्योति-रश्मियों की तरह होने के . कारण इन्हें 'स्पर्धक' कहा जाता है। प्रत्येक (अवधिज्ञानी) जीव के ये असंख्य या संख्येय , ca हुआ करते हैं। इनमें एक स्पर्धक का उपयोग हो रहा हो तो नियत रूप से सर्वत्र अर्थात् सभी , ca स्पर्धकों के उपयोग का सद्भाव रहता ही है, (इसके पीछे) कारण यह है कि जैसे एक आंख < से देखने वाला व्यक्ति दोनों आंखों के उपयोग से (स्वतः) उपयुक्त (दर्शन की क्रिया से युक्त) >> होता है, उसी प्रकार उपयोग 'एक' ही होता है (अर्थात् एक समय में एक ही उपयोग होता . है, ऐसा नहीं होता कि एक स्पर्धक का उपयोग (एक विषय पर) हो तो दूसरे स्पर्धकों का , उपयोग अन्यत्र हो, अतः यही मानना उपयुक्त है कि सभी स्पर्धकों का उपयोग अर्थात् , सबका युगपत् और एक ही होता है)। अथवा जैसे प्रदीप का एक ही सामान्यतः उपयोग 1 a 'प्रकाशरूप' होना होता है, वैसे ही (सभी स्पर्धकों का मिलकर एक ही उपयोग) यहां ce होता है। (शंका-) तीव्र व मन्द द्वार के अन्तर्गत निरूपण करने के प्रकरण को छोड़ कर " स्पर्धक-अवधि के स्वरूप को जो आप बता रहे हैं, वह तो प्रकरण-विरोध है? समाधान यह " / है- स्पर्धक के जो तीन भेद आनुगामुक आदि बताए गए हैं, उनमें आनुगामुक व अप्रतिपाती - 254 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Racecacecece 29999999999900 2222222238232.32232223333322222222222222222333 नियुक्ति-गाथा-60-61 | लक्षण वाले स्पर्द्धक प्रायः तीव्र होते हैं, अननुगामुक व प्रतिपाती प्रायः मन्द होते हैं, मिश्र | स्पर्द्धक मध्यम होते हैं। (अतः अवधिज्ञान की तीव्रता व मंदता बताने से पूर्व, उनका स्पर्द्धक >> व स्वरूप और उनके आनुगामक आदि प्रकार बताए गए हैं, जो प्रासंगिक ही हैं)॥60॥ a (हरिभद्रीय वृत्तिः) (द्वितीयगाथाव्याख्या-) फड्डकानि- पूर्वोक्तानि, तानि च अनुगमनशीलानि " + आनुगामुकानि, एतद्विपरीतानि अनानुगामुकानि, उभयस्वरूपाणि मिश्रकाणि च / एवकारः " & अवधारणे, तान्येकैकशः प्रतिपतनशीलानि प्रतिपातीनि, एवमप्रतिपातीनि मिश्रकाणि च भवन्ति। तानि च मनुष्यतिर्यक्षुयोऽवधिस्तस्मिन्नेव भवन्तीति। आह- आनुगामुकाप्रतिपातिफड्डकयोः कः प्रतिविशेषः?, अनानुगामुकप्रतिपातिफडकयोति।अत्रोच्यते, अप्रतिपात्यानुगामुकमेव, आनुगामुकंतु प्रतिपात्यप्रतिपाति च भवतीति शेषः।तथा प्रतिपतत्येव प्रतिपाति, प्रतिपतितमपि च सत् पुनर्देशान्तरे जायत एव, से नेत्थमनानुगामुकमिति गाथार्थः॥११॥ . (वृत्ति-हिन्दी-) द्वितीय (61वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है- पूर्वोक्त (स्वरूप, वाले) स्पर्द्धक आनुगामुक यानी अनुगमनशील होते हैं। इनसे विपरीत (स्पर्द्धक) अनानुगामुक, . और उभयस्वरूप वाले मिश्र होते हैं। 'एव' (ही) पद यहां अवधारण कर रहा है, अर्थात् यह 1 a बता रहा है कि इन तीनों में भी प्रत्येक प्रतिपाती यानी पतनशील, और अप्रतिपाती एवं मिश्र , 4 (-इन तीन-तीन प्रकारों वाला) है। मनुष्य व तिर्यञ्चों में जो अवधिज्ञान होता है, उसी में ये " तीनों प्रकार होते हैं। a (शंका-) आनुगामुक व अप्रतिपाती स्पर्द्धकों में क्या अन्तर है? इसी तरह - अनानुगामुक व प्रतिपाती स्पर्द्धकों में क्या अन्तर है? समाधान यह है- अप्रतिपाती स्पर्द्धक , a आनुगामुक ही होता है, किन्तु आनुगामुक प्रतिपाती व अप्रतिपाती दोनों होता है। प्रतिपाती , यानी जो प्रतिपतित होता ही हो, और प्रतिपतित होकर भी पुनः अन्य देश में उत्पन्न होता हो, . किन्तु ऐसा 'अनानुगामुक' नहीं होता। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 161 // विशेषार्थ अवधिज्ञान के निम्नलिखित विविध भेदों के स्वरूपों को यहां ध्यान में रखना अपेक्षित है -3388888888888888888888888888888887777777777 Recen@c869888888@@ce@@ 255 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 233333333333333333333333333333333333333333333 Acacacacecace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2000000 (1) आनुगामिक (अनुगामी)- जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्र को छोड़ कर दूसरे स्थान पर चले जाने पर भी अवधिज्ञानी के साथ विद्यमान रहता है, उसे आनुगमिक कहते हैं, अर्थात् जिस स्थान पर जिस जीव में यह अवधिज्ञान प्रकट होता है, वह जीव उस स्थान के चारों संख्यात& असंख्यात योजन तक देखता है, इसी प्रकार उस जीव के दूसरे स्थान पर चले जाने पर भी वह उतने " क्षेत्र को जानता-देखता है, वह आनुगामिक कहलाता है। (2) अनानुगामिक (अननुगामी)-जो साथ, न चले, किन्तु जिस स्थान पर अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ, उसी स्थान में स्थित होकर पदार्थों को जाने, . & उत्पत्तिस्थान को छोड़ देने पर न जाने, वह अनानुगामी कहलाता है। तात्पर्य यह है कि अपने ही , स्थान पर अवस्थित रहने वाला अवधिज्ञान अनानुगामी कहलाता है। (3) वर्धमान-जो अवधिनान & उत्पत्ति के समय अल्प विषय वाला हो और परिणामविशुद्धि के साथ प्रशस्त, प्रशस्ततर अध्यवसाय ca के कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लिए बढ़े अर्थात् अधिकाधिक विषय वाला हो , जाता है, वह 'वर्धमान' कहलाता है। (4) हीयमान-जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अधिक विषय cm वाला होने पर भी परिणामों की अशुद्धि के कारण क्रमशः अल्प, अल्पतर और अल्पतम विषय वाला , हो जाए, उसे हीयमान कहते हैं। (5) प्रतिपाती- इसका अर्थ पतन होना. गिरना या समाप्त हो जाना, है। जगमगाते दीपक के वायु के झोकें से एकाएक बुझ जाने के समान जो अवधिज्ञान सहसा लुप्त हो / ca जाता है। उसे प्रतिपाती कहते हैं। यह अवधिज्ञान जीवन के किसी भी क्षण में उत्पन्न और लुप्त भी हो " & सकता है। (6) अप्रतिपाती- जिस अवधिज्ञान का स्वभाव पतनशील नहीं है, उसे अप्रतिपाती कहते . हैं। केवल-ज्ञान होने पर भी अप्रतिपाती अवधिज्ञान नहीं जाता, क्योंकि वहां अवधिज्ञानावरण का / & उदय नहीं होता, जिससे जाए, अपितु वह केवलज्ञान में समाविष्ट हो जाता है। केवलज्ञान के समक्ष " & उसकी सत्ता उसी तरह अकिंचित्कर है जैसे कि सूर्य के समक्ष दीपक का प्रकाश। यह प्रतिपाती अवधिज्ञान बारहवें गुणस्थानवी जीवों के अंतिम समय में होता है और उसके बाद तेरहवें गुणस्थान : के प्राप्त होने के प्रथम समय के साथ केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इस अप्रतिपाती अवधिज्ञान को 2 a परमावधिज्ञान भी कहते हैं। हीयमान और प्रतिपाती में अन्तर यह है कि हीयमान का तो पूर्वापेक्षया 1 धीरे-धीरे ह्रास हो जाता है, जबकि प्रतिपाती ज्ञान दीपक की तरह एक ही क्षण में नष्ट हो जाता है। (7) अवस्थित- जो अवधिज्ञान जन्मान्तर होने पर भी आत्मा में अवस्थित रहता है या केवलज्ञान की , & उत्पत्तिपर्यन्त ठहरता है, वह अवस्थित अवधिज्ञान कहलाता है। (8) अनवस्थित-जल की तरंग के समान जो अवधिज्ञान कभी घटता है, कभी बढ़ता है, कभी आविर्भूत हो जाता है और कभी तिरोहित, हो जाता है, उसे अनवस्थित कहते हैं। ये दोनों भेद प्रायः प्रतिपाती और अप्रतिपाती के समान लक्षण & वाले हैं, किन्तु नाममात्र का भेद होने से दोनों को अपेक्षाकृत पृथक्-पृथक् बताया गया है। नारकों, तथा चारों जाति के देवों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अप्रतिपाती और अवस्थित होता है।तिर्यश्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों का अवधिज्ञान पूर्वोक्त आठ ही प्रकार का होता है। - 25680(r)cr(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@2008ceone Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222333333333333333333333333333333333323232332 / caca ca cace cace caca नियुक्ति गाथा-62-63 0mn ORDon ___ उपर्युक्त अवधिज्ञान के स्वरूप जो बताए गए हैं, उनके पीछे स्पर्द्धकों (निर्गमन-द्वारों) की ca भूमिका रहती है। इसी दृष्टि से सम्भवतः स्पर्द्धकों के भी विविध भेद यहां अवधारित किये गये प्रतीत ल होते हैं। स्पर्द्धकों के आनुगामी, अनानुगामी व मिश्र -ये तीन भेद मुख्य हैं। इनमें प्रत्येक के तीन& तीन भेद हैं-प्रतिपाती, अप्रतिपाती, व मिश्र / इन नौ भेदों के भी तीन-तीन भेद हैं- तीव्र, मंद, मध्य। . स्पर्द्धकों की तीव्रता-मंदता उनके विशुद्ध-संक्लेश पर निर्भर होती है। विशुद्धि हो तो तीव्र, संक्लेश हो / है तो मंद / विशुद्धि व संक्लेश की इतनी विविधता प्रायः मनुष्य व तिर्यञ्चों में ही होती है। आनुगामुक व अप्रतिपाती -इन दोनों में क्या अन्तर है? इस प्रश्न के उत्तर में बताया गया . ca है कि जो नियत व अप्रतिपाती अवधिज्ञान है, वह चलती हुई दीप-शिखा की तरह नियमतः अन्यत्र 1 जा रहे जीव का अनुगमन करता ही है। जो अनुगामी है, वह अक्षीण आंख की तरह अप्रतिपाती है, और क्षीणशक्ति आंख की तरह प्रतिपाती भी हो सकता है। इसी तरह अनानुगामुक व प्रतिपाती-इन ca दोनों में क्या अन्तर है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया कि प्रतिपाती च्युत होता ही है, च्युत होकर भी . कभी अन्य देश में उत्पन्न भी हो सकता है- किन्तु ऐसा स्वरूप अनानुगामुक का नहीं होता। क्योंकि a वह अनानुगामुक तो अपने उत्पत्ति स्थान में ही कभी च्युत हो जाता है, या कभी नहीं भी होता, और ca च्युत होकर देशान्तर से पुनः उत्पत्तिस्थान में आए जीव के पुनः हो भी सकता है। C (हरिभद्रीय वृत्तिः) व्याख्यातं तीव्रमन्दद्वारम्। इदानीं प्रतिपातोत्पादद्वारं विवृण्वन् गाथाद्वयमाह नियुक्तिः) बाहिरलंभे भज्जो, दव्वे खित्ते य कालभावे य। उप्पा पडिवाओऽविय, तं उभयं एगसमएणं // 2 // अब्धितरलद्धीए, उ तदुभयं बत्थि एगसमएणं। उप्पा पडिवाओऽवि य, एगयरो एगसमएणं // 3 // [संस्कृतच्छायाः-बाह्यलाभे भाज्यो द्रव्ये क्षेत्रे च कालभावयोश्च ।उत्पाद-प्रतिपातौ अपि च तदुभयं C चैकसमयेन ॥आभ्यन्तरलब्धौ तदुभयं नास्ति एकसमयेन ।उत्पादः प्रतिपातोऽपि च एकतर एकसमयेन।] (वृत्ति-हिन्दी-) तीव्र मंद द्वार का कथन पूर्ण हुआ। अब प्रतिपात-उत्पाद द्वार का . & व्याख्यान करने हेतु (आगे) दो गाथाएं कह रहे हैं @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ 257 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 - cacakacance श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2000000 (62-63) (नियुक्ति-अर्थ-) बाह्य (अवधि) का लाभ होने की स्थिति में, द्रव्य, क्षेत्र, काल व . & भाव को विषय करने वाले अवधिज्ञान का उत्पाद व प्रतिपात (और तदुभयरूप भी) एक, समय में भजनीय है (विकल्प से इनका सद्भाव होता है) 162 // आभ्यन्तर (अवधि) की प्राप्ति होने पर तो उत्पाद व प्रतिपात -दोनों ही एक समय : में नहीं होते, एक समय में या तो उत्पाद होता है या फिर प्रतिपात ||63 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) - (प्रथमगाथाव्याख्या-) तत्र द्रष्टुर्बहिर्योऽवधिस्तस्यैव एकस्यां दिशि अनेकासु वा , विच्छिन्नः स बाह्यः, तस्य लाभो बाह्यलाभः, अवधिः प्रक्रमात् गम्यते / अस्मिन् बाह्यलाभे, सति-बाह्यावधिप्राप्तौ सत्यां भाज्यः' विकल्पनीयः कोऽसौ?-उत्पादः, प्रतिपातः, तदुभयगुणश्च / एकसमयेनेति सम्बन्धः।किंविषय इति?, आह-'द्रव्य' इति द्रव्यविषयः।एवं क्षेत्रकालभावविषय व इति।अपिचशब्दाः पूरणसमुच्चयार्थाः। अयं भावार्थः-एकस्मिन् समये द्रव्यादौ विषये बाह्यावधेः कदाचिद्रुत्पादो भवति कदाचिद् , & व्ययः, कदाचिदुभयम्, दावानलदृष्टान्तेन, यथा हिदावानलः खल्वेककाल एवैकतो दीप्यतेऽन्यतच ध्वंसत इति, तथा अवधिरपि एकदेशे जायते, अन्यत्र प्रच्यवत इति गाथार्थः // 12 // (वृत्ति-हिन्दी-) प्रथम (62वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है- प्रकरण-वश बाह्य से तात्पर्य है- बाह्य अवधि / बाह्य अवधि वह होता है जो द्रष्टा के बाहर रहता है, अर्थात् या तो , * वह (सब दिशाओं में न जानकर) किसी एक दिशा में जानता है, या अनेक दिशाओं में से & (किसी व्यवधान या बीच-बीच में रुकावट के कारण) विच्छिन्न रहता है। उस (बाह्य अवधि) . & के लाभ या (उसकी) प्राप्ति होने पर। भाज्य, भजनीय होता है अर्थात् विकल्प से कथनीय , होता है। कौन? एक समय में (अवधिज्ञान का) उत्पाद, प्रतिपात व उभयगुणात्मक अवस्थान। , वह किस (ज्ञेय) विषय से सम्बद्ध रहता है? उत्तर है- द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव को विषय, करने वाला होता है। अपि और च -ये शब्द पूरणार्थक (पादपूर्ति हेतु) तथा समुच्चय अर्थ के, वाचक हैं। भाव यह है- एक समय में द्रव्य (क्षेत्र, काल, भाव) आदि विषयों में बाह्यावधि का " कभी उत्पाद होता है तो कभी व्यय / यहां दावानल के दृष्टान्त द्वारा इसे इस प्रकार समझा जा - 258 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ne Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - RacecaReece 999999999999999 2233333333332-33333333333333333222323232223333 नियुक्ति गाथा-62-63 सकता है, जैसे दावानल एक ही समय में एक तरफ उद्दीप्त होता है तो दूसरे छोर पर वह बुझ ca रहा होता है, उसी प्रकार (बाह्य) अवधि भी किसी एक स्थान पर उत्पन्न होता है तो अन्य >> स्थान में च्युत (पतित, नष्ट) हो जाता है 162 // र विशेषार्थ बाह्यावधिज्ञान देशावधि ही है। टीकाकार के अनुसार बाह्यावधि के कई रूप होते हैं। या तो वह एक दिशा में ही स्थित पदार्थों को जानता है। या कुछ स्पर्द्धक विशुद्ध और कुछ अविशुद्ध -इस तरह मिश्रित होने से अनेक दिशाओं में जानता तो है, किन्तु बीच-बीच में व्यवधान आ जाता है, या क्षेत्रीय व्यवधान के कारण असम्बद्ध (टुकड़ों-टुकड़ों में) जानता है। या चारों ओर परिमण्डल आकार c का होता हुआ भी यह जीव अंगुल आदि की कुछ दूरी के व्यवधान के कारण पूर्णतया असम्बद्ध ca जानता है। (चूर्णिकार के मत में) जिस स्थान पर यह उत्पन्न होता है, उसी स्थान पर यह कुछ नहीं - स देख पाता। उस स्थान से कुछ हटकर, अंगुल, या अंगुल-पृथक्त्व (2 से नौ अंगुल तक) या संख्यात या असंख्यात योजन दूर जाकर देख पाता है। इसे ही बाह्य-लाभ कहा जाता है। उक्त विविध पक्षों में C कौन सा सही है, यह सब केवलिगम्य है- ऐसा मलधारी हेमचन्द्र ने विशेषावश्यक भाष्य (गा. 749) Cr की टीका में मत व्यक्त किया है। c . एक ही समय में उत्पाद व प्रतिपातादि-कभी तो यह बाह्यावधि एक समय में उत्पन्न होता , और प्रारम्भ में यह स्वल्प द्रव्य आदि को विषय करता हुआ उत्पन्न होता है और बढ़ता जाता है, & एवं क्रमशः अधिकाधिक द्रव्य-क्षेत्रादि को जानता है। कभी-कभी यह एक ही समय में उत्पन्न भी , a होता है, और पतनशील भी होता है, अर्थात् दोनों स्वरूप एक ही समय में उपलब्ध होते हैं। चूंकि यह देशावधि ज्ञान है, इसलिए एक दिशा में तिरछे रूप में संकुचित होता है तो आगे का भाग वृद्धियुक्त, होता है, या आगे से संकुचित हो रहा होता है तो तिरछे फैल रहा होता है। इसी तरह किसी एक दिशा में जितना अधिक उत्पाद होता है, उतना ही दूसरी दिशा में प्रतिपात (हास) होता है। यदि वलयाकार & रूप में समस्त दिशाओं में यह फैल रहा हो तो जिस एक समय में वलय-आकृति की वृद्धि हो रही हो तो उसी समय में वलय-संकोच हो रहा होता है- इत्यादि प्रकारों से एक समय में उत्पाद व प्रतिपात की संगति जाननी चाहिए। उपर्युक्त निरूपण से यह शंका भी समाप्त हो जाती है कि एक ही समय में उत्पाद व प्रतिपात कैसे सम्भव हैं। क्योंकि एक अंश में उत्पाद और (दूसरे) एक अंश में प्रतिपात यहां व माना गया है, अर्थात् विविध अंशों में यह संगत होता है, एक ही अंश में उत्पाद व प्रतिपात -ये दोनों नहीं प्रतिपादित किये जा रहे हैं। इसीलिए दावानल का दृष्टान्त यहां प्रस्तुत किया गया है। दावानल (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 259 388888888888888888888888888888888888888888 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -cacaca cace caca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0902020001 विशाल भूभाग को घेरता है, एक स्थान पर वह शुष्क तृण आदि ज्वलनशील सामग्री प्राप्त कर | & अधिक भयंकर हो जाता है तो दूसरे किसी छोर पर प्रतिरोधी निमित्त पाकर शांत भी हो जाता है - इत्यादिक भाव उक्त दृष्टान्त में अन्तर्गर्भित हैं। 222222333333333333333333333333333333333333333 (हरिभद्रीय वृत्तिः) (द्वितीयगाथाव्याख्या-) इह द्रष्टुः सर्वतः संबद्धः प्रदीपप्रभानिकरवदवधि& रभ्यन्तरोऽभिधीयते। तस्य लब्धिरभ्यन्तरलब्धिः, तस्यामभ्यन्तरलब्धौ तु सत्याम् , & अभ्यन्तरावधिप्राप्तावित्यर्थः।तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि?-तच्च तदुभयं च तदुभयम्, " << उत्पादप्रतिपातोभयं नास्त्येकसमयेन। 'द्रव्यादौ विषये' इत्यनुवर्तते, किंतर्हि?-उत्पादः प्रतिपातो . a वा एकतर एव एकसमयेन, अपिशब्दस्यैवकारार्थत्वात्। अयं भावार्थ:-प्रदीपस्येवोत्पाद एव प्रतिपातो वा एकसमयेन भवति, अभ्यन्तरावधेर्न , & तूभयम्, अप्रदेशावधित्वादेव, न ोकस्य एकपर्यायेणोत्पादव्ययौ युगपत्स्याताम्, " 5 अङ्गुल्याकुञ्चनप्रसारणवदिति गाथार्थः 63 // (वृत्ति-हिन्दी-) द्वितीय (63वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है- जो अवधिज्ञान, प्रदीप के प्रभा-पुञ्ज की तरह द्रष्टा (या ज्ञाता) के साथ सब ओर से सम्बद्ध रहे, वह आभ्यन्तर , अवधि ज्ञान होता है, उसकी प्राप्ति होने पर। 'तो' यह शब्द विशेषता व्यक्त कर रहा है। ca किसकी (क्या) विशेषता बता रहा है? यह बता रहा है कि उत्पाद व प्रतिपात -ये दोनों एक समय में नहीं ही होते हैं। द्रव्य आदि - विषय में इस पद की अनुवृत्ति होती है, और 'अपि' " a (भी) शब्द एव (ही) अर्थ को व्यक्त करता है, तब वाक्यार्थ क्या फलित होगा? (इस प्रकार & वाक्यार्थ होगा कि) उत्पाद या प्रतिपात -इनमें से कोई एक ही एक समय में सम्भव है। " - तात्पर्य यह है- जैसे एक समय में प्रदीप (की प्रभा) का या तो उत्पाद होगा या , प्रतिपात, इसी प्रकार अभ्यन्तरावधि ज्ञान के ये दोनों एक साथ नहीं होते, क्योंकि (वह ज्ञान) , c. देशावधि रूप नहीं होता, इसी कारण से। जो एक समग्र होता है, उसमें एक पर्याय से , ca उत्पाद व व्यय -ये दोनों युगपत् नहीं हाते, उसी प्रकार जैसे कि अंगुली का सिकुड़ना और 2 फैलना -एक साथ नहीं होते, क्योंकि या तो अंगुली सिकुड़ेगी या फैलेगी। यह गाथा का अर्थ >> पूर्ण हुआ 163 // (वृत्ति - 2600000000000000000000000000 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRoce හ හ හ හ හ හ හ හ හ - 333333333333333333333333333333333333333333333 / नियुक्ति-गाथा-64 (हरिभद्रीय वृत्तिः) प्रतिपादितं प्रतिपातोत्पादद्वारम्।इदानीं यदुक्तं संखेज्ज मणोदव्ये, भागो लोगपलियस्स' >> (42) इत्यादि, तत्र द्रव्यादित्रयस्य परस्परोपनिबन्ध उक्तः / इदानीं द्रव्यपर्याययोः प्रसङ्गत एवोत्पादप्रतिपाताधिकारे प्रतिपादयन्नाह (नियुक्तिः) दवाओ असंखिज्जे, संखेज्जे आवि पज्जवे लहइ। दो पज्जवे दुगुणिए, लहइय एगाउ दव्वाउ // 64 // [संस्कृतच्छायाः-द्रव्याद् असंख्येयान संख्येयान् चापि पर्यवान् लभते।द्वौ पर्यायौ द्विगुणितौ लभते & चैकस्माद् द्रव्यात् // (वृत्ति-हिन्दी-) अब तक प्रतिपात-उत्पाद द्वार का निरूपण हुआ।जो पूर्व में (गाथा44 42 में) कहा था कि 'मनोद्रव्य को देखता हुआ अवधिज्ञानी लोक का तथा पल्योपम काल का ce संख्यात भाग जानता है' इत्यादि, वहां द्रव्य, क्षेत्र व काल -इन तीनों का परस्पर-सम्बन्ध & बताया था। अब प्रासंगिक रूप से द्रव्य व पर्याय के ही उत्पाद व प्रतिपात -इन दो अधिकारों a (विषयों) को आगे प्रतिपादित करने जा रहे हैं (64) - (नियुक्ति-हिन्दी-) (अवधिधारी) एक द्रव्य की (उत्कृष्टतया) असंख्यात, या संख्यात, भी पर्यायों को देख सकता है, और (जघन्यतः) किसी एक द्रव्य के द्विगुणित दो (यानी चार) , पर्यायों को (ही) देख सकता है। R (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) परमाण्वादिद्रव्यमेकं पश्यन् द्रव्यात्सकाशात् तत्पर्यायान् . उत्कृष्टतोऽसंख्येयान् संख्येयांश्चापि मध्यमतो लभते प्राप्नोति पश्यतीत्यनर्थान्तरम्, तथा : जघन्यतस्तु द्वौ पर्यायौ द्विगुणितो 'लभते च पश्यति च एकस्माद् द्रव्यात्। एतदुक्तं भवतिवर्णगन्धरसस्पर्शानेव प्रतिद्रव्यं पश्यति, न त्वनन्तान्।सामान्यतस्तु द्रव्यानन्तत्वादेव अनन्तान् ? पश्यतीति गाथार्थः॥६४॥ (वृत्ति-हिन्दी-) परमाणु आदि एक द्रव्य को अवधिज्ञानी देखे तो, उस द्रव्य के * पर्यायों में उत्कृष्टतः (अधिक से अधिक) असंख्येय, और मध्यम यानी औसत रूप से 828ca@@ce@2882802008c000 261 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -232323222322232233333333222222222222222222222 ca cace cace ca ca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000| संख्यात पर्यायों को देख सकता है। देखता है, प्राप्त करता है, लाभ करता है -ये सब पर्याय - ही हैं। तथा जघन्यतया (कम से कम) द्विगुणित दो पर्यायों को, अर्थात् एक ही द्रव्य के (वर्ण, >> रस, गंध, स्पर्श -इन) चार पर्यायों को देखता है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक द्रव्य के वर्ण, , गंध, रस व स्पर्श को ही देख पाता है, अनन्त पर्यायों को नहीं देख पाता। सामान्यतया चूंकि द्रव्य अनन्त होते हैं, इस दृष्टि से तो अनन्त पर्यायों को भी देखता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 64 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) साम्प्रतं युगपज्ज्ञानदर्शनविभङ्गद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह . (नियुक्तिः) सागारमणागारा, ओहिविभंगा जहण्णगा तुल्ला। उवरिमगेवेज्जेसु उ, परेण ओही असंखिज्जो // 65 // [संस्कृतच्छायाः- साकार-अनाकारौ अवधिविभौ जघन्यको तुल्यौ।उपरिम-वेयकेषु परेण अवधिः a असंख्येयः॥ (वृत्ति-हिन्दी-) अब, ज्ञान व दर्शन के विभंग द्वार के अन्तर्गत निरूपण करने हेतु 4 (आगे की गाथा) कह रहे हैं (65) (नियुक्ति-हिन्दी) साकार अवधि, अनाकार अवधि और विभंगावधि -ये उपरिवर्ती / ग्रैवेयक देवों तक तो जघन्यतः (समान) होते हैं, ऊपर (के देवलोकों) में. (क्षेत्रापेक्षया) असंख्येय योजन (प्रमाण) अवधि ही होता है (विभङ्गावधि नहीं होता)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र यो विशेषग्राहकः स साकारः, सच ज्ञानमित्युच्यते।यः पुनः सामान्यग्राहकोऽवधिर्विभङ्गो वा सोऽनाकारः, स च दर्शनं गीयते।तत्र साकारानाकाराववधिविभङ्गो जघन्यको तुल्यावेव भवतः, सम्यग्दृष्टेरवधिः, मिथ्यादृष्टेस्तु स एव विभङ्गः। लोकपुरुषग्रीवासंस्थानीयानि अवेयकाणि विमानानि, उपरिमाणि च तानि ग्रैवेयकाणि चेति समासः।तुशब्दोऽपिशब्दस्यार्थे द्रष्टव्यः।भवनपतिदेवेभ्यः खल्वारभ्य उपरिमौवेयकेष्वपि 888888888888888888888888888888 - 26289c98c98c@m@cr(r)(r)(r)(r)(r). Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CARRRRRRece 99000999999999 2222333333333333333333333333330 नियुक्ति-गाथा-65 अयमेव न्यायौ यदुत-साकारानाकारौ अवधिविभङ्गौ जघन्यादारभ्य तुल्याविति, न तूत्कृष्टौ। a ततः परेण' इति, परतः अवधिरेव भवति, मिथ्यादृष्टीनां तत्रोपपाताभावात् / स च क्षेत्रतः . असंख्येयो भवति, योजनापेक्षयेति गाथार्थः // 65 // a (वृत्ति-हिन्दी) जो (द्रव्य के) विशेष रूप को ग्रहण करता है, वह साकार (उपयोग) होता है, जो 'ज्ञान' इस नाम से कहा जाता है। किन्तु जो (द्रव्य के) सामान्य रूप को ग्रहण , & करता है, वह चाहे अवधि हो या विभंग (मिथ्यात्वयुक्त अवधि) हो, तो वह (अवधि) दर्शन : कहा जाता है। इनमें साकार व अनाकार तथा जघन्य अवधि या विभंग -ये तुल्य ही होते हैं, . क्योंकि सम्यग्दृष्टि का जो 'अवधि' होता है, वही मिथ्यादृष्टि का 'विभंग' होता है। लोकपुरुष की ग्रीवा के पास जो (देवलोक) स्थित हैं, वे अवेयक विमान हैं। वे और . उनमें (ही) जो ऊपर वाले हैं, अतः उपरिम व ग्रैवेयक -इन दोनों का समास हुआ। 'तो' / व शब्द का यहां 'भी' अर्थ दृष्टिगोचर होता है। (अतः अर्थ होगा-) भवनपति देवों से लेकर " * उपरिवर्ती ग्रैवेयकं तक में भी यही नीति (रीति) जाननी चाहिए कि साकार हो या अनाकार, 2 अवधि हो या विभंग, जघन्य से लेकर (उत्कृष्ट तक) तुल्य ही हैं, (परस्पर) उत्कृष्ट नहीं होते। & इनसे आगे (वयकों से आगे, अनुत्तर विमानों में), 'अवधि' ही होता है, विभंग नहीं, . क्योंकि वहां मिथ्यादृष्टि का उपपात (जन्म) नहीं होता। वह 'अवधि' भी क्षेत्र की दृष्टि से / योजनों की दृष्टि से असंख्येय होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 165 // ca विशेषार्थ मिथ्यादृष्टि के अवधिज्ञान को ही 'विभङ्गज्ञान' कहा जाता है। इन दोनों के दो-दो भेद हैं- 2 साकार व अनाकार। अनाकार अवधि को अवधि-दर्शन, और साकार अवधि को अवधि ज्ञान कहा जाता है। अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, विभङ्गज्ञान व विभङ्गदर्शन -ये चारों भवनपति देवों से लेकर ऊपर & के ग्रैवेयक विमानों तक होते हैं, और जघन्य से लेकर यथोचित उत्कृष्ट रूप वाले तक होते हैं, किन्तु " ये सभी क्षेत्र आदि की दृष्टि से समान ही होते हैं। तात्पर्य यह है कि जो जघन्य तुल्य स्थिति वाले देव . होते हैं, उनके जघन्य अवधि ज्ञान-दर्शन तथा विभङ्ग ज्ञान-दर्शन-क्षेत्र आदि विषय के ग्रहण की दृष्टि से से -परस्पर-तुल्य होते हैं। इसी तरह मध्यम तुल्य स्थिति वाले जो देव हैं, उनके मध्यम अवधि- 1 ce विभंग-ज्ञान-दर्शन भी उसी तरह परस्पर तुल्य होते हैं। इसी रीति से उत्कृष्ट-तुल्य स्थिति वाले जो देव " होते हैं, उनके उत्कृष्ट अवधि-विभंगादि भी पूर्वोक्त रीति से परस्पर-तुल्य होते हैं। चूंकि अनुत्तर धिमानों में मिथ्यादृष्टि नहीं उत्पन्न होते, इसलिए वहां अवधि (दर्शन-ज्ञान) ही होता है, विभङ्ग (ज्ञान - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 263 888888888888888888888888888888888888888888888 3333333333333 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2222222222222323 -caca ca cace cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 09020900900दर्शन) नहीं। अनुत्तर देवों के अवधिज्ञान का विषय क्षेत्र की दृष्टि से तथा काल की दृष्टि से भी असंख्यात होता है, किन्तु द्रव्य व भाव की दृष्टि से अनन्त होता है। किन्तु उपर्युक्त देवों की तुलना में तिर्यञ्च व मनुष्यों में अवधि की तुल्यरूपता न होकर विचित्ररूपता होती है, क्योंकि तुल्यस्थिति वाले on मनुष्यों व तिर्यञ्चों के क्षयोपशम की तीव्रता-मंदता के कारण, क्षेत्र व काल के विषय में अवधि-ज्ञान- ca दर्शन या विभङ्गज्ञान-दर्शन -इनकी विचित्रता होती है, समानता नहीं होती -यह ज्ञातव्य है। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीं देशद्वारावयवार्थं प्रचिकटयिषुरिदमाह नियुक्तिः) णेरइयदेवतित्थंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा हुंति। पासंति सबओ खलु, सेसा देसेण पासंति // 66 // [संस्कृतछायाः-नैरयिक-देवतीयकराश्च अवधेः अबाह्या भवन्ति / पश्यन्ति सर्वतः खलु शेषा देशेन / पश्यन्ति // ] (वृत्ति-हिन्दी-) अब 'देश द्वार' के अन्तर्गत अवधिज्ञान का निरूपण करने की दृष्टि से (आगे की गाथा) कह रहे हैं (66) (नियुक्ति-हिन्दी-) नारकी, देव व तीर्थंकर अबाह्य अवधिज्ञान से युक्त होते हैं। वे सर्वतः -सर्वदेशों से देखते हैं, किन्तु शेष (मनुष्य व तिर्यंच) एकदेश से ही देखते हैं। / (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) 'नारकाः' प्राग्निरूपितशब्दार्थाः ।देवा अपि।तीर्थकरणशीलास्तीर्थकराः। . & नारकाश्च देवाश्च तीर्थकराश्चेति विग्रहः।चशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, अस्य च व्यवहितः / & सम्बन्ध इति दर्शयिष्यामः। एते नारकादयः 'अवधेः' अवधिज्ञानस्य न बाह्या अबाह्या भवन्ति। / 6 इदमत्र हृदयम्- अवध्युपलब्धस्य क्षेत्रस्यान्तर्वर्तन्ते, सर्वतोऽवभासकत्वात्, प्रदीपवत् / / 4 ततश्चार्थादबाह्यावधय एव भवन्ति, नैषां बाह्यावधिर्भवतीत्यर्थः।तथा पश्यन्ति 'सर्वतः' सर्वासु ? दिक्षु विदिक्षु च। खलुशब्दोऽप्येवकारार्थः, स चावधारण एव, सर्वास्वेव दिग्विदिदिवति, सर्वत " एवेत्यर्थः। 8888888888888888888888888888888888888 222222222222222222 - 264 (r) (r)cR@ @R@ @Ren@R@ @90&cr908 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ caceenacance 999999000000 - &&&&&&&&&&&&& नियुक्ति-गाथा-66 (वृत्ति-हिन्दी-) नारक, देव व तीर्थंकर -इन तीनों का यह समस्त पद प्रयुक्त है। c& इनमें 'नारक' व 'देव' शब्द -इनके अर्थ पहले बताये जा चुके हैं। तीर्थ-निर्माण करने वाले , तीर्थंकर होते हैं। 'च' शब्द यहां 'एव' (ही) अर्थ में प्रयुक्त है, (अतः) वह अवधारण करता है , 4 और उसका (नारकी आदि के साथ न होकर) आगे के पद (अबाह्य) के साथ सम्बन्ध है. जिसे अभी (यहीं) स्पष्ट करेंगे। ये नारक आदि अवधिज्ञान से बाह्य नहीं होते, 'अबाह्य' होते " ब हैं। तात्पर्य यह है- अवधिज्ञान के उपलब्ध क्षेत्र के अन्तर्गत ही वे होते हैं, क्योंकि उनका " a ज्ञान प्रदीप की तरह सब ओर अवभासक (प्रकाशक) होता है, इसलिए वस्तुतः 'अबाह्य अवधि' वाले ही होते हैं, इनका अवधिज्ञान बाह्य नहीं होता है -यह भाव है। और वे सर्वतः . 6 देखते हैं, अर्थात् सभी दिशाओं, विदिशाओं में भी। यहां ‘खलु' शब्द 'एव' (ही) अर्थ को व्यक्त करता है, वह 'अवधारण में प्रयुक्त हुआ है, अतः अर्थ फलित होगा- सभी दिशाओं में और 2 सभी विदिशाओं में, सर्वत्र ही (देखते हैं)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-अवधेरबाह्या भवन्तीत्यस्मादेव पश्यन्ति सर्वत इत्यस्य सिद्धत्वात् 'पश्यन्ति सर्वतः' इत्येतदतिरिच्यते इति।अत्रोच्यते, नैतदेवम्, अवधेरबाह्यत्वे सत्यपि अभ्यन्तरावधित्वे , सत्यपीतिभावः। न सर्वे सर्वतः पश्यन्ति, दिगन्तरालादर्शनात्, अवधेर्विचित्रत्वाद, अतो . नातिरिच्यत इति। शेषाः' तिर्यनरा 'देशेन' इत्येकदेशेन पश्यन्ति।अष्टतोऽवधारणविधिः / शेषा एव देशतः पश्यन्ति, न तु शेषा देशत एवेति गाथार्थः॥ . (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) 'अवधि से अबाह्य रहते हैं' इतना कहने से ही यह अर्थ - व्यक्त हो गया कि सभी ओर से देखते हैं, अतः 'सभी ओर से देखते हैं। यह कहना अतिरिक्त (अनावश्यक) है। समाधान यह है- ऐसी बात नहीं। अवधि (के क्षेत्र में अर्थात् उसी के). मध्य रहते हुए भी, सभी (ज्ञानी) सभी ओर नहीं देखते, क्योंकि दिशाओं के अन्तराल को 2 है देख नहीं पाते, क्योंकि अवधि का स्वरूप विचित्र है, इसलिए 'सभी ओर देखते हैं' -यह " कथन अतिरिक्त (अनावश्यक) नहीं है। (इसके विपरीत) शेष यानी तिर्यञ्च व मनुष्य 'देश' , यानी एकदेश (एक भाग) से देखते हैं। यहां ही अवधारण' अभीष्ट पदार्थ के साथ किया . जाएगा, अर्थात् उसका प्रयोग इस प्रकार होगा-शेष (मनुष्य व तिर्यञ्च) ही देश से, एकदेश : & से देखते हैं। ऐसा अर्थ (उचित) नहीं है कि शेष (जीव) एकदेश से ही देखते हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ। __ @PROPOR@@9889(r)(r)(r)(r) 2650 33333333332 333333333333333333333333333333333 &&&&& &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- 7.1777777777733333 383222233333333333333333333333333333333333333 cacaca cace cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000(हरिभद्रीय वृत्तिः) अथवा अन्यथा व्याख्यायते-नारकदेवतीर्थंकरा अवधेरबाह्या भवन्तीति।किमुक्तं भवति?-नियतावधय एव भवन्ति, नियमेनैषामवधिर्भवतीत्यर्थः ।अतः संशयः-किम् ते तेन , सर्वतः पश्यन्ति आहोश्विदेशत इति, अतस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह- पश्यन्ति सर्वत एव।आहयद्येवं ‘पश्यन्ति सर्वतः' इत्येतावदेवास्तु, अवधेरबाह्या भवन्तीति नियतावधित्वख्यापनार्थमनर्थकम्।न, नियतावधित्वस्यैव विशेषणार्थत्वादस्य, अवधेरबाह्या भवन्तीति सदाऽवधिज्ञानवन्तो भवन्तीतिज्ञापनार्थत्वाददुष्टम्। (वृत्ति-हिन्दी-) अथवा गाथा की व्याख्या दूसरी तरह से भी की जाती है- नारक, & देव व तीर्थंकर अवधिज्ञान से अबाह्य होते हैं। तात्पर्य क्या है? वे नियत अवधि वाले ही होते " & हैं, अर्थात् नियमतः ही उनके अवधिज्ञान होता है। इसलिए संशय हो जाता है कि क्या वे उस . * 'अवधि' से सब ओर देखते हैं या एकदेश से? इसलिए इस संशय को दूर करने हेतु कहासभी ओर से देखते हैं। (शंका-) यदि ऐसी बात है तो फिर 'सर्व ओर से देखते हैं। इतना ही , रहने दें, 'अवधि से अबाह्य रहते हैं' -यह कथन जो अवधि के नियत होने के लिए किया / गया है, वह अनर्थक हो जाता है। (उत्तर-) ऐसी बात नहीं है (वह कथन निरर्थक नहीं है), . . क्योंकि अवधिज्ञान के नियत होने का जो कथन है, उसी को विशेषित करने के लिए यह कहा गया है। (तात्पर्य यह है-) 'अवधि से बाह्य नहीं होते हैं', अर्थात् वे 'सदा अवधिज्ञान से - & युक्त रहते हैं' -इस तथ्य को ज्ञापित करने हेतु ही कहा गया है- 'वे सभी ओर से देखते हैं', . a अतः वह कथन निर्दोष है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह- ननु नारकदेवानां भवप्रत्ययावधिग्रहणात् तीर्थकृतामपि प्रसिद्धतरपारभविकावधिसमन्वागमादेव नियतावधित्वं सिद्धमिति।अत्रोच्यते, नियतावधित्वे सिद्धेऽपि न " व सर्वकालावस्थायित्वसिद्धिरित्यतस्तत्प्रदर्शनार्थमवधेरबाह्या भवन्तीति सदाऽवधिज्ञानवन्तो - & भवन्तीति ज्ञापनार्यत्वाददुष्टम् आह-यद्येवं तीर्थकृतां सर्वकालावस्थायित्वं विरुध्यत इति, न। तेषां के वलोत्पत्तावपि वस्तुतस्तत्परिच्छेदस्य निष्ठ त्वात्, के वलेन सुतरां, संपूर्णानन्तधर्मकवस्तुपरिछित्तेः, छद्मस्थकालस्य वा विवक्षितत्वाददोष इति।अलं विस्तरेण, , शेषं पूर्ववदिति गाथार्थः // 66 // - 266 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@@necen@ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Reennence 9009002020900 नियुक्ति-गाथा-66 (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) नारकी देवों को तो जन्मजात अवधिज्ञान होता ही है, & तीर्थंकर को भी प्रसिद्ध पूर्वजन्म की अवधि साथ ही प्राप्त रहती है, अतः स्वतः ही उनके ज्ञान , & का नियत होना सिद्ध है (तब फिर पृथक् रूप से क्यों कहा जा रहा है?) इसका उत्तर दिया है जा रहा है- उनके अवधिज्ञान के नियत होने पर भी यह सिद्ध नहीं होता है कि वह ज्ञान, 8 समस्त कालों में रहता ही है, इसलिए उसको बताने के लिए यह कहा गया है कि वे अवधि ब से अबाह्य ही रहते हैं, अर्थात् वे सर्वदा अवधिज्ञान के धारक होते हैं। (शंका-) यदि ऐसी बात है है तो तीर्थंकरों को तो अवधिज्ञान सर्वकालस्थायी होता नहीं, अतः आपका उक्त कथन विरुद्ध , होता है? उत्तर- ऐसी बात नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान की उत्पत्ति होने पर भी, उसमें से & अवधिज्ञान अन्तर्निहित ही रहता है, मात्र (अन्तर यह हो जाता है कि) समस्त अनन्तधर्मयुक्त , वस्तु ज्ञेय हो जाती है (और उसी ज्ञान में अवधि का ज्ञेय 'रूपी द्रव्य' तो समाहित है ही)। C दूसरी बात यह है कि तीर्थंकरों के जो अवधिज्ञान का सदा स्थायी रहना कहा गया है, वह उनके छद्मस्थ काल की दृष्टि से कहा गया है, इसलिए कोई दोष नहीं रह जाता। अधिक कुछ और विस्तार की अपेक्षा नहीं, शेष पूर्ववत् ही। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 66 // विशेषार्थA. प्रस्तुत निरूपण का आधार 'प्रज्ञापना' (का 33वां पद) है। वहां आभ्यन्तरावधि और बाह्य अवधि के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है, जिसका सार इस प्रकार है आभ्यन्तरावधि और बाह्यावधि-जो अवधिज्ञान सभी दिशाओं में अपने प्रकाश्य क्षेत्र को प्रकाशित करता है तथा अवधिज्ञानी जिस अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र के भीतर ही रहता है, वह a आभ्यन्तरावधि कहलाता है। इससे जो विपरीत हो, वह बाह्यअवधि कहलाता है। बाह्यअवधि अन्तगत और मध्यगत के भेद से दो प्रकार है। जो अन्तगत हो अर्थात् आत्मप्रदेशों के पर्यन्त भाग में स्थित गत हो, वह अन्तगत अवधि कहलाता है। कोई अवधिज्ञान जब उत्पन्न होता है, तब वह स्पर्द्धक के " रूप में उत्पन्न होता है, अर्थात् बाहर निकलने वाली दीपक-प्रभा के समान नियत विच्छेद-विशेषरूप होता है। वे स्पर्द्धक एक जीव के संख्यात और असंख्यात तथा नाना प्रकार के होते हैं। उनमें से / पर्यन्तवर्ती आत्मप्रदेशों में सामने, पीछे, अधोभाग या ऊपरी भाग में उत्पन्न होता हुआ अवधिज्ञान , ce आत्मा के पर्यन्त में स्थित हो जाता है, इस कारण वह अन्तगत कहलाता है। अथवा औदारिक शरीर >> के अन्त में जो गत-स्थित हो, वह अन्तगत कहलाता है, क्योंकि वह औदारिक शरीर की अपेक्षा से . कदाचित् एक दिशा में जानता है। अथवा समस्त आत्मप्रदेशों में क्षयोपशम होने पर भी जो 33333333333333333333322222222233333333333333 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 267 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 -Racecaceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 00000000 अवधिज्ञान औदारिक शरीर के अन्त में यानी किसी एक दिशा से जाना जाता है, वह अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है। अन्तगत अवधि तीन प्रकार का होता है- (1) पुरतः, (2) पृष्ठतः, (3) पार्श्वतः। . प्रस्तुत गाथा में नारक, देव और तीर्थंकरों के मध्यगत अवधिज्ञान का सद्भाव बताया गया / ce है। नारकियों व देवों को तो जन्मजात अवधिज्ञान होता ही है। किन्तु प्रस्तुत गाथा यह भी बताती है, उनका वह ज्ञान सर्वकालस्थायी होता है, बीच में कभी नष्ट नहीं होता, और वह चारों दिशाओं, चारों विदिशाओं, वस्तुतः सभी तरफ से देखता है। इसे और भी स्पष्ट करते हुए व्याख्याकार ने कहा है कि & उनका अवधिज्ञान 'मध्यगत' होता है। अवधिज्ञानी (नारकी आदि) अपने अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र के मध्य में स्थित रहते हैं, यही कारण है कि वे ज्ञानी सभी ओर फैली ज्ञान-रश्मियों से देखते हैं। " & तीर्थंकरों का भी अवधिज्ञान, पूर्वजन्म से साथ आता है, वे जन्म से ही तीन ज्ञान के धारक होते ही हैं, . और वह अवधिज्ञान केवलज्ञान से पूर्व तक रहता ही है। चूंकि केवलज्ञान क्षायिक होता है, और , अवधिज्ञान क्षायोपशमिक होता है। क्षायिक ज्ञान होते ही, क्षायोपशमिक ज्ञान स्वतः विलीन हो जाते ल हैं। अतः तीर्थंकरों का अवधिज्ञान जो सर्वकालस्थायी कहा गया है, उसका अर्थ है- छद्मस्थ (असर्वज्ञ) काल में कभी नष्ट नहीं होता। (हरिभद्रीय वृत्तिः) एवं देशद्वारावयवार्थमभिधायेदानी क्षेत्रद्वारं विवुवूर्षुराह _ नियुक्तिः) संखिज्जमसंखिज्जो, पुरिसमबाहाइ खित्तओ ओही। संबद्धमसंबद्धो, लोगमलोगे य संबद्धो // 67 // . [संस्कृतच्छायाः-संख्येयः असंख्येयः पुरुष-अबाधया क्षेत्रतोऽवधिः सम्बद्ध असम्बद्धः लौके अलोके च सम्बद्धः॥] ___(वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, देशद्वार के अन्तर्गत अवधि-पदार्थ का निरूपण करने . के बाद, अब क्षेत्र द्वार को स्पष्ट करने हेतु (आगे की गाथा) कह रहे हैं -888888888888888888888888888888888888888888888.. (67) (नियुक्ति-हिन्दी-) क्षेत्र की दृष्टि से अवधिज्ञान सम्बद्ध और असम्बद्ध (-ये दो प्रकार का होता है। ये दोनों ही (क्षेत्र की दृष्टि से) संख्येय व असंख्येय (योजन प्रमाण) होते , हैं। यह लोक और अलोक में (पुरुष से) सम्बद्ध रहता है। - 268 (r)(r)(r)08ck@necR898809000@R@ne . Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ හ හ ග ග ග ග ග ග ග * acanARRORam नियुक्ति गाथा-67 | (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र संबद्धश्चासंबद्धश्च अवधिर्भवति।किमुक्तं भवति? -कश्चिद् द्रष्टरि & संबद्धो भवति, प्रदीपप्रभावत्।कश्चिच्च असंबद्धो भवति, विप्रकृष्टतमोव्याकुलदेशप्रदीपदर्शनवत्। & तत्र यस्तावदसंबद्धः असौ संख्येयः असंख्येयो वा।पूर्णः सुखदुःखानामिति पुरुषः, पुरि शयनाद्वा पुरुष इति।पुरुषादबाधा, अबाधनमबाधा अन्तरालमित्यर्थः। पुरुषस्याबाधा पुरुषाबाधा, तया पुरुषाबाधया हेतुभूतया सह वा क्षेत्रतः अवधिर्भवति।अयं भावार्थः- असंबद्धोऽवधिः क्षेत्रतः संख्येयो भवति असंख्येयो वा, योजनापेक्षयेति, एवं संबद्धोऽपिाएवमवधिः स्वतन्त्रः पर्यालोचितः। (वृत्ति-हिन्दी-) अवधिज्ञान सम्बद्ध भी होता है और असम्बद्ध भी। क्या तात्पर्य है? (तात्पर्य यह है कि) कोई तो अवधिज्ञान अपने द्रष्टा (धारक) में दीपक की प्रभा की तरह है जुड़ा हुआ-सम्बद्ध होता है, और कोई दूर तक फैले हुए अन्धकार से भरे प्रदेश में (किसी " जगह) रखे हुए प्रदीप की तरह असम्बद्ध होता है। इनमें जो असम्बद्ध होता है, वह या तो " संख्येय (योजन प्रमाण) होता है या असंख्येय / पुरुष का अर्थ है- जो सुख-दुःखों से पूर्ण है, या पुर (देह) में शयन (निवास) करता है। पुरुष से होने वाली अबाधा यानी अन्तराल, उस , पुरुषकृत अन्तराल के सहित होने से वह अवधिज्ञान (असम्बद्ध होता है और) क्षेत्र की दृष्टि , से यहां निरूपित है। भावार्थ यह है कि असम्बद्ध अवधिज्ञान क्षेत्र की दृष्टि से योजन की , ca अपेक्षा से संख्येय होता है या असंख्येय, और इसी प्रकार सम्बद्ध अवधिज्ञान को भी " ca समझना चाहिए। इस प्रकार स्वतन्त्र रूप से अवधिज्ञान की पर्यालोचना की गई। (हरिभद्रीय वृत्तिः) / इदानीमबाधया चिन्त्यते- अत्र चतुर्भङ्गिका, तत्र संख्येयमन्तरं संख्येयोऽवधिः, ल संख्येयमन्तरम् असंख्येयोऽवधिः, असंख्येयमन्तरं संख्येयोऽवधिः, असंख्येयमन्तरca मसंख्येयोऽवधिरिति चत्वारोऽपि विकल्पाः संभवन्ति, संबद्धे तु विकल्पाभावः। तथा लोके' " चतुर्दशरज्ज्वात्मके पञ्चास्तिकायवति। 'अलोकेच' केवलाकाशास्तिकाये।चशब्दः समुच्चयार्थः। / लोके अलोके च संबद्धः कथम्? -पुरुषे संबद्धो लोके च-लोकप्रमाणावधिः, पुरुषे, न . लोके-देशतोऽभ्यन्तरावधिः।न पुरुषे, लोके-शून्यो भङ्गः ।न लोके न पुरुषे- बाह्यावधिः। . (वृत्ति-हिन्दी-) अब 'अबाधा' यानी 'अन्तराल' को लेकर विचार किया जा रहा है। : / यहां एक चतुर्भङ्गी बनती है। जैसे- (1) संख्येय (योजन) अन्तराल के बाद संख्येय (योजन) 888888888 88& 22322222222 2333332 - 80@ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ 269 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - 333333333333333333333333333333333333333333333 - caca Rcaca caca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 'अवधि'-क्षेत्र (2) संख्येय अन्तराल के बाद असंख्येय ‘अवधि' क्षेत्र, (3) असंख्येय अन्तराल के बाद संख्येय ‘अवधि' क्षेत्र और (4) असंख्येय अन्तराल के बाद संख्येय 'अवधि' क्षेत्र - . ये चार विकल्प संभावित हैं। सम्बद्ध 'अवधि' में तो कोई (वैसा) विकल्प नहीं बनता (क्योंकि , वहां अन्तराल होता ही नहीं)। और लोक यानी चौदह राजू प्रमाण (विस्तृत) पञ्चास्तिकायमय , लोक में / अलोक में, यानी मात्र आकाशास्तिकाय रूप क्षेत्र में। 'च' शब्द समुच्चय-वाचक है, . ca अतः वाक्यार्थ होगा- लोक में और अलोक में सम्बद्ध / यह किस तरह है? (उत्तर-) (एक " & विकल्प यह है-) (1) पुरुष में सम्बद्ध है और लोक में भी, अर्थात् ऐसा अवधिज्ञान " 'लोकप्रमाण' अवधि होता है। (2) पुरुष से सम्बद्ध होता है, लोक में नहीं, ऐसा 'अवधि' देश - रूप से (आंशिक रूप में) अभ्यन्तर-अवधि (अबाह्य) है। (3) पुरुष में सम्बद्ध नहीं, लोक में : सम्बद्ध / यह भङ्ग शून्य है, सम्भव नहीं है। (5) न ही पुरुष से और न ही लोक में सम्बद्ध। ऐसा अवधि ‘बाह्यावधि' होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) इयं भावना-लोकाभ्यन्तरः पुरुषे संबद्धोऽसंबद्धो वा भवति, यस्तु लोके संबद्धः स . नियमात्पुरुषे संबद्ध इति, अतो भङ्गचतुष्टयं तृतीयभङ्गशून्यमिति, अलोकसंबद्धस्त्वात्मसंबद्ध, 6 एव भवतीति गाथार्थः // 67 // (वृत्ति-हिन्दी-) भाव यह है-लोक-अबाह्य अवधिज्ञान पुरुष में सम्बद्ध भी होता है , & या असम्बद्ध भी। जो लोक से सम्बद्ध होता है, वह नियमतः पुरुष से सम्बद्ध होता है। : इसलिए चारों भङ्गों में तीसरा भङ्ग नहीं होता। अलोक से सम्बद्ध भी ‘अवधि' आत्मसम्बद्ध ही होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 67 // विशेषार्थ यहां सम्बद्ध व असम्बद्ध अवधिज्ञान का निरूपण है।लोकाभ्यन्तर व्यक्ति के दोनों प्रकार के अवधिज्ञान होते हैं-सम्बद्ध और असम्बद्ध / उत्पत्ति-क्षेत्र से लेकर निरन्तर व्यक्ति के साथ रहने वाला " 'सम्बद्ध' होता है और कुछ अन्तराल के साथ रहने वाला 'असम्बद्ध' होता है। जैसे बहुत दूर कोई दीपक रखा हुआ हो, ऐसी स्थिति में ज्ञाता उस दीपक के प्रकाश में दूर की कुछ वस्तुएं तो देख पाता , है, किन्तु बीच के अन्तराल को नहीं देख पाता अर्थात् ज्ञाता स्वयं भी उस अन्तराल में समाविष्ट है। " यह अन्तराल संख्यात योजन भी हो सकता है और असंख्यात योजन भी / उस अवधि का क्षेत्र भी संख्यात योजन हो सकता है और असंख्यात भी। - 270 @@ca(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)0898800 .. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRRR - 22222222222222223333333333333333333333333333. नियुक्ति-गाथा-68 . लोक व अलोक से सम्बद्ध -यहां 'लोक' का अर्थ लोकान्त गृहीत है। यहां अवधिज्ञान के ca तीन विकल्प मान्य किये गये हैं- (1) वह लोकप्रमाण अवधिज्ञान पुरुष से भी जुड़ा होता है और 2 & लोकान्त से भी। (2) लोक के एकंदेश में रहने वाला 'अभ्यन्तरावधि', जो पुरुष से तो सम्बद्ध है, . किन्तु लोकान्त से नहीं। (3) बाह्य अवधि, जो न तो लोकान्त से सम्बद्ध होता है और न पुरुष से। चौथा भंग यह है जो मान्य या सम्भव नहीं है- वह पुरुष से सम्बद्ध नहीं है और लोकान्त से सम्बद्ध है। यह असम्भव इसलिए है कि लोकान्त से सम्बद्ध होने वाला नियमतः पुरुष से सम्बद्ध ही होगा। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीं गतिद्वारावयवार्थप्रतिपिपादयिषयाह (नियुक्तिः) गइनेरइयाईया, हिट्ठा जह वण्णिया तहेव इहं। इही एसा वण्णिज्जइत्ति तो सेसियाओऽवि // 68 // [संस्कृतच्छायाः- गति-नैरयिकादिका अघस्ताद् यथा वर्णितास्तथैवेह।ऋद्धिरेषा वर्ण्यते इति ततः / शेषिका अपि॥] . (वृत्ति-हिन्दी-) अब, गति-द्वार के अन्तर्गत अवधिज्ञान का प्रतिपादन करने के , लिए (आगे की गाथा) कह रहे हैं (68) (नियुक्ति-हिन्दी-) नैरयिक गति आदि (द्वारों) का जिस प्रकार पहले (मति, श्रुत - निरूपण के प्रसंग में) निरूपण किया गया था, उसी प्रकार यहां (अवधिज्ञान में) भी करणीय है। इन 'अवधि' ज्ञान को ऋद्धि (भी) कहा जाता है, इसलिए उसका तथा शेष (अन्याय) ऋद्धियों का भी वर्णन किया जा रहा है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र गत्युपलक्षिताः सर्व एवेन्द्रियादयो द्वारविशेषाः परिगृह्यन्ते।ततश्च ये गत्यादयः सत्पदप्ररूपणाविधयः द्रव्यप्रमाणादयश्च, ते यथा अधस्तान्मतिश्रुतयोः 'वर्णिताः' / उपदिष्टाः, तथैवेहापि द्रष्टव्या इति। विशेषस्त्वयम्-इह ये मतिं प्रतिपद्यन्ते तेऽवधिमपि, , किन्त्ववेदकास्तथा अकषायिणोऽप्यवधेः प्रतिपद्यमानका भवन्ति, क्षपकश्रेण्यन्तर्गताः सन्त - 888888888888888888888888888888888888888888888 - (r)(r)(r)(r)(r)(r)cr(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 271 ) Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3333333 22333333333333333333333333333333333333 -RAM CR cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 इति।तथा मनःपर्यायज्ञानिनश्च तथा अनाहारका अपर्याप्तकाश्च पूर्वसम्यग्दृष्टयः सुरनारका ca अप्यपान्तरालगत्यादाविति, शक्तिमधिकृत्येति भावार्थः। पूर्वप्रतिपन्नास्तु त एव ये मतेः / विकलेन्द्रियासंज्ञिशून्या इति।उक्तमवधिज्ञानमिति। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) 'गति' शब्द तो उपलक्षण है, अतः अतः गतिशब्द से , गृहीत हैं- इन्द्रिय आदि सभी प्ररूपणा के विशेष द्वार। इसलिए (अर्थ होगा-) जो भी गति , आदि तथा सत्पद-प्ररूपणा की विधि द्रव्य-प्रमाण आदि, जिस रूप में पीछे मति व श्रुतज्ञान के प्रसंग में वर्णित अर्थात् उपदिष्ट हुए हैं, उसी रूप में यहां (अवधिज्ञान में) भी विचारणायोग्य , ल हैं। विशेष ज्ञातव्य यह है- वहां जो ‘मति' को प्राप्त करने वाले कहे गए हैं, वे ही अवधि के 2 & प्राप्तकर्ता भी हैं। किन्तु (विशेष बात यह है कि उनके अतिरिक्त भी अवधि के कुछ प्रतिपद्यमान .. होते हैं, जैसे कि) अवेदक ('वेद' से अतीत) और अकषायी भी, क्षपकश्रेणी में रहते हुए . अवधि के 'प्रतिपद्यमान' होते हैं। इसी तरह मनःपर्ययज्ञानी, तथा अनाहारक, अपर्याप्तक, : पूर्वसम्यग्दृष्टि देव व नारक भी अन्तराल गति आदि में शक्ति की दृष्टि से अवधि के प्रतिपद्यमान' : होते हैं- यह तात्पर्य है। मतिज्ञान के जिन्हें पूर्वप्रतिपन्न कहा गया था, उनमें विकलेन्द्रिय & असंज्ञी जीवों को छोड़ कर, (शेष) सभी अवधि के भी पूर्वप्रतिपन्न होते हैं। इस प्रकार अवधिज्ञान का निरूपण हो गया। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तत्र अवधिज्ञानी उत्कृष्ट तो द्रव्यतः सर्वमूर्त्तद्रव्याणि जानाति पश्यति, , क्षेत्रतस्त्वादेशेनासंख्येयं क्षेत्रम्, एवं कालमपि, भावतस्त्वनन्तान् भावानिति।तत्र ऋद्धिविशेष : a 'एषः' अवधिः 'व्यावर्ण्यते' गीयते, अतः तत्सामान्यात् शेषर्द्धयोऽपि वर्ण्यन्त इति गाथार्थः // 8 // ___ (वृत्ति-हिन्दी-) अवधिज्ञानी उत्कृष्टतया द्रव्य की अपेक्षा से समस्त मूर्त द्रव्यों को। जानता-देखता है, क्षेत्र की दृष्टि से असंख्येय क्षेत्र को जानता-देखता है, इसी तरह काल को भी, तथा भाव की दृष्टि से अनन्त भावों (पर्यायों) को जानता-देखता है। यहां इस अवधि को & ऋद्धिविशेष (के रूप में) कहा जाता है, वर्णित या उद्घोषित किया जाता है, इसलिए , cसामान्यतया अन्य ऋद्धियों की भी निरूपणा की जा रही है- यह गाथा का अर्थ पूर्ण . म. हुआ 1168 // - 272 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)cR990090@RO900 . Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ececacaenance 000000000 -222233333333333333333333222222222382322233333 नियुक्ति-गाथा-69-70 विशेषार्थ मतिज्ञान की प्राप्ति की योग्यता जिन जीवों में बताई गई है, वे ही जीव अवधिज्ञानियों में भी . ग्राह्य हैं। उनके अतिरिक्त भी जिनमें अवधिज्ञान की प्राप्ति की योग्यता है, वे ये हैं- 'वेद' (मोहनीय) 1 & से अतीत, कषाय-अतीत और मनःपर्यायज्ञानी। इन्हें ‘मतिज्ञान के पूर्वप्रतिपन्न' रूप में ही कहा गया , था, किन्तु ये अवधिज्ञान के प्रतिपत्ता भी होते हैं, क्योंकि उपशम श्रेणी हो या क्षपक श्रेणी हो, कुछ अवेदक व अकषाय जीवों को अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इसके अलावा, ऐसे भी कुछ जीव होते हैं जिन्हें अवधिज्ञान तो उत्पन्न नहीं हुआ, जैसे मति-श्रुत ज्ञानी चारित्रयुक्त जीवों को पहले ही मनः / व पर्याय ज्ञान उत्पन्न हो गया, ऐसे कुछ मनःपर्ययज्ञानी भी बाद में अवधिज्ञान को प्राप्त करने वाले होते है ल हैं। इसके अतिरिक्त, अनाहारक व अपर्याप्तकों को मतिज्ञान के 'पूर्वप्रतिपन्न' ही कहा गया है, . * प्रतिपद्यमान नहीं कहा गया, किन्तु यहां जिनका सम्यक्त्व च्युत नहीं होता ऐसे तिर्यश्च व मनुष्यों से , : देव व नारकों में उत्पन्न होने वाले कुछ जीव अवधि के 'प्रतिपद्यमान' रूप में भी प्राप्त होते हैं। जिन्हें मतिज्ञान के पूर्वप्रतिपन्न कहा गया है, उन्हें ही अवधिज्ञान के भी पूर्वप्रतिपन्न समझें, किन्तु यहां अपवाद यह है कि उनमें विकलेन्द्रिय व असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों को सम्मिलित नहीं किया जाय। , विकलेन्द्रिय व असंज्ञीपञ्चेन्द्रिय जीव सास्वादन सम्यग्दृष्टि हों तो मतिज्ञान के पूर्वप्रतिपन्न कहे गये हैं, किन्तु अवधि में ये न तो पूर्वप्रतिपन्न हैं और न ही प्रतिपद्यमान- यह तात्पर्य है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तत्र शेषद्धिविशेषस्वरूपप्रतिपादनायाह नियुक्ति) आमोसहि विप्पोसहि खेलोसहि जल्लमोसही चेव। संभिन्नसोउज्जुमइ, सवोसहि चेव बोद्धब्बो // 19 // चारणआसीविस केवली यमणनाणिणोय पुवघरा। अरहंत चक्कवट्टी, बलदेवा वासुदेवा य 70 // [संस्कृतच्छायाः-आमभॊषधिः, विगुडौषधिः, श्लेष्मौषधिः, मलौषधिः वैवासंमिनोता (सोताः) , & ऋजुमतिः सर्वोषधिश्चैव बोद्धव्यः ॥चारणा आशीविषा केवलिनः मनोज्ञानिनश्च पूर्वधराः।अर्हत् वळ्यर्तिनः, बलदेवाः / * वासुदेवाच॥] (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)2008c008 273 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | aaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 (वृत्ति-हिन्दी-) शेष विशेष ऋद्धियों (लब्धियों) के स्वरूप का प्रतिपादन करने हेतु & कह रहे हैं 333333333333333333333333333333333333333333333 (69-70) (नियुक्ति-हिन्दी-) (1) आमर्ष औषधि (2) विगुड् औषधि, (3) श्रेष्म औषधि, (4) " जल्ल औषधि (5) संभिन्नस्रोत (संभिन्नश्रोतृ) (6) ऋजुमति (7) सर्वौषधि (8) चारण (लब्धि), " * (9) आशीविष (10) केवली(त्व) (11) मनःपर्यवज्ञान (12) पूर्वधर(त्व), (13) तीर्थंकर(त्व), . a (14) चक्रवर्ती(त्व) (15) बलदेव(त्व) (16) वासुदेव(त्व), (-ये शेष ऋद्धियां हैं)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (प्रथमगाथाव्याख्या-) आमर्शनमामर्शः संस्पर्शनमित्यर्थः, स एवौषधिर्यस्यासावामशैषधिः-साधुरेव संस्पर्शनमात्रादेव व्याध्यपनयनसमर्थ इत्यर्थः।लब्धिलब्धिमतोरभेदात् " a स एवामर्शलब्धिरिति।एवं विट्खेलजल्लेष्वपि योजना कर्तव्येति।तत्र 'विड्' उच्चारः, 'खेलः', श्लेष्मा, 'जल्लो' मल इति, भावार्थः पूर्ववत्, सुगन्धाश्चैते भवन्ति।तथा यः सर्वतः शृणोति स: संभिन्नश्रोता, अथवा सोतांसि इन्द्रियाणि संभिन्नान्येकैकशः सर्वविषयैरस्य परस्परतो वेति / संभिन्नसोताः, संभिन्नान् वा परस्परतो लक्षणतोऽभिधानतश्च सुबहूनपि शब्दान् शृणोति , संभिन्नश्रोता, एवं संभिन्नश्रोतृत्वमपि लब्धिरेव। तथा ऋज्वी मतिः ऋजुमतिः " a सामान्यग्राहिकेत्यर्थः, मनःपर्यायज्ञानविशेषः, अयमपि च लब्धिविशेष एव, , a लब्धिलब्धिमतोश्चाभेदात् ऋजुमतिः साधुरेवा तथा सर्व एव विण्मूत्रकेशनखादयो विशेषाः " खल्वौषधयो यस्य, व्याध्युपशमहेतव इत्यर्थः, असौ सर्वौषधिश्च / एवमेते ऋद्धिविशेषा बोद्धव्या , & इति गाथार्थः॥१९॥ (वृत्ति-हिन्दी-) प्रथम (69वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है- आमर्शन अर्थात् , संस्पर्शन- यही-'आमर्श' है। वही औषधि है जिस (लब्धिधारी या ऋद्धिधारी) की (उसके , स्वामित्व में होती है), वह आमभॊषधि (ऋद्धि या लब्धि) है, अर्थात् अपने स्पर्श मात्र से ही, . 4 (स्वयं) साधु ही, व्याधि को दूर करने में सक्षम होता है। लब्धि व लब्धिधारी -इनमें अभेद, a मानकर कहा गया- वही आमर्श-लब्धि है। (अर्थात् वस्तुतः ‘आमर्ष' यह नाम लब्धिधारी का , ही है, किन्तु यहां लब्धि को ही आमर्ष कह दिया गया है।) इसी प्रकार विगुडौषधि, श्लेष्म " (खेल) औषधि व मल (जल्ल) औषधि में भी योजना कर लेनी चाहिए (अर्थात् वहां भी लब्धि / - 274 008@@ceneca@ RO0008ca@20. 9 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRE 000000000 232232323333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-69-70 | व लब्धिधारक में अभेद मानकर कथन करना चाहिए)। वहां विपुड़ का अर्थ 'उच्चार' (विष्ठा | ce व मूत्र) है, खेल या श्लेष्मा का अर्थ 'कफ' बलगम है, और जल्ल का अर्थ है- मल / भावार्थ . & पूर्ववत् ही है (अर्थात् इनसे किसी की भी व्याधियां शांत हो जाती हैं)। और ये (सभी, विष्ठा, बलगम व शारीरिक मल) सुगन्धित भी होते हैं। तथा जो सभी ओर से सुनती है, वह 'संभिन्नश्रोतृ' लब्धि होती है। या इसका नाम है- 'संभिन्नस्रोतस्' / अर्थात् (लब्धिधारी का) : या इसका नाम है- 'संभिन्नस्रोतस्' / अर्थात् (लब्धिधारी का प्रत्येक) स्रोत यानी इन्द्रियां है सभी विषयों को या परस्पर-सहयोग से ग्रहण करने लगते हैं अर्थात् वह 'सम्भिन्नस्रोता'. व बन जाता है। अथवा जो शब्दों को संभिन्न रूप में सुन सकता है, अर्थात् अनेकानेक बहुत से , a शब्दों में भी प्रत्येक को उसके परस्पर लक्षण से या नाम से विशेष रूप से पहचानते हुए . (जैसे यह घोड़े की आवाज है, यह हाथी की आवाज है, यह अमुक की आवाज है, या इतने : दूर से आ रही है, इतने पास से आ रही है, इत्यादि रूप में) सुन सकता है, वह सम्भिन्न श्रोता है। इस प्रकार, सम्भिन्न-श्रोतृत्व या सम्भिन्नसोतस्त्व एक लब्धि है। ऋजु जो मति , cs यानी सामान्य ग्रहण करने वाली होती है और जो मनःपर्यायज्ञान का ही एक विशेष रूप होती है, वह मनःपर्यायज्ञानविशेष भी, एक विशेष लब्धि ही है। ऋजुमति एक लब्धि है, . किन्तु लब्धिधारक के साथ अभेद मानें तो ऋजुमति साधु (लब्धिधारी) ही है। इसी तरह, , सर्वौषधि, यानी जिसकी सभी विशेष वस्तुएं-विष्ठा, मूत्र, केश, नख आदि, औषधि रूप हो , जाती हैं, दूसरे की व्याधि को दूर करने में साधन बन सकती हैं- वह सर्वौषधि (लब्धिधारी) : होता है। इसी प्रकार उक्त विशेष ऋद्धियों को जानना चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 69 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) (द्वितीयगाथाव्याख्या-) अतिशयचरणाच्चारणाः, अतिशयगमनादित्यर्थः। ते च . द्विभेदाः- विद्याचारणा जङ्घाचारणाश्च। तत्र जलाचारणः शक्तितः किल, रुचकवरद्वीपगमनशक्तिमान् भवति। स च किलैकोत्पातेनैव रुचकवरद्वीपं गछति, , आगच्छंश्चोत्पातद्वयेनागच्छति, प्रथमेन नन्दीश्वरं द्वितीयेन यतो गतः। एवमूर्ध्वमपि // * एकोत्पातेनैवाचलेन्द्रमूर्ध्नि स्थितं पाण्डुकवनं गच्छति, आगच्छंश्चोत्पातद्वयेनागच्छति, प्रथमेन " नन्दनवनं द्वितीयेन यतो गतः। - 80Rece@@cr@nece@@Rece@@ 275 - Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 833222222222333333222333333333333333333333333 aaaaaaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 (वृत्ति-हिन्दी-) द्वितीय (70वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है-जिनके 'चरण' में c& अतिशय (चमत्कार) हुआ करता है, अर्थात् जिनकी गति अतिशययुक्त (चमत्कारयुक्त) हुआ >> करती है, वे 'चरण' होते हैं। वे दो तरह के होते हैं- (1) विद्याचारण, और (2) जंघाचारण। : इनमें जंघाचारण (ऋद्धिधारी) अपनी सामर्थ्य से रुचकवर द्वीप तक जाने की शक्ति रखता : व है। वह एक ही 'उछाल' से रुचकवर द्वीप पर पहुंच जाता है, (किन्तु) आते हुए दो ‘उछाल', ce द्वारा आ पाता है, प्रथम 'उछाल' से नन्दीश्वर पर, दूसरी उछाल से जहां से चला था, पहुंच , 4 जाता है। इसी प्रकार, ऊपर की ओर भी, एक उछाल से ही मेरु पर्वत पर स्थित पाण्डुक वन " ca पर पहुंच जाता है, आते हुए उसे दो उछाल लेनी पड़ती है, पहली उछाल से नन्दन वन पर, और दूसरी उछाल से उसी पूर्व स्थान पर जहां से वह चला था। (हरिभद्रीय वृत्तिः) विद्याचारणस्तु नन्दीश्वरद्वीपगमनशक्तिमान् भवति।सत्वेकोत्पातेन मानुषोत्तरं गच्छति, . द्वितीयेन नन्दीश्वरम्।तृतीयेन त्वेकेनैवाऽऽगच्छति यतो गतः। एवमूर्ध्वमपि व्यत्ययो वक्तव्य , a इति।अन्ये तु शक्तित एव च्चकवरादिद्वीपमनयोर्गोचरतया व्याचक्षत इति। ___ तथा आस्यो-दंष्ट्राः, तासु विषमेषामस्तीति आसीविषाः, ते च द्विप्रकारा भवन्ति-- a जातितः कर्मतश्च, तत्र जातितो वृश्चिकमण्डूकोरगमनुष्यजातयः।कर्मतस्तु तिर्यग्योनयः मनुष्या , & देवाश्चासहस्रारादिति।एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणतः खल्वासीविषा भवन्ति, देवा . & अपि तच्छक्तियुक्ता भवन्ति, शापप्रदानेनैव व्यापादयन्तीत्यर्थः।तथा केवलिनश्च प्रसिद्धा एव। " तथा मनोज्ञानिनो विपुलमनःपर्यायज्ञानिनः परिगृह्यन्ते। पूर्वाणि धारयन्तीति पूर्वधराः, : दशचतुर्दशपूर्वविदः। अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः तीर्थकरा इत्यर्थः। / 'चक्रवर्तिनः' चतुर्दशरत्नाधिपाः षट्खण्डभरतेश्वराः। 'बलदेवाः' प्रसिद्धा एव। 'वासुदेवाः' / 4 सप्तरत्नाधिपा अर्धभरतप्रभव इत्यर्थः।एते हि सर्व एव चारणादयो लब्धिविशेषा वर्तन्ते इति " गाथार्थः // 70 // __ (वृत्ति-हिन्दी-) विद्यारण की (तो) नन्दीश्वर द्वीप तक जाने की सामर्थ्य होती है। " वह एक उछाल से मानुषोत्तर पर्वत तक और तीसरी एक ही उछाल से जहां से चला था, वहां - G आ जाता है। इसी प्रकार, ऊपर की ओर भी (जंघाचारण की तुलना में) विपरीत क्रम कहना , - चाहिए (अर्थात् एक उछाल से नन्दन वन पर, लौटते हुए एक उछाल से पाण्डुक वन पर और / - 276 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)cr@ne Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cacancescacance គ គ គ គ គ គ គ គ 1 3333333333 नियुक्ति-गाथा-69-70 तीसरे उछाल से वहीं पहुंच जाता है, जहां से चला था)। कुछ आचार्यों की यह व्याख्या है कि / इन दोनों की ही रुचकवर द्वीप तक जाने की सामर्थ्य है। आसीविष (या आशीविष) वे होते हैं जिनके आस्य यानी दाद में विष रहता है। वे दो . 4 तरह के होते हैं- जाति से, और कर्म से। बिच्छू, मेंढक, सर्प व मनुष्य -ये जाति से , (आसीविष) होते हैं। कर्म से आसीविष होते हैं-तिर्यश्च योनि के जीव, मनुष्य और सहसार , पर्यन्त देव / ये तपश्चरण के अनुष्ठान से या किसी अन्य गुण से (कर्मज) आसीविष होते हैं, a इसी तरह, (सहस्रार पर्यन्त) देव भी वैसी शक्ति वाले होते हैं, अर्थात् वे शाप देकर प्राण नाशक होते हैं। केवली (ऋद्धिधारी के रूप में) प्रसिद्ध ही हैं। मनोज्ञानी से यहां विपुलमति a मनःपर्याय ज्ञानधारी का ग्रहण किया जाता है। पूर्व साहित्य के धारक, अर्थात् चौदह पूर्वो ca के धारक 'पूर्वधर' कहलाते हैं। तीर्थंकर से तात्पर्य है- अशोक वृक्ष आदि आठ महाप्रतिहार्य व स्वरूप पूजनीय स्थिति को जो प्राप्त करते हैं, वे अर्हन्त देव। चौदह रत्नों के स्वामी, भरत क्षेत्र के छः खण्डों के शासक चक्रवर्ती होते हैं। बलदेव प्रसिद्ध ही हैं। 'वासुदेव' से तात्पर्य है- सात रत्नों के स्वामी एवं अर्धभरत क्षेत्र के शासकाये चारण आदि सभी विशेष प्रकार की लब्धियां ल हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ Iro विशेषार्थ भगवती (8/2) में दस लब्धियों का निरूपण प्राप्त है। यहां भी विविध ऋद्धियों-लब्धियों का यहां निर्देश किया गया है। लब्धि का अर्थ है- जो अतिशय जो कर्मों के क्षय, क्षयोपशम आदि से उत्पन्न होती हैं। साधक तपश्चरण जो करता है, उसका उद्देश्य कर्मनिर्जरा व मोक्ष प्राप्त करना ही होता है, किन्तु आनुषङ्गिक रूप से उसे विशिष्ट सिद्धियां प्राप्त हो ही जाती हैं। वह इनके प्रति आसक्त नहीं न होता, साधना के परम लक्ष्य मोक्ष की ओर ही अग्रसर रहता है। वह मूढतावश इन सिद्धियों का ce प्रदर्शन या प्रयोग नहीं करता। & आमर्ष का अर्थ स्पर्श होता है। लब्धिधारी अपने किसी भी अंग से किसी को छू देता है तो " रोगादि दूर हो जाते हैं। ऐसी लब्धि पूरे शरीर में या किसी एक भाग में भी उत्पन्न हो सकती है। . a 'विपुड्' यानी मूत्र और विष्ठा / कुछ आचार्य इसमें दो 'पद' मानते हैं- विट् विष्ठा, प्र-प्रसवण, मूत्र , अर्थात् विपुड्= विष्ठा व मूत्र / श्लेष्म यानी कफ, बलगम, जिसका प्राकृत रूप 'खेल' शब्द है। जल्ल , यानी शरीर का मैल / लब्धिधारी के ये सभी सुगन्धित हो जाते हैं, और इन द्रव्यों में रोग-शांति की 33333333333333333333 / 74477777777777777777777777777777777777777777 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 277 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aacacacacea श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9000000 . &&&&&&&&& 332222223333333333333333333333333333333333333 अद्भुत क्षमता हो जाती है। संभिन्न स्रोत या संभिन्न श्रोत्र (संभिन्न श्रोत) -ये दोनों नाम मिलते हैं। c& संभिन्न यानी पूर्ण। श्रोत्र का अर्थ सुनने की क्षमता / स्रोत यानी ज्ञान की स्रोत इन्द्रियां। लब्धिधारी , & कान से ही नहीं, शरीर के किसी भी भाग से सुन सकता है। इतना ही नहीं, उसकी कोई भी इन्द्रिय , दूसरी इन्द्रिय का काम कर सकती है। कान देख भी सकते हैं, आंखें सुन भी सकती हैं। कान देख भी। र सकते हैं, आंखें सुन भी सकती हैं। दूसरा अर्थ यह भी किया गया है कि विभिन्न शब्दों को-जो परस्पर मिले हुए हों, उन्हें पृथक्-पृथक् पहचान लेने की शक्ति आ जाती है। व्याख्याकारों के अनुसार, a चक्रवर्ती की सेना का सामूहिक शोर (कोलाहल) होता है, उसमें शंख, ढोल, तुरही आदि अनेक 1 सैनिक वाद्यों का घोष मिला रहता है, लब्धिधारी इन सभी को एक साथ सुनता है और यह पहचान , लेता है कि यह शंख का शब्द है, यह तुरही का। ऋजुमति लब्धि मनःपर्यज्ञान का रूप ही है, इसमें विपुलमति की तुलना में कुछ अस्पष्ट-अनिर्दोष मनःपर्यय ज्ञान होता है। सर्वौषधि में लब्धिधारी के सभी शरीरावयव-(विष्ठा, मूत्र, केश, नख आदि), व्याधि आदि को दूर कर सकते हैं। ___ चारणलब्धि में कहीं भी जाने-आने की चमत्कारपूर्ण शक्ति निहित रहती है। विद्या यानी.. 6 ज्ञान या आगम-विशेष। उस विशिष्टज्ञान-सहित गमनागमन शक्ति को विद्याचारण लब्धि कहा जाता ल है। विधिपूर्वक उत्कृष्ट बेले-बेले की तपस्या से यह लब्धि प्राप्त होती है। विद्या, ज्ञान या आगम से इसे , व लब्धि का क्या सम्बन्ध है- इसे नन्दीसूत्र की मलयगिरिकृत वृत्ति में कुछ स्पष्ट किया गया है- “जो & उत्तरोत्तर अपूर्व-अपूर्व अर्थ के प्रतिपादक विशिष्ट श्रुत का अवगाहन करते हैं, और श्रुत के सामर्थ्य से - तीव्र-तीव्रतर शुभ भावना का आरोहण करते हैं, वे अप्रमत्त मुनि ऋद्धियां प्राप्त करते हैं। जो श्रुतसागर, का अवगाहन करते हैं, उन्हें अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, कोष्ठ आदि बुद्धि, चारणलब्धि, वैक्रिय लब्धि, सर्वोषधि लब्धि आदि लब्धियां अप्रमत्तता के गुण से प्राप्त होती हैं, तथा मानसिक, वाचिक व & शारीरिक बल भी प्रादुर्भूत होते हैं।' कल्पना की जा सकती है कि ऋद्धिधारी के ज्ञान में आगमोक्त , व लोक-स्वरूप, समुद्र-द्वीपादि रचना, यत्र-तत्र पर्वत द्वीपादि में अकृत्रिम चैत्यालय अन्य अनेक पावन " & स्थान, वहां जाने का सुस्पष्ट मार्ग-इन सब का ज्ञान प्रतिभासित होता रहता है, जिसके बल पर वह , गमनागमन कर सकता है और वह भी अतिशीघ्र / व्याख्या के अनुसार वह चैत्यों की वन्दना करता है है। इस कथन के पीछे यह तथ्य स्पष्ट है कि वह सिर्फ सैर सपाटे आदि के लिए यह यात्रा नहीं करता, है अपितु वहां शुभ भावनाओं की भूमिका रहती है। ___जंघाचारण लब्धि की विशेषता यह है कि इसके द्वारा सूर्य की किरणों का आश्रय लेकर, या | मकड़ी के जाले के पतले रेशों का ही सहारा लेकर जंघा से आकाश में विचरण किया जा सकता है। | 698cce@cr@&00000000 aaaaa - 278 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -egecaceecacece नियुक्ति-गाथा-69-70 22222222 222232322333333333333333333333333333333333333 यहां भी व्याख्याकार ने नन्दीश्वर आदि द्वीपों में स्थित चैत्यों की वन्दना करने का निर्देश किया है। ce एक मत यह भी यहां बताया गया है कि जंघाचारण व विद्याचारण- दोनों की गमन-शक्ति इतनी , होती है-यह कहना उनकी शक्ति का संकेतमात्र है, यह जरूरी नहीं कि वे इतना गमनागमन करते ही हों। इसके अलावा और भी अनेक प्रकार के चारणमुनि होते हैं। कई पल्हथी मार कर, बैठे हुए, और कायोत्सर्ग किये हुए पैरों को ऊंचे-नीचे किये बिना आकाश में गमन कर सकते हैं। कई : चारणलब्धि वाले मुनि बावड़ी, नदी, समुद्र आदि जलाशयों में जलकायिक आदि जीवों की विराधना किये बिना पानी पर जमीन की तरह पैर रखने में कुशल होते हैं, वे जलचारणलब्धिमान् मुनि & कहलाते हैं। जो जमीन से चार अंगुलि-प्रमाण ऊपर अधर आकाश में चलने में और पैरों को ऊंचे- . व नीचे करने में कुशल होते हैं, वे भी जंघाचारणलब्धिधारी मुनि कहलाते हैं। कई भिन्न-भिन्न वृक्षों के . : फलों को ले कर फल के आश्रित रहे हुए जीवों को पीड़ा न देते हुए फल के तल पर पैर ऊंचे-नीचे , रखने में कुशल होते हैं, वे फलचारणलब्धिधारी मुनि कहलाते हैं। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार के वृक्षों, . लताओं, पौधों या फूलों को पकड़ कर उनके आश्रित सूक्ष्म जीवों की विराधना किये बिना सिर्फ फूल, की पंखुड़ियों का आलंबन ले कर गति कर सकते हैं, वे पुष्पचारणलब्धिघर मुनि कहलाते हैं। विविध प्रकार के पौधों, बेलों, विविध अंकुरों, नई कोंपलों, पल्लवों या पत्तों आदि का अवलंबन ले कर , र सूक्ष्मजीवों को पीड़ा दिये बिना अपने चरणों को ऊंचे-नीचे रखने और चलने में कुशल होते हैं, वे " & पत्रचारणलब्धिधारी मुनि कहलाते हैं। चार सौ योजन ऊंचाई वाले निषध अथवा नील पर्वत की " शिखर-श्रेणी का अवलम्बन ले कर जो ऊपर या नीचे चढ़ने-उतरने में निपुण होते हैं, वे . श्रेणीचारणलब्धिमान मुनि कहलाते हैं।जो अग्निज्वाला की शिखा ग्रहण करके अग्निकायिक जीवों , की विराधना किये बिना और स्वयं जले बिना विहार करने की शक्ति रखते हैं, वे अग्निशिखाचारणलब्धियुक्त मुनि कहलाते हैं। धुएं की ऊंची या तिरछी श्रेणी का अवलम्बन ले कर , + अस्खलितरूप से गमन कर सकने वाले घूमचारणलब्धिप्राप्त मुनि कहलाते हैं।बर्फ का सहारा ले कर , 4 अप्काय की विराधना किये बिना अस्खलित गति कर सकने वाले नीहारचारणलब्धि मुनि कहलाते हैं। कोहरे के आश्रित जीवों की विराधना किये बिना उसका आश्रय ले कर गति कर सकने की लब्धि . वाले अवश्यायचारण मुनि कहलाते हैं। आकाश मार्ग में विस्तृत मेघ-समूह में जीवों को पीड़ा न देते , हुए चलने की शक्ति वाले मेघचारण मुनि कहलाते हैं। वर्षाकाल में वर्षा आदि की जलधारा का अवलम्बन ले कर जीवों को पीड़ा दिये बिना चलने की शक्ति वाले वारिधाराचारण मुनि कहलाते हैं। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222222222222222222222222222223333333333333333 -aaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 विचित्र और पुराने वृक्षों के कोटर में बने मकड़ी के जाले के तंतु का आलम्बन ले कर उन तंतुओं को ca टूटने न देते हुए पैर उठा कर चलने में जो कुशल होते हैं, वे मर्कटकतन्तुचारणलब्धिधारी मुनि >> कहलाते हैं। चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि किसी भी ज्योति की किरणों का आश्रय ले कर नभस्तल में , जमीन की तरह पैर से चलने की शक्ति वाले ज्योतिरश्मिचारण मुनि कहलाते हैं। अनेक दिशाओं में / प्रतिकूल या अनुकूल चाहे जितनी तेज हवा में, वायु का आधार ले कर अस्खलित गति से पैर रख कर चलने की कुशलता वाले वायुचारणलब्धिप्राप्त मुनि कहलाते हैं। 'आशीविष और आसीविष- ये दोनों नाम एक ही लब्धि के मिलते हैं। आश्य= जिसने अशन, भक्षण किया जा सके, यानी दाढ़।आस्य-मुख।दाढ़ या मुख में जिसके विष हो, उससे दूसरे ? को मारने की जिनमें क्षमता हो- वे 'आशीविष' होते हैं। कुछ तो जन्मजात आशीविष होते हैं- जैसे - बिच्छू आदि।कुछ मनुष्य भी जन्मात आशीविष होते हैं। व्याख्याकारों ने इन जन्मजात विषधारियों " a के प्रभाव की भी चर्चा की है। आचार्य अकलंक के अनुसार, आशीविष लब्धि वाले व्यक्ति किसी को , a 'मर जाओ' इतना कह देते हैं तो उस व्यक्ति के शरीर में विष फैल जाता है। (द्र. राजवार्तिक, 3/36) / , 6. किसमें कितना विष होता है -इसका भी संकेत प्राप्त होता है। जैसे- एक बिच्छू में इतना अधिक जहर हो सकता है कि उत्कृष्ट रूप से (अधिकाधिक रूप में) आधे भरत क्षेत्र जितने शरीर में व्याप्त हो सकता है। मेंढक का विष उससे भी दुगने यानी पूरे भरत क्षेत्र जितने शरीर को डस सकता है। a सांप का जहर जम्बूद्वीप प्रमाण शरीर में फैल सकता है। मनुष्य का विष तो समयक्षेत्र (अढ़ाई द्वीप) प्रमाण शरीर को व्याप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ कर्मजन्य आशीविष होते हैं। इनमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य ही नहीं, सहसार देवलोक तक के देव भी होते हैं। विषकन्या आदि के उदाहरण तो प्रसिद्ध हैं ही। ये कर्मजन्य " आशीविष किसी को दांत या मुंह से काटते तो नहीं, किन्तु अपनी वाणी से जहर उगलते हैं, शाप : : देकर नष्ट करते हैं। देवों में ऐसा कैसे सम्भव है- इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है- मनुष्य , :जन्म में जिन्हें आशीविषलब्धि प्राप्त हो चुकी हो, वे मर कर सहस्रार तक देवों में उत्पन्न हों तो : 4 अपर्याप्त अवस्था में पूर्वजन्म की उक्त लब्धि बनी रहती है। उस समय की स्थिति को दृष्टि में रख कर, देवों को 'कर्मज आशीविष' में परिगणित किया गया है। वे देव पर्याप्त अवस्था में आते ही उक्त लब्धि a से रहित हो जाते हैं। यद्यपि पर्याप्त अवस्था वाले देवों में भी शाप आदि देने की शक्ति होती है, किन्तु . वह लब्धिजन्य नहीं मानी जाती। -333333333338888888888888888 280 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200000000 223333333333333333333333333333333333333333 Racecacancance नियुक्ति गाथा-69-70 केवलज्ञान तो स्पष्ट रूप से एक महान् लब्धि है ही, इससे बढ़ कर और कोई लब्धि है ही & नहीं। मनुष्यक्षेत्रवर्ती ढाई द्वीप में स्थित जीवों के मनोगतपर्यायों के आधार पर उनके चित्रित अर्थों , का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने वाली लब्धि मनःपर्यायज्ञान लब्धि होती है। मनःपर्यायज्ञान लब्धि से , cs यहां विपुलमति मनःपर्यायज्ञान अभिप्रेत है, क्योंकि ऋजुमति का इसी गाथा में पृथक् ग्रहण किया ही है ca गया है। पूर्वधर यानी समस्त चौदह पूर्वो के धारक (या दशपूर्वधारक)। ये विशिष्ट ज्ञान के धारक होने से अनेक शक्तियों को भी अपने में समेटे रहते हैं। तीर्थंकर चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव -इनकी विशिष्ट , शक्ति होती है, जिसका आगे निरूपण भी किया जा रहा है। दिगम्बर परम्परा के तिलोयपण्णत्ति (चतुर्थ अधिकार) तथा राजवार्तिक (3/36) आदि ग्रन्थों ल में कुछ अन्तर या विशेषता के साथ इन ऋद्धियों का वर्णन है, विस्तार से जानने के लिए वे ग्रन्थ & द्रष्टव्य हैं। & इसके अतिरिक्त विद्या और बुद्धि से सम्बन्धित अनेक लब्धियां हैं, जो योगाभ्यास से प्राप्त " & होती हैं। जैसे श्रुतज्ञानावरणीय एवं वीर्यान्तराय कर्म के प्रकर्ष क्षयोपशम से साधक को असाधारण " & महाप्रज्ञा -ऋद्धि प्राप्त होती है, जिसके प्रभाव से वह द्वादशांग और चतुर्दशपूर्व का विधिवत् अध्ययन , न होने पर भी बारह अंगों और चतुर्दशपूर्वो के ज्ञान का निरूपण कर सकता है। तथा उस महाप्राज्ञ . & श्रमण की बुद्धि गंभीर से गंभीर और कठिन से कठिन अर्थ का स्पष्ट विवेचन कर सकती है। कोई " विद्याधारी श्रमण विद्यालब्धि प्राप्त कर दस पूर्व तक पढ़ता है, कोई रोहिणी, प्रज्ञप्ति आदि महाविद्याओं से व अंगुष्ठप्रश्न आदि अल्पविद्याओं के जानकार हो जाते हैं, फिर वे किसी ऋद्धिमान के वश नहीं होते। कई साधक पढ़े हुए विषय के अतिरिक्त विषयों का प्रतिपादन एवं विश्लेषण करने में कुशल होते हैं। ce' उक्त विद्याधर-श्रमणों में से कइयों को बीज, कोष्ठ व पदानुसारी बुद्धि की लब्धि प्राप्त होती है। " & बीजबुद्धि के लब्धिधारी वे कहलाते हैं, जो ज्ञानावरणीयादि कर्मों के अतिशय क्षयोपशम से एक >> ca अर्थरूप बीज को सुन कर अनेक अर्थ वाले बहुत से बीजों को उसी तरह प्राप्त कर लेते हैं जिस तरह से एक किसान अच्छी तरह जोती हुई जमीन में वर्षा या सिंचाई के जल, सूर्य की धूप, हवा आदि के संयोग से एक बीज बो कर अनेक बीज प्राप्त कर लेता है। जैसे- कोष्ठागार (कोठार) में रखे हुए ca विविध धान्य एक दूसरे में मिल न जाएं, सड़ कर बिगड़ न जाएं, इस दृष्टि से कुशल बुद्धि वाला " किसान बहुत-सा धान्य कोठारों में अच्छी तरह संभाल कर सुरक्षित रखता है, वैसे ही दूसरे से सुन , & कर अवधारण किये हर श्रुत (शास्त्र) के अनेक अर्थों को या बार-बार आवृत्ति किये बिना ही विभिन्न : * अर्थों को भलीभांति याद रखता है, भूलता नहीं है, इस प्रकार मस्तिष्करूपी कोष्ठागार में रखा अर्थ " / सुरक्षित रखता है, वह कोष्ठबुद्धि कहलाता है। पदानुसारी बुद्धि वाले तीन प्रकार के होते हैं- अनुस्रोत, (r)(r)(r)(r)(r)(r)c@pec@@@@@ 281 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R33333333333333333333333333333333333333333333 ca cace cace cece श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 200000 प्रतिस्रोत और उभयपद / (1) जिनकी बुद्धि ग्रन्थ के प्रथम पद के अर्थ को दूसरे से सुन कर अन्तिम * पद तक के सम्पूर्ण ग्रन्थ का विचार (स्मरण) करने में समर्थ अत्यन्त तीव्र होती है, वह अनुस्रोत8 पदानुसारी-बुद्धि कहलाता है। (2) जिनकी बुद्धि अन्तिम पद के अर्थ या ग्रन्थ को दूसरे से सुन कर, .. ca आदि पद तक के अर्थ या ग्रन्थ को स्मरण कर सकने में समर्थ हो, वह प्रतिस्रोत-पदानुसारी बुद्धि " - कहलाता है और (3) जिसकी बुद्धि ग्रन्थ के बीच के अर्थ या पद को दूसरे से जान कर आदि से अन्त र 6 तक के तमाम पद-समूह और उनका प्रतिनियत अर्थ करके सारे ग्रन्थ-समुद्र को पार करने में समर्थ . & असाधारण तीव्र हो, वह उभयपदानुसारी बुद्धि कहलाता है। बीजबुद्धि और पदानुसारी में यही अन्तर & है कि बीजबुद्धि तो एक पद का अर्थ बताने पर अनेक पदों का अर्थ बताने में कुशल होती है, जबकि . & पदानुसारीबुद्धि एक पद को जान कर दूसरे तमाम पदों को जानने में समर्थ होती है। इसी प्रकार मनोबली, वचनबली, कायबली भी एक प्रकार के लब्धिधारी होते हैं। जिसका C निर्मल मन मतिज्ञानावरणीय और वीर्यान्तराय कर्म के अतिशय क्षयोपशम की विशेषता से अंतर्मुहूर्त 4 में सारभूत तत्त्व उद्धृत करके सारे श्रुत-समुद्र में अवगाहन करने में समर्थ हो, वह साधक मनोबलीcm लब्धिधारी कहलाता है। जिसका वचनबल एक अन्तर्मुहूर्त में सारी श्रुतवस्तु को बोलने में समर्थ हो, वह वाग्बली-लब्धिधारी कहलाता है, अथवा पद, वाक्य और अलंकार- सहित वचनों का उच्चारण : ce करते समय जिसकी वाणी का प्रवाह अखण्ड अस्खलित चलता रहे, कंठ में जरा भी रुकावट न आए, " & वह भी वाग्बली कहलाता है। वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से जिसमें असाधारण कायाबल-योग - प्रगट हो गया हो कि कायोत्सर्ग में चिरकाल तक खड़े रहने पर भी थकावट और बेचैनी न हो, वह कायबलीलब्धिधारी कहलाता है। उदाहरणार्थ- बाहुबली मुनि जैसे एक वर्ष तक कायोत्सर्ग-प्रतिमा 1 धारण करके खड़े रहे थे, वे कायबली थे। इसी प्रकार क्षीरलब्धि, मधुलब्धि, घृतलब्धि और अमृतलब्धि " & वाले भी योगी होते हैं। जिनके पात्र में पड़ा हुआ खराब अन्न भी दूध, मधु, घी और अमृत के रस के . समान बन कर शक्तिवर्द्धक हो जाता है, अथवा वाचिक, शारीरिक, और मानसिक दुःख प्राप्त हुए . आत्माओं को खीर आदि की तरह जो आनन्ददायक होते हैं, वे क्रमशः क्षीरासव, मध्वासव, n c& सर्पिरासव, और अमृतास्रव लब्धि वाले कहलाते हैं। वे दो प्रकार के होते हैं- एक होते हैं, अक्षीण- महानसलब्धिमान और दूसरे होते हैं, अक्षीणमहालयलब्धिधर।असाधारण अन्तराय कर्म के क्षयोपशम , होने से जिनके पात्र में दिया हुआ अल्प आहार भी गौतमस्वामी की तरह अनेकों को दे दिया जाय, 1 & फिर भी समाप्त नहीं होता, वे अक्षीणमहानस-लब्धिधारी कहलाते हैं। जिस परिमित भूमिभाग में - & असंख्यात देव, तिर्यंच और मनुष्य सपरिवार खचाखच भरे हों, बैठने की सुविधा न हो, वहां - * अक्षीणमहालय-लब्धिधारी के उपस्थित होते ही इतनी जगह हो जाती है कि तीर्थंकर के समसवरण " की तरह सभी लोग सुखपूर्वक बैठ सकते हैं। - 282 @BROc @ @ @ @ @ @ @ @ @ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRRce න ග හ හ හ හ හ හ හ - ------ 3 नियुक्ति-गाथा-71-15 (हरिभद्रीय वृत्तिः) इह वासुदेवत्वं चक्रवर्त्तित्वं तीर्थकरत्वं च ऋद्धयः प्रतिपादिताः, तत्र , & तदतिशयप्रतिपादनायेदं गाथापञ्चकं जगाद नियुक्तिकारः (नियुक्तिः) सोलस रायसहस्सा सवबलेणं तु संकलनिबद्धं / अंछंति वासुदेवं अगडतडं मी ठियं संतं // 71 // घित्तूण संकलं सो वामगहत्थेण अंछमाणाणं / भुजिज्ज व लिंपिज्ज व महुमहणं ते न चायंति // 72 // दोसोला बत्तीसा, सव्वबलेणं तु संकलनिबद्धं / अंछंति चक्कवळिं, अगडतडंमी ठियं संतं // 73 // चित्तूण संकलं सो, वामगहत्थेण अंछमाणाणं। भुजिज्ज व लिंपिज्ज व, चक्कहरं ते न चायति // 74 // जं केसवस्स उ बलं, तं दुगुणं होइ चक्कवट्टिस्स। तत्तो बला बलवगा, अपरिमियबला जिणवरिंदा // 79 // ca [संस्कृतच्छायाः-षोडश राजसहस्राणि सर्वबलेन तु शृंखलानिबद्धम् ।आकर्षन्ति वासुदेवमवटतटे स्थितं सन्तम् ॥गृहीत्वा शृंखलां स वामहस्तेन आकर्षताम् ।भुञ्जीत विलिम्पेत वा मधुमथनं ते न शक्नुवन्ति / द्वौ 1 षोडशकौ द्वात्रिंशत् सर्वबलेन तु शृंखलानिबद्धम् ।आकर्षन्ति चक्रवर्तिनम् अवटतटे स्थितं सन्तम् // गृहीत्वा " व श्रृंखलां स वामहस्तेन आकर्षताम् / भुञ्जीत विलिम्पेत वा चक्रधरं ते न शक्नुवन्ति // यत् केशवस्य बलं तद् द्विगुणं " भवति चक्रवर्तिनः। ततो इलाः बलवन्तः, अपरिमितबला जिनवरेन्द्राः // ] (वृत्ति-हिन्दी-) प्रस्तुत प्रकरण में, वासुदेवत्व, चक्रवर्तित्व व तीर्थंकरत्व-इन ऋद्धियों - G का निर्देश-प्रतिपादन किया गया है, उनके अतिशय को बताने के लिए नियुक्तिकार द्वारा पांच गाथाएं कही गई हैं ___(71-75) (नियुक्ति-हिन्दी-) किसी कुंए की मेड़ पर अवस्थित वासुदेव को सांकल से बांध , कर सोलह सहस राजा (मिलकर) समस्त बल के साथ खींचते हैं (तो भी वह अविचलित ही " रहता है)|71॥ 888888888888@@@@@ 333333333333333333333333333333333333333333333 88888888888&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& 283 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ acacacacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 (लेकिन) उस संकल्प को बांए हाथ से (यूं ही) खींच लेता है, और (अविचलित हुए | c. ही) भोजन करने या अन्य कार्य में लिप्त रहता है, किन्तु वे (राजा) मधुमथन (वासुदेव) को , खींच नहीं पाते // 72 // किसी कुएं की मेड़ पर बैठे हुए चक्रवर्ती को बत्तीस हजार राजा सांकल से बांध कर समस्त बल लगाकर, खींचते हैं (तो भी वह अविचलित ही रहता है) 73 // (लेकिन) चक्रवर्ती बाएं हाथ से (यूं ही) खींच लेता है और भोजन या अन्य कार्य में लिप्त रहता है, किन्तु वे (राजा) चक्रवर्ती को नहीं खींच पाते74॥ a केशव (वासुदेव) का जितना बल होता है, उससे दुगुना बल चक्रवर्ती का होता है। " & उस (चक्रवर्ती) से भी अधिक बलवान एवं अपरिमित शक्ति के धारक जिनेन्द्र भगवान् होते : हैं 75 // & (हरिभद्रीय वृत्तिः) (आसां गमनिका-) इह वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमविशेषाद्धलातिशयो वासुदेवस्य संप्रदर्श्यते-षोडश राजसहस्राणि 'सर्वबलेन' हस्त्यश्वरथपदातिसंकुलेन सह शृङ्खलानिबद्धं 'अंछंति' देशीवचनात् आकर्षन्ति वासुदेवम् 'अगडतटे' कूपतटे स्थितं सन्तम्, ततश्च गृहीत्वा, शृङ्खलामसौ वामहस्तेन 'अंछमाणाणं ति, आकर्षतां भुजीत विलिम्पेत वा अवज्ञया हृष्टः सन्, . मधुमथनं ते न शक्नुवन्ति, आक्रष्टुमिति वाक्यशेषः। (वृत्ति-हिन्दी-) उपर्युक्त गाथाओं की सुगम व्याख्या इस प्रकार है- वासुदेव के वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम-विशेष के कारण अतिशयित उत्कृष्ट बल होता है [शास्त्रों में , वासुदेव में बीस लाख 'अष्टापद' का बल होना माना गया है।] उसका निदर्शन इस प्रकार : ल है- सोलह हजार राजा, समस्त बल से अर्थात् हाथी-रथ-पैदल (सैन्य-बल) के साथ, & सांकल में बंधे वासुदेव को खींचते हैं। यहां गाथा में प्रयुक्त 'अंछंति' में 'अंछ' धातु देशी है, & जिसका अर्थ खींचना है। वे वासुदेव कुएं के तट (यानी मेंढ़) पर बैठे हुए रहते हैं। तब उस सांकल को वासुदेव बाएं हाथ से पकड़े रहते हैं, जबकि (सारे राजा) खींच रहे होते हैं, तब भी , 6 (वासुदेव उनकी इस क्रिया पर) मानों उनकी अवज्ञा कर रहे हों और 'हृष्ट' ही रहते हैं , 4 (अर्थात् वासुदेव के चेहरे पर थोड़ी-सी भी शिकन नहीं होती, भुकुटि नहीं तनतीं) और खाने " / (-पीने) या अपने कार्य में लिप्त रहते हैं (उनके थोड़ा-सा भी ध्यान अपने कार्य से विचलित | - 284 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 2322233333333333333333333333333333333333333330 333333333333333333333333333333.33333333333333 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Rememeena 29999999999000 नियुक्ति गाथा-71-75 नहीं होता)। आगे का वाक्य इस प्रकार पूरा होगा- और वे (सभी राजा) मधुमथन (मधु ce नामक दैत्य का वध करने वाले) अर्थात् वासुदेव को खींच नहीं पाते। 4 (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___चक्रवर्तिनस्त्विदं बलं-द्वौ षोडशकौ, द्वात्रिंशदित्येतावति वाच्ये द्वौ षोडशकावित्यभिधानं " चक्रवर्त्तिनो वासुदेवाद् द्विगुणर्द्धिख्यापनार्थम्, राजसहसाणीति गम्यते / सर्वबलेन सह . शृङ्खलानिबद्धम् आकर्षन्ति चक्रवर्तिनम् अगडतटे स्थितं सन्तम्, गृहीत्वा शृङ्खलामसौ वामहस्तेन , आकर्षतां भुजीत विलिम्पेत वा, चक्रघरं ते न शक्नुवन्ति आक्रष्टुमिति वाक्यशेषः। यत् केशवस्य तु बलं तद्विगुणं भवति चक्रवर्तिनः, 'ततः' शेषलोकबलाद् ‘बला' बलदेवा बलवन्तः, तथा निरवशेषवीर्यान्तरायक्षयाद् अपरिमितं बलं येषां तेऽपरिमितबलाः।क एते? -जिनवरेन्द्राः। अथवा ततः- चक्रवर्तिबलाद् बलवन्तो जिनवरेन्द्राः, कियता बलेनेति, आह-अपरिमितबला इति।एता हि कर्मोदयक्षयक्षयोपशमसव्यपेक्षाः प्राणिनां लब्धयोऽवसेया 4 इति // 71-75 // c (वृत्ति-हिन्दी-) चक्रवर्ती का बल इस प्रकार है- दो सोलह यानी बत्तीस / सीधे 'बत्तीस' न कह कर गाथा में 'दो सोलह' इसलिए कहा ताकि वासुदेव से चक्रवर्ती की दुगुनी .. ca ऋद्धि है- यह सूचित हो / बत्तीस यानी बत्तीस हजार राजा- इतना प्रकरणवश सुगम्य हो / ल जाता है। वे समस्त बल (यानी पूरे सैन्य) के साथ सांकल में बंधे चक्रवर्ती को -जो कुंए की 4 मेड़ पर बैठे हैं- खींचते हैं। किन्तु चक्रवर्ती उस सांकल को बाएं हाथ से पकड़े हुए रहते हैं, 4 और भोजन में या अन्य कार्य में (बिना किसी उद्वेग के ही) लिप्त रहते हैं, वे (राजा) उन चक्रवर्ती को खींच नहीं पाते -इस प्रकार वाक्य पूर्ण होता है। जो केशव का बल है, उससे दुगुना बल चक्रवर्ती का होता है, उससे भी अर्थात् शेष & सभी (पूर्वोक्त) लोगों के बल से (अधिक) बलदेव होते हैं, और समस्त वीर्यान्तराय के क्षय से a अपरिमित बल के धारक होते हैं, कौन? (उत्तर-) जिनेन्द्र भगवान् / अथवा चक्रवर्ती के बल से भी जिनेन्द्र अधिक बली होते हैं। कितना अधिक बल उनमें होता है? (उत्तर-) अपरिमित 4 बल वाले होते हैं। प्राणियों की इन सभी लब्धियों को (वीर्यान्तराय) कर्म के उदय, क्षय व c& क्षयोपशम पर आधारित जानें 71-75 // (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)CRO900900908 (r) 285 285 9 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333333333333333333 - caca caca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9029 20 20 90 900(हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीं मनःपर्यायज्ञानम् / लब्धिनिरूपणायां तत् सामान्यतो व्यपदिष्टमपि , विषयस्वाम्यादिविशेषोपदर्शनाय ज्ञानपञ्चकक्रमायातमभिधित्सुराह (नियुक्तिः) मणपज्जवनाणं पुण जणमणपरिचिन्तियत्थपायडणं। माणुसखित्तनिबद्धं गुणपञ्चइयं चरित्तवओ // 76 // [संस्कृतच्छायाः- मनःपर्ययज्ञानं पुनर्जनमनःपरिचिन्तितार्थप्रकटनम् ।मनुष्यक्षेत्रनिबद्धं गुणप्रत्ययितं , चारित्रवतः।] (वृत्ति-हिन्दी-) अब, मनःपर्याय ज्ञान प्रस्तुत है। लब्धियों के निरूपण के प्रसंग में उसका सामान्य रूप से निर्देश कर भी दिया गया है, तथापि चूंकि ज्ञान-पञ्चक के क्रम में & (भी) वह पठित है, इसलिए उसके विषय, स्वामी आदि विशेषों का कथन करने हेतु (आगे. की गाथा) कह रहे हैं . . (76) 2333 (नियुक्ति-हिन्दी-) मनःपर्यव ज्ञान तो (संज्ञी) व्यक्ति के मन द्वारा चिन्तित अर्थ को , प्रकट करता है (जानता है)। वह मनुष्य-क्षेत्र तक सीमित होता है, और चारित्रसम्पन्न ca (संयमी) व्यक्ति को ही (क्षमा आदि) गुणों के कारण प्राप्त हो पाता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) मनःपर्यायज्ञानं' प्रानिरूपितशब्दार्थम्।पुनःशब्दो विशेषणार्थः / इदं हि 1 रूपिनिबन्धनक्षायोपशमिकप्रत्यक्षादिसाम्येऽपि सति अवधिज्ञानात् स्वाम्यादिभेदेन विशिष्टमिति , & स्वरूपतः प्रतिपादयन्नाह-जायन्त इति जनाः, तेषां मनांसि जनमनांसि, जनमनोभिः / परिचिन्तितः जनमनःपरिचिन्तितः, जनमनःपरिचिन्तितश्चासावर्थश्चेति समासः, तं प्रकटयति . & प्रकाशयति जनमनःपरिचिन्तितार्थप्रकटनम् / मानुषक्षेत्रम्-अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणं , & तन्निबद्धम्, न तबहिर्व्यवस्थितप्राणिमनःपरिचिन्तितार्थविषयं प्रवर्तत इत्यर्थः। ca गुणाः- क्षान्त्यादयः, त एव प्रत्ययाः- कारणानि यस्य तद्गुणप्रत्ययम्, चारित्रमस्यास्तीति चारित्रवान्, तस्य चारित्रवत एवेदं भवति।एतदुक्तं भवति-अप्रमत्तसंयतस्य | आमर्शोषध्यादिऋद्धिप्राप्तस्यैवेति गाथार्थः // 76 // - 286(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ROGRece 20309050202000 22222233333333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-16 (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) मनःपर्याय ज्ञान के शब्दार्थ का पहले निरूपण किया ca जा चुका है। ‘पुनः' (तो) शब्द विशेषण अर्थ को व्यक्त करता है, अर्थात् यह सूचित करता है , कि यह ज्ञान मूर्त द्रव्यों में होने वाले क्षयोपशमिक प्रत्यक्ष (मतिज्ञान) से साम्य रखता हुआ , भी, अवधिज्ञान से भी स्वामी आदि की दृष्टियों से 'विशेषता' रखता है, अतः उसके स्वरूप : को प्रतिपादित करते हुए कहा- 'जन-मन-परिचिन्तित-अर्थप्रकटन' / जो उत्पन्न होते हैं, वे // जन हैं (यहां संज्ञी जनों से ही तात्पर्य है)। उनके मन द्वारा चिन्तित होने वाले पदार्थ, इस अर्थ में समास होकर यह (जनमनपरिचिन्तितार्थ) शब्द बना है, उसे जो प्रकट करता है " अर्थात् प्रकाशित करता है। यह 'मनुष्य-क्षेत्र' है, अर्थात् ढाई द्वीप-समुद्र प्रमाण क्षेत्र तक ही , सीमित है, अर्थात् उसे बाहर स्थित किसी प्राणी के मन द्वारा चिन्तित पदार्थ में प्रवृत्त नहीं होता। गुण यानी क्षमा आदि, वे ही जिसमें प्रत्यय यानी कारण होते हैं, वह गुणप्रत्ययिक होता है। चारित्र जिसके होता है, वह चारित्रवान्, उसी के यह ज्ञान होता है। तात्पर्य यह हैजो अप्रमत्त संयत है और आमशैषधि आदि ऋद्धिधारी है, उसी के ही यह ज्ञान होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 6 || विशेषार्थ नियुक्ति की प्रस्तुत गाथा नन्दी सूत्र में (सू. 38) भी पठित है। इसमें यह बताया गया है कि मनःपर्यायज्ञानी प्राणियों के मन द्वारा चिन्तित ‘पदार्थ' को प्रकट करता है। इस सम्बन्ध में जैन परम्परा की दो विचारधाराओं का भी यहां संकेत करना उचित होगा। एक विचारधारा यह मानती है कि मनःपर्यायज्ञानी मन द्वारा चिन्त्यमान वस्तु को साक्षात् जानता है। दूसरी विचारधारा के अनुसार व चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की पर्यायों को जानता है, चिन्त्यमान पदार्थों को तो उन पर्यायों के आधार पर ca अनुमान से जानता है। प्रथमविचारधारा के समर्थक हैं- विशेषावश्यक भाष्य के रचयिता आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और नन्दी चूर्णिकार आदि। नियुक्तिकार आपाततः प्रथम विचारधारा के समर्थक प्रतीत होते हैं। नियुक्तिकार ने यहां जो गाथा प्रस्तुत की है, वह नन्दी सूत्र की ही है, अतः वह आगमोक्त ही & है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के प्रमुख आचार्य दूसरी विचारधारा के ही अधिकांशतः समर्थक हैं। 3 उनका कहना है कि नियुक्तिकार का भी आशय दूसरी विचारधारा के प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता, -88888888888888888888888888888888888888888888 64 (r)(r)(r)(r)(r)(r)comc@ 280@cr@@ 287 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2222222222222222222222333 | cacacaca cacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 क्योंकि नियुक्ति में तो 'मनःपर्ययज्ञान पदार्थों को प्रकाशित करता है'- यही कहा है, ऐसा नहीं कहा | a गया कि वह पदार्थों को विषय करता है। वस्तुतः वह विषय तो मन के पर्यायों को करता है, किन्तु . उसके आधार पर (अनुमान से) चिन्तित पदार्थों को जानता है। सूत्रकार बहुत-सी बात सूत्र रूप में है कहते हैं, 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः' (व्याख्या के माध्यम से उसमें निहित वैशिष्ट्य को प्रकट कराया जाता है) -इस न्याय से व्याख्यान के साथ सूत्र के हार्द को समझना उचित है। यहां इस नियुक्ति के प्रस्तुत व्याख्याकार आ. हरिभद्र भी गावी गाथा प्रारम्भ करने से पूर्व, यही व्याख्यान ce करने जा रहे हैं कि मनःपर्यायज्ञानी चिन्त्यमान वस्तुओं को साक्षात् नहीं जानता, अनुमान से * जानता है। उपर्युक्त नन्दी सूत्र की गाथा पर इसी दृष्टि से (नन्दी चूर्णि के कर्ता) चूर्णिकार ने भी व्याख्या - ce करते हुए जो अपना मत व्यक्त किया, वह इस प्रकार है- मनःपर्यय ज्ञान अनन्तप्रदेशी मन के पौद्गलिक स्कन्धों तथा तद्गत वर्ण आदि भावों को प्रत्यक्ष जानता है। चिन्त्यमान विषय वस्तु को , a साक्षात् नहीं जानता, क्योंकि चिन्तन का विषय मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं। छद्मस्थ मनुष्य अमूर्त का साक्षात्कार नहीं कर सकता, इसलिए मनःपर्ययज्ञानी चिन्त्यमान वस्तु को अनुमान से ही जानता है सण्णिणा मणत्तेण मणिते मणोखंधे अणंते अणंतपदेसिए दबढ़ताएतम्गतेय वण्णादिएभावे मणपज्जवनाणेणं पच्चक्खं जाणाति त्ति भणितं।मणितमत्थं पुण पच्चक्खं ण पेक्खति, जेण मणालंबणं मुत्तममुत्तं वा, सोय छदुमत्थोतं अणुमाणतो पेक्खति त्ति... (नन्दी चूर्णि, सू. 32) / (दिगम्बर परम्परा का मत-) यहां यह ज्ञातव्य है कि 'मनःपर्याय ज्ञान दूसरे के मन में उठने वाले सभी ज्ञेय पदार्थों को & साक्षात् जानता है' यह मत दिगम्बर परम्परा में विशेष रूप से मान्य रहा है। दिगम्बरपरम्परा के , व प्रसिद्ध आचार्य अकलंक ने मनःपर्याय ज्ञान का स्वरूप यही माना है- 'परकीयमनसि व्यवस्थितमयं . जानाति मनःपर्ययः (राजवार्तिक-1/33/2), अर्थात् दूसरे के मन में उठ रहे पदार्थों को मनःपर्यय , & ज्ञान जानता है। उन्होंने अनुमान से पदार्थों को जानने के मत को सर्वथा नकारते हुए कहा है-: "अन्यदीयमनःप्रतिबन्धात्तन्मनः-संपृक्तानर्थान् जानन् मनःपर्ययोऽनुमानमिति, तन्न।किंकारणम्? " प्रत्यक्षलक्षण-अविरोधात्” (राजवार्तिक-23/4) अर्थात् परकीय मनःसम्बन्धी विचारों को जानना अनुमान है- ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष-लक्षण से विरोध नहीं पाया जाता, अर्थात् 288 89c92c880888080808080920. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acecacecractact 2222222222222233 नियुक्ति-गाथा-16 000000000 प्रत्यक्ष का ही लक्षण उसमें घटित होता है। तात्पर्य यह है कि मनःपर्यय ज्ञान को तो प्रत्यक्ष माना ca गया है, इसे अनुमान से तो इसकी परोक्ष प्रमाण में परिगणना करनी पड़ेगी। अनुमान में परोपदेश , या इन्द्रिय प्रत्यक्ष भी अपेक्षित होता है, जबकि मनःपर्यय ज्ञान में परोपदेश या इन्द्रिय-प्रत्यक्ष , 28 अपेक्षित नहीं होता। आगमिक दृष्टि से प्रत्यक्ष वही होता है जिसमें इन्द्रियादि की अपेक्षा न रखते हुए, ही आत्मा पदार्थों को जानता है, और यह लक्षण मनःपर्यय ज्ञान में घटित होता है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में जो मान्यता प्रमुख आचार्यों द्वारा प्रतिपादित की गई है, उसका &सार इस प्रकार है मनःपर्यवज्ञान का विषय है, मनोद्रव्य, मनोवर्गणा के पुद्गल स्कन्ध। ये पौद्गलिक द्रव्य मन का निर्माण करते हैं। मनःपर्यवज्ञानी उन पुद्गल स्कन्धों का साक्षात्कार करता है। ज्ञानात्मक चित्त को जानने की क्षमता मनःपर्यवज्ञान में नहीं है। ज्ञानात्मक चित्त अमूर्त है जबकि मनःपर्यवज्ञान व मूर्त वस्तु को ही जान सकता है। मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु मनःपर्यवज्ञान का विषय नहीं है। ca चिन्त्यमान वस्तुओं को मन पौद्गलिक स्कन्धों के आधार पर अनुमान से जानता है। मनःपर्यवज्ञान ca के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु का साक्षात्कार नहीं किया जा सकता है- इसी दृष्टि से आ. . जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य (गा. 814) में कहा है दव्वमणोपज्जाएजाणइपासइयतग्गएणते। तेणावभासिए उण जाणइ बज्झेऽणुमाणेणं। आचार्य सिद्धसेनगणी ने चिन्त्यमान विषयवस्तु को और अधिक स्पष्ट किया है। उनका , अभिमत है कि मनःपर्यवज्ञान से चिन्त्यमान अमूर्त वस्तु ही नहीं, स्तम्भ, कुम्भ आदि मूर्त वस्तु भी , नहीं जानी जातीं। उन्हें अनुमान से ही जाना जा सकता है। मनःपर्यवज्ञान से मन के पर्यायों अथवा मनोगत भावों का साक्षात्कार किया जाता है। वे पर्याय अथवा भाव विन्त्यमान विषयवस्तु के आधार. पर बनते हैं। मनःपर्यवज्ञान का मुख्य कार्य विषयवस्तु या अर्थ के निमित्त से होने वाले मन के ce पर्यायों का साक्षात्कार करना है। अर्थ को जानना उसका गौण कार्य है और वह अनुमान के सहयोग " 4 से ही होता है। ca आ. सिद्धसेनगणी ने मनःपर्याय का अर्थ भावमन (ज्ञानात्मक पर्याय) किया है। तात्पर्य की ca दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। चिन्तन करना द्रव्य मन का कार्य नहीं है। चिन्तन के क्षण में मनोवर्गणा के पुद्गल स्कंधों की आकृतियां अथवा पर्याय बनते हैं, वे सब पौद्गलिक होते हैं। भाव मन ज्ञान है, - (r)(r)ce(r)(r)(r)(r) ca(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 289 23.33333333 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3333333333 2222222222222 232323 22222222222. -cacacacaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) parononज्ञान अमूर्त है। अकेवली (छद्मस्थ मनुष्य) अमूर्त को जान नहीं सकता। वह चिन्तन के क्षण में ca पौगलिक स्कन्ध की विभन्न आकृतियों का साक्षात्कार करता है। इसलिए मन के पर्यायों को जानने G का अर्थ भाव मन को जानना नहीं होता, किन्तु भाव मन के कार्य में निमित्त बनने वाले मनोवर्गणा : के पुद्गल स्कन्धों के पर्यायों को जानना होता है। (1) अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यवज्ञान अधिक विशुद्ध होता है। (2) अवधिज्ञान का विषयक्षेत्र सभी रूपी पदार्थ हैं, जबकि मनःपर्यवज्ञान का विषय केवल पर्याप्त संज्ञी जीवों के मानसिक पर्याय ही हैं। (3) इनके स्वामियों में भी अन्तर है। यहां यह विचारणीय है कि अवधिज्ञान का विषय रूपी द्रव्य है और मनोवर्गणा के स्कन्ध भी रूपी द्रव्य हैं। इस प्रकार दोनों का विषय एक ही बन जाता a है। अतः मनःपर्यवज्ञान अवधिज्ञान का एक अवान्तर भेद जैसा प्रतीत होता है। इसीलिए सिद्धसेन ने a अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान को एक माना है। उनकी परम्परा को सिद्धांतवादी आचार्यों ने मान्य नहीं किया है। अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान को एक मानने की विचारसरणि आ. उमास्वामी के सामने रही हो और इसीलिए उन्होंने उसे अमान्य करते हुए अवधिज्ञान व मनःपर्यवज्ञान की स्वतन्त्रता का समर्थन किया हो। मनःपर्यायज्ञान के स्वामी प्रस्तुत गाथा में मनःपर्यवज्ञान के स्वामी का प्रतिपादन किया गया है। चारित्र-सम्पन्न के , ही यह ज्ञान विशिष्ट आत्मीय गुणों से होता है, इसलिए उसे 'गुणप्रत्ययिक' कहा गया है। यह कथन सूत्रात्मक ही है। अन्य शास्त्रों के आधार पर इसका विस्तार से कथन किया जा सकता है (द्र. a नन्दीसूत्र, 21-36) / इसी तरह, भगवती (8/2/142-143) में उल्लेख है कि मनःपर्यवज्ञान आहारक & अवस्था में होता है। अनाहारक अवस्था में उसका वर्जन किया गया है। सामान्यतया आगम में मनःपर्यवज्ञानी के लिए नव अर्हताएं निर्धारित हुई हैं 1. ऋद्धि प्राप्त 2. अप्रमत्त संयत 3. संयत 4. सम्यग्दृष्टि 5. पर्याप्तक 6. संख्येयवर्षायुष्क 7. कर्मभूमिज 8. गर्भावक्रांतिक मनुष्य 9. मनुष्य। तालिका रूप में इसे प्रस्तुत किया जा रहा है अस्वामी अमनुष्य मनुष्य समूर्छिम मनुष्य गर्भावक्रान्तिक मनुष्य अकर्मभूमिज और अंतीपक मनुष्य कर्मभूमिज मनुष्य स्वामी 290 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)928 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | नियंक्ति-माथा-76....ORapooppa असंख्येयवर्षायुष्क मनुष्य अपर्याप्तक मनुष्य मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयत और संयतासंयत संख्येयवर्षायुष्क मनुष्य पर्याप्तक मनुष्य सम्यग्दृष्टि मनुष्य संयत प्रमत्त -अप्रमत्त 22222222222222222332 / 22 अनृद्धिप्राप्त ऋद्धिप्राप्त मनःपर्ययज्ञान आम!षधि ऋद्धियों से सम्पन्न व्यक्ति को ही प्राप्त होता है। (नन्दी) चूर्णिकार, ने एक मतान्तर का भी उल्लेख किया है कि नियमतः अवधिज्ञानी को ही मनःपर्याय ज्ञान प्राप्त हो , ca सकता है। मनःपर्यवज्ञान के दो प्रकार बतलाए गए हैं- ऋजुमति और विपुलमति। चूर्णि के अनुसार, ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान मन के पर्यायों को जानता है। किन्तु अत्यधिक विशेषण से विशिष्ट पर्यायों a को नहीं जानता, जैसे अमुक व्यक्ति ने घट का चिन्तन किया, इतना जान लेता है, किन्तु घट से - सम्बद्ध अन्य पर्यायों को नहीं जानता। विपुलमति मनःपर्यवज्ञान मन के पर्यायों को बहु विशेष रूपों , से जानता है। जैसे अमुक ने घट का चिन्तन किया, वह घट अमुक देश, अमुक काल में बना है, आदि / विशिष्ट पर्यायों से युक्त घट को विपुलमति जान लेता है। - ऋजुमति और विपुलति में अंतर एक उदाहरण से समझना चाहिए।जैसे दो छात्रों ने एक ही , विषय की परीक्षा दी हो और उत्तीर्ण भी हो गये हों। किन्तु एक ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर प्रथम श्रेणी 2. प्राप्त की और दूसरे ने द्वितीय श्रेणी। स्पष्ट है कि प्रथम श्रेणी प्राप्त करने वाले का ज्ञान कुछ अधिक रहा। और दूसरे का उससे कुछ कम / ठीक इसी तरह ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति का ज्ञान अधिकतर, .. 4 विपुलतर एवं विशुद्धतर होता है। ऋजुमति तो प्रतिपाती भी हो सकता है अर्थात् उत्पन्न होकर नष्ट हो सकता है, किन्तु विपुलमति नहीं गिरता। विपुलमति मनःपर्यवनानी उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त ce करता है। व मनःपर्ययज्ञान का द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव -इन चारों दृष्टियों से स्वरूप-निदर्शन इस ce प्रकार है (1) द्रव्यतः- मनःपर्यवज्ञानी मनोवर्गणा के मनरूप में परिणत अनन्त प्रदेशी स्कन्धों की . पर्यायों को स्पष्ट रूप से देखता व जानता है। 2222223222223333333 @ @ @ @ @ @ @ @ @92890@ @900 291 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -232323232233333223232323222333332222222222222 -aaaaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 00000mm (2) क्षेत्रतः- लोक के मध्यभाग में अवस्थित आठ रुचक प्रदेशों से छहों दिशाएं और चार a विदिशाएं प्रवृत्त होती हैं। मानुषोत्तर पर्वत, जो कुण्डलाकार है, उसके अन्तर्गत अढ़ाई द्वीप और दो . a समुद्र हैं। उसे समयक्षेत्र भी कहते हैं। इसकी लम्बाई-चौड़ाई 45 लाख योजन की है। मनःपर्यवज्ञानी , * समयक्षेत्र में रहने वाले समनस्क जीवों के मन की पर्यायों को जानता व देखता है। तथा विमला , a दिशा में सूर्य-चन्द्र, ग्रह-नक्षत्रादि में रहने वाले देवों के तथा भद्रशाल वन में रहने वाले संज्ञी जीवों के , मन की पर्यायों को भी प्रत्यक्ष करता है। वह नीचे पुष्कलावती विजय के अन्तर्गत ग्राम नगरों में , रहने वाले संज्ञी मनुष्यों और तिर्यञ्चों के मनोगत भावों को भी भलीभांति जानता है। मन की पर्याय : ही मनःपर्याय ज्ञान का विषय है। (3) कालतः- मनःपर्यवज्ञानी केवल वर्तमान को ही नहीं, अपितु अतीतकाल में पल्योपम , 4 के असंख्यातवें काल पर्यन्त तथा इतना ही भविष्यत्काल को अर्थात् मन की जिन पर्यायों को हुए a पल्योपम का असंख्यातवां भाग हो गया है और जो मन की भविष्यकाल में पर्यायें होंगी, जिनकी , a अवधि पल्योपम के असंख्यातवें भाग की हैं, उतने भूत और भविष्य-काल को वर्तमान काल की तरह भली-भांति जानता व देखता है। (4) भावतः- मनःपर्यवज्ञान का जितना क्षेत्र बताया जा चुका है, उसके अन्तर्गत जो . समनस्क जीव हैं, वे संख्यात ही हो सकते हैं। असंख्यात नहीं। जबकि समनस्क जीव चारों गतियों - में असंख्यात हैं, उन सबके मन की पर्यायों को नहीं जानता। - अब ऋजुमति व विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के परस्पर अन्तर को ध्यान में रखते हुए दोनों ca का द्रव्यादि की दृष्टि से निरूपण किया जा रहा है (1) द्रव्य से- ऋजुमति अनन्त अनन्तप्रदेशिक स्कन्धों को विशेष तथा सामान्य रूप से , जानता व देखता है, और विपुलमति उन्हीं स्कन्धों को कुछ अधिक विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है। (2) क्षेत्र से- ऋजुमति जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को तथा उत्कर्ष से / नीचे, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितन-अधस्तन क्षुल्लक प्रतर को और ऊंचे ज्योतिषचक्र के उपरितल. पर्यन्त और तिरछे लोक में मनुष्य क्षेत्र के अन्दर अढ़ाई द्वीप-समुद्र पर्यंत, पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस " 1 अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तरद्वीपों में वर्तमान संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोगत भावों को | - 292 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000 -233222222222222333333333333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-16 | जानता व देखता है। और उन्हीं भावों को विपुलमति अढ़ाई अंगुल अधिक विपुल, विशुद्ध और | ca निर्मलतर तिमिर रहित क्षेत्र को जानता व देखता है। (3) काल से- ऋजुमति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट भी पल्योपम, के असंख्यातवें भाग भूत और भविष्यत् काल को जानता व देखता है। उसी काल को विपुलमति , & उससे कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध और वितिमिर अर्थात् सुस्पष्ट जानता व देखता है। (4) भाव से- ऋजुमति अनन्त भावों को जानता व देखता है, परन्तु सब भावों के अनन्तवें / भाग को ही जानता व देखता है। उन्हीं भावों को विपुलमति कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है। . a (हरिभद्रीय वृत्तिः) . इदं द्रव्यादिभिर्निरूप्यते- तत्र द्रव्यतो मनःपर्यायज्ञानी अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्गतप्राणिमनोभावपरिणतद्रव्याणि जानाति पश्यति च, अवधिज्ञानसंपन्न-: मनःपर्यायज्ञानिनमधिकृत्यैवम्, अन्यथा जानात्येव, न पश्यति।अथवा यतः साकारं तदतो ज्ञानम्, यतश्च पश्यति तेन अतो दर्शनमिति। एवं सूत्रे संभवमधिकृत्योक्तमिति, अन्यथा , ca चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनं तत्रोक्तं चतुर्धा विरुध्यते। (वृत्ति-हिन्दी-) मनःपर्यय ज्ञान का द्रव्य आदि की दृष्टि से निरूपण किया जा रहा है ca है- (1) द्रव्य से मनःपर्यायज्ञानी ढाई द्वीप-समुद्र के अन्तर्गत प्राणियों के मनोभाव-परिणत 4 द्रव्यों को जानता है, देखता है। 'जानता है- देखता है' यह कथन उस मनःपर्ययज्ञानी को दृष्टि 4 में रखकर किया है जो अवधिज्ञान-सम्पन्न भी है। अन्यथा मनःपर्ययज्ञानी मात्र जानता ही है, देखता नहीं है (इसका कारण यह है कि मनःपर्यय दर्शन नहीं होता, 'मनःपर्यायज्ञान' ही , होता है, जब कि अवधि आदि ज्ञानों में दर्शन-निराकार उपयोग व ज्ञान- साकार उपयोगात्मक, , दोनों होते हैं)। अथवा साकार उपलब्धि हो तो 'ज्ञान' होता है, और (बाद में मानस अचक्षुर्दर्शन, 9 से) देखता भी है, इस प्रकार सूत्र में संभावना रखकर वैसा (जानता है, देखता है- दोनों) " ca कहा गया है, अन्यथा (आगम में) चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन व केवल दर्शन -ये a जो चार भेद (ही) बताए गए हैं, उससे विरोध प्रसक्त होगा। / (r)(r)(r)90888088000000000000 293 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22222222222222222 -aaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) NOranon | (हरिभद्रीय वृत्तिः) क्षेत्रतः अर्धतृतीयेष्वेव द्वीपसमुद्रेषु, कालतस्तु पल्योपमासंख्येयभागम् एष्यमतीतं वा >> कालं जानाति भावतस्तु मनोद्रव्यपर्यायान् अनन्तानिति।तत्र साक्षान्मनोद्रव्यपर्यायानेव पश्यति, , बाह्यांस्तु तद्विषयभावापन्जाननुमानतो विजानाति।कुतः?, मनसो मूर्तामूर्तद्रव्यालम्बनत्वात्, छास्थस्य चामूर्तदर्शनविरोधादिति। a सत्पदप्ररूपणादयस्तु अवधिज्ञानवदवगन्तव्याः। नानात्वं चानाहारकपर्याप्तकौ ca प्रतिपद्यमानौ न भवतः, नापीतरौ। (वृत्ति-हिन्दी-) क्षेत्र की दृष्टि से अढाई द्वीप-समुद्रों में, तथा काल की दृष्टि से a पल्योपम के असंख्येय भाग भावी या अतीत काल को जानता है। इनमें साक्षात् तो वह a मनोद्रव्य के पर्यायों को ही देखता है, उस पर्यायों के विषयभूत बाह्य पदार्थों को अनुमान से 4 जानता है। ऐसा क्यों? मन तो मूर्त मूर्त व अमूर्त -दोनों द्रव्यों का आलम्बन (विषय) करता है और छद्मस्थ को अमूर्त का दर्शन (ज्ञान) होना विरुद्ध है (अमान्य) है। a (मनःपर्यायज्ञानी की) सत्पद-प्ररूपणा आदि तो अवधिज्ञान की तरह ही समझना , G चाहिए। इस ज्ञान का नानात्व (अल्प-बहुत्व) इस प्रकार है- अनाहारक व अपर्याप्तक -ये मनःपर्यय ज्ञान के प्रतिपद्यमान नहीं होते और न ही पूर्वप्रतिपन्न होते हैं। , ca विशेषार्थ नन्दी सूत्र आदि (सू. 37) में 'मनःपर्यायज्ञानी जानता-देखता है ऐसा प्रयोग मिलता है। यहां टीकाकार ने यह प्रश्न उठाया है कि ज्ञान- जानना तो साकार बोध होता है और दर्शन- देखना अनाकार ज्ञान (उपयोग) होता है। चूंकि मनःपर्यय ज्ञान में 'दर्शन' नहीं होता, सिर्फ ज्ञान होता है। " a अतः मनःपर्यायज्ञान के लिए 'जानता है, देखता है' यह कहना किस प्रकार युक्तिसंगत है? इस " ce सम्बन्ध में विशेषावश्यक भाष्य तथा उसके व्याख्याकार आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने विस्तार से , विवेचन किया है। यहां आ. हरिभद्र की व्याख्या में तो यह संक्षिप्त व सांकेतिक रूप में ही विवेचित 22222222 222222222 हुआ है। आगमों में दर्शन के चार ही प्रकार बताये गए हैं- चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधि दर्शन है और केवल दर्शन। इनमें मनःपर्यय दर्शन नहीं माना गया है। जीवाजीवाभिगम (प्रतिपत्ति- 1) में सभी जीवों में इन्हीं चारों का ही विचार है। पण्णवणा (पद-29) में भी अनाकारोपयोग में इन चारों 294 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 2000000000 2333333333333333333333333333 2322323222223 नियुक्ति गाथा-1 का ही निदर्शन है। स्थानाङ्ग (4/609) में भी उक्त चार ही दर्शनों का संकेत है। मनःपर्यायज्ञानी के या तो दो दर्शन (अचक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन) या तीन दर्शन (चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन व अवधिदर्शन) ही माने , गये हैं। अतः ‘मनःपर्याय ज्ञान जानता है' यह कथन तो सही है, किन्तु 'देखता है' इस कथन पर , र प्रश्नचिन्ह लग जाता है। इस सम्बन्ध में कुछ समाधान प्रस्तुत किये गये हैं। एक समाधान यह है कि . c& मनःपर्यायज्ञानी अवधिदर्शन से देखता है। किन्तु ऐसा भी हो सकता है कि मनःपर्यायज्ञानी अवधिदर्शन . से सम्पन्न नहीं हो। तब फिर 'देखता है' यह कथन पुनः विचारणीय हो जाता है। एक समाधान यह है a आया कि अपने विशिष्ट क्षयोपशम के कारण मनःपर्यायज्ञान साकार ही उत्पन्न होता है, यहां / . 'देखता है' का अर्थ है- प्रकृष्ट ईक्षण, क्योंकि 'दृश्' धातु का प्रेक्षण अर्थ होता है। अवधिज्ञान भी 'मन' " c& का प्रत्यक्ष कर सकता है, किन्तु मन की पर्यायों को जिस प्रकार सूक्ष्मता व विशुद्धता के साथ " मनःपर्यायज्ञानी जानता है, वैसी क्षमता अवधिज्ञान में नहीं है, वह मन में झलकते द्रव्य, क्षेत्र, काल , व भाव को प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। नन्दी सूत्र की व्याख्या में यह भी कहा गया है कि ज्ञान एक होने पर भी क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उसका उपयोग अनेकविध हो सकता है, अतः विशिष्टतर , & मनोद्रव्य पर्यायों को जानने की दृष्टि से देखता है' यह कहा गया है। दूसरा समाधान यह भी आया . कि प्रज्ञापना (पद-30) में मनःपर्याय ज्ञान का पश्यत्तापूर्वक होना बताया गया है। यद्यपि वहां , Ma अनाकार पश्यत्ता नहीं होती, किन्तु साकार पश्यत्ता तो होती ही है। अतः 'देखता है' यह कथन उसी , a 'पश्यत्ता' का संकेतक हो। 'पश्यत्ता' से तात्पर्य है- दीर्घकालिक या त्रिकालविषयक अवबोध / चूंकि 1 & मनःपर्याय ज्ञान पल्योपम के असंख्यात भाग प्रमाण अतीत-अनागत काल को जानता है, अतः यह . a त्रिकालविषयक है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) 4 उक्तं मनःपर्यायनानम्। इदानीमवसरप्राप्तं केवलज्ञानं प्रतिपादयन्नाह नियुक्तिः) अह सव्वदवपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणंतं। सासयमप्पडिवाइ एगविहं केवलन्नाणं // 77 // [संस्कृतच्छायाः-अथ सर्वद्रव्यपरिणामभावविल्लप्तिकारणम् अनन्तम्।शाश्वतमप्रतिपाति एकविधं. 4 केवलज्ञानम् // (वृत्ति-हिन्दी-) मनःपर्याय ज्ञान का निरूपण समाप्त हुआ।अब प्रसंग प्राप्त केवलज्ञान | का प्रतिपादन करने जा रहे हैं (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)90000000 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -aaaaaaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 18.022222222222222222222 (71) (नियुक्ति-हिन्दी-) केवलज्ञान सभी द्रव्यों, उसकी परिणतियों और भावों के विज्ञान का कारण है, अनन्त है, शाश्वत है, अप्रतिपाती है और एक ही प्रकार का होता है। (हरिभद्रीय दृत्तिः) (व्याख्या-) इह मनःपर्यायज्ञानानन्तरं सूत्रक्रमोद्देशतः शुद्धितो लाभतश्च प्राक् केवलज्ञानमुपन्यस्तम्, अतस्तदर्थो पदर्शनार्थमथशब्द इति। उक्तं च- "अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु"। सर्वाणि च तानि द्रव्याणि च सर्वद्रव्याणि-जीवादिलक्षणानि, तेषां परिणामाः- प्रयोगविससोभयजन्या उत्पादादयः सर्वद्रव्यपरिणामाः, तेषां भावः सत्ता स्वलक्षणमित्यनन्तरम्, तस्य विशेषेण ज्ञपनं विज्ञप्तिः, विज्ञानं वा विज्ञप्तिः-परिच्छित्तिः, तत्र भेदोपचारात्, तस्या विज्ञप्तेः कारणं विज्ञप्तिकारणम्, अत एव सर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावविषयं तत्, क्षेत्रादीनामपि द्रव्यत्वात्, तच्च ज्ञेयानन्तत्वादनन्तम्। शश्वद्भवतीति शाश्वतम्, तच्च व्यवहारमयादेशादुपचारतः प्रतिपात्यपि भवति, अत आह६ प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति, न प्रतिपाति अप्रतिपाति, सदाऽवस्थितमित्यर्थः। (वृत्ति-हिन्दी-) मनःपर्याय ज्ञान के बाद, सूत्रोक्त क्रम को दृष्टि में रखते हुए, शुद्धि व " + लाभ (सबके बाद, अंत में प्राप्ति) की दृष्टि से (श्रेष्ठ होने से) केवलज्ञान का निर्देश पहले किया a गया है, इसलिए उसका (ही) निदर्शन यहां किया जा रहा है- इसे सूचित करने हेतु ‘अथ' शब्द यहां प्रयुक्त है। कहा भी है- “अथ शब्द का प्रयोग इन अर्थों में किया जाता हैप्रक्रिया, प्रश्न, आनन्तर्य, मङ्गल, उपन्यास, प्रतिवचन और समुच्चय।' (यहां 'अथ' शब्द 'आनन्तर्य' अर्थ में प्रयुक्त है।) सभी जो द्रव्य, अर्थात् जीव आदि लक्षण वाले सभी द्रव्य, उनके जो परिणाम, परिणाम से तात्पर्य है- प्रयोग या स्वभावतः या दोनों से होने वाले a उत्पाद, व्ययरूप परिणाम, उनका भाव / भाव, सत्ता, स्वलक्षण -ये पर्यायवाची हैं। उस भाव (अस्तित्व) की विज्ञप्ति, यानी उसका विशेषतया ज्ञान, विज्ञान, बोध / उस विज्ञप्ति का कारण यह केवलज्ञान होता है। यहां विज्ञप्ति और केवल ज्ञान में भेदोपचार है (अन्यथा केवल ज्ञान, का ही अभिन्न पर्याय विज्ञप्ति है, फिर भी कारण-कार्य व्यवस्था के लिए दोनों में भेद माना, गया है। इसीलिए (सर्वद्रव्य परिणतियों के सद्भाव को जानने में कारण होने से ही) यह सर्व द्रव्य- सर्वक्षेत्र, सर्वकाल, और सर्व भाव को विषय करने वाला है। यहां क्षेत्र (काल, 888888888888888888888888888888888883333333333 222222223 - 296 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ReceRamnce හන ග හ හ හ හ හ හ -- මෙම 33333333333333333333 -22233333333333333333333322 नियुक्ति-गाथा-78 | भाव) आदि भी द्रव्य हैं (इसलिए 'सर्वद्रव्य' में क्षेत्रादि अन्तर्हित हैं)। चूंकि ज्ञेय अनन्त हैं, / इसलिए वह (केवलज्ञान) अनन्त है। हमेशा होता है, इसलिए वह शाश्वत है। व्यवहार-नय से , (अन्य ज्ञान) उपचारतः प्रतिपाती भी होते हैं, इसलिए कहा- जो प्रतिपतनशील नहीं होता, , & अर्थात् सर्वदा स्थित रहता है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह- अप्रतिपात्येतावदे वास्तु, शाश्वतमित्येतदयुक्तम् / न, & अप्रतिपातिनोऽप्यवधिज्ञानस्य शाश्वतत्वानुपपत्तेः, तस्मादुभयमपि युक्तमिति। एकविधम्' एकप्रकारम्, आवरणाभावात् क्षयस्यैकरूपत्वात्। केवलम्' मत्यादिनिरपेक्ष 'ज्ञानं' संवेदनम्, केवलं च तत्ज्ञानं चेति समास इति गाथार्थः // 77 // (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) 'अप्रतिपाती' इतना ही रहने दें, (शाश्वत का अर्थ 'अप्रतिपाती' शब्द से ही गतार्थ हो जाता है, अतः) 'शाश्वत' भी कहना युक्तियुक्त नहीं है। 4 (समाधान-) यह बात नहीं है। क्योंकि अवधिज्ञान अप्रतिपाती भी होता है, किन्तु वह (केवलज्ञान , की तरह) शाश्वत नहीं होता, इसलिए अप्रतिपाती और शाश्वत- दोनों विशेषण यहां युक्तियुक्त , ca हैं। एकविध यानी एकरूप, चूंकि (समस्त) आवरण क्षीण हो चुका है, और क्षय एकरूप, * होता है (क्षयोपशम की तरह विविध रूप नहीं होता)। 'केवल' यानी जिसमें मति आदि की , & ज्ञानों की अपेक्षा नहीं रहती, ऐसा ज्ञान यानी संवेदन, दोनों का समास होकर 'केवलज्ञान' यह पद निष्पन्न हुआ है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ IIT7 || ca (हरिभद्रीय वृत्तिः) / इह तीर्थकृत् समुपजातकेवलः सत्त्वानुग्रहार्थं देशनां करोति, तीर्थकरनामकर्मोदयात्। ततश्च ध्वनेः श्रुतरूपत्वात् तस्य च भावश्रुतपूर्वकत्वात् श्रुतज्ञानसंभवादनिष्टापत्तिरिति मा , भूमतिमोहोऽव्युत्पन्नबुद्धीनामित्यतस्तद्विनिवृत्त्यर्थमाह (नियुक्तिः) केवलणाणेणत्थे णाउं जे तत्थ पण्णवणेजोगे। ते भासइतित्थयरो वयजोग सुयं हवइ सेसं // 78 // [संस्कृतच्छायाः- केवलनानेन अर्थात् ज्ञात्वा यास्तत्र प्रज्ञापनयोग्यान्। तान् भाषते तीर्थकरो वाग्योगः / श्रुतं भवति शेषम् / (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 297 - 3333333333333388888888888888888888888888880 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REEN CA CR CA CR ca Ce c& श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0 0 0 0 0 0 (वृत्ति-हिन्दी-) 'केवल ज्ञान' उत्पन्न होने के अनन्तर तीर्थंकर इस लोक में प्राणियों "ca पर अनुग्रह-हेतु जो उपदेश करते हैं, उसका कारण है- तीर्थंकर-नामकर्म का उदय / यहां & अव्युत्पन्न बुद्धि (अल्पमति) वालों को यह मति-भ्रम (प्रश्न-) हो सकता है कि ध्वनि रूप, 9 (उपदेश तो) श्रुतरूप होता है और श्रुत की उत्पत्ति भावश्रुत-पूर्वक होती है, किन्तु (केवली 1 ल तीर्थंकर को) श्रुतज्ञान तो असंभव है, अतः यह (उपदेशदान) अनिष्ट आपत्ति रूप है। उक्त " ca मतिभ्रम न हो -इसको दूर करने हेतु आगे की गाथा कह रहे हैं (78) (नियुक्ति-हिन्दी-) तीर्थंकर 'केवलज्ञान' द्वारा पदार्थों को जानकर, उनमें जो प्रज्ञापना (निरूपण) के लायक होते हैं, उनका भाषण (कथन) करते हैं। यह (कथन) उनका 'वारयोग', CR (वचनयोग) होता है, (किन्तु) जो (श्रोताओं के लिए) 'शेषश्रुत' (अर्थात् द्रव्यश्रुत) हो जाता है। : (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) इह तीर्थकरः केवलज्ञानेन ‘अर्थान्' धर्मास्तिकायादीन् मूर्तामूर्तान् / CM अभिलाप्यानभिलाप्यान् ‘ज्ञात्वा' विनिश्चित्य, केवलज्ञानेनैव ज्ञात्वा न तु श्रुतज्ञानेन, तस्य , क्षायोपशमिकत्वात्, केवलिनश्च तदभावात्, सर्वशुद्धौ देशशुद्ध्यभावादित्यर्थः।ये 'तत्र' तेषामर्थानां / ca मध्ये, प्रज्ञापनं प्रज्ञापना, तस्या योग्याः प्रज्ञापनायोग्याः, 'तान् भाषते तानेव वक्ति नेतरानिति। प्रज्ञापनीयानपि न सर्वानेव भाषते, अनन्तत्वात्, आयुषः परिमितत्वात्, वाचः क्रमवर्तित्वाच्च। " किं तर्हि?, योग्यानेव गृहीतृशक्त्यपेक्षया यो हि यावतां योग्य इति। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) यहां तीर्थंकर केवलज्ञान' से, पदार्थों को, अर्थात् मूर्त व . अमूर्त अभिलाप्य (कथनीय) व अनभिलाप्य धर्मास्तिकाय आदि को, निश्चय के साथ , CM 'केवलज्ञान' से जानकर, अर्थात् उन्हें श्रुतज्ञान से नहीं जानते क्योंकि वह क्षायोपशमिक : ल होता है (क्षायिक ज्ञान होने पर, वह श्रुतज्ञान) केवली में नहीं रहता, क्योंकि सर्वशुद्धि होने , पर देश-शुद्धि नहीं रहती -यह तात्पर्य है। उनमें, अर्थात् उन ज्ञेय पदार्थों के मध्य, जो " << प्रज्ञापन -प्रज्ञापना या निरूपणा के योग्य हैं, उन्हें, यानी उन्हें ही (केवली) कहते हैं, अन्य " & (पदार्थों) को नहीं कहते। और सभी प्रज्ञापनीय पदार्थों को भी नहीं कह पाते, क्योंकि वे , C (पदार्थ) अनन्त होते हैं और आयु सीमित होती है एवं वाणी क्रम से ही प्रवृत्त होती है। तो . * क्या कहते हैं? (उत्तर-) ग्रहीता की सामर्थ्य की दृष्टि से, जितना उन ग्रहीता (श्रोता) के लिए " योग्य होता है, उतना ही वे कहते हैं। - 298 @@@@@@c(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 888888888888888888888888888888888888888888888 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRRRR 20090099999900 222222223333333322323222222222222333333333333 नियुक्ति-गाथा-78 / (हरिभद्रीय वृत्तिः) तत्र केवलज्ञानोपलब्धार्थाभिधायकः शब्दराशिः प्रोच्यमानस्तस्य भगवतो वाग्योग , & एव भवति, न श्रुतम्, नामकर्मोदयनिबन्धनत्वात्, श्रुतस्य च क्षायोपशमिकत्वात्, स च श्रुतं , & भवति शेषम्, शेषमित्यप्रधानम्। एतदुक्तं भवति- श्रोतृणां श्रुतग्रन्थानुसारिभावश्रुतज्ञाननिबन्धनत्वाच्छेषमप्रधानं & द्रव्यश्रुतमित्यर्थः। अन्ये त्वेवं पठन्ति- 'वयजोगसुयं हवइ तेसिं'। स वाग्योगः श्रुतं भवति / 'तेषां' श्रोतृणाम्, भावश्रुतकारणत्वादित्यभिप्रायः। अथवा 'वाग्योगश्रुतं' द्रव्यश्रुतमेवेति / गाथार्थः // 78 // (वृत्ति-हिन्दी-) 'केवल ज्ञान' से ज्ञेय पदार्थों को व्यक्त करने वाली जो शब्द राशि बोली जाती है, वह भगवान् जिनेन्द्र का वचन-योग ही होता है, श्रुत (भावश्रुत) नहीं होता, . 6 क्योंकि वह (वचन-योग) (तीर्थंकर-) नामकर्म के उदय से निष्पन्न होता है। (भावश्रुत से 1 ca उत्पन्न वह शब्दराशि हो नहीं सकती, और वह शब्दराशि (भाव) श्रुत भी नहीं हो सकती, 7 है क्योंकि वह क्षायोपशमिक हुआ करती है, अतः वह शेष श्रुत (अवशिष्ट, यानी द्रव्यश्रुत) ही है। " . कहने का तात्पर्य यह है- वह शब्द-राशि श्रोताओं में श्रुतग्रन्थानुसारी भावश्रुतज्ञान " ca को उत्पन्न करती है, इसलिए वह शेषश्रुत यानी द्रव्यश्रुत है। अन्य आचार्य गाथा में 7 a ('वयजोगसुयं हवइ सेसं' की जगह) 'वयजोगसुयं हवइ तेसिं' यह पाठ मानते हैं, अर्थात् // वह वचन-योग उन श्रोताओं के लिए भावश्रुत का कारण होने से, 'द्रव्यश्रुत' होता है। अथवा : वचनयोगश्रुत द्रव्यश्रुत ही है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 78 // a विशेषार्थa यहां यह बताया गया है कि तीर्थंकर का उपदेश छद्मस्थ की तरह नहीं होता। छद्मस्थों द्वारा a भावश्रुत के आधार पर द्रव्यश्रुत रूप उपदेश दिया जाना सम्भव है। किन्तु तीर्थंकर मन में सोचकर या चिन्तन करने के बाद नहीं बोलते। उनके तो (भाव) मन ही नहीं होता। वह जो उपदेश देते हैं, वह तो 5 तीर्थंकर-नाम कर्मोदय के कारण होने वाला 'वचन-योग' (वचनात्मक प्रवृत्ति) ही है। आचार्य कुन्दकुन्द 4 उनके द्वारा बिना किसी इच्छा के धर्मोपदेश होना मानते हैं। . नंदी सूत्र के अनुसार जो ज्ञान सर्व द्रव्य, सर्व क्षेत्र, सर्व काल और सर्व भाव को जानतादेखता है, वह केवलज्ञान है। 88888888&&&&&&&&&&&&&&&&& &&&&&&&&&&&& &&& (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)9000@ce@@ 299 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRRRRace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 आचारचूला से फलित है- केवलज्ञानी सब जीवों के सब भावों को जानता-देखता है। ज्ञेय ce रूप सब भावों की सूची इस प्रकार है- 1. आगति 2. गति 3. स्थिति 4. च्यवन 5. उपपात 6. भुक्त 7. 2 a पीत 8. कृत, 9. प्रतिसेवित, 10. आविष्कर्म- प्रगट में होने वाला कर्म 11. रहस्य कर्म 12. लपित , a 13. कथित 14. मनो- मानसिक। बृहत्कल्प भाष्य में केवलज्ञान के पांच लक्षण बतलाए हैं 1. असहाय-इंद्रिय मन निरपेक्ष / 2. एक- ज्ञान के सभी प्रकारों से विलक्षण / 3. अनिवारित व्यापार- अविरहित उपयोग वाला। 4. अनंत-अनंत ज्ञेय का साक्षात्कार करने वाला। -222333333333333333333333333333333333332223338 5. अविकल्पित- विकल्प अथवा विभाग से रहित। तत्त्वार्थ भाष्य में केवलज्ञान का स्वरूप विस्तार से बताया गया है। वह सब भावों का ग्राहक, संपूर्ण लोक और अलोक को जानने वाला है। इससे अतिशायी कोई ज्ञान नहीं है। ऐसा कोई / ज्ञेय नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो। उक्त व्याख्याओं के संदर्भ में सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की व्याख्या इस प्रकार फलित : होती है- सर्व द्रव्य का अर्थ है मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को जानने वाला। केवलज्ञान के अतिरक्ति : कोई भी ज्ञान अमूर्त का साक्षात्कार अथवा प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। सर्व क्षेत्र का अर्थ है- संपूर्ण आकाश (लोकाकाश और अलोकाकाश) को साक्षात् जानने ce वाला। सर्वकाल का अर्थ है- सीमातीत अतीत और भविष्य को जानने वाला। शेष कोई ज्ञान असीम काल को नहीं जान सकता। सर्व भाव का अर्थ है- गुरुलघु और अगुरुलघु सब पर्यायों को जानने वाला। केवलज्ञान या सर्वज्ञता की इतनी विशाल अवधारणा किसी अन्य दर्शन में उपलब्ध नहीं है। , C केवली या तीर्थंकर के केवलज्ञान व केवलदर्शन- दोनों होते हैं। वे क्रम से होते हैं, या एक साथ होते . 6 हैं- इस विषय में दो विचारधाराएं हैं। एक तीसरी विचारधारा भी है जो इन इन दोनों को अभिन्न ce मानती है। क्रमिक पक्ष आगमाधारित है और इसके मुख्य प्रवक्ता हैं- आ. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण। " / युगपत्वाद के प्रवक्ता है- मल्लवादी। अभेदभाव के प्रवक्ता हैं-सिद्धसेन दिवाकर। . - 300 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@@ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Reacoconcence नियुक्ति-गाथा-18 2222222222222233 2222223333333 पहले क्रमिकवाद की चर्चा करें। भगवती सूत्र (28/8) में ज्ञान को साकार, तथा दर्शन को ce अनाकार मानते हुए इनके एक साथ (युगपत्) होने का निषेध किया गया है। अनावृत आत्मा में ज्ञान सतत प्रवृत्त रहता है और छद्मस्थ को ज्ञान की प्रवृत्ति करनी पड़ती - है। छद्मस्थ को ज्ञान की प्रवृत्ति करने में असंख्य समय लगते हैं और केवली एक समय में ही अपने & ज्ञेय को जान लेते हैं। इस पर से यह प्रश्न उठा कि केवली एक समय में समूचे ज्ञेय को जान लेते हैं , तो दूसरे समय में क्या जानेंगे? वे एक समय में जान सकते हैं, देख नहीं सकते या देख सकते हैं, .. जान नहीं सकते तो उनका सर्वज्ञत्व ही टूट जाएगा! इस प्रश्न के उत्तर में तर्क आगे बढ़ा। दो धाराएं और बन गईं। मल्लवादी ने केवल-ज्ञान से और केवल-दर्शन के युगपत् होने और सिद्धसेन दिवाकर ने उनके अभेद का पक्ष प्रस्तुत किया। दिगम्बर-परम्परा में केवल युगपत्-पक्ष ही मान्य रहा। श्वेताम्बर-परम्परा में इसकी क्रम, , युगपत् और अभेद- ये तीन धाराएं बन गईं। विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के महान् तार्किक यशोविजयजी ने इसका नयदृष्टि से समन्वय : किया है। ऋजु-सूत्र नय की दृष्टि से क्रमिक पक्ष संगत है। यह दृष्टि वर्तमान समय को ग्रहण करती है। यह दृष्टि वर्तमान समय को ग्रहण करती है। पहले समय का ज्ञान कारण है। और दूसरे समय का a दर्शन उसका कार्य है। ज्ञान और दर्शन में कारण और कार्य का क्रम है। व्यवहार-नय भेदस्पर्शी है। 20 & उसकी दृष्टि से युगपत्-पक्ष भी संगत है। संग्रह नय अभेदस्पर्शी है। उसकी दृष्टि से अभेद-पक्ष भी " < संगत है। इन तीनों धाराओं को तर्क-दृष्टि से देखा जाय तो इनमें अभेद-पक्ष ही संगत लगता है। a जानने और देखने का भेद परोक्ष या अपूर्ण ज्ञान की स्थिति में होता है। वहां वस्तु के पर्यायों को , जानते समय उसके सामान्य रूप नहीं जाने जा सकते। प्रत्यक्ष और पूर्ण ज्ञान की दशा में ज्ञेय का , a प्रति समय सर्वथा साक्षात् होता है। इसलिए वहां यह भेद नहीं होना चाहिए। दूसरा भेदपरक दृष्टिकोण आगमिक है। उसका प्रतिपादन स्वभाव-स्पर्शी है। पहले समय में वस्तुगत-भिन्नताओं को जानना और दूसरे समय में भिन्नगत-अभिन्नता को जानना स्वभाव-सिद्ध है। ज्ञान का स्वभाव ही ऐसा है। भेदोन्मुखी ज्ञान सबको जानता है और अभेदोन्मुखी दर्शन सबको देखता है। अभेद में भेद और अभेद में भेद समाया हुआ है, फिर भी भेद-प्रधान ज्ञान और अभेद- 1 ca प्रधान दर्शन का समय एक नहीं होता। (r) (r)ce@ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ 301 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RRORCE CECAR श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9200000 222222233333333333333333333333333333333333333 - | (हरिभद्रीय वृत्तिः) सत्पदप्ररूपणायां च गतिमङ्गीकृत्य सिद्धगतौ मनुष्यगतौ च, इन्द्रियद्वारमधिकृत्य . & नोइन्द्रियातीन्द्रियेषु, एवं त्रसकायाकाययोः, सयोगायोगयोः, अवेदकेषु, अकषायिषु, * शुक्ललेश्यालेश्ययोः, सम्यग्दृष्टिषु, केवलज्ञानिषु, केवलदर्शिषु, संयतनोसंयतयोः, साकरानाकारोपयोगयोः, आहारकानाहारकयोः, भाषकाभाषकयोः, परीत्तनोपरीत्तयोः, पर्याप्तनोपर्याप्तयोः, बादरनोबादरयोः, संज्ञिषु नोसंज्ञिषु, भव्यनोभव्ययोः, मोक्षप्राप्तिं प्रति : ल भवस्थके वलिनो भव्यता, चरमाचरमयोः, चरमः- केवली, अचरमः- सिद्धः भवान्तरप्राप्त्यभावात्, केवलं द्रष्टव्यमिति। पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानयोजना च स्वबुद्धया कर्तव्येति। _ 'द्रव्यप्रमाणं' तु प्रतिपद्यमानानधिकृत्य उत्कृष्टतोऽष्टशतम् / पूर्वप्रतिपन्नाः केवलिनस्तु अनन्ताः। क्षेत्रम्' जघन्यतो लोकस्यासंख्ये यभागः, उत्कृष्ट तो लोक एव, केवलिसमुद्घातमधिकृत्य। एवं स्पर्शनाऽपि। कालतः' साद्यमपर्यन्तम् / अन्तरं' नास्त्येव, ल प्रतिपाताभावात् / भागद्वारं' मतिज्ञानवद् द्रष्टव्यम्। 'भाव' इति क्षायिके भावे। 'अल्पबहुत्वं' & मतिज्ञानवदेव। (वृत्ति-हिन्दी-) सत्पद-प्ररूपणा के अन्तर्गत गति (द्वार) को दृष्टि में रख कर सिद्धगति व मनुष्य-गति में, इन्द्रिय-द्वार के अन्तर्गत नो-इन्द्रिय व अतीन्द्रियों में, इसी प्रकार त्रसकाय व अप्काय, सयोग व अयोग, अवेदक व अकषाय, शुक्ल लेश्या व अलेश्य, सम्यग्दृष्टि, केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, संयत व नोसंयत, साकार उपयोग व अनाकार उपयोग, आहारक व अनाहारक, भाषक व अभाषक, परीत्त व अपरीत्त, पर्याप्त व नोपर्याप्त, बादर व नोबादर, संज्ञी व नोसंज्ञी, भव्य व नोभव्य, चरम व अचरम -इन (सब) में केवलज्ञान का निरूपण समझना चाहिए। यहां भव्य से तात्पर्य है- भवस्थ केवली, जो मोक्ष प्राप्ति के योग्य ल हैं। चरम से तात्पर्य है- केवली, और अचरम से तात्पर्य है- सिद्ध, क्योंकि उन्हें अन्य जन्म " 2 नहीं लेना है। इनमें पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान की योजना अपनी बुद्धि से कर लेनी चाहिए।" द्रव्यप्रमाण- प्रतिपद्यमान केवलियों की दृष्टि से उत्कृष्ट 108 (संख्या) होती है और पूर्वप्रतिपन्न केवली तो अनन्त हैं। क्षेत्र- इनका जघन्य क्षेत्र लोक का असंख्येय भाग होता है 302 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@@ - Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -aceaeeeeee 999999999999 ) -233333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-79 और उत्कृष्ट क्षेत्र केवली-समुद्घात की दृष्टि से (समस्त) लोक ही है, इसी तरह स्पर्शना को / / ca भी समझना चाहिए। काल की दृष्टि से यह सादि-अपर्यवसित है। केवलज्ञान में 'अन्तर' >> नहीं होता, क्योंकि वह प्रतिपाती नहीं होता। भाग द्वारः- मति आदि ज्ञानों की तरह (केवलज्ञान , के 'भाग' द्वार का निरूपण) समझना चाहिए। भाव- मात्र क्षायिक भाव ही इसमें होता है। " अल्पबहुत्वः- यह भी मतिज्ञान की तरह ही समझना चाहिए। (हरिभद्रीय वृत्तिः) उक्तं केवलज्ञानम् / तदभिधानाच्च नन्दी, तदभिधानान्मङ्ग लमिति। एवं तावन्मङ्गलस्वरूपाभिधानद्वारेण ज्ञानपञ्चकमुक्तम् / इह तु प्रकृते श्रुतज्ञानेनाधिकारः, तथा च // नियुक्तिकारेणाभ्यधायि (नियुक्तिः) इत्थं पुण अहिगारो सुयनाणेणं जओ सुएणं तु। - ‘सेसाणमप्पणोऽवि अ अणुओगु पईवदिठ्ठन्तो // 79 // [संस्कृतच्छायाः-इत्थं पुनः अधिकारः श्रुतज्ञानेन यतः श्रुतेन तु। शेषानामात्मनोऽपि च अनुयोगः प्रदीपदृष्टान्तः॥॥ ___ (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, 'केवलज्ञान' का निरूपण हो गया। केवलज्ञान के 7 निरूपण के साथ ही, (पांच ज्ञान रूप) नन्दी का कथन, और उसके साथ ही मङ्गल का , कथन भी पूर्ण हुआ। इस रीति से, मङ्गल-स्वरूप के कथन के माध्यम से 'ज्ञान-पञ्चक' a (पांचों ज्ञानों) का निरूपण समाप्त हो गया। यहां प्रकृत में, 'श्रुतज्ञान' का अधिकार (प्रकरण) चल रहा है, इसीलिए नियुक्तिकार कह रहे हैं (79) (नियुक्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, (यहां तो) अधिकार 'श्रुतज्ञान' का है। कारण यह है - कि श्रुतज्ञान के माध्यम से शेष ज्ञानों का तथा स्वयं का भी अनुयोग (व्याख्यान) किया जाता है ल है, यहां प्रदीप का उदाहरण (ध्यान में रखने योग्य) है। &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& - 8088(r)(r)cence@@@@@@@ 303 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRcacaceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 900999902 222222222238232233333333333333222222222222222 (हरिभद्रीय वृत्तिः) (गमनिका-) अत्र पुनः प्रकृते अधिकारः श्रुतज्ञानेन, यतः श्रुतेनैव 'शेषाणाम्' " मत्यादिज्ञानानाम् आत्मनोऽपि च 'अनुयोगः' अन्वाख्यानम्, क्रियत इति वाक्यशेषः, स्वपरप्रकाशकत्वात्तस्य, प्रदीपदृष्टान्तश्चात्र द्रष्टव्य इति गाथार्थः // 79 // [इति पीठिकाविवरणं समाप्तम्] (वृत्ति-हिन्दी-) यहां तो वर्तमान में 'श्रुतज्ञान' का ही अधिकार (प्रकरण) है। इसमें कारण यह है कि श्रुतज्ञान स्व-परप्रकाशक है, अतः श्रुतज्ञान के द्वारा ही शेष मति आदि ज्ञानों का तथा स्वयं (श्रुतज्ञान) का, अनुयोग यानी निरूपण, 'किया जाता है' -इस कथन से वाक्य पूर्ण होता है। यहां प्रदीप का दृष्टान्त (ध्यान में रखने योग्य) है (जिसके आधार पर , श्रुतज्ञान की स्व-परप्रकाशकता को समझना चाहिए)। विशेषार्थ अभी तक पांचों ज्ञानों का निरूपण किया गया। ये पांचों ही ज्ञान 'नन्दी' अर्थात् मङ्गल रूप & हैं। नियुक्तिकार ने क्रम से पांचों ज्ञानों का सविस्तार निरूपण कर 'मङ्गलमयता' की दृढ़ नींव पर इस ग्रन्थ का विशाल भवन खड़ा किया है। किन्तु नियुक्ति' व्याख्या रूप होती है, इसलिए उसका सीधा , सम्बन्ध आगम या 'श्रुत' से है। श्रुत के अन्तर्गत शेष ज्ञान भी व्याख्यायित होते हैं। इस दृष्टि से , नियुक्तिकार का यह कथन है कि यह प्रकरण या विषयवस्तु वस्तुतः श्रुतज्ञान से ही सम्बन्धित है, " अतः ‘श्रुतज्ञान' का प्रकरण ही अधिकृत है। यह श्रुतज्ञान इतना व्यापक है कि इसके अन्तर्गत . & श्रुतज्ञान का तो निरूपण अभीष्ट है ही, अन्य ज्ञानों पर भी चर्चा की जाती है। इसके आगे नियुक्तिकार , & श्रुतज्ञान की नियुक्ति का प्रतिपादन करने जा रहे हैं, जो एक स्वतन्त्र विषय है। यहां तक पांच ज्ञानों , का निरूपण हुआ, जिसे इस ग्रन्थ की पूर्वपीठिका यानी भूमिका या प्रस्तावना भाग के रूप में , जानना चाहिए। इस तरह ज्ञानपञ्चक विवरण या इस ग्रन्थ की पूर्वपीठिका यहां सम्पन्न हो जाती है। [॥ज्ञानपञ्चक (नन्दी)-व्याख्यान रूपी पूर्वपीठिका समाप्त // ] 3333333888888888.777 304 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)00 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OGRe0RemeROORSPOROSORROWERORE परिशिष्ट 3333333333333333333333333333333388888888888388 मम् ॐNO. 360 (330030030030 (3) Page #347 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRRRRR परिशिष्ट 900099 90 99999999900 ॥आवश्यकनियुक्ति॥ (पूर्वपीठिका मात्र) ॥गाथाओं का वर्णानुक्रम॥ गाथाः गाथा सं. पृष्ठ सं. गाथाः गाथा सं. पृष्ठ सं.] 19 56 148 244 232 63. 257 213 27 अक्खर सण्णी सम्म अणुगामिओ उ ओही अत्थाणं उग्गहणं अद्धाइ अवट्ठाणं छावट्ठी अब्भितरलद्धीए उ तदुभयं अह सव्व दव्वपरिणाम अंगुलमावलियाणं आगम आगमसत्थग्गहणं आणपाणयकप्पे देवा आभिणिबोहियनाणं आभिणिबोहियनाणे आमोसहि विप्पोसहि आहारतेयलंभो उक्कोसेणं इत्थं पुण अहिगारो ईहा अपोह वीमंसा उक्कोसो मणुएसुं मणुस्स उग्गह इक्कं समयं उग्गह ईहाऽवाओ 242 ऊससिअं नीससिअं 20 153 एएसिमसंखिज्जा तिरियं . एगपएसोगाढं परमोही 219 ओरालविउव्वाहारते 203 ओरालिअवेउव्विअ-आहारग | ओरालिअवेउव्विअ-आहारो 1 84 ओही खित्तपरिमाणे कइहि समएहि लोगो 10 कत्तो मे वण्णेउं सत्ती ओहिस्स 26 कत्तो मे वण्णेउं सत्ती सुय 18 146 कम्मोवरि धुवेयर सुण्णेयर 40 203 काले चउण्ह वुड्डी _36 197 केवलणाणेणत्थे णाउं जे ___78 297 खित्तस्स अवट्ठाणं तित्तीसं 57 246 गइ इंदिए य काए 14 103 गइनेरइयाईया हिट्ठा जह 68 271 175 79 12 53 4 303 102 236 53 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 305 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Racecaceece Racece परिशिष्ट හ හා හ හ හ හ හ හ හ හ හ 6 77 गाथा: गिण्हइ य काइएणं घितूण संकलं सो...चक्क चित्तूण संकलं सो...महु चउहि समएहि लोगो चत्तारि गाउयाइं अट्ठाई चारण आसीविस केवली छष्टुिं हिट्ठिम मज्झिम जं केसवस्स उ बलं तं . जावइया तिसमयाहारगस्स णेरइय देव तित्थंकरा य तप्पागारे पल्लग पडहग तिविहंमि सरीरंमि 230 / .230 181 264 गाथा सं. पृष्ठ सं. गाथाः गाथा सं. पृष्ठ सं. 7 75 | भरहंमि अद्धमासो जंबू . 34 190 74: 283 भासग परित्त पज्जत्त .. 15 103 72 283 भासासमसेढीओ 11 94 मणपज्जवनाणं पुण 47 226 मूअं हुंकारं वा __23 165 70 273 विबुहायार जहण्णो वट्टो 237 वुड्डी वा हाणी वा . _59 249 283 सक्कीसाणं पढमं दुच्चं च . सव्वबहुअ-अग्गिजीवा / 31 185 संखाईओ खलु ओही 25 - 169 संखिज्जमणोदव्वे भागो 42 214 संखिज्जमसंखिज्जो पुरिस 200 संखेज जोयणा खलु 52 234 214 संखिजंमि उ काले , संतपयपरूपणया 13 103 सागरामणागारा ओहि 65 262 सुत्तत्थो खलु पढमो . 167 179 सुयनाणे पयडीओ __ 16 139 142 सुस्सूसइ पडिपुच्छइ ____22 163 222 सुहुमो य होइ कालो 37 199 5 57 सोलस रायसहस्सा 71 283 हत्थंमि मुहत्तत्तो दिवसंतो 33 190 तेआ भासादव्वाण अन्तरा तेयाकम्मसरीरे तेआदव्वे दव्याओ असंखिज्जे संखेज्जे 261 दो सोला बत्तीसा सव्यबलेण 283 176 नाणदंसणविब्भंगे नामं ठवणा दविए पत्तेयमक्खराइं अक्खर परमोहि असंखिज्जा लोग पुढे सुणेइ सई फड्डा य अणुगामी फड्डा य असंविज्जा बाहिरलंभे भज्जो दव्वे 253 60 253 62 257 306 (r)(r)R@n@R(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारनाम्नानदान माता जगाला VIE7.50Yध्यराइन्धन्दामा मनवाइनमारमध्यानात समाखनकलालसरता यसायमारवतलवालक जावईबाट नध्यात्वाकागत पुष्प३००० बजवाहनमामध्याशयग्नक अयायमारवनकननिएयसायनावानलबलिर