SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 33222222233333223222322233333333333333333332 -aaaaacaca cace नियुक्ति गाथा-13-15 0 00 90 91 92000| प्ररूपणा, शेष अर्थ पूर्ववत् नियोजित कर लेना चाहिए। (शंका-) जो असत् पद है, क्या | c. उसकी भी प्ररूपणा होती है, जो आप (“पद' के साथ 'सत्' यह विशेषण लगाकर) a 'सत्पदप्ररूपणा' इस प्रकार कह रहे हैं? उत्तर है- खरविषाण (गधे की सींग) आदि असत् , CM पदार्थ की भी प्ररूपणा की जाती है, इसलिए (उसके निराकरण हेतु) 'सत्पदप्ररूवणा' इस : & प्रकार कहा। अथवा यहां 'सत्पदप्ररूपणा' का अर्थ है- गति आदि द्वार रूप जो सत्पद, . - उनके द्वारा मतिज्ञान की प्ररूपणा करना / (सत्पदप्ररूपणा के अलावा) द्रव्य-प्रमाण, अर्थात् 1 ca जीव द्रव्य सम्बन्धी प्रमाण (परिमाण) की भी प्ररूपणा करनी चाहिए। तात्पर्य यह है- एक " * समय में कितनी आत्माएं मतिज्ञान को प्राप्त करती हैं, या सभी मतिज्ञानी कितने हैं इत्यादि (रूप में प्ररूपणा करनी चाहिए)। 'च' समुच्चय ('और' इस) अर्थ को बता रहा है। , (इसके अतिरिक्त,) क्षेत्र की भी प्ररूपणा करनी चाहिए- (जैसे) कितने क्षेत्र में मतिज्ञान : सम्भव है? और 'स्पर्शना' की भी प्ररूपणा करनी चाहिए, (जैसे) मतिज्ञानी कितने क्षेत्र की स्पर्शना करते हैं (आदि)। (शंका-) क्षेत्र व स्पर्शना में क्या अन्तर है? बता रहे है- जहां ce (वर्तमान काल में) पदार्थ का अवगाहन है, वह क्षेत्र है, किन्तु स्पर्शना से तो उससे बाह्य , a भाग (अर्थात् क्षेत्र का पार्श्ववर्ती, अगल-बगल के भाग) का भी ग्रहण होता है, यही दोनों में , 4 अन्तर है। 'च' शब्द पूर्ववत् ('समुच्चय' अर्थ का वाचक) है। व विशेषार्थ ___ वस्तुविशेष को निरूपित करने के अनेक अनुयोग-द्वार (व्याख्यान-बिन्दु) होते हैं। वस्तु को , ca जानना उस वस्तु से सम्बन्धित विविध प्रश्नों के माध्यम से होता है। वे प्रश्न विविध विचार-बिन्दुओं . पर केन्द्रित होते हैं। इन्हें 'अनुयोग द्वार' के रूप में जैन शास्त्रों में व्यवस्थित किया गया है। " सत्पदप्ररूपणा आदि अनुयोगद्वार ही हैं। सद्भूत पदार्थ के अस्तित्व का प्ररूपण विविध दृष्टियों (गति : a आदि द्वारों) से करणीय होता है। द्रव्य प्रमाण के अन्तर्गत विवक्षित वस्तु के परिमाण, भेद, संख्या 1 आदि का निरूपण होता है। क्षेत्र' अनुयोग द्वार और स्पर्शन अनुयोग द्वार -ये परस्परसम्बद्ध प्रतीत " & होते हुए भी कुछ भिन्नता लिए हुए हैं। आचार्य पूज्यपाद ने 'सर्वार्थसिद्धि' में क्षेत्र को वर्तमानकालवी . 4 और स्पर्शन को त्रिकालवर्ती माना है, अर्थात् पदार्थ वर्तमान में जितने प्रदेश में निवास करता है, वह क्षेत्र होता है और जहां त्रिकालवर्ती निवास होता है, वह स्पर्शन होता है (क्षेत्रं निवासः वर्तमान4 कालविषयः, तदेव स्पर्शनं त्रिकालगोचरम्, त. सू. 3/8)।किन्तु विशेषावश्यक भाष्य, उसके व्याख्याकार " / मलधारी हेमचन्द्र तथा आवश्यकनियुक्ति के प्रकृत व्याख्याकार आ. हरिभद्र आदि के मत में जितने | (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 105
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy