________________ -Ratnaana निर्यक्ति-गाथा-60-61 20909200000 सही है कि समस्त लोकाकाश के असंख्येय भाग में समस्त पुद्गलास्तिकाय का असंख्येय भाग ही स्वरूप से स्थित है, और समग्र पुद्गलास्तिकाय के अनन्ततम आदि भाग में समस्त पुद्गल-पर्यायों की राशि भी उसका अनन्ततमवां भाग है, अतः क्षेत्र की असंख्येय आदि भाग की वृद्धि या हानि होने a पर द्रव्य में भी उसी तरह की वृद्धि या हानि होती हैं -इसमें हमारा वैमत्य नहीं है। इसी प्रकार, द्रव्य - के अनन्ततमवें भाग आदि की वृद्धि या हानि होने पर, उसके पर्यायों में भी वैसी ही वृद्धि या हानि , होगी ही। किन्तु यहां जो विचार चल रहा है, वह अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्र आदि की वृद्धि या 1 ca हानि से सम्बन्धित है। सामान्यतया स्वरूपगत वृद्धि-हानि का यहां विचार नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में 2 यह जो विशेषतया वृद्धि-हानि बताई गई है, उसकी विचित्रता (चतुर्विधता, षड्विधता आदि) के पीछे कारण है- अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम / अतः जिस तरह क्षेत्र, द्रव्य व पर्याय की हानि-वृद्धि के ce जो प्रकार बताये गये हैं, वे इसी रूप में युक्तिसंगत हैं, अन्य रूपों में नहीं। वहां अवधिज्ञानावरण की क्षयोपशम की विचित्रता ही ऐसी होती है, उसका उल्लंघन कर वृद्धि-हानि नहीं होती (द्र. विशेषा. भा. गा. 728-734 पर शिष्यहिता टीका)। (हरिभद्रीय वृत्तिः) एवं तावच्चलद्वारं व्याख्यातम्। इदानीं तीव्रमन्दद्वारावयवार्थं व्याचिख्यासुरिदमाह (नियुक्तिः) फड्डाय असंखिज्जा, संखेज्जा यावि एगजीवस्स। एकप्फड्डुवओगे, नियमा सव्वत्थ उवउत्तो // 60 // फड्डा य आणुगामी, अणाणुगामी य मीसगा चेव। पडिवाइअपडिवाई, मीसोय मणुस्सतेरिच्छे॥६१॥ [संस्कृतच्छायाः-फडकानिच असंख्येयानि संख्येयानि चापि एकजीवस्याएकफडकोपयोगे नियमात् सर्वत्र उपयुक्तः फहकानि च अनुगामीनि अननुगामीनि मिश्राणि चैव ।प्रतिपातीनि अप्रतिपातीनि मिश्राणि च & मनुष्य-तिर्यक्षु॥ ca (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, चल द्वार का व्याख्यान पूरा हुआ। अब तीव्र-मंद द्वार के अन्तर्गत (अवधिज्ञान का) व्याख्यान करने हेतु आगे की गाथा कह रहे हैं (60-61) (नियुक्ति-अर्थ-) एक जीव के 'स्पर्धक' असंख्येय या संख्येय होते हैं। एक स्पर्धक , ce का उपयोग करते समय, वह नियमतः, अन्य सब का भी (युगपत्) उपयोग करता है|60|| 333333333333333333333333333333333333333333333 / -88888888888888888888888888888888888888888888 - can@ce(r)(r)(r)(r)ce@7838@@ 2539