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________________ 222222333232322332223222333333333333333333333 aacacacacacacace नियुक्ति गाथा-13-15 0 00000000 'आत्मा का मोक्ष-अविरोधी विशिष्ट (आंशिक निर्मल) परिणाम 'सम्यक्त्व' है। इसमें जीवादि पदार्थों का विपरीत अभिनिवेश हटकर उनके प्रति यथार्थ श्रद्धान होता है। इसमें आत्मा की 6 अन्तर्मुखी प्रवृत्ति सम्भव होती है। प्रशम, संगेव, निर्वेद, अनुकम्पा व आस्तिकता -ये लक्षण, सम्यक्त्व के माने गये हैं। सम्यक्त्व की प्राप्ति का निश्चित कारण होता है -अनादि पारिणामिक " व भव्यत्व भाव का विपाक (अन्तरंग कारण)। प्रवचन-श्रवण आदि बाह्य कारण भी निमित्त रूप से माने " जाते हैं। आन्तरिक कारण की विविधता से सम्यक्त्व के औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक आदि भेद होते हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क व दर्शनमोहनीय-त्रिक -इन सात प्रकृतियों के उपशम से c तत्त्वरुचि रूप आत्मीय परिणाम 'उपशम सम्यक्त्व' है, और इन्हीं सात प्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न a आत्म-परिणाम क्षायिक सम्यक्त्व' है।अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यग् मिथ्यात्व " & -इन छः प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सद्-अवस्था रूप उपशम से तथा देशघाती . स्पर्धक (वर्गणा-समूह) वाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में तत्त्वरुचि परिणाम 'औपशमिक सम्यक्त्व' होता है। (विशेष विवरण हेतु अन्य कर्मग्रन्थ द्रष्टव्य हैं।) सम्यग्दृष्टि में आभिनिबोधिक ज्ञान के सद्भाव का निरूपण 'सम्यक्त्व' द्वार के माध्यम से यहां किया गया है। इस विषय में नय दृष्टि के अन्तर को विशेष ध्यान में रखा गया है। प्रकृत निरूपण " a सूत्रात्मक व संक्षिप्त है। अतः स्पष्टीकरण हेतु व्यवहार व निश्चयनय -इन दोनों के स्वरूप-भेद को " समझना यहां अपेक्षित है। व्यवहार नय 'असत्कार्यवादी' है। मिट्टी बिखरी हुई होती है, उस समय घड़ा नहीं होता। उसमें पानी मिला कर, पिण्ड बनाकर, चाक पर चढ़ा कर, विविध क्रिया करते हुए 'घट' का निर्माण ल होता है, तब 'घट' सत् होता है। अपने निर्माण से पहले 'घट' सत् नहीं, असत् रहता है, मात्र मिट्टी 22 on 'सत्' रहती है। इसी मान्यता के परिप्रेक्ष्य में 'ज्ञान' द्वार का निरूपण करते हुए कहा गया है कि " मिथ्यादृष्टि-अज्ञानी को जब सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, तब वह सम्यक्त्व व ज्ञान (जो पहले नहीं था, , : उस) को प्राप्त करता हुआ ‘प्रतिपद्यमान' होता है, किन्तु (पहले से ही) सम्यक्त्व ज्ञान-सम्पन्न व्यक्ति / a 'प्रतिपद्यमान' नहीं होता। इसके विपरीत, निश्चय नय यह मानता है कि सम्यक्त्व, सहित के ही a सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। किन्तु इस मान्यता का विरोध करता हुआ व्यवहार नय कहता है कि जो " वस्तु पहले से ही सद्प हो, उसका उत्पादन संगत नहीं। जो नहीं है, उसी की उत्पत्ति होती है। मिथ्यादृष्टि पहले सम्यक्त्वहीन था, बाद में वह सम्यक्त्व प्राप्त करता है। जैसे कोई पूर्वनिष्पन्न घड़े को * कोई (पुनः) बना नहीं सकता, वैसे सम्यग्दृष्टि के पहले से ही सम्यक्त्व है, उस सम्यक्त्व को वह उत्पन्न , कैसे करेगा? यदि फिर भी करे तो करता ही रहेगा, उसका विराम होगा ही नहीं, तब सम्यक्त्व का नाश (r)(r)(r)(r)(r)Recence@@@ce@@ 115 -88888888888888888888888888888888888888888
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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