________________ 333333 caca ca cace cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 090020200090 सद्भाव है, अन्य का नहीं। (8) अब 'सम्यक्त्व' द्वार का विचार किया जा रहा हैcसम्यग्दृष्टि (आभिनिबोधिक ज्ञान-लाभ की दृष्टि से) क्या पूर्वप्रतिपन्न है या प्रतिपद्यमानक है & -इस सम्बन्ध में व्यवहार व निश्चय -इन दोनों नयों से विचार किया जा रहा है। इनमें से व्यवहार नय का कथन है कि सम्यग्दृष्टि आभिनिबोधिक ज्ञान के लाभ की दृष्टि से 'पूर्वप्रतिपन्न' ल होता है, प्रतिपद्यमानक नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन, मति, श्रुत ज्ञान -इन (तीनों) की युगपत् / 4 (एक साथ) प्राप्ति होती है, अन्यथा (युगपत् प्राप्ति न हो तो) आभिनिबोधिक ज्ञान की प्राप्ति ca की अनवस्था हो जाएगी। किन्तु निश्चय नय कहता है- सम्यग्दृष्टि आभिनिबोधिक ज्ञान& लाभ की दृष्टि से पूर्वप्रतिपन्न भी है और प्रतिपद्यमानक भी है, क्योंकि वहां सम्यग्दर्शन साथ, a में रहता है, एवं क्रिया-काल और निष्ठाकाल (कार्योत्पत्ति-काल) -इन दोनों में अभेद है। यदि . & भेद मानें तो क्रिया और वस्तु-अभाव -इन दोनों में अन्तर नहीं रहेगा, और पूर्व की तरह... 4 (असद्) वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो पाएगी। और इस प्रकार (अभेद मानने पर) आभिनिबोधिक * ज्ञान की प्रतिपत्ति की अनवस्था भी नहीं रहती। विशेषार्थ कषायोदय से अनुरंजित योग-प्रवृत्ति द्वारा होने वाले आत्मीय विविध परिणामों को -जो कृष्ण, नील आदि विविध वर्णीय पुद्गल-विशेष के प्रभाव से होते हैं- 'लेश्या' कहा जाता है। लेश्या ही आत्मा को पुण्य-पाप से, विविध कर्मों से संश्रुिष्ट करती है। लेश्या के दो प्रकार हैं- द्रव्यलेश्या व ca भावलेश्या / मोह कर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम या क्षय से जीव में होने वाली आत्म-प्रदेशीय ca चंचलता या परिस्पन्द ही भावलेश्या है। इसमें साधन हैं-जीवविपाकी मोहनीय कर्म तथा वीर्यान्तराय ca कर्म की अवस्थाएं। द्रव्य लेश्या शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न एवं पौद्गलिक हैं, इस दृष्टि से & वर्णनामकर्म के उदय से उत्पन्न शरीर-वर्ण को द्रव्य लेश्या कहा जाता है। लेश्याओं के छः प्रकार हैं- कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल / इनमें प्रथम तीन " ce अप्रशस्त हैं, शेष प्रशस्त हैं, इनमें भी उत्तरोत्तर प्रशस्तता (श्रेष्ठता) समझनी चाहिए। (विशेष विवरण 2 हेतु उत्तराध्ययन का (34वां) लेश्याध्ययन द्रष्टव्य है।) 'लेश्याद्वार' द्वारा विविध लेश्या वाले जीवों में ज्ञान के सद्भाव का निरूपण किया गया है। " & प्रशस्त तीन लेश्याओं में ज्ञान के सद्भाव का कथन पंचेन्द्रियों की तरह कथनीय है। तीनों अप्रशस्त , लेश्याओं में पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं, प्रतिपद्यमान नहीं होते। 3333333333333333333333333333338888888888888 333333333 - 114 @ @R@nec8e8 @ @ @ @ @ @ @ -