________________ - ReceRamnce හන ග හ හ හ හ හ හ -- මෙම 33333333333333333333 -22233333333333333333333322 नियुक्ति-गाथा-78 | भाव) आदि भी द्रव्य हैं (इसलिए 'सर्वद्रव्य' में क्षेत्रादि अन्तर्हित हैं)। चूंकि ज्ञेय अनन्त हैं, / इसलिए वह (केवलज्ञान) अनन्त है। हमेशा होता है, इसलिए वह शाश्वत है। व्यवहार-नय से , (अन्य ज्ञान) उपचारतः प्रतिपाती भी होते हैं, इसलिए कहा- जो प्रतिपतनशील नहीं होता, , & अर्थात् सर्वदा स्थित रहता है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह- अप्रतिपात्येतावदे वास्तु, शाश्वतमित्येतदयुक्तम् / न, & अप्रतिपातिनोऽप्यवधिज्ञानस्य शाश्वतत्वानुपपत्तेः, तस्मादुभयमपि युक्तमिति। एकविधम्' एकप्रकारम्, आवरणाभावात् क्षयस्यैकरूपत्वात्। केवलम्' मत्यादिनिरपेक्ष 'ज्ञानं' संवेदनम्, केवलं च तत्ज्ञानं चेति समास इति गाथार्थः // 77 // (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) 'अप्रतिपाती' इतना ही रहने दें, (शाश्वत का अर्थ 'अप्रतिपाती' शब्द से ही गतार्थ हो जाता है, अतः) 'शाश्वत' भी कहना युक्तियुक्त नहीं है। 4 (समाधान-) यह बात नहीं है। क्योंकि अवधिज्ञान अप्रतिपाती भी होता है, किन्तु वह (केवलज्ञान , की तरह) शाश्वत नहीं होता, इसलिए अप्रतिपाती और शाश्वत- दोनों विशेषण यहां युक्तियुक्त , ca हैं। एकविध यानी एकरूप, चूंकि (समस्त) आवरण क्षीण हो चुका है, और क्षय एकरूप, * होता है (क्षयोपशम की तरह विविध रूप नहीं होता)। 'केवल' यानी जिसमें मति आदि की , & ज्ञानों की अपेक्षा नहीं रहती, ऐसा ज्ञान यानी संवेदन, दोनों का समास होकर 'केवलज्ञान' यह पद निष्पन्न हुआ है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ IIT7 || ca (हरिभद्रीय वृत्तिः) / इह तीर्थकृत् समुपजातकेवलः सत्त्वानुग्रहार्थं देशनां करोति, तीर्थकरनामकर्मोदयात्। ततश्च ध्वनेः श्रुतरूपत्वात् तस्य च भावश्रुतपूर्वकत्वात् श्रुतज्ञानसंभवादनिष्टापत्तिरिति मा , भूमतिमोहोऽव्युत्पन्नबुद्धीनामित्यतस्तद्विनिवृत्त्यर्थमाह (नियुक्तिः) केवलणाणेणत्थे णाउं जे तत्थ पण्णवणेजोगे। ते भासइतित्थयरो वयजोग सुयं हवइ सेसं // 78 // [संस्कृतच्छायाः- केवलनानेन अर्थात् ज्ञात्वा यास्तत्र प्रज्ञापनयोग्यान्। तान् भाषते तीर्थकरो वाग्योगः / श्रुतं भवति शेषम् / (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 297 - 3333333333333388888888888888888888888888880