________________ -aaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2000000 222222222 विशेषार्थ .. ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति आदि प्रयोजनों की सिद्धि के लिए शास्त्र के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण , a परमावश्यक माना गया है। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने (विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-13 में) ca शास्त्र के प्रारम्भ, मध्य व अन्त में मङ्गलाचरण किये जाने का समर्थन करते हुए, कहा है- उस // ca मङ्गल को शास्त्र के आदि, मध्य व अन्त में भी करना चाहिए, इनमें प्रथम (आदि) माल से शास्त्र व उसके उद्देश्य की निर्विघ्न सम्पन्नता सम्भव होती है। बाकी के मध्य माल व अन्तिम मङ्गल से शास्त्र की स्थिरता और शिष्य-प्रशिष्य की परम्परा का न टूटना -ये प्रयोजन सिद्ध होते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने भी (प्रमाणमीमांसा में) पूर्वोक्त तथ्य का समर्थन करते हुए कहा है- “माल किये जाने , पर, प्रतिपक्ष (विघ्नरूपी शत्रु) के नाश होने के कारण, शास्त्र की निर्विघ्न, बिना रुकावट के समाप्ति , होती है, साथ ही शास्त्र को सुनने (पढ़ने-पढ़ाने) वाले भी दीर्घ आयु वाले होते हैं"। मङ्गलाचरण के . a अलावा अनुबन्धचतुष्टय या अनुबन्धत्रय का भी निर्देश करना आवश्यक माना गया है। प्रायः अनुबन्धों की संख्या चार मानी गई है- (वे हैं-) (1) अभिधेय (विषयवस्तु), (2) प्रयोजन हेतु या , फल), (3) अभिधेय व प्रयोजन -इन दोनों का शास्त्र (जिसकी रचना की जा रही है) के साथ a सम्बन्ध, तथा (4) अधिकारी (शास्त्र के अध्ययन का कौन अधिकारी, योग्य पात्र है)। जिस शास्त्र , की रचना की जा रही है, उसमें किस विषय का प्रतिपादन किया जाना है, उस शास्त्र के अध्ययन से क्या (लाभ) प्राप्त होगा, अथवा किस विशेष प्रयोजन की सिद्धि होगी, इसी प्रकार रचे जा रहे शास्त्र, ca के अध्ययन हेतु कौन उपयुक्त (योग्य) व्यक्ति (हो सकता) है-इत्यादि विषयों का निरूपण करना ही , ca चार अनुबन्धों का निदर्शन होता है। इन चारों अनुबन्धों में (भी), जैनाचार्यों ने तीन ही अनुबन्धों को . प्रमुख रूप से स्वीकारा है। वे हैं- अभिधेय, प्रयोजन और इन दोनों को शास्त्र से सम्बन्ध / इनमें , ca 'अधिकारी' की जगह मङ्गलाचरण का निर्देश कुछ आचार्य करते हैं, अतः उनके मतानुसार अभिधेय, ca प्रयोजन, इन दोनों का शास्त्र से सम्बन्ध और मङ्गलाचरण -इस प्रकार चार अनुबन्ध हैं- यह है a ज्ञातव्य है। इन अनुबन्धों के निर्देश करने से ही शास्त्र के अध्ययन में पाठकों की प्रवृत्ति होती है। उक्त , तथ्य के समर्थन में अन्य शास्त्रीय वचन भी यहां प्रासनिक हैं। जैसे- "सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं श्रोतुं , श्रोता प्रवर्तते" (मीमांसा-श्लोकवार्तिक, प्रतिज्ञासूत्र, श्लोक-17) अर्थात् उसी शास्त्र को सुनने के लिए, या पढ़ने के लिए श्रोता या अध्येता प्रवृत्त होता है जिसका अर्थ (अर्थ= अभिधेय व प्रयोजन) सिद्धव स्पष्ट निर्दिष्ट हो- वह प्रयोजन निर्विवाद रूप से संकेतित हो, और साथ ही उक्त प्रयोजन और उस " शास्त्र का परस्पर सम्बन्ध भी स्पष्ट हो। इसी दृष्टि से वृत्तिकार ने शंका उठा कर उसका आगे , समाधान भी प्रस्तुत किया है। 890820084000000000000000.