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________________ 33338 333333333333333333333333333333333333333333333 ES ca RCA CA CROR श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9020 200000 / विशेषार्थ भाषा के स्वरूपादि के विषय में जैन शास्त्रों में पर्याप्त चर्चा हुई है। प्रज्ञापना एवं विशेषावश्यक है भाष्य आदि में विस्तार से इस पर प्रकाश डाला गया है। वक्ता जब अपने विचारों और भावनाओं को दूसरों के प्रति अभिव्यक्त करने की इच्छा करता है तो सर्वप्रथम उसका मनोयोग सक्रिय होता है। मन के सक्रिय होने से वचनयोग सक्रिय होता है। & वाक् के सक्रिय होने से काययोग सक्रिय होता है। शरीर के सक्रिय होने पर वक्ता का स्वरयंत्र भाषा- 2 & वर्गणा के परमाणुओं (अर्थात् ध्वनिरूप में परिवर्तित होने योग्य पुद्गल-परमाणुओं) का ग्रहण करता - है और उनका भाषारूप में परिणमन करता है अर्थात् उन्हें विशिष्ट शब्दध्वनियों के रूप में परिवर्तित , करता है और अन्त में उन ध्वनि रूपों का उत्सर्जन करता है अर्थात् उन्हें बाहर निकालता है। शब्द-ध्वनि के प्रसरण की यह प्रक्रिया को इस प्रकार समझा जा सकता है। सर्वप्रथम ध्वनि रूप में निःसृत पुद्गल अपने समीपस्थ पुद्गल स्कन्धों को प्रकम्पित कर अपनी शक्ति के अनुरूप c. उन्हें शब्दायमान करते हैं। अर्थात् उन ध्वनिरूप पुद्गलों के निमित्त से भाषावर्गणा के दूसरे पुद्गलों " में भी शब्द-पर्याय उत्पन्न हो जाती है, वे शब्दायमान दूसरे पुद्गल भी पुनः अपने समीपस्थ पुद्गलों , को शब्दायमान करते हैं और इस प्रकार क्रमशः उत्पन्न होती हुईं ये ध्वनि-तरंगें भाषा-वर्गणा के / पुद्गलों के माध्यम से लोकान्त तक पहुंच जाती है जिस प्रकार जलाशय में फेंके गये एक पत्थर से , प्रकम्पित जल में उत्पन्न तरंगें अपने समीपस्थ जल को क्रमशः प्रकम्पित करते हुए जलाशय के तट " & तक पहुंच जाती हैं, उसी प्रकार शब्द-ध्वनियां भी लोकान्त तक अपनी यात्रा करती हैं। वक्ता द्वारा , उत्सृष्ट शब्द द्रव्य प्रथम समय में स्वभावतः अनुश्रेणी में गमन करते हैं। दूसरे समय में उनके द्वारा वासित शब्द द्रव्यों की गति विषम श्रेणी में होती है, और वे मूल रूप में नहीं रह पाते / यही कारण है ? c& कि विषम श्रेणी में स्थित श्रोता को वासित शब्द ही सुनाई पड़ते हैं, मूल मुक्त शब्द द्रव्य नहीं। यद्यपि " ध्वनि प्रसरणशील होती है, फिर भी उसकी प्रसरणक्षमता वक्ता की शक्ति पर निर्भर करती है। अतः , कुछ ध्वनि-तरंगें वक्ता के स्वरयन्त्र से निकलकर दूर तक श्रव्यरूप में जाती हैं, जबकि कुछ थोड़ी दूर, CA जाकर अश्रव्य बन जाती हैं। अतः यह आवश्यक नहीं है कि सभी शब्द लोकान्त तक श्रव्यरूप में ही & पहुंचे। इसका कारण यह है कि शब्दों की संवेदना वायु के आधार पर निर्भर करती है। अनेक " स्थितियों में अनुकूल दिशा की वायु होने पर दूर के शब्द भी सुने जा सकते हैं। किन्तु प्रतिकूल वायु होने पर पास के शब्द भी सुनाई नहीं देते। यह श्रव्यमान ध्वनि तीन प्रकार की हो सकती है- उच्चरित, वासित, उच्चरित-वासित (मिश्र)। इसमें वक्ता द्वारा बोला गया मूल शब्द उच्चरित है। वक्ता द्वारा बोला गया यह शब्द जब अपने (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 888888888888888888888888888888888888
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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