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________________ && accacacaack श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0900909099 (वृत्ति-हिन्दी-) दूसरी बात, (यह बताएं, जब मन प्राप्यकारी है तो) शरीर से बाहर कौन निकलता है, द्रव्यमन या मनोरूप में परिणत होने वाला जीवात्मक भावमन? भावमन , तो बाहर निकलता नहीं, क्योंकि वह तो सारे शरीर में (व्याप्त होकर) ही रहता है (कभी .. ca बाहर नहीं रहता)। यदि उसे सर्वगत मान लें तो उसे नित्य मानना पड़ेगा और तब उसके / बन्ध व मोक्ष आदि का अभाव प्रसक्त होगा (जो कथमपि अभीष्ट नहीं होगा)। यदि आप कहें / कि द्रव्य मन बाहर निकलता है तो यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि द्रव्यमन बाहर निकले भी तो वह जड़ होने से पत्थर की तरह अकिंचित्कर रहेगा (विषय-ज्ञान में किसी . प्रकार कार्यकारी नहीं होगा)। (शंका-) जैसे (जड़ पदार्थ) दीपक रूपी करण (प्रमुख र & साधन) द्वारा प्रकाशित किये गये पदार्थ को आत्मा ग्रहण करती है (जानती है), उसी तरह " a जड़ रूप द्रव्य मन से भी प्रकाशित किये गये पदार्थ को आत्मा ग्रहण करती है- ऐसा हमारा कहना है। (उत्तर-) आपका कथन समीचीन नहीं, क्योंकि आत्मा जो जानती है, वह शरीर ca में ही स्थित द्रव्यमन से जानती है, न कि किसी बहिर्गामी द्रव्यमन से, क्योंकि मन एक & अन्तःकरण है, और जो भी जिस आत्मा का अन्तःकरण होता है, उसकी उपलब्धि उस . आत्मा को शरीरस्थ रूप में ही होती है. जैसे त्वक इन्द्रिय / प्रदीप तो आत्मा का अन्तःकरण, है नहीं, इसलिए दृष्टान्त व दार्टान्त -इन दोनों का वैषम्य होता है (वस्तुतः तो दोनों का साम्य . न ही होना चाहिए, किन्तु दोनों में वैषम्य है, इसलिए उसके आधार पर द्रव्यमन को बहिर्गामी 1 & सिद्ध नहीं किया जा सकता)। अतः इससे अधिक कहने की अब अपेक्षा नहीं रह जाती है। " & प्रकृत विषय पर पुनः चर्चा कर रहे हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 5 // ca विशेषार्थ उपर्युक्त विषय की चर्चा विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-217-218) में और उसकी टीकाओं में a विस्तार से हुई है, जिसका सार इस प्रकार है- जीव काययोग की सहायता से चिन्तन-प्रक्रिया की , प्रवर्तक जिन मनोवर्गणा को ग्रहण करता है, उसी के अन्तर्गत जो द्रव्य-समूह है, वही द्रव्यमन है। वह स्वयं ज्ञाता नहीं होता, क्योंकि वह पत्थर के टुकड़े की तरह अचेतन है। यहां पूर्वपक्षी का कहना है कि 1 << यद्यपि द्रव्यमन स्वयं कुछ नहीं जानता, तथापि जैसे वस्तु को प्रकाशित होने में प्रदीप आदि करण , & (साधन) होते हैं, वैसे ही (पदार्थ-बोध में) द्रव्यमन का करण भाव या उसकी करण-रूपता मान सकते , हैं। इसका उत्तर भाष्यकार ने इस प्रकार दिया है- वह (द्रव्यमन) (शरीरस्थ) स्पर्शन इन्द्रिय की तरह * ही एक अन्तःकरण है बाह्य करण नहीं है। अन्तः करण होने के कारण, वह द्रव्यमन स्पर्शन इन्द्रिय " / की तरह कभी बाहर नहीं निकलता। 'करण' दो प्रकार के होते हैं- (१)अन्तःकरण, जो शरीर में ही / 333 333333333 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&a 70 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)RO900CR(r)(r)
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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