________________ 9000000000 2222222223333333333333333333 33333333333322382 caca caca caca cace नियुक्ति गाथा-5 पाती)। उत्तर- अव्यवहित पदार्थ को नहीं देख पाने में कारण यह है कि विषय-ज्ञान में जो & अपेक्षित क्षयोपशम है, उसका वहां सद्भाव नहीं होता। (शंका-) क्षयोपशम आदि के कारण , की बात तो मात्र आगम में ही प्रतिपादित है (युक्ति से तो नहीं)। उत्तर- क्यों नहीं, यहां युक्ति से भी है। जैसे- किसी आवरण के न होने पर भी परमाणु का दर्शन (प्रत्यक्ष) नहीं होता, .. 8 इसका (कोई न कोई कारण तो होगा, वह) कारण क्षयोपशम ही है (अन्य कुछ नहीं)। और जो आपने यह कहा कि 'दृष्टान्त साध्य रहित है', वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञेय पदार्थ व 1 & मन का संपर्क होता ही नहीं (वह अप्राप्यकारी ही है), अन्यथा जल, कपूर आदि के चिन्तन a से मन का अनुग्रह होता और अग्नि आदि के चिन्तन से उपघात होता, किन्तु मन का कभी " & उन (जल, या अग्नि) के कारण अनुग्रह या उपघात नहीं होता (देखा गया है)। (शंका-) मन जब अनिष्ट विषय का चिन्तन करता है, तब वह अत्यधिक शोक के . कारण उसमें दुर्बलता रूप उपघात होता है और आर्तध्यान से उरोभिघात (छाती पर प्रहारादि) . होता देखा जाता है। इसी प्रकार, इष्ट विषय के चिन्तन में प्रमोद (रूप अनुग्रह) भी होता , & देखा जाता है, इसलिए मन की प्राप्यकारिता है। उत्तर- आपका यह भी कहना ठीक नहीं। , द्रव्य मन से अनिष्ट या इष्ट पुद्गलों के संग्रह रूप कार्य में प्रवृत्त प्राणी के उसी तरह अनुग्रह & या उपघात होता है जिस तरह अनिष्ट आहार से उपघात और इष्ट आहार से अनुग्रह होता है / a (अर्थात् विषय-चिन्तन से मन का कोई अनुग्रह व उपघात नहीं होता, अपतुि द्रव्यमन से इष्ट- 1 & अनिष्ट पुद्गल गृहीत होते हैं, उनसे मन का अनुग्रह या उपघात होता है), अतः मन की " प्राप्यकारिता कैसे सिद्ध हुई? (अर्थात् सिद्ध नहीं हुई) (हरिभंद्रीय वृत्तिः) 4. किं च-द्रव्यमनो वा बहिः निस्सरेत्, मनःपरिणामपरिणतं जीवाख्यं भावमनो वा?, स न तावद्भावमनः, तस्य शरीरमात्रत्वात्, सर्वगतत्वे च नित्यत्वात् बन्धमोक्षाद्यभावप्रसङ्गः ।अथ , a द्रव्यमनः, तदप्ययुक्तम्, यस्मान्निर्गतमपि सत् अकिश्चित्करं तत्, अज्ञत्वात्, उपलवत्।आह- 1 a करणत्वाद्रव्यमनसस्तेन प्रदीपेनेव प्रकाशितमर्थमात्मा गृह्णातीत्युच्यते, न / यस्मात् शरीरस्थेनैवानेनं जानीते, न बहिर्गतेन, अन्तःकरणत्वात् / इह यदात्मनोऽन्तःकरणं स तेन , शरीरस्थेनैव उपलभते, यथा स्पर्शनेन, प्रदीपस्तु बान्तःकरणमात्मनः, तस्माद् . दृष्टान्तदान्तिकयोवैषम्यमित्यलं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तुमः इति गाथार्थः // 5 // 88888888888888 (r)n@ca(r)(r)R@ @ @ @ @ @ @ @ @ 69 -