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________________ -223222222222333333333333223823333333333333333 -acacaaaa& श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 92209999900 शलाका (सुरमा लगाने की सींक) आदि को भी ग्रहण कर लेती (जानती, देखती), (किन्तु a ऐसा नहीं होता, नेत्र अपने ही मल को, काजल को देख नहीं पाती)। . (हरिभद्रीय वृत्तिः) / आह- नायना मरीचयो निर्गत्य तमर्थं गृह्णन्ति, ततश्च तेषां तैजसत्वात् / सूक्ष्मत्वाचानलादिसंपर्के सत्यपि दाहाद्यभाव इति, प्राक् प्रतिज्ञातयोरनुग्रहोपघातयोरप्य- . & भावप्रसाद् अयुक्तमेतत्, तदस्तित्वस्य उपपत्त्या ग्रहीतुमशक्यत्वाच्च ।व्यवहितार्थानुपलब्ध्या " a तदस्तित्वावसाय इति चेत्, न।तत्रापि तदुपलब्धौ क्षयोपशमाभावात् व्यवहितार्थानुपलब्धिसिद्धेः। . आगममात्रमेवैतत् इति चेत्, नायुक्तिरप्यस्ति, आवरणाभावेऽपि परमाण्वादौ दर्शनाभावः, स: च तद्विपक्षयोपशमकृतः।यच्चोक्तम्- 'साध्यविकलो दृष्टान्तः' इति, तदप्ययुक्तम्, ज्ञेयमनसोः . संपर्काभावात्, अन्यथा हि सलिलकर्पूरादिचिन्तनादनुगृहोत, वह्निशस्त्रादिचिन्तनाचोपहन्येत, न चानुगृह्यते उपहन्यते वेति। आह-मनसोऽनिष्टविषयचिन्तनातिशोकात् दौर्बल्यम्, आर्तध्यानादुरोऽभिघातश्च 4 उपलभ्यते, तथेष्टविषयचिन्तनात्प्रमोदः, तस्मात्प्राप्तकारिता तस्येति।एतदप्ययुक्तम्, द्रव्यमनसा & अनिष्टेष्टपुद्गलोपचयलक्षणेन सकर्मकस्य जन्तोरनिष्टेष्टाहारेणेवोपघातानुग्रहकरणात्कयं प्राप्तविषयतेति। a (वृत्ति-हिन्दी-) (किसी पूर्वपक्षी की ओर से) (शंका-) (हम तो यह मानते हैं कि) 4 आंखों से किरणें निकलती हैं और वे जाकर उस (दृश्य) पदार्थ को ग्रहण (स्पृष्ट) करती हैं, . किन्तु चूंकि वे (किरणे) तैजस स्वभाव की, और सूक्ष्म होती हैं, इसलिए अग्नि आदि के . साथ संपर्क करने पर भी जलने आदि (उपघातादि) से रहित (सुरक्षित, अप्रभावित) रहा , करती हैं, (किन्तु नेत्र व पदार्थ का स्पर्श होता है, यह हम मानते हैं)। उत्तर- नेत्र में अनुग्रह / व उपघात होता है- आपने यह प्रतिज्ञा की थी, अर्थात् इसे आप सिद्ध करना चाहते थे, किन्तु , ca आपके कथन से तो उनका अभाव ही सिद्ध होने लगेगा, अतः आपका कथन युक्तियुक्त नहीं व है। दूसरी बात, युक्ति से यह बात सिद्ध नहीं होती कि उसका (अर्थात् आंखों की किरणें होती , & हैं, आदि आदि का) अस्तित्व है। (शंका-) नेत्र व्यवहित (दीवार आदि अवरोध से युक्त) पदार्थ " & को नहीं जान पाती, इसिलए यह मानना चाहिए कि उसका अस्तित्व है (अर्थात् नेत्र या नेत्रकिरणें जाकर पदार्थ को स्पृष्ट करती हैं, व्यवधान आने पर वे रुक जाती हैं, आगे नहीं जा / -888888888888888888888888888888888888888888888 - 68 (r)(r)ckeBR@@creece@9080@ce@@ -
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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