________________ SecemRRRRcace ග ග ග ග ග ග ග ග ග ල්ලා 333333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-13-15 संक्रमित होने के बाद उसे पुनः पूर्व स्थिति की प्राप्ति होती है। अर्थात् दो सदृश अवस्थाओं के बीच का & काल 'अन्तर' काल होता है। जैसे- एक जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर पुनः सम्यक्त्व की स्थिति प्राप्त करता है तो सम्यक्त्व च्युति का मध्यकाल या विरह-काल कितना, जघन्य या उत्कृष्ट हो सकता हैइसका निरूपण 'अन्तर' द्वार से किया जाता है। 'भाग' द्वार के अन्तर्गत यह स्पष्ट किया जाता है कि ? & कोई पदार्थ अन्य पदार्थों का कितने भाग-प्रमाण है। 'भाव' से तात्पर्य है- पदार्थ का अपने-अपने स्वभाव से परिणमन / जीव के औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक व पारिणामिक -ये , & पांच भाव मुख्य हैं। प्रकृत प्रसंग में इन्हीं भावों में ज्ञान या ज्ञानी के सद्भाव का निरूपण 'भाव' द्वार ca के माध्यम से किया गया है। पदार्थों के परस्पर न्यूनाधिक-अल्पाधिक भाव ही 'अल्पबहुत्व' हैं। ca पदार्थों के किसी एक परिणाम का निर्णय हो जाने पर उनकी परस्पर विशेष प्रतिपत्ति (ज्ञान) के लिए अल्पबहुत्व का आधार लिया जाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव आदि निक्षेपों की अपेक्षा अल्पबहुत्व के अनेक भेद सम्भव हैं। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीं प्रागुपन्यस्तगाथाद्वयेन आभिनिबोधिकस्य सत्पदप्ररूपणाद्वारा अवयवार्थः / प्रतिपाद्यते।कथम्?, अन्विष्यते 'आभिनिबोधिकज्ञानं किमस्ति नास्तीति।' अस्ति, यद्यस्ति / क्व तत् ?, तत्र ‘गताविति'। गतिमङ्गीकृत्यालोच्यते / सा गतिश्चतुर्विधा नारकतिर्यड्नरामरभेदभिन्ना।तत्र चतुष्प्रकारायामपि गतौ आभिनिबोधिकज्ञानस्य पूर्वप्रतिपन्ना : 6 नियमतो विद्यन्ते, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्याः, कदाचिद्भवन्ति कदाचिन्नेति।तत्र ca प्रतिपद्यमाना अभिधीयन्ते ते ये तत्प्रथमतयाऽऽभिनिबोधिकं प्रतिपद्यन्ते, प्रथमसमय एव, ca शेषसमयेषु तु पूर्वप्रतिपन्ना एव भवन्ति (1) / ca (वृत्ति-हिन्दी-) अब पूर्व में प्रस्तुत दो (कुल तीन) गाथाओं के द्वारा आभिनिबोधिक " a ज्ञान की 'सत्पदप्ररूपणा' करते हुए गाथा का अवयवार्य (गति आदि प्रत्येक द्वार के अनुसार) प्रतिपादित किया जा रहा है। (उत्तर-) किस रीति से? (उत्तर-) जैसे, यह अन्वेषणा करना , कि आभिनिबोधिक ज्ञान है कि नहीं है? यदि है तो वह कहां-कहां है (आदि)। (1) अब इन 5 a (गति आदि 20 द्वारों) में 'गति' -इस (द्वार) को अंगीकार कर आलोचना की जा रही है। . वह गति नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव -इन भेदों के कारण चार प्रकार की है। इन चारों . प्रकार की गतियों में आभिनिबोधिक ज्ञान के पूर्वप्रतिपन्न (पहले से ही इस ज्ञान से युक्त) >> / नियमतः विद्यमान हैं। जो प्रतिपद्यमान, अर्थात् जो यह ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, वे (छद्मस्थ हैं | (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)R@ 107