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________________ 833222222222333333222333333333333333333333333 aaaaaaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 (वृत्ति-हिन्दी-) द्वितीय (70वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है-जिनके 'चरण' में c& अतिशय (चमत्कार) हुआ करता है, अर्थात् जिनकी गति अतिशययुक्त (चमत्कारयुक्त) हुआ >> करती है, वे 'चरण' होते हैं। वे दो तरह के होते हैं- (1) विद्याचारण, और (2) जंघाचारण। : इनमें जंघाचारण (ऋद्धिधारी) अपनी सामर्थ्य से रुचकवर द्वीप तक जाने की शक्ति रखता : व है। वह एक ही 'उछाल' से रुचकवर द्वीप पर पहुंच जाता है, (किन्तु) आते हुए दो ‘उछाल', ce द्वारा आ पाता है, प्रथम 'उछाल' से नन्दीश्वर पर, दूसरी उछाल से जहां से चला था, पहुंच , 4 जाता है। इसी प्रकार, ऊपर की ओर भी, एक उछाल से ही मेरु पर्वत पर स्थित पाण्डुक वन " ca पर पहुंच जाता है, आते हुए उसे दो उछाल लेनी पड़ती है, पहली उछाल से नन्दन वन पर, और दूसरी उछाल से उसी पूर्व स्थान पर जहां से वह चला था। (हरिभद्रीय वृत्तिः) विद्याचारणस्तु नन्दीश्वरद्वीपगमनशक्तिमान् भवति।सत्वेकोत्पातेन मानुषोत्तरं गच्छति, . द्वितीयेन नन्दीश्वरम्।तृतीयेन त्वेकेनैवाऽऽगच्छति यतो गतः। एवमूर्ध्वमपि व्यत्ययो वक्तव्य , a इति।अन्ये तु शक्तित एव च्चकवरादिद्वीपमनयोर्गोचरतया व्याचक्षत इति। ___ तथा आस्यो-दंष्ट्राः, तासु विषमेषामस्तीति आसीविषाः, ते च द्विप्रकारा भवन्ति-- a जातितः कर्मतश्च, तत्र जातितो वृश्चिकमण्डूकोरगमनुष्यजातयः।कर्मतस्तु तिर्यग्योनयः मनुष्या , & देवाश्चासहस्रारादिति।एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणतः खल्वासीविषा भवन्ति, देवा . & अपि तच्छक्तियुक्ता भवन्ति, शापप्रदानेनैव व्यापादयन्तीत्यर्थः।तथा केवलिनश्च प्रसिद्धा एव। " तथा मनोज्ञानिनो विपुलमनःपर्यायज्ञानिनः परिगृह्यन्ते। पूर्वाणि धारयन्तीति पूर्वधराः, : दशचतुर्दशपूर्वविदः। अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः तीर्थकरा इत्यर्थः। / 'चक्रवर्तिनः' चतुर्दशरत्नाधिपाः षट्खण्डभरतेश्वराः। 'बलदेवाः' प्रसिद्धा एव। 'वासुदेवाः' / 4 सप्तरत्नाधिपा अर्धभरतप्रभव इत्यर्थः।एते हि सर्व एव चारणादयो लब्धिविशेषा वर्तन्ते इति " गाथार्थः // 70 // __ (वृत्ति-हिन्दी-) विद्यारण की (तो) नन्दीश्वर द्वीप तक जाने की सामर्थ्य होती है। " वह एक उछाल से मानुषोत्तर पर्वत तक और तीसरी एक ही उछाल से जहां से चला था, वहां - G आ जाता है। इसी प्रकार, ऊपर की ओर भी (जंघाचारण की तुलना में) विपरीत क्रम कहना , - चाहिए (अर्थात् एक उछाल से नन्दन वन पर, लौटते हुए एक उछाल से पाण्डुक वन पर और / - 276 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)cr@ne
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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