________________ 2222222 &&&&& a -aaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) nnnnnnn . अच्युत कल्प से सम्बन्धित देव भी देखते हैं। यह स्वरुपकथन मात्र ही है, (वस्तुतः) वे ca (आरण-अच्युत वासी देव) अपेक्षाकृत अधिकता (अधिक पर्यायों के साथ) व अधिक निर्मलता- . + स्पष्टता से देखते हैं। यह गाथा का अर्थ हुआ // 49 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) तृतीयगाथा व्याख्यायते-लोकपुरुषग्रीवास्थाने भवानि अवेयकानि (णि) विमानानि। तत्र अधस्त्यमध्यमौवेयकनिवासिनो देवा अधस्त्यमध्यमगवेयकाः, ते हि षष्ठी पृथिवीं , तमोऽभिधानामवधिना पश्यन्तीति योगः।तथा सप्तमी च पृथिवीमुपरितनौवेयकनिवासिन , इति।तथा संभिन्नलोकनाडीम् चतुर्दशरज्ज्वात्मिकां कन्यकाचोलकसंस्थानामवधिना पश्यन्ति, अनुत्तरविमानवासिनोऽनुत्तराः, तत्र एकेन्द्रियादयोऽपि भवन्ति तद् व्यवच्छेदार्थमाह- 'देवाः'। एवं क्षेत्रानुसारतो द्रव्यादयोऽप्यवसेयाः इति गाथार्थः // 10 // (वृत्ति-हिन्दी-) तीसरी (50वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है- लोकपुरुष के . ग्रीवा-स्थान में स्थित होते हैं, इसलिए वे ग्रैवेयक विमान कहलाते हैं। इनमें निचले व मध्यम, स्थानीय अवेयक (विमानों) में रहने वाले देव हुए -अधस्तन व मध्यम अवेयक, वे तमःप्रभा 1 ca नामक छठी पृथ्वी को अवधिज्ञान से देखते हैं। अनुत्तर-वैमानिक देव ही 'अनुत्तर देव' हैं। . उन विमानों में एकेन्द्रिय आदि जीव भी रहते हैं, इसलिए उनके निराकरण हेतु 'देव' . विशेषण लगाया गया है। वे अनुत्तर देव अपने अवधिज्ञान से चौदह राजू ऊंची एवं कन्या की , चोली जैसे विन्यास वाली समस्त लोकनाड़ी को देखते हैं। इसी प्रकार, क्षेत्रानुसार द्रव्य आदि / (प्रमेयों) को भी समझ लेना चाहिए (अर्थात् अवधिज्ञानी जिस पृथ्वी को देखते हैं, वहां के / द्रव्य आदि को भी जानते हैं)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 50 // / (हरिभद्रीय वृत्तिः) एवमधो वैमानिकावधिक्षेत्रप्रमाणं प्रतिपाद्य साम्प्रतं तिर्यगूर्वं च तदेव दर्शयन्नाह (नियुक्तिः) एएसिमसंखिज्जा, तिरियं दीवा य सागरा चेव। बहुअअरं उवरिमगा, उडं सगकप्पथूभाई॥५१॥ [संस्कृतच्छायाः-एतेषामसंख्येयाः तिर्यक् द्वीपाश्च सागराः वैव।बहुकतरम् उपरिमकाः ऊर्ध्व च / स्वकल्प-स्तूपादीन् // ] - 232 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) / 2333333333333