________________ Rance cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 &&&&&&&&&&& -333333333333333333333333333333332223333333223 (नियुक्ति-अर्थ-) (श्रोत्रेन्द्रिय) शब्द को स्पृष्ट सुनती है, किन्तु नेत्र इन्द्रिय रूप को , & अस्पृष्ट होकर (ही) देखती है। गन्ध, रस व स्पर्श को (घ्राण आदि इन्द्रियां) स्पृष्ट एवं बद्ध : & (आत्मसात्कृत) होकर जानती हैं- इस प्रकार व्याख्यान करना चाहिए। & (हरिद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) आह-ननु व्यञ्जनावग्रहनिरूपणाद्वारेण श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयता , प्रतिपादितैव, किमर्थं पुनरयं प्रयास इति? उच्यते, तत्र प्रक्रान्तगाथाव्याख्यानद्वारेण प्रतिपादिता। , & साम्प्रतं तु सूत्रतः प्रतिपाद्यत इत्यदोषः। तत्र 'स्पृष्टम्' इत्यालिङ्गितम्, तनौ रेणुवत्, शृणोति / गृह्णाति उपलभत इति पर्यायाः।कम्?-शब्द्यतेऽनेनेति शब्दः तं शब्दप्रायोग्यं द्रव्यसंघातम्। 1 इदमत्र हृदयम् -तस्य सूक्ष्मत्वात् भावुकत्वात् प्रचुरद्रव्यरूपत्वात्, श्रोत्रेन्द्रियस्य चान्येन्द्रियगणात्प्रायः पटुतरत्वात् स्पृष्टमात्रमेव शब्दद्रव्यनिवहं गृह्णाति।रूप्यत इति रूपम्, , ca तद्रूपंपुनः, पश्यति गृह्णति उपलभत इत्येकोऽर्थः, अस्पृष्टमनालिजितं गन्धादिवन्न संबद्धमित्यर्थः। (वृत्ति-हिन्दी-) (व्याख्या-) (शंका-) व्यञ्जनावग्रह सम्बन्धी निरूपण के माध्यम " & से श्रोत्र आदि इन्द्रियों की प्राप्तविषयता या अप्राप्तविषयता का प्रतिपादन कर ही दिया गया है। " a [अर्थात् पिछली गाथा-3 की व्याख्या में यह बता दिया गया है कि नेत्र व मन -ये दो . & प्राप्तकारी हैं, शेष इन्द्रियां नहीं हैं।] तो फिर उसी के लिए यह प्रयास पुनः क्यों किया जा रहा , & है? उत्तर दे रहे हैं- उक्त प्रतिपादन पिछली गाथा के व्याख्यान में किया गया है इसलिए अब इस (गाथा) रूप से उसका प्रतिपादन किया जा रहा है, अतः कोई दोष नहीं है। यहां 'स्पृष्ट' a का अर्थ है- जिस प्रकार शरीर पर धूल (कण) स्पृष्ट होते हैं (शरीर के प्रत्येक प्रदेश पर छा , ल जाते हैं), उसी तरह आलिंगित (परस्पर-सम्बद्ध, आषिष्ट)। 'सुनती है' -ग्रहण करती है, & उपलब्ध करती है, ये तीनों (श्रवण, शब्द-ग्रहण, शब्द-उपलब्धि) पर्याय हैं (एक ही अर्थ को " & व्यक्त करते हैं)। किसको (श्रोत्र-इन्द्रिय) सुनती है? (उत्तर-) शब्द को, जो शब्दित होता है & उसे, अर्थात् शब्द रूप में परिणत होने की योग्यता वाले पौगलिक द्रव्य-समूह को सुनती है, , ग्रहण करती है, उपलब्ध करती है। तात्पर्य यह है- चूंकि शब्द रूप से परिणमनयोग्य द्रव्य-समूह सूक्ष्म, भावुक एवं प्रचुर द्रव्यरूप होता है, और श्रोत्रेन्द्रिय भी अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक पटु (सक्षम) होती - 58 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) /