________________ &&&&&&&&&&&& Racecacee श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 200000 | आदि लाभ की दृष्टि से प्रतिपद्यमान भी होते हैं, क्योंकि क्रियाकाल व निष्ठाकाल (कालनिष्पत्तिकाल) -इन दोनों कालों में अभेद (हमें स्वीकार्य) है। मनःपर्ययज्ञानी तो , ch पूर्वप्रतिपन्न ही होते हैं, प्रतिपद्यमान नहीं, क्योंकि वह ज्ञान भावयति के ही उत्पन्न होता है। & 'केवली' में तो पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -इन दोनों का अभाव होता है। मति आदि अज्ञान * वाले जीव न पूर्वप्रतिपन्न हैं और न ही प्रतिपद्यमान, क्योंकि प्रतिपत्ति की क्रिया के समय मति ce आदि अज्ञान नहीं होता, और क्रियाकाल व निष्ठा-काल में (हमें) अभेद (स्वीकार्य) है और " ce अज्ञान होने पर प्रतिपत्ति-क्रिया सम्भव नहीं होती। विशेषार्थ आत्मा का लक्षण ‘उपयोग' है। उपयोग का अर्थ है- बोधात्मक व्यापार। यह चैतन्य का cm अनुविधायी (सहवर्ती) परिणाम है। उपयोग के दो रूप हैं- ज्ञान व दर्शन / सामान्य-विशेषात्मक वस्तु ce के सामान्य स्वरूप को विषय करने वाला 'दर्शन' है और विशेष स्वरूप को विषय करने वाला 'ज्ञान' . है। 'दर्शन' निराकार ज्ञान है तो ज्ञान साकार उपयोग है। साकार का अर्थ है- सविकल्प, अनाकार , ca का अर्थ है- निर्विकल्प / जो उपयोग सामान्य अंश को ग्रहण करता है, वह निर्विकल्प है। दार्शनिकों , ce की भाषा में सामान्य विशेषात्मक बाह्य पदार्थ को ग्रहण करने वाला आत्मीय विशेष गुण 'ज्ञान' है। & वस्तुतः एक चैतन्य या उपयोग के ही विषय-भेद के आधार पर दिये गए ये दो नाम हैं। आत्मग्रहण " & में प्रवृत्त चैतन्य (उपयोग) 'दर्शन' है तो परपदार्थ-ग्रहण में प्रवृत्त 'ज्ञान' है। पदार्थबोध के क्षेत्र में दोनों , ही परस्पर अनुबद्ध हैं। ज्ञान के पांच मुख्य भेद हैं- मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल (ज्ञान)।मिथ्यात्वयुक्त ल होने पर मति, श्रुत व अवधि -ये तीनों अज्ञान रूप भी होते हैं। मनःपर्यायं ज्ञान व केवल ज्ञान c& सम्यक्त्व के सद्भाव में ही होते हैं, इसलिए इन दोनों के 'अज्ञान' नहीं होते। उक्त पांच ज्ञान तथा उक्त " ca तीन अज्ञान- इन्हें मिलाकर आठ ‘सामान्य ज्ञान' के रूप में यहां ग्राह्य हैं। 'ज्ञान' द्वार के निरूपण में भी व्यवहार व निश्चय नय (की दृष्टियों) को सामने रख कर पांच " प्रकार के ज्ञानियों में आभिनिबोधिक ज्ञान की दृष्टि से पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -इन दोनों प्रकार , के जीवों का सद्भाव किस प्रकार है- इसका निरूपण किया गया है। व्यवहार नय का निष्कर्ष कथन / ce यह है कि मति आदि पांच ज्ञानियों में आभिनिबोधिक ज्ञान के पूर्वप्रतिपन्न तो होते हैं, प्रतिपद्यमान " & नहीं, क्योंकि इस मत में वहां मति ज्ञान की प्रतिपत्ति का योग होता नहीं। केवली' चूंकि क्षायोपशमिक ज्ञान से अतीत हैं, अतः वहां पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -इन दोनों का ही सद्भाव नहीं है। मति 118 118 89@c(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 3888888888888888