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________________ - ReceRecence नियुक्ति-गाथा-13-15 000000000 अज्ञान, श्रुत-अज्ञान व विभंग ज्ञान (अवधि-अज्ञान)-इन तीनों ज्ञान के धारकों में कभी प्रतिपद्यमान ce तो होते हैं, किन्तु प्रतिपन्न नहीं होते हैं। इसके विपरीत, निश्चय नय का निष्कर्ष कथन यह है कि चूंकि , ज्ञानी द्वारा ही ज्ञान की प्रतिपत्ति की जाती है, अतः मति-श्रुत-अवधि-ज्ञानी के धारक में पूर्वप्रतिपन्न / तो नियमतः होते हैं, प्रतिपद्यमान की भजना है। मनःपर्यय ज्ञान के धारकों में पूर्वप्रतिपन्न ही होते हैं, 0 & प्रतिपद्यमान नहीं होते, क्योंकि पूर्वसम्यक्त्व की उपलब्धि के समय प्रतिपन्न मतिज्ञान के ही अनन्तर, 9 a अन्त्य अवस्था में मनःपर्यय ज्ञान होता है। केवलियों में तो दोनों -पूर्वपतिपन्न व प्रतिपद्यमान-का , 6 अभाव है। इसी तरह, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान व विभंग ज्ञान के धारकों में दोनों का अभाव है, ca क्योंकि ज्ञानी को ही ज्ञान की प्रतिपत्ति होनी मानी गई है। 333333333333333333333333333333333333333333 (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीं 'दर्शनद्वारम्'।तद्दर्शनं चतुर्विधम्, चक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदभिन्नम्। तत्र चक्षुर्दर्शनिनः अचक्षुर्दर्शनिनश्च।किमुक्तं भवति? -दर्शनलब्धिसम्पन्नाः, न तु दर्शनोपयोगिन इति, सनाओलद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स उप्पज्जइ' [सा अपिलब्धयः साकारोपयोगउपयुक्तस्य उपपद्यन्ते] इति वचनात् / पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु . विवक्षितकाले भाज्याः। अवधिदर्शनिनस्तु पूर्वप्रतिपन्ना एव, न तु प्रतिपद्यमानकाः। * केवलदर्शनिनस्तूभयविकला इति (10) / संयत इति द्वारम्' ।संयतः पूर्वप्रतिपन्नोन प्रतिपद्यमान " इति (11) / 'उपयोगद्वारम् / स च द्विधा- साकारोऽनाकारश्च। तत्र साकारोपयोगिनः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति प्रतिपद्यमानास्तुविवक्षितकाले भाज्या इति।अनाकारोपयोगिनस्तु, पूर्वप्रतिपन्ना एव न प्रतिपद्यमानकाः (12) / (वृत्ति-हिन्दी-) (10) अब 'दर्शन' द्वार का कथन किया जा रहा है। दर्शन चार : प्रकार का है- चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवल दर्शन। इनमें चक्षुर्दर्शन वाले और अचक्षुर्दर्शन वाले (आभिनिबोधिक-ज्ञानी) जीव से क्या तात्पर्य है? (चूंकि साकार व a अनाकार उपयोग का युगपद् सद्भाव नहीं होता, अतः ऐसा मानना चाहिए कि ये दर्शनोपयोग१ युक्त नहीं, अपितु दर्शनलब्धि सम्पन्न हैं, क्योंकि 'समस्त लब्धियां साकार उपयोग वाले के ही , होती हैं' -ऐसा शास्त्रीय वचन है। इस प्रकार, इनमें नियम से 'पूर्वप्रतिपन्न होते हैं, . प्रतिपद्यमान का सद्भाव तो विवक्षित समय के अनुरूप विकल्पं से कथनीय है। अवधिदर्शनी में (अवधिदर्शनोपयोग-युक्त तो 'पूर्वप्रतिपन्न' ही होते हैं और प्रतिपद्यमान नहीं होते हैं (क्योंकि " | साकार उपयोग वाले के ही मतिज्ञान की उत्पत्ति सम्भव है, अनाकारोपयोग दर्शन वाले के / (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 119 888888888888888888888888888888888888
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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