________________ -RRRRRRRece 2090090090090 33333333333332.3323333333333333333333333333333 - नियुक्ति गाथा-13-15 (हरिभद्रीय वृत्तिः) . 'परीत्त' इति द्वारम्।तत्र परीत्ताः प्रत्येकशरीरिणः।ते पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्या इति, साधारणास्तु उभयविकला इति (15) / पर्याप्तक' & इति द्वारम् / तत्र षड्भिराहारादिपर्याप्तिभिर्ये पर्याप्तकाः, ते पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो विद्यन्ते, , & विवक्षितकाले प्रतिपद्यमानास्तु भजनीया इति।अपर्याप्तकास्तु षट्पर्याप्त्यपेक्षया पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, न त्वितरे (16) / (वृत्ति-हिन्दी-) (15) अब 'परीत्त' द्वार का निरूपण किया जा रहा है। यहां 'परीत्त' से तात्पर्य है- प्रत्येकशरीरी। वे नियम से पूर्वप्रतिपन्न होते हैं, प्रतिपद्यमान का सद्भाव तो विवक्षित समय के अनुरूप, विकल्प से कथनीय है। साधारणशरीर जीवों में तो पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -इन दोनों का अभाव है। (16) अब ‘पर्याप्तक' द्वार का निरूपण किया जा & रहा है। यहां आहार (एवं शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा, मन) आदि छः पर्याप्तियों से , जो पर्याप्त (संपन्न) हैं, वे ही 'पर्याप्तक' कहलाते हैं। वे (पर्याप्तक) नियम से पूर्वप्रतिपन्न होते . ce हैं (क्योंकि संझी पंचेन्द्रियों में छहों पर्याप्तियां होती ही हैं) विवक्षित समय की दृष्टि से 20 ल प्रतिपद्यमान का सद्भाव विकल्प से कथनीय है। अपर्याप्तक छहों पर्याप्तियों की अपेक्षा से & पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं, प्रतिपद्यमान नहीं। विशेषार्थ- परीत्त का अर्थ किया गया है- प्रत्येकशरीरी जीव / एकेन्द्रिय वनस्पतिकाय के जीव दो " प्रकार के होते हैं- साधारण व प्रत्येक / एक शरीर में अनन्त जीव जिसमें होते हैं, वे साधारणशरीरी , हैं और जहां एक शरीर में एक ही जीव होता है, वह प्रत्येकशरीरी होता है। प्रत्येक-वनस्पति जीवों के . शरीर-पृथक्-पृथक् होते हैं। प्रत्येकशरीरी जीव अपने शरीर का निर्माण स्वयं करता है। उनमें , ca पराश्रयता भी होती है। एक घटक जीव के आश्रय में असंख्य जीव पलते हैं। वृक्ष के घटक बीज में & एक जीव होता है। उसके आश्रय में पत्र, पुष्प और फूल के असंख्य जीव उपजते हैं। बीजावस्था के . सिवाय वनस्पति-जीव संघातरूप में रहते हैं। श्लेष्म-द्रव्य-मिश्रित सरसों के दाने अथवा तिलपपड़ी के तिल एक-रुप बन जाते हैं। तब भी उनकी सत्ता पृथक्-पृथक् रहती है। प्रत्येक वनस्पति के शरीरों की भी यही बात है। शरीर की संघात-दशा में भी उनकी सत्ता स्वतन्त्र रहती है। साधारण वनस्पति जीवों " ca की भांति प्रत्येक वनस्पति का एक-एक जीव लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रखा जाए तो ऐसे . असंख्य लोक बन जाएं। यह लोक असंख्य आकाश प्रदेश वाला है, ऐसे असंख्य लोकों के जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उतने प्रत्येक शरीरी वनस्पति जीव हैं। Recen@cBRORSCR8080808890 123