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________________ -333333333333333333333332222222222222222223322 -acaca cace cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2000000 (हरिभद्रीय वृत्तिः) अधुना 'आहारकद्वारम्'।आहारकाः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु, विकल्पनीया विवक्षितकाल इति।अनाहारकास्तु अपान्तरालगतौ पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, न तु प्रतिपद्यमानका इति (१३)।तथा 'भाषक' इति द्वारम् / तत्र भाषालब्धिसंपन्ना भाषकाः, ते " * भाषमाणा अभाषमाणा वा पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्तिः, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले . & भजनीया इति, तल्लब्धिशून्याश्चोभयविकला इति (14) / (वृत्ति-हिन्दी-) (13) अब 'आहारक' द्वार का निरूपण किया जा रहा है। आहारक, जीव नियम से 'पूर्वप्रतिपन्नक' होते हैं। उन (आहारकों) में प्रतिपद्यमान का सद्भाव विवक्षित काल के अनुरूप विकल्प से कथनीय है। अनाहारक अपान्तराल गति में पूर्वप्रतिपन्न हो , 4 सकते हैं, प्रतिपद्यमान नहीं। (14) अब 'भाषक' द्वार का कथन कर रहे हैं। यहां भाषक का " अर्थ है- भाषालब्धिसम्पन्न / वे बोल रहे हों या नहीं बोल रहे हों, नियम से पूर्वप्रतिपन्नक होते , & हैं, प्रतिपद्यमान का सद्भाव विवक्षित समय के अनुरूप विकल्प से कथनीय है। भाषालब्धि से रहित जीवों में (पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -इन) दोनों का अभाव है। विशेषार्थ औदारिक, वैक्रिय व आहारक -इनमें से यथासम्भव किसी भी शरीर के योग्य, तथा : 8 आहार आदि छः पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करना 'आहार' कहलाता है। किन्तु यहां c'आहारक' से तात्पर्य उन जीवों से है जो ओज, लोम और कवल -इन तीनों में से किसी भी प्रकार " & के आहार को ग्रहण करता है। गर्भ में उत्पन्न होने के समय जो शुक्र-शोणित रूप आहार कार्मण शरीर द्वारा किया जाता है, वह ओज आहार है। स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा जो ग्रहण किया.जाता है, वह रोम ce या लोम आहार है, और जो अन्न आदि के रूप में मुख द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह कवल-आहार ce है। इन तीनों आहारों में से जो कोई भी ग्रहण नहीं करता, वह अनाहारक है।आहारकों में मति ज्ञान & के प्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान -इनका सद्भाव साकारोपयोग की तरह कथनीय है। अनाहारक जीवों की अपान्तराल गति में पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं, प्रतिपद्यमान तो किसी भी तरह नहीं। यहां अपान्तराल गति से तात्पर्य है- एक भव से दूसरे भव को प्राप्त करने के मध्य की गति। भाषक यानी भाषालब्धि सम्पन्न / ऐसा जीव भाषा बोल रहा भी हो सकता है, नहीं भी बोल c रहा होता है। दोनों ही स्थितियों में मतिज्ञान प्राप्त करते समय, पूर्वप्रतिपन्न हो भी सकता है और नहीं " भी हो सकता। भाषा-लब्धि से रहित जीवों में, अर्थात् एकेन्द्रिय जीवों में, पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान -दोनों ही नहीं होते। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) - 122
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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