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________________ &&&&&&&&&&& &&&& cacacaceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और a मन पर्याप्ति -ये छः पर्याप्तियां हैं (भाषा व मन पर्याप्ति को एक मान कर पांच पर्याप्तियां भी मानी गई हैं)। इन छः पर्याप्तियों का प्रारम्भ युगपत् होता है, क्योंकि जन्म समय से लेकर ही इनका cr अस्तित्व पाया जाता है, किन्तु पूर्णता क्रम से होती है। सर्वप्रथम आहार पर्याप्ति पूर्ण होती है, बाद में ca क्रमशः शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा व मन पर्याप्तियां पूर्ण होती हैं। संज्ञी पञ्चेन्द्रियों को , 4 छोड़कर अन्य जीवों में सभी पर्याप्तियां होती हैं। पर्याप्त जीवों में गृहीत पुद्गलों को आहार आदि रूप से परिणत करने की शक्ति होती है, और अपर्याप्त जीवों में इस प्रकार की शक्ति नहीं होती। पर्याप्तक ca के दो प्रकार भी हैं- लब्धिपर्याप्त और करणपर्याप्त। लब्धिपर्याप्त वे हैं जिनके पर्याप्त नाम कर्म का ca उदय हो, वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरते हैं, पहले नहीं। जिसने शरीर पर्याप्ति पूर्ण कर ली है, किन्तु इन्द्रिय-पर्याप्ति पूर्ण नहीं की है, वह भी करण-अपर्याप्त कहा जाता है। वह शरीर << पर्याप्ति पूर्ण करने से करण पर्याप्त भी है और इन्द्रिय पर्याप्ति की अपूर्णता से करण-अपर्याप्त भी है। ca दिगम्बर साहित्य में करण-अपर्याप्त की जगह निवृत्ति-अपर्याप्त शब्द व्यवहृत हुआ है। प्रस्तुत प्रकरण CG में पर्याप्त पद से वे जीव ग्राह्य हैं जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करते हैं, और अपर्याप्त वे हैं जो उसे C पूर्ण न करें। इस दृष्टि से जो पर्याप्त हैं, उन में (अर्थात् छहों पर्याप्तियों से पूर्ण जीवों में) नियमतः ce पूर्वप्रतिपन्न होते हैं, किन्तु प्रतिपद्यमान होते भी हैं और नहीं भी होते हैं। अपर्याप्तकों में छहों . पर्याप्तियों की अपेक्षा से पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं, अन्य (प्रतिपद्यमान) नहीं। ' ca (हरिभद्रीय वृत्तिः) & 'सूक्ष्म' इति द्वारम्।तत्र सूक्ष्माः खलुभयविकलाः। बादरास्तु पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः // & सन्ति, इतरे तु विवक्षितकाले भाज्या इति (१७)।तथा संज्ञिद्वारम्'।तत्रेह दीर्घकालिक्युपदेशेन , व संज्ञिनः प्रतिगृह्यन्ते, ते च बादरवद्वक्तव्याः।असंज्ञिनस्तु पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, न वितर. & इति (18) / _ 'भव' इति द्वारम् / तत्र भवसिद्धिकाः संज्ञिवद्वक्तव्याः अभवसिद्धिकास्तूभयशून्या : इति (19) / 'चरम' इति द्वारम्।चरमो भवो भविष्यति यस्यासौ अभेदोपचाराच्चरम इति।तत्र , & इत्थंभूताः चरमाः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, इतरे तु भाज्याः।अचरमास्तूभयविकलाः / ca ()।उत्तरार्धं तु व्याख्यातमेव।कृता सत्पदप्ररूपणेति। (वृत्ति-हिन्दी-) (17) 'सूक्ष्म' द्वार से निरूपण किया जा रहा है। यहां सूक्ष्म जीवों में " दोनों (पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान) का अभाव है। बादर जीवों में नियम से पूर्वप्रतिपन्न होते (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) - 124
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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