SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ / 8 & 222222233333333333333322222223333333333333333 -acaca cace caca cacR नियुक्ति गाथा-13-15 000000000 . हैं, अन्य-(प्रतिपद्यमान) का सद्भाव तो विवक्षित समय के अनुरूप विकल्प से कथनीय है। & (18) अब 'संज्ञी' द्वार से निरूपण किया जा रहा है। यहां दीर्घकालिक उपदेश की अपेक्षा से - & 'संज्ञी' का ग्रहण समझना चाहिए। उनका कथन 'बादर' की तरह करणीय है। असंज्ञियों में , & पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं, अन्य (प्रतिपद्यमान) नहीं। (19) 'भव' द्वार से निरूपण किया जा रहा है- भवसिद्धिक (भव्य) जीवों का : कथन संज्ञी जीवों की तरह करणीय है। अभवसिद्धिक (अभव्य) जीवों में दोनों (पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान) का अभाव है। (20) अब ‘चरम' द्वार से निरूपण किया जा रहा हैं। यहां भव / आ और भव वाले -इन दोनों में अभेदोपचार किया गया है (और 'भव' से भवयुक्त का ग्रहण , ब है), अतः चरम पद से 'जिसका चरम भव होगा' वह ग्राह्य है। ऐसे 'चरम' जीवों में नियमतः व पूर्व-प्रतिपन्न होते हैं, प्रतिपद्यमान तो भजना से कथनीय हैं। अचरम जीव तो (न पूर्वप्रतिपन्न - व होते हैं और न ही प्रतिपद्यमान, अतः) दोनों से रहित होते हैं। इस प्रकार, (15वीं) गाथा के उत्तरार्ध की व्याख्या पूरी हुई। सत्पद-प्ररूपणा (भी) पूरी हुई। & विशेषार्थर सूक्ष्म व बादर-एकेन्द्रिय के सूक्ष्म और बादर यह दो भेद माने गये हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर " & पंचेन्द्रिय तक के जीव तो बादर (स्थूल) शरीर वाले ही होते हैं और वे आंखों से भी दिखाई देते हैं, . लेकिन एकेन्द्रिय जीवों के सूक्ष्म और बादर यह दो भेद मानने का कारण यह है कि सूक्ष्म शरीर वाले , एकेन्द्रिय जीव तो आंखों से नहीं देखे जा सकते हैं लेकिन उनका अस्तित्व ज्ञानगम्य है और बादर , शरीर वाले एकेन्द्रिय जीव ज्ञानगम्य होने के साथ-साथ आंखों से भी दिखलाई देते हैं। एकेन्द्रियों के सूक्ष्म और बादर शरीर की प्राप्ति सूक्ष्म और बादर नामकर्म के उदय से होती है है। सूक्ष्म नामकर्म स्थावर दशक और बादर नामकर्म त्रसदशक में मानी गई कर्म प्रकृति है। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जो सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है वह स्वयं न किसी से रुकता है / और न अन्य किसी को रोकता है। अर्थात् सूक्ष्म नामकर्म से प्राप्त शरीर परस्पर व्याघात से रहित है। यह शरीर अन्य जीवों के अनुग्रह या उपघात के अयोग्य होता है। यह अनुभवसिद्ध भी है। जिस प्रकार सूक्ष्म होने से अग्नि लोहे के गोले में प्रविष्ट हो जाती है, उसी प्रकार से सूक्ष्म नामकर्म से प्राप्त ca शरीर भी लोक के किसी भी प्रदेश में प्रविष्ट हो सकता है। &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce90090@@@ ____125 . 125
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy