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________________ (r)(r)ce@DBR890888908ck@DBR@@CR80@cRe0@ स्वकथ्य 33333333333333 ईस्वी सन् 2003 में अम्बाला शहर में वर्षावास के लिए " | दिल्ली से विहार यात्रा करते हुए मेरा एक दिन आत्मवल्लभ जैन, स्मारक (दिल्ली करनाल रोड़ पर स्थित) में ठहरना हुआ था। वहां 'भोगीलाल लेहरचन्द भारत भारती संस्थान' के माध्यम से जैन दर्शन व प्राकृत भाषा साहित्य के अध्ययन-अध्यापन एवं प्रचार-प्रसार का कार्य अनेक वर्षों से किया जा रहा है। वहां एक & सुन्दर व समृद्ध पुस्तकालय भी है जहां जैन दर्शन एवं साहित्य-अध्ययन की सुन्दर व्यवस्था है। " समय-समय पर अध्ययन शिविर एवं सेमिनार आदि के आयोजन भी वहां होते रहते हैं जिसमें दूर-दूर 2 के विद्यार्थी लाभान्वित होते हैं। पूर्व वर्षों की भांति, उस वर्ष भी वहां प्राकृत भाषा का 21 दिवसीय & ग्रीष्मकालीन शिक्षण शिविर चल रहा था। अध्यापन हेतु देश के उद्भट विद्वान् वहां आये हुए थे। मुझे , वहां उन गणमान्यों में प्रो. डॉ. दामोदर जी शास्त्री का साक्षात्कार हुआ। वे उपाश्रय के पीछे कमरे में ही , ठहरे थे। श्री शास्त्री जी से हुए प्रथम साक्षात्कार वार्तालाप में मैंने निश्चय किया कि ये मेरे लक्ष्य , & संकल्पपूर्ति में सहयोगी बन पायेंगे। मेरा लक्ष्य था- उन अमर साहित्यिक कृतियों को जो पूर्वाचार्यों, . a मुनियों व विद्वानों द्वारा प्रणीत हैं और जो प्राकृत गाथाओं, पाठों, चूर्णि, अवचूरि आदि के रूप में या , संस्कृत भाषा में टीका, भाष्य, टिप्पणी आदि के रूप में हस्तलिखित या मुद्रित रूप में हैं, उन्हें ca सुसम्पादित कर हिन्दी भाषा में प्रकाशित करना। मेरा मन्तव्य रहा है कि जैन-दर्शन-धर्म की विस्तृत " जानकारी के लिए इस युग में प्रचलित सर्वभोग्य प्रायोगिक भाषा एवं लिपि में उनका अनुवाद , प्रकाशित होकर जनता, मुमुक्षुओं, जिज्ञासुओं के हाथों में जाना अतीव अपेक्षित है। क्योंकि आज व संस्कृत और प्राकृत भाषा का पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन स्वल्प मात्र रह गया है और लोक " a भाषाओं का महत्त्व बढ़ गया है। तथापि उन सबकी अपेक्षा हिन्दी भाषा संस्कृत-प्राकृत भाषा-भाव को , प्रकट करने में अधिक सक्षम है। किन्तु हिन्दी अनुवाद के लिए मात्र प्राकृत-संस्कृत व्याकरण की / व विद्वत्ता ही नहीं, पूर्वापर प्रसंग, अन्य शास्त्रों, ग्रन्थों तथा उनके परम्परागत अर्थ, रूढार्थ, लौकिक " a समन्वय-सामञ्जस्य और धर्म-सिद्धान्त के अनुगम्य अर्थ को ही विशूषित कर उसे प्रस्तुत करने की , योग्यता, क्षमता का होना अनिवार्य है। ऐसी क्षमता वाले ही विद्वान् उन सैद्धान्तिक, आगमिक साहित्य a का अनुवाद कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, यह भी अपेक्षित है कि अनुवाद कार्य केवल शाब्दिक न " हो, वह भाषानुवाद ही नहीं, अपितु पारम्परिक सन्दर्भो से पुष्ट भी होना चाहिए। 888888888888888888888888888888888888888888888 मक Gaa (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce A.
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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