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________________ - Racecaceecece 909009009000 222333333333333333333333. नियुक्ति गाथा-7 | विच्छिन्न रत्न-पंक्ति की तरह हुआ करती है (अर्थात् एक रत्न के बाद दूसरे रत्न के मध्य में ca एक रत्नेतर होता है, उसी तरह एक ध्वनि के बाद दूसरी ध्वनि के मध्य एक 'समय' का " a व्यवधान होता है), (जो प्रत्यक्षविरुद्ध है और) इसमें सिद्धान्त-विरोध भी है; क्योंकि (आगम , में) कहा गया है- (वक्ता) प्रतिसमय अविरहित (बिना व्यवधान के) निरन्तर (भाषाद्रव्यों का) ग्रहण करता है। _ शंकाकार (पुनः) कहता है- किन्तु जो (आगम में) यह कहा गया है- “सान्तर विसर्जन करता है, निरन्तर नहीं, एक समय में ग्रहण करता है और एक समय में निसर्जन : व करता है" इत्यादि, उसकी संगति कैसे बैठाएंगें? (उत्तर) इसका उत्तर दे रहे हैं- यहां ग्रहण & की अपेक्षा निसर्ग को 'सान्तर' कहा गया है। कहने का तात्पर्य यह है- जिस प्रकार आदि & समय से लेकर प्रतिसमय ग्रहण होता है, उस तरह निसर्ग (मोचन) नहीं होता, क्योंकि आद्य . a (प्रथम) समय में (मात्र ग्रहण होता है) निसर्ग नहीं होता। (शंका-) निसर्ग की अपेक्षा ग्रहण की भी 'सान्तरता' सिद्ध होती है (अर्थात् गृहीत द्रव्यों का निसर्ग के विना जैसे ग्रहण नहीं होता, इसलिए ग्रहण की सान्तरता है, उसी तरह निसर्जन होने पर ही ग्रहण सम्भव है, . इसलिए ग्रहण की भी सान्तरता माननी चाहिए)। (उत्तर-) आपका कथन युक्तियुक्त नहीं, . क्योंकि उस (निसर्ग) की परतन्त्रता है (अर्थात् प्रथम समय में निसर्ग के बिना ग्रहण तो हो " ca जाता है, किन्तु निसर्जन तभी होता है जब पूर्व में कोई गृहीत हो)। चूंकि गृहीत हुए बिना " * निसर्ग नहीं होता, इसलिए पूर्व-पूर्व ग्रहण के समय की अपेक्षा से 'सान्तर' कथम किया गया है। इस प्रकार, एक समय में ग्रहण करता है और एक समय में निसर्जन करता है a (इसका तात्पर्य क्या है?) तात्पर्य यह है कि ग्रहण-समय के बाद ही, उक्त समय में गृहीत . समस्त (भाषा-द्रव्यों) को छोड़ता है। अथवा एक समय से ग्रहण करता ही है। जैसे, प्रथम समय में (ग्रहण करता ही है), और छोड़ता नहीं है। और एक समय में छोड़ता ही है, जैसे a अंतिम समय में, ग्रहण नहीं करता है, मध्य के समयों में तो ग्रहण व निसर्ग अर्थगम्य हैं ca (अर्थात् अर्थापत्ति से समझने योग्य हैं (अर्थात् ग्रहण और निसर्ग दोनों ही होते हैं, अन्यथा " * आद्य समय में ग्रहण ही होना, और अन्त्य समय में निसर्ग ही होना -इस अवधारण की असंगति हो जाएगी)। -888888888888888888888888888888888888888888888 333333 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)R@ne 79 -
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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